हेल्लो दोस्तों, इस लेख में दण्ड प्रक्रिया संहिता एंव संविधान के अन्तर्गत अभियुक्त के अधिकार/Rights of Accused अथवा गिरफ्तार व्यक्ति के क्या अधिकार है? Rights of Arrested Person in hindi का उल्लेख किया गया है|  उम्मीद है कि, यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा  –

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परिचय : अभियुक्त के अधिकार

भारत के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को कुछ मूल अधिकार दिए गए है जिनमें स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, गरिमा युक्त जीवन जीने का अधिकार आदि शामिल है। यानि सभी मनुष्य भारत के संविधान द्वारा दिए गए अपने अधिकारों के साथ पैदा होता है।

समाज में किसी भी व्यक्ति को उसके संविधान द्वारा दिए अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता चाहे उसे किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार किया गया हो। हमारी कानून प्रणाली में ‘जब तक व्यक्ति दोषी साबित न हो तब तक निर्दोष माना जाता है|

संविधान के अनुच्छेद (आर्टिकल) 21 में नागरिकों को प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता का मूल अधिकार दिया है जिस के अनुसार किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की प्रक्रिया निष्पक्ष एंव स्पष्ट होनी चाहिए तथा यह प्रक्रिया मनमानी या अत्याचारी नहीं होनी चाहिए।

कानून द्वारा प्रदत्त अभियुक्त के अधिकार

देश ऐसे बहुत से प्रकरण सामने आये जिनमे एक अभियुक्त को नैसर्गिक अधिकार मिलने की आवश्यकता महसूस की गई | इसलिए कानून द्वारा अभियुक्त व्यक्ति को ऐसे अनेक अधिकार दिए गए हैं, जो अधिकार अभियुक्त को बचाने के लिए नहीं बल्कि शासन की शक्तियों पर अंकुश लगाने एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को बनाये रखने के लिए है, जिनका क्रमवार उल्लेख किया गया है –

यह भी जाने  – प्राङ्न्याय का सिद्धान्त क्या है | प्राङ्न्याय के आवश्यक तत्त्वों की विवेचना। Section 11 of CPC

गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार

अभियुक्त व्यक्ति को अपने गिरफ्तार किये जाने के कारणों या आधारों को जानने का अधिकार है।

CrPC की धारा 50 के अनुसार – जब भी किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तब वह ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से अभियुक्त को तुरंत अवगत करायेगा। यदि अपराध जमानतीय है तब अभियुक्त को यह जानकारी दी जानी चाहिए की वह जमानत पर छोड़े जाने का हक़दार है|

स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम शोभाराम के प्रकरण में कहा गया है कि – अभियुक्त का यह अधिकार जमानत पर छूट जाने के बाद भी बना रहेगा (ए.आई. आर. 1966 एस.सी. 1910)

अधिवक्ता से मिलने का अधिकार

CrPC की धारा 41घ के अनुसार – गिरफ्तार किये गये अभियुक्त को पूछताछ के दौरान अपने पसन्द के अधिवक्ता से मिलने एवं परामर्श करने का अधिकार होगा, लेकिन सम्पूर्ण पूछताछ के दौरान नहीं।

नामित व्यक्ति को गिरफ्तारी की सूचना देने का अधिकार

CrPC की धारा 50क के अनुसार – गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि, वह ऐसी गिरफ्तारी की एवं उस स्थान की जहाँ उसे रखा गया है, सूचना अपने मित्रों, रिश्तेदारों, या किसी नामित व्यक्ति को दे। गिरफ्तार करने वाला पुलिस अधिकारी अभियुक्त द्वारा बताये व्यक्ति को सूचना देगा।

जमानत के अधिकार की सूचना पाने का अधिकार

धारा 50 के अनुसार – यदि किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध से अलग किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाता है तो ऐसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी का यह कर्त्तव्य होगा कि वह गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को इस आशय की सूचना देगा कि वह जमानत पर छूटने का हकदार है।

मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने का अधिकार

धारा 57 के अनुसार – गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय से 24 घंटे के भीतर नजदीकी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना आवश्यक है। 24 घंटे की इस अवधि में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट तक पहुँचने में यात्रा में लगा समय सम्मिलित नहीं होगा।

इस धारा का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को विचारण के लिए सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष कम से कम समय में उपस्थित किया जाना है|

चिकित्सीय परीक्षण का अधिकार (धारा 54)

धारा 54 के तहत अभियुक्त को अपना चिकित्सीय परीक्षण (Medical Examination) कराने का अधिकार दिया गया है।

जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तब गिरफ्तारी के तुरंत बाद उसकी केन्द्रीय या राज्य सरकार के सेवारत चिकित्सा अधिकारी और जहाँ ऐसा अधिकारी उपलब्ध नहीं है वहां रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा चिकित्सीय परीक्षण किया जाएगा|

यदि किसी महिला को गिरफ्तार किया जाता है उस स्थिति में उसके शरीर की परीक्षा केवल महिला चिकित्सा अधिकारी द्वारा की जाएगी यदि वह उपलब्ध नहीं हो तब रजिस्ट्रीकृत महिला चिकित्सा व्यवसायी द्वारा चिकित्सीय परीक्षण किया जाएगा|

