नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में हिन्दू विधि के स्रोत क्या है | हिन्दू विधि के प्राचीन एंव आधुनिक स्त्रोत कोनकोनसे है | Sources Of Hindu Law के बारें में बताया गया है, उम्मीद है कि, यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा|

हिन्दू विधि के स्रोत क्या है | Sources Of Hindu Law

हिन्दू विधि को विश्व की प्राचीनतम विधि व्यवस्था होने का श्रेय प्राप्त है। यह लगभग 6000 वर्ष पुरानी विधि व्यवस्था है। प्राचीन मत के अनुसार विधि एवं धर्म का अटूट संबंध था तथा विधि को ही धर्म का अंग माना जाता था जिस कारण धर्म के स्रोत ही हिन्दू विधि के स्रोत माने गए है| जिनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है –

हिन्दू विधि के स्रोत

सुविधा के अनुसार हिन्दू विधि के स्रोत को दो भागों मै विभाजित किया गया है –

(1) प्राचीन या मूल स्रोत, (2) आधुनिक स्रोत

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हिन्दू विधि के प्राचीन स्रोत

हिन्दू विधि के स्त्रोतों (प्राचीन) को भी मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा गया है

(1) श्रुति –

हिन्दू विधि के स्रोत में श्रुति प्राचीनतम स्रोत है। श्रुति शब्द ‘श्रु’ धातु से लिया गया है जिसका अथ है सुनना| ऐसा मानना कि हमारे ऋषि-मुनियों का आध्यात्मिक ज्ञान इतना अधिक विकसित हो गया था कि वे ईश्वर से सीधे बात करने की स्थिति में आ गये थे।

इस प्रकार ईश्वर की वह वाणी जिसे हमारे ऋषि-मुनियों ने सुनी और उसे हमें सुना दी वह श्रुति कहलायी| श्रुतिया सर्वोपरि मानी जाती है इसमें 4 वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) व उपनिषद भी आते है जिनका मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति तथा मनुष्य को मोक्ष प्रदान करना है|

वेद चार प्रकार के होते है –

(i) ऋग्वेद  ऋग्वेद के मंत्रो को यज्ञो के अवसर पर देवताओ की स्तुति हेतु ऋषियों द्वारा उच्चारित किया जाता है|

(ii) यजुर्वेद इसमें यज्ञों के नियमों एंव विधि विधानों का संकलन किया गया है|

(iii) सामवेद  सैम का अर्थ है गान, इसमं यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है|

(iv) अथर्ववेद  इसमें ब्रह्मा ज्ञान, धर्म समाजनिष्ठा, औषधि प्रयोग, रोग निवरण मन्त्र, तांत्रिक आदि अनेक विषयों का वर्णन है|

इन श्रुतियों/वेदों में हमारे पूर्वजों के जीवन यापन, रहन-सहन, रीति-रिवाज, अनुष्ठान, धार्मिक आस्था आदि का उल्लेख मिलता है।

डॉ. पी.वी. काणे ने अपनी कृति ‘हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र’ में कहा है कि “यदि हम धर्म (विधि) का व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप देखना चाहते हैं तो हमें श्रुतियों एवं स्मृतियों का अवलोकन करना होगा।”  हिन्दू विधि के स्रोत का उल्लेख मनु स्मृति में भी मिलता है।

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(2) स्मृति –

हिन्दू विधि के स्रोत मै स्मृति का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है – “याद रखाना”। स्मृतियाँ मानवीय कृतियाँभी मानी जाती है| स्मृतियाँ ऋषि-मुनियों की स्मृति (मस्तिष्क) पर आधारित है। स्मृतियों के रचना काल को हिन्दू विधि का ‘स्वर्ण युग’ माना जाता है क्योंकि इस काल मै हिन्दू विधि का क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित विकास प्रारम्भ हुआ।

ओमिनी के अनुसार स्मृतियाँ उन्ही ऋषियों द्वारा संकलित की गई जिन पर वेद प्रकट हुए थे| इसलिए स्मृतियाँ को भी उसी प्रकार प्रमाणित माना गया है जिस प्रकार श्रुतिया को प्रमाणित माना गया है| इन स्मृतियों में दिए गए निर्णयों को निर्विवाद माना जाता है क्योंकि इनकी सच्चाई पर कोई भी संदेह नहीं करता है|

