नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में स्वामित्व क्या है, इसकी परिभाषा (Definition of Ownership), स्वामित्व के आवश्यक तत्त्व तथा कानून में स्वामित्व का अर्जन केसे किया जा सकता है आदि के बारें में बताने का प्रयास की गया है| यह आलेख कानून के छात्रो के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
परिचय – स्वामित्व क्या है
स्वामित्व सम्पति से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण अधिकार है| कब्जे की भाँति स्वामित्व भी एक कठिन न्यायिक संकल्पना है। विभिन्न विधिक अधिकारों में स्वामित्व (ownership) का अधिकार विशेष महत्व रखता है। रोमन विधि में स्वामित्व को किसी वस्तु पर पूर्ण अधिकार (absolute right) के रूप में परिभाषित किया गया है।
रोमन विधि की दृष्टि में स्वामित्व कब्जे से अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि यह पूर्ण अधिकार का सूचक है जबकि कब्जा केवल भौतिक नियंत्रण का संकेत देता है।
आंग्ल विधि में ‘स्वामित्व’ शब्द का प्रयोग सन् 1583 के आस-पास किया गया था। रोमन विधि में स्वामित्व के लिए ‘डोमिनियम’ (dominium) तथा कब्जे के लिए ‘पजेशियो’ (possessio) शब्दों का प्रयोग किया गया था।
सम्पति का अधिकार उतना ही पुराना है जितना की मानव अधिकार। इस कारण सम्पति के अधिकार को मानव अधिकार माना गया है। (Right to property is humam right) (तुकाराम काना जोशी बनाम एम.आई.डी.सी., ए.आई.आर. 2013 एस.सी. 565)
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स्वामित्व की परिभाषा (definition of ownership)
विधिशास्त्रियों ने स्वामित्व की परिभाषा भिन्न-भिन्न प्रकार से की है लेकिन सभी विधिवेत्ता इस बात को स्वीकार करते हैं कि समस्त विधिक अधिकारों में स्वामित्व का अधिकार एक महत्वपूर्ण तथा प्रबल अधिकार है।
डेनबर्ग के अनुसार – “स्वामित्व (ownership) का अधिकार मूर्त वस्तुओं पर सामान्य प्रभुत्व का अधिकार है।”
होम्स के अनुसार – “स्वामित्व के अन्तर्गत स्वामी को सभी को बहिष्कृत करने की अनुमति है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है।”
मार्कवी के अनुसार – “स्वामित्व से अभिप्राय है किसी वस्तु में उसके स्वामी के समस्त अधिकार निहित होना।”
हिबर्ट (Hibbert) के अनुसार – स्वामित्व (ownership) में चार प्रकार के अधिकार शामिल होते हैं –
(1) किसी वस्तु के प्रयोग का अधिकार
(2) दूसरों को उस वस्तु से अपवर्जित करने का अधिकार
(3) उस वस्तु के व्ययन (disposal) का अधिकार
(4) उस वस्तु को नष्ट करने (destruction) का अधिकार।
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ब्लेक के विधि शब्दकोष (6वां संस्करण) के अनुसार – सम्पत्ति के उपयोग और उपभोग के लिए अधिकारों के संग्रह को स्वामित्व कहते हैं जिसमें सम्पत्ति का अन्तरण किसी अन्य को करने का अधिकार भी सम्मिलित है। इस प्रकार किसी सम्पत्ति के प्रति स्वत्व (claim) को विधित: मान्यता देना स्वामित्व कहलाता है।
ऑस्टिन की परिभाषा – स्वामित्व के सम्बन्ध ऑस्टिन की परिभाषा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इनके अनुसार – स्वामित्व किसी निश्चित वस्तु पर ऐसा अधिकार है जो उपयोग की दृष्टि से अनिश्चित, व्ययन की दृष्टि से अनिर्बन्धित एवं अवधि की दृष्टि से असीमित है।
ऑस्टिन के अनुसार स्वामित्व में निम्न तत्वों का होना आवश्यक है –
(i) उपयोग की दृष्टि से अनिश्चित — किसी वस्तु के स्वामी को यह पूर्ण अधिकार होता है कि वह उस वस्तु का मनचाहा उपयोग करे। कोई भी अन्य व्यक्ति उसके उपयोग-उपभोग में अनावश्यक विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि स्वामी द्वारा वस्तु का उपयोग उपभोग इस प्रकार किया जाए कि वह अन्य व्यक्तियों को क्षति या न्यूसेन्स कारित ना करें।
(ii) व्यसन की दृष्टि से अनिर्बन्धित — किसी वस्तु के स्वामी को यह अधिकार होता है कि वह उस वस्तु का मनचाहा व्ययन (disposal) या अन्तरण करे, जैसे-विक्रय, बन्धक, दान आदि। कोई व्यक्ति उसको ऐसे व्ययन या अन्तरण से तब तक इन्कार नहीं कर सकता है जब तक कि उस पर विधितया कोई भार (charge) या निर्बन्धन (restriction) अधिरोपित नहीं किया गया है।
(iii) अवधि की दृष्टि से असीमित – स्वामित्व एक शाश्वत अधिकार है। उसका कभी अन्त नहीं होता। यहाँ तक कि स्वामी की मृत्यु के पश्चात भी वह उसके विधिमान्य वारिसों में निहित रहता है।
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सामण्ड के अनुसार – स्वामित्व एक ऐसी संकल्पना (concept) है, जो व्यक्ति और अधिकार के बीच निम्न दो सम्भावित सम्बन्धों के प्रतिकूल है –
(1) ‘स्वामित्व’ कब्जे (possession) के प्रतिकूल है। स्वामित्व विधित: (de jure) होता है, जबकि कब्जा वास्तविक (de facto) होता है। व्यक्ति किसी वस्तु का स्वामी न होते हुए भी उस पर कब्जा रख सकता है, या कब्जा रखे बिना उसका स्वामी हो सकता है, अथवा उस वस्तु पर स्वामित्व और कब्जा, दोनों ही एक साथ रख सकता है।
(2) स्वामित्व विल्लंगम या ‘भार’ के प्रतिकूल है। “किसी अधिकार का स्वामी वह व्यक्ति होता है जिसमें वह अधिकार निहित हो, जबकि उस अधिकार का विल्लंगमधारी (encumbrancer) वह व्यक्ति होता है जिसमें स्वयं अधिकार निहित नहीं होता, बल्कि उसके सम्बन्ध में कुछ प्रतिकूल, अधीनस्थ या सीमित करने वाले अधिकार निहित होते हैं”।
उदाहरण के लिए भूमि का बन्धकदार (mortgagee) बन्धक का स्वामी होता है। बन्धक सुखाधिकार (easement), पट्टा (lease), सुविधाभार (servitude), प्रतिभूति (security), आदि विल्लंगम के कुछ प्रकार हैं।
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स्वामित्व के आवश्यक तत्त्व (Essentials of Ownership)
(i) स्वामित्व (ownership) में वस्तु पर व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण रहता है अर्थात् वस्तु में व्यक्ति के पूर्णहित निहित रहते हैं।
(ii) किसी वस्तु का स्वामी उस वस्तु का मनचाहा उपयोग, उपभोग, व्ययन आदि कर सकता है।
(iii) किसी वस्तु पर स्वामित्व अवधि की दृष्टि से असीमित अर्थात् शाश्वत होता है।
(iv) स्वामी के अन्य व्यक्तियों को अपनी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपवर्जित करने का अधिकार होता है।
(v) किसी वस्तु के स्वामी को उसे विनष्ट करने का अधिकार होता है।
(vi) स्वामी को