नमस्कार, इस पोस्ट में मुस्लिम विधि के अनुसार दान/हिबा क्या है?, इसकी परिभाषा तथा आवश्यक तत्व कोन कोनसे है का विस्तार से वर्णन किया गया है जो विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं इसे जरुर पढ़े|
हिबा क्या है?
मुस्लिम विधि के अनुसार एक मुसलमान अपने जीवनकाल में अपनी सम्पति को विधिपूर्ण दान (हिबा) द्वारा अंतरित कर सकता है| यह दो जीवित पक्षकारो के मध्य होता है जिसे निस्तारण कहा जाता है हिबा में सम्पति का अन्तरण तुरंत एंव पूर्ण (तमलिक-उल-ऐन) होता है|
हिबा को मुस्लिम विधि के अनुसार लिखित अथवा मौखिक में किया जा सकता है| कोई भी मुसलमान अपने जीवनकल अपनी सम्पति को किसी भी सीमा तक अन्तरण कर सकता है यानि वह अपनी सम्पूर्ण सम्पति हिबा में दे सकता है
लेकिन वसीयत द्वारा हिबा में वह केवल अपनी सम्पति का 1/3 भाग ही अन्तरण कर सकता है क्योंकि वसीयत द्वारा हिबा, वसीयतकर्ता के मृत्यु के बाद प्रभाव में आता है|
अक्सर हम यह समझते है कि हिबा को हिन्दी में ‘दान’ और अंग्रेजी में ‘गिफ्ट (Gift)’ कहा जाता है और इन दोनों में सम्पति का अन्तरण बिना किसी प्रतिकर के होता है, लेकिन गिफ्ट (Gift) का क्षेत्र हिबा के क्षेत्र से अधिक व्यापक है|
चूँकि बेली ने दान की परिभाषा -बिना किसी विनिमय के किसी विशिष्ट वस्तु में सम्पति के अधिकार से दान के रूप में की है| दाता द्वारा अपने स्वामित्व की सम्पति का दान दो तरह से (जीवित दशा में हिबा व वसीयत के द्वारा हिबा) किया जा सकता है|
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हिबा की परिभाषा
हिदाया के अनुसार – “दान या हिबा एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को तुरंत और बिना किसी विनिमय या बदले के किया गया बिना शर्त सम्पत्ति का अन्तरण, जिसे दानग्रहीता या उसकी ओर से स्वीकार किया जाता है|”
हेदाया की अन्य परिभाषा के अनुसार – “ऐसी वस्तु का दान जिससे दानग्रहिता लाभ उठा सके”|
मुल्ला के अनुसार – “हिबा (दान) सम्पत्ति का एक ऐसा अंतरण है जिसमें एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को बिना किसी विनिमय (प्रतिफल) के सम्पत्ति का कब्जा तुरंत प्रदान किया जाता है और उसे दानग्रहीता द्वारा या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्वीकार किया जाता है|
माननीय न्यायाधीश हिदायत उल्ला ने वी.पी. कथेसम्मा बनाम नारायण कुन्हामा के मामले में निर्णय देते हुए अपना मत व्यक्त किया कि – “हिबा किसी विशिष्ट वस्तु पर बिना एवज के अधिकार प्रदान करने से है|”
शमशेद बनाम सादिक बाशा के मामले के अनुसार – दान (हिबा) बिना किसी विनिमय के सम्पत्ति के अधिकार का दान है और आदाता इसे स्वीकार करता है तथा दाता द्वारा उसे सम्पत्ति का कब्जा सौंप दिया जाता है|
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हिबा के आवश्यक तत्व
एक विधिमान्य हिबा के आवश्यक तत्व निम्नलिखित है, जिन्हें हम हिबा की शर्ते भी कह सकते है–
(i) दाता की सामर्थ्य
हिबा के संव्यवहार में दो पक्षकार दाता और आदाता होते है| वह व्यक्ति जो उपहार या दान देता है, दाता कहलाता है| दान करने के लिए व्यक्ति का समर्थ होना आवश्यक है, जिसे हम दाता की अर्हताए भी कह सकते है, जैसे –