स्मृतियों के अंतर्गत (1) धर्म सूत्र (2) धर्म शास्त्र (3) मनु स्मृति (4) याज्ञवल्क्य, आते है।

धर्मसूत्र मै गौतम, बौधायन, हरित, विष्णु एवं वशिष्ठ आदि तथा धर्मशास्त्र मै मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति आदि प्रसिद्ध स्मृतियाँ हैं।

नारद स्मृति अन्तिम स्मृति के रूप में एक ऐसी प्रथम विधिक संहिता है जिसमें न्यायिक प्रक्रिया, न्यायालय से सम्बन्धित विषयों एवं सिद्धान्तों तथा न्याय पालिका से जुड़े विषयों का विवेचन किया गया है।

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(3) भाष्य एवं टीकायें/निबंध –

मनु के बाद हिन्दू विधि का विकास अनेक रूपों मै हुआ जिस कारण स्मृतियों की विधि मै अनेक परिवर्तन/मतभेद हो गए जो अस्पष्ट तथा अपूर्ण थे उनको दूर करने के लिए भाष्य एंव निबंधो का निर्माण किया गया|

भाष्य वे हैं जिनमें किसी स्मृति विशेष पर टीका/ निबन्ध लिखे गए है जिससे स्मृति समझने मै आसान तथा सरल हो जाए तथा

निबन्ध/टीकायें वे कहलाते है जिसमें किसी प्रकरण विशेष या विषय पर अनेक स्मृतियों के वचनों/पात्रो को दिखाकर कर उस विषय के सम्बन्ध में विधि को स्पष्ट किया गया हो। इस प्रकार भाष्यकारों एवं टीकाकारों ने विधि का नव निर्माण किया है।

केस आत्माराव बनाम बाजीराव [(1935)62 आई..139]

इसमें न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि भाष्यकारों एवं टीकाकारों ने स्मृतियों के वचनों को इस प्रकार का अर्थ दिया कि वे तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुरुप बन सकें तथा न्यायालय का यह भी विचार था की स्मृतिकारों ओ भाष्यकारों मै विरोध होने पर भाष्यकारों का मत स्वीकार किया जाना चाहिये|

भाष्य एवं टीकाओं के क्षेत्र में मेघातिथि, गोविन्दराज, कुल्लूक भट्ट विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क, मित्र मिश्र, माधवाचार्य, प्रतापरुद्रदेव, जीमूत वाहन, चण्डेश्वर, विश्वेश्वर भट्ट, मिश्रु मिश्र, वाचस्पति मिश्र, रघुनन्दन, नन्द पण्डित, कमलाकर भट्ट आदि के नाम प्रमुख हैं।

(4) रूढ़ियाँ एवं प्रथायें –

रूढ़ियाँ एवं प्रथायें हिन्दू विधि का एक प्रमुख स्रोत हैं। नारद स्मृति में यह कहा गया है कि “व्यवहारों हि बलवान् धर्मस्तेनावहीयते” अर्थात् रूढ़ियाँ निश्चित ही बलवान होती है। वे धर्म से भी ऊपर है।

डी.एफ.मुल्ला के अनुसार हिन्दू विधि के तीन विभिन्न स्रोतों में रूढ़ियाँ एवं प्रथायें एक हैं।

हौलेण्ड (Holland) के अनुसार – “प्रथा सामान्यतया अपनाये गये आचारों का एक क्रम है। जिस प्रकार से किसी घास के मैदान में पैरों के पड़ते रहने से एक मार्ग निकल आता है, ठीक उसी प्रकार नित्य प्रति के व्यवहारों के अनुकूल एक प्रथा बन जाया करती है।”

केस कलेक्टर ऑफ मदुरै बनाम मोटूरामलिंगम [(1868)12 आई.. 307]

इसले में प्रिवी कौंसिल द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि ” हिन्दू विधि के अन्तर्गत प्रथाओं का स्पष्ट प्रमाण विधि के मूल ग्रंथों से अधिक प्रामाणिक समझा जायेगा।”