शीला बरसे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में कहा गया है कि, धारा 54 का मुख्य उद्देश्य इस बात का पता लगाना है कि पुलिस अभिरक्षा के दौरान कहीं उसे पुलिस यातना तो नहीं दी गई है अर्थात् उसके साथ दुर्व्यवहार तो नहीं किया गया है। (ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 378)

स्वास्थ्य एवं सुरक्षा का अधिकार (धारा 55क)

अभिरक्षा के दौरान अभियुक्त को अपनी सुरक्षा एवं स्वास्थ्य का अधिकार है। यह अभिरक्षा में रखने वाले अधिकारी का कर्तव्य है कि वह अभियुक्त के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की देखभाल करे।

निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार (धारा 304)

यदि अभियुक्त निर्धन है और उसके पास अपनी प्रतिरक्षा के लिए अधिवक्ता की नियुक्ति का साधन नहीं है तो वह राज्य के व्यय पर अधिवक्ता की सेवायें प्राप्त करने का हकदार है। इसे निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार (Right to free legal aid) भी कहा जाता है।

एम.एच. हासकाट बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में कहा गया कि – निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करना अभियुक्त का अधिकार है, राज्य की अनुकम्पा नहीं। [(1978) 3 एस.सी.सी. 344

हथकड़ी के विरुद्ध अधिकार

हथकड़ी का प्रयोग केवल आपवादिक परिस्थितियों में ही किया जा सकता है। अभियुक्त को अनावश्यक हथकड़ी के प्रयोग का विरोध करने का अधिकार है।

सोनम विश्वास बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि, चिकित्साधीन अभियुक्त को हथकड़ी लगाना तथा चैन से बांधे रखना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। (ए.आई.आर. 2013 कलकत्ता 199)

प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार (धारा 357)

यदि किसी व्यक्ति (अभियुक्त) को तंग एवं परेशान करने के लिए अभियोजित किया जाता है तो ऐसा व्यक्ति प्रतिकर पाने का हकदार है।

दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई का अधिकार धारा 235 (2)

अभियुक्त को दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई का अधिकार है। इस दौरान वह उन परिस्थितियों का उल्लेख कर सकता है जिनके आधार पर वह दण्ड में कमी, परिवीक्षा या भर्त्सना पर छूटना चाहता है।

अभियुक्त के अधिकार से सम्बन्धित सिद्धान्त

(क) निर्दोषिता का सिद्धांत –

आपराधिक विधिशास्त्र का यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है कि, “जब तक किसी व्यक्ति को दोषसिद्ध घोषित नहीं कर दिया जाता, तब तक उसके निर्दोष होने की उपधारण की जानी चाहिए।” [प्रभु बनाम एम्परर, ए.आई.आर. 1941 इलाहाबाद 402]

(ख) दोहरे खतरे से सुरक्षा का सिद्धान्त (धारा 300) –

किसी भी व्यक्ति (अभियुक्त) को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्डित नहीं किया जा सकता है। इसे ‘दोहरे खतरे से सुरक्षा’ (Double jeopardy) का सिद्धान्त कहते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 20 (2) में भी यह प्रावधान किया गया है कि, “कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित एवं दण्डित नहीं किया जायेगा।”

(ग) दाण्डिक विधि को भूतलक्षी प्रभाव से लागू करने के विरुद्ध अधिकार –

किसी भी व्यक्ति को ऐसे कार्य के लिए दण्डित नहीं किया जा सकेगा जो उसे किये जाने के समय तत्समय प्रवृत किसी विधि के अधीन दण्डनीय अपराध नहीं था। [ संविधान का अनुच्छेद 20 (1)]

(घ) अपने ही विरुद्ध साक्ष्य नहीं दिये जाने का अधिकार –

किसी भी व्यक्ति (अभियुक्त) को अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकेगा। [संविधान का अनुच्छेद 20 (3)]

(ङ) त्वरित एवं ऋजु विचारण का अधिकार –

प्रत्येक अभियुक्त को त्वरित (speedy) एवं ऋजु (fair) विचारण का अधिकार है। रतिराम बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 1489) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, “ऋजु विचारण आपराधिक विधिशास्त्र की आत्मा है।”

कमिश्नर ऑफ पुलिस, दिल्ली बनाम रजिस्ट्रार, दिल्ली उच्च न्यायालय के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि त्वरित एवं ऋजु विचारण न्याय प्रशासन की एक अहम् आवश्यकता है। (ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 95)

(च) मानवोचित व्यवहार का अधिकार –

प्रत्येक अभियुक्त को यह अधिकार है कि उसके साथ मानवोचित व्यवहार किया जाये। उसे अनावश्यक तंग व परेशान नहीं किया जाये। उसे यातना एवं यंत्रणा नहीं दी जाये।

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के अनुसार, कैदी व बन्दी भी मानव हैं और उनके भी मानवाधिकार हैं, जिनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

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संदर्भ :- बाबेल लॉ सीरीज (बसन्ती लाल बाबेल)

बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)