वयस्कता – दान करने के लिए दाता का व्यस्क होना आवश्यक है| केवल विवाह, मेहर और विवाह विच्छेद के प्रयोजनार्थ वयस्कता की 15 वर्ष मानी गई है| अन्य मामलों में भारतीय वयस्कता अधिनियम के अनुसार कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की आयु को प्राप्त होने पर वयस्क हो जाता है। यदि वह प्रतिपाल्य न्यायालय (Court of Wards) के पर्यवेक्षण में है तो वयस्कता की आयु 21 वर्ष होगी। अवयस्क द्वारा दिया गया दान शून्य होता है।
स्वस्थ मस्तिष्क – दाता को स्वस्थ मस्तिष्क का होना चाहिये। अस्वस्थचित्त व्यक्ति अपने कार्यों के विधिक परिणामों को नहीं समझ सकता। लेकिन अस्वस्थचित्त व्यक्ति द्वारा उस अन्तराल में किया गया उपहार वैध है, जबकि वह स्वस्थचित्त का हो जाता है।
हिदया के अनुसार – कोई भी व्यस्क एंव स्वस्थचित्त व्यक्ति अपनी सम्पति का हिबा कर सकता है|
स्वतन्त्रता – दाता द्वारा अपनी स्वतन्त्र इच्छा से किया गया हिबा वैध होगा। दबाव, असम्यक् असर या मिथ्या व्यपदेशन से प्रभावित उपहार मान्य नहीं होगा।
दाता यदि दान करते समय कर्जदार है और उस स्थिति में वह दान करता है, किया गया दान शून्य होगा| क्योंकि हो सकता है की दाता अपने कर्जदारों (लेनदारो) को कर्ज का भुगतान नहीं करने के आशय से अपनी सम्पति का दान कर रहा हो|
इसी प्रकार दान के समय दाता कर्जदार है तो यह माना जाएगा की दाता का आशय लेनदारो को धोखा देने का रहा है और ऐसा किया गया दान लेनदारों की ईच्छा पर शून्यकरणीय होगा|
सम्पत्ति का स्वामित्व – कोई व्यक्ति केवल उसी सम्पत्ति का हिबा कर सकता है जिसका वह स्वामी हो। ऐसी सम्पत्ति, जो किसी दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व में हैं, उपहार की विषय-वस्तु नहीं बन सकती है। जैसे – मकान का किरायेदार।
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कुछ विशेष उदाहरण –
(क) विवाहिता स्त्री – विवाहिता स्त्री द्वारा दिया गया उपहार मान्य होता है।
(ख) पर्दानशीन स्त्री – किसी पर्दानशीन स्त्री द्वारा दिया गया उपहार मान्य होता है, लेकिन विवाह के बाद यह साबित करने का भार कि वह संव्यवहार की प्रकृति समझती थी, कि वह क्या कर रही है तथा उस पर अनुचित दबाव नहीं डाला गया था, दानग्रहीता पर होता है। यह शर्त दुर्बलों, नादानों या अपाहिजों को विधि द्वारा दी गई सुरक्षा पर आधारित है।
(ग) दिवालिया – दिवालिया की परिस्थिति में भी कोई व्यक्ति हिबा कर सकता है बशर्ते कि उसका सद्भावना से उपहार करने का आशय हो और वह ऋणदाताओं को धोखा देना न चाहता हो।
(ii) आदाता (दानग्रहीता) की सामर्थ्य
जिस व्यक्ति को हिबा किया जाता है तो उसे ‘आदाता यानि दानग्रहीता’ कहा जाता हैं | आदाता का भी दान ग्रहण करने के लिये सक्षम होना आवश्यक है|
जैसे – आदाता का वयस्क, स्वस्थचित्त एवं मुसलमान होना है| यदि कोई आदाता अवयस्क या अस्वस्थचित्त है तो उसकी ओर से उसका संरक्षक दान की सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर सकता है|
कोई भी व्यक्ति जो सम्पत्ति का स्वामी होने योग्य है, जिसमें विधिक व्यक्ति (Legal person) भी शामिल है, दान ग्रहण कर सकता है। दानग्रहण में लिंग, आयु, निष्ठा या धर्म बाधक नहीं होते है, लेकिन हिबा किये जाने के समय दानग्रहीता का अस्तित्व में होना आवश्यक है।
मुल्ला के अनुसार – ऐसे व्यक्ति के पक्ष में किया गया दान शून्य होता है, जो अभी अस्तित्व में ही नहीं है|