वस्तुतः रूढ़ियाँ एवं प्रथायें व्यक्तियों के आचरण की एकरुपता का दूसरा नाम है। जब कभी मनुष्य किसी कार्य को अच्छा, उपयोगी एवं लाभप्रद समझने लगता हैं तब वह उनका अपने जीवन मै निरन्तर अनुसरण/उपयोग करने लगता हैं और आचरण की यही पुनरावृत्ति रूढ़ि एवं प्रथा का स्थान ले लेती है।

केस हरप्रसाद बनाम शिव दयाल’ [(1876)3 आई.. 254]

इसमें यह कहा गया है कि -“प्रथा एक ऐसा नियम है जिसने कि एक विशिष्ट परिवार में या एक विशिष्ट वर्ग या क्षेत्र में लम्बी परम्परा से माने जाने के कारण विधि का बल प्राप्त कर लिया है।”

इस प्रकार स्पष्ट है की हिन्दू विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ियों एवं प्रथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक हिन्दू वैयक्तिक विधि में रूढ़ि हिन्दू विधि का ही एक भाग है। रूढ़ि प्रमाणित होने पर मान्य है और लागू होगी चाहे वह दैवी विधि की पूरक या प्रतिकूल हो। संहिताबद्ध हिन्दू विधि में भी रूढ़ि को स्थान प्रदान किया गया है लेकिन वह सीमित रूप में है। संहिताबद्ध हिन्दू विधि में रूढ़ि तभी मान्य होगी जबकि उसे अभिव्यक्त रूप से स्थान दिया गया हो।

विधिमान्य रूढ़ियाँ एवं प्रथाओं की अनिवार्य शर्ते –

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि हिन्दू विधि के स्रोत के रूप में प्रथायें तभी मान्य होंगी जब वे निम्न शर्ते पूरी करती हों –

(i) वह प्राचीन हो अर्थात् स्मरणातीत समय से अस्तित्व में हो

(ii) निश्चित हो,

(iii) तर्क संगत एवं युक्तियुक्त हो,

(iv) उसका निरन्तर एवं शांतिपूर्ण तरीके से उपयोग किया जा रहा हो,

(v) एक अधिकार के रूप में प्रयोग किया जा रहा हो,

(vi) वह अनैतिक एवं लोक नीति के विपरीत न हो, तथा

(viii) किसी संविधि से असंगत न हो।

केस रानी लक्ष्मी बनाम शिव कली’ [(1811)14 एम.आई.. 5857]

इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि – हिन्दू विधि के अन्तर्गत रूढ़ियाँ तभी मान्य होगी जब वे प्राचीन, ज्ञात, निरन्तर और निश्चित हों तथा अनैतिक, विधि-विरुद्ध एवं अयुक्तियुक्त न हों।

केस – ‘अमित चन्दूभाई चव्हाण बनाम अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन’ (.आई.आर. 2011 गुजरात 145) –

इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि, किसी भी प्रथा के अस्तित्व को स्पष्ट एवं सशक्त साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है। किसी प्रथा को ऐसे प्रमाण पत्र द्वारा साबित नहीं किया जा सकता जो अदिनांकित हो, जिस पर मुद्रा न हो तथा शपथ पत्र के साथ न हो।

मनु के अनुसार हिन्दू विधि के स्त्रोत –

  • वेद
  • स्मृति
  • सदाचार
  • जो अपने को अच्छा लगे

याज्ञवल्क्य के अनुसार हिन्दू विधि के स्त्रोत –

  • श्रुति
  • स्मृति
  • सदाचार
  • जो अपने को अच्छा लगे

हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोत

अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हिन्दू विधि के स्रोत (आधुनिक) को भी तीन भागो में विभाजित किया गया है

(1) साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तः करण –

हिन्दू विधि के स्त्रोत के रूप मै साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण (Equity, Justice & Good Conscience) का सिद्धान्त उतना ही प्राचीन है जितना की श्रुति, स्मृति, भाष्य एवं टीकायें है।  यह सिद्धान्तः ‘न्याय एवं युक्ति’ के सिद्धान्त के समान है।

कई बार न्यायालय के सामने कुछ ऐसे प्रश्न या विषय या वाद आ जाते है जिनके बारे मै हिन्दू विधि मै उनका कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं मिलता है अथवा न्यायालय के सामने ऐसा विषय आ जाता है जिसके ऊपर न्यायालय का पूर्व निर्णयन ना हो, उस स्थिति मै न्यायालय साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तः करण सिद्धांत के आधार पर निर्णय देते है|

इस प्रकार न्यायालय द्वारा साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तः करण सिद्धांत के आधार पर दिए गये निर्णय आधुनिक हिन्दू विधि के स्त्रोत मै प्रचलित हो जाते है और आगे चलकर निचे के न्यायालय इन निर्णयों का अनुसरण करते है|

गौतम के अनुसार – जिस विषय पर विधि के नियमों का अभाव हो उस पर साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों को लागू किया जाना चाहिए। .