माननीय न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि – मुस्लिम विधि के अन्तर्गत दान में सम्पत्ति से सम्बन्धित सभी अधिकार बिना किसी प्रतिफल के ‘दानग्रहीता’ को दिये जाते हैं।
मुस्लिम विधि में दान की प्रकृति एक ऐसी संविदा की तरह है, जिसमें दान का प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति दोनों शामिल है, इसलिये जहाँ यह तीनों चीजें पूरी नहीं होगी दान वैध नहीं माना जायेगा।
इसलिए मुस्लिम विधि के अंतर्गत एक अवयस्क का पिता अथवा दादा के जीवित रहते हुए उसकी माता संरक्षक नहीं हो सकती इस कारण वह दान स्वीकार करने के लिये अयोग्य है।
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(iii) हिबा की विषय–वस्तु
हिबा की विषयवस्तु में ऐसी कोई भी सम्पत्ति शामिल हो सकती है जो माल या वस्तु की परिभाषा में आती है| सम्पत्ति मूर्त अथवा अमूर्त हो सकती है, लेकिन उसका अस्तित्व में तथा दाता का उस पर काबिज होना जरुरी है|
हिबा के समय ऐसी सम्पत्ति जो दाता में निहित होती है और जो दाता द्वारा दानग्रहीता को दी जाती है, हिबा की विषय-वस्तु होती है।
हिबा की विषय वस्तु में सम्पति मूर्त व अमूर्त दो प्रकार की होती है –
मूर्त सम्पति से तात्पर्य ऐसी सम्पति से है जिसे देखा व छुआ जा सकता है यानि जो भौतिक अस्तित्व रखती हो, जैसे – मकान, धन, भूमि, फर्नीचर आदि|
अमूर्त सम्पति वह है जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, जैसे – किसी ऋण का भुगतान प्राप्त करने का अधिकार, बंधक या मोचन का अधिकार आदि|
इस प्रकार ऐसी सम्पति का हिबा जिसका अस्तित्व हिबा किये जाने के समय ना हो तथा वह भविष्य में किसी समय या तारीख को अस्तित्व में आती हो, उस स्थिति में हिबा शून्य होगा|
उदाहरण – क ने सन 1975 में ख को एक दुकान के ऐसे किराये का हिबा किया जो सन 1985 में क को उतराधिकार में मिलाने वाली थी, इस प्रकार किया गया हिबा शून्य होगा|
मुस्लिम विधि में पैतृक या स्वयं अर्जित की गई सम्पति, स्थावर या व्यक्तिगत, चल या अचल सम्पत्ति में अन्तर नहीं किया गया है। मुस्लिम विधि के अनुसार सम्पत्ति को माल कहा जाता है। इसमें उन सभी प्रकार की सम्पतियों को शामिल किया जाता है जिनका उपयोग-उपभोग किया जा सके।
कोई भी ऐसी वस्तु जिसका उपयोग-उपभोग किया जा सके या ऐसा अधिकार जिसका प्रयोग किया जा सके अथवा कोई ऐसी वस्तु जिसे कब्जे में रखा जा सके और जो विशिष्ट सत्ता की तरह विद्यमान है अथवा कोई ऐसा प्रवर्तनीय अधिकार या वस्तु जो वस्तुतः माल के अर्थ में आती है, उपहार की विषय-वस्तु बन सकती है।
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(iv) हिबा की घोषणा
विधिमान्य हिबा के लिए दाता द्वारा हिबा करने का आशय स्पष्ट और सद्भवापूर्वक होना तथा उसकी घोषणा स्पष्ट व स्वैच्छिक होनी चाहिए| यदि यह दबाव, असम्यक अस्पष्ट या मिथ्या व्यपदेशन के अधीन की जाती है तो दान अविधिमान्य होगा|
अजीजुन्निसा अब्दुररहमान कादरी बनाम जमीला अब्दुल हुसैन शेख के मामले में ऐसे हिबा को विधिमान्य माना गया है –
(a) जिसमें सम्पत्ति के स्वामी द्वारा अपने आशय की घोषणा कर दी गई थी,
(b) आदाता द्वारा उसे स्वीकार कर लिया गया था,
(c) आदाता उसी सम्पत्ति में रह रहा था जो हिबा की विषय-वस्तु थी, इसलिए कब्जे के परिदान की आवश्यकता नहीं थी तथा यह एक मौखिक हिबा था जो एक विधिमान्य हिबा की सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता है|
मुस्लिम द्वारा किये गये दान का लिखित होना और उसका पंजीकरण होना आवश्यक नहीं है। वैध दान के लिये दानकर्ता द्वारा घोषणा, दानग्रहीता द्वारा या उसके नाम पर दान को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार किया जाना और कब्जा देना आवश्यक है। दानग्रहीता सम्पत्ति का कब्जा वास्तव में या प्रलक्षित रूप में ग्रहण कर सकता है। यदि उक्त आवश्यक तत्व सिद्ध हो जाते हैं तो दान वैध होगा।
हाफिजा बीबी बनाम शेख फरीद के वाद अनुसार, हिबा की घोषणा मौखिक या लिखित कैसी भी हो सकती है, यह आवश्यक नहीं है कि हिबा की घोषणा लिखित में ही हो, यदि हिबा का कोई विलेख जारी कर दिया जाता है तो उस सम्पत्ति का रजिस्ट्रीकरण भी आवश्यक नहीं है| (ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1695)
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(v) हिबा की स्वीकृती –
आदाता द्वारा दान की विषय-वस्तु को स्वीकार किया जाना विधिमान्य हिबा की एक आवश्यक शर्त है और ऐसी स्वीकृति लिखित, मौखिक या आचरण द्वारा हो सकती है| यदि दान प्राप्त करने वाला (आदाता) अवयस्क है तब उसकी और से संरक्षक द्वारा दान को स्वीकार किया जा सकता है|
जहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को यह कहते हुए कोई वस्तु प्रदान करता है कि मैं तुम्हें यह दे रहा हूँ और दूसरा व्यक्ति बिना कोई शब्द कहे उस वस्तु को ले लेता है या उस पर कब्जा कर लेता है तो यह दान की अव्यक्त स्वीकृति है।
दान की घोषणा तथा स्वीकृति शब्दों में ना की जाकर पक्षकारों के आचरण से स्पष्ट होती है तब भी यह हिबा की मान्यता के लिये पर्याप्त होगा। इस प्रकार दान की स्वीकृति व्यक्त या अव्यक्त अथवा वास्तविक या परिलक्षित (Constructive) हो सकती है ।
(vi) कब्जे का परिदान
विधिमान्य हिबा के लिए कब्जे का दिया जाना (परिदान) इसका आवश्यक तत्व है और ऐसा परिदान वास्तविक या आन्वयिक कैसा भी हो सकता है लेकिन मौखिक दान में सम्पत्ति के कब्जे का वास्तविक परिदान आवश्यक है
मुस्लिम विधि के अनुसार हीबा के सम्बन्ध में ‘कब्जा’ शब्द से तात्पर्य “केवल ऐसे कब्जा से है जो हिबा की विषय वस्तु की प्रकृति के अनुसार सम्भव हो।”
वास्तविक रूप से कब्जे के परिदान में देखा जाता है कि दाता या दानग्रहीता में से कौन दान की सम्पत्ति का लाभ उठा रहा है। यदि दाता लाभ उठाता है तो कब्जे का अन्तरण नहीं हुआ और यदि दानग्रहीता लाभ उठा रहा है तो उसका अन्तरण हो गया है और हिबा को पूर्ण माना जाएगा।
आन्वयिक परिदान – आन्वयिक परिदान वहां होता है जहां वास्तविक परिदान सम्भव नहीं हो और जहां किसी कार्य तथा आचरण से यह प्रतीत होता है कि दान की सम्पत्ति आदाता में निहित हो गई है, वहां उसे कब्जे का आन्वयिक परिदान मान लिया जाता है|
यदि दाता और आदाता के व्यवहार एवं कार्यों से आन्वयिक परिदान का आभास होता हो तो कब्जे का वास्तविक परिदान आवश्यक नहीं है|
माननीय न्यायाधीश हिदायत उल्ला के मतानुसार – मुस्लिम हीबा विधि, हिबा की गई सम्पत्ति पर कब्जे को अत्यधिक महत्व प्रदान करती है, विशेषत: अचल सम्पत्तियों (कब्ज-उल-कामिल) के मामलो में। हिदाया तथा बेली के अनुसार – कोई हिबा तब तक मान्य नहीं है जब तक कि कब्जा प्राप्त ना हो जाए|