केस – ‘गुरुनाथ बनाम कमला बाई’ [(1951)1 एस.सी. आर.1135]

इसमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि – “जहाँ किसी विषय पर हिन्दू विधि के नियमों का अभाव हो, वहाँ न्यायालयों को साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों के आधार पर अपना निर्णय देना चाहिए, यदि ऐसा करना हिन्दू विधि के सिद्धान्तों के प्रतिकूल न हो।”

वस्तुत: अंग्रेजों के समय अंग्रेजों द्वारा भारत में न्याय, व्यवस्था स्थापित करने के साथ-साथ ही उच्च न्यायालयों के चार्टरों में यह व्यवस्था कर दी गई थी कि जहाँ भी विधिगत नियमों का अभाव हो वहाँ निर्णय साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों के अन्तर्गत दिया जाना चाहिए।

(2) पूर्वनिर्णय (न्यायिक निर्णय)

वे न्यायिक निर्णय जो हिन्दू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किये जाते है, हिन्दू विधि के आधुनिक स्त्रोत समझे जाते है| पूर्व निर्णय (Precedent) को ‘पूर्व दृष्टान्त’ भी कहते हैं|

पूर्व दृष्टान्त से अभिप्राय किसी विवादित विषय पर दिये गये न्यायिक निर्णय से है। न्यायिक निर्णय भविष्य मै आने वाले ऐसे ही विवादित विषयों/मामलों के निर्णय में न्यायालयों का मार्ग-दर्शन करते हैं।

इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय, प्रिवी कौंसिल आदि के निर्णय आते है जो उनके अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं। पूर्व निर्णय विधि का साक्ष्य होने के साथ साथ विधि के स्त्रोत भी होते है|

पूर्व-निर्णयों की प्रयोज्यता के कुछ नियम हैं, यथा –

(i) उच्चतम न्यायालय के निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं,

(ii) उच्च न्यायालय के निर्णय उनके अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं

(ii) प्रिवी कौंसिल के निर्णय सभी उच्च न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं बशर्ते कि वे उच्चतम न्यायालय द्वारा उलट नहीं दिये गये हों

(3) विधिविधान (विधायन)

हिन्दू विधि के स्रोत मै विधि-विधान (Legislation) अन्तिम प्रामाणिक एवं आधुनिक स्त्रोत है। हिन्दू विधि के स्रोत आधुनिक स्त्रोत मै विधायन का महत्वपूर्ण स्थान है| देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर विधियों का निर्माण किया गया, उनमें संशोधन एवं परिवर्तन किये गये तथा उन्हें परिष्कृत किये जाने का प्रयास किया जाता रहा।

विधि मै किसी भी तरह का परिवर्तन करने का अधिकार विधान मंडल को है जिस कारण विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियम हिन्दू विधि के स्त्रोत है|

जब भी न्यायालय निर्णय देता है तब वह विधान मंडल द्वारा पारित विधायनों (अधिनियम) का अवलोकन करता है, इस कारण भी हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोत मै विधायन का महत्वपूर्ण स्थान है| हिन्दू विधि के अधिकांश विषय विभिन्न अधिनियमों के रूप में संहिताबद्ध है।

हिन्दू विधि के कुछ महत्वपूर्ण अधिनियम इस प्रकार हैं

  • जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम,1850
  • हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,1856
  • बाल विधवा निषेध अधिनियम, 1929
  • हिन्दू स्त्री का सम्पति का अधिकार अधिनियम, 1937
  • हिन्दू स्त्री का पृथक आवास और भरणपोषण का अधिकार अधिनियम, 1946
  • हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
  • हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
  • हिन्दू दत्तक और भरणपोषण, 1956
  • हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 आदि।

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