- म.प्र. उच्च न्यायालय ने मुल्ला कृत मुस्लिम विधि के आधार पर हिबा की तीन आवशयक शर्ते होना मान्य किया है –
i – दाता द्वारा हीबा की घोषणा करना
ii – आदाता द्वारा या उसकी और से हिबा की स्वीकृति दिया जाना
iii – दाता द्वारा हिबा की विषय वस्तु का आधिपत्य (कब्ज़ा) आदाता को दिया जाना|
- लेकिन निम्न परिस्थितियों में कब्जे का वास्तविक परिदान आवश्यक नहीं माना गया है –
i- जहां सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में हो |
ii- जहां सम्पत्ति की प्रकृति ऐसी हो कि उसका भौतिक कब्जा दिया जाना असम्भव हो |
iii- जहां आदाता पहले से ही दान की सम्पत्ति पर काबिज हो|
iv- जहां पति एवं पत्नि आदाता हो |
v- जहां आदाता संरक्षक की अभिरक्षा में हो और दान की सम्पत्ति उसी संरक्षक के कब्जे में हो|
vi- जहां पिता द्वारा पुत्र के पक्ष में दान किया गया हो|
विधिमान्य दान की विशेषताए
i – हीबा एक ऐसा कार्य है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपनी सम्पति में स्वामित्व के अपने अधिकारों को अन्य व्यक्ति को प्रदान करता है|
ii – दान जीवित व्यक्ति द्वारा किसी अन्य जीवित व्यक्ति के पक्ष में किया गया सम्पति का अन्तरण है और ऐसा अन्तरण बिना किसी विनियम या प्रतिफल के किया जाता है|
iii – दान में सम्पति दानदाता (अन्तरणकर्ता) द्वारा दानग्रहीता (अन्तरिती) को तुरन्त प्रभाव से अन्तरित हो जाती है| चूँकि हिबा तुरन्त प्रभावी होता है और हिबा में वर्णित सम्पति का हिबा के समय अस्तित्व में होना आवश्यक है|
iv – दान सम्पति का बिना शर्त अन्तरण है, दान सम्पति अन्तरण अधिनियम के अध्याय 7 की धारा 129 से शासित नहीं होता है जबकि यह मुस्लिम विधि से शासित होता है|
हिबा का विखण्डन –
दान का विखण्डन “कब्जे के परिदान से पूर्व व कब्जे के परिदान के पश्चात्” किया जा सकता है|
मुस्लिम विधि के अनुसार दान केवल तभी पूर्ण होता है जब दान की सम्पत्ति के कब्जे का परिदान कर दिया जाता है, इसलिए कब्जे के परिदान से पूर्व दान को कभी भी विखण्डित किया जा सकता है|
- लेकिन कब्जे के परिदान के पश्चात् दान को तभी विखण्डित किया जा सकता है जब –
i- आदाता द्वारा ऐसे विखण्डन की सहमति दे दी जाए या
ii- न्यायालय द्वारा विखण्डन की डिक्री पारित कर दी जाए|
दान / हिबा कब अखण्डनीय होता है –
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत एक बार सम्पन्न हो चुके विधिमान्य दान का विखण्डन केवल न्यायालय की डिक्री द्वारा या आदाता की सहमति द्वारा ही किया जा सकता है, लेकिन निम्न परिस्थितियों में दान (हिबा) अखण्डनीय होता है –
i- जब दान पति द्वारा पत्नि को या पत्नि द्वारा पति को किया जाए |
ii- जब दान ऐसे व्यक्ति के पक्ष में किया गया हो जो निषिद्ध आसत्तियों के भीतर आता हो|
iii- जब दाता अथवा आदाता की मृत्यु हो गई हो |
iv- जब दान की विषय-वस्तु नष्ट हो गई हो |
v- जब दान की वस्तु आदाता द्वारा किसी और को अन्तरित कर दी गई हो|
vi- जब दान की विषय-वस्तु में वृद्धि हो गई हो |
vii- जब दान धार्मिक या आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिये किया गया हो |
viii- जब रूप परिवर्तन के कारण दान की विषय-वस्तु पहचान योग्य नहीं रह गई हो |
ix- जब दाता ने दान के एवज में कुछ प्रतिफल प्राप्त कर लिया हो आदि |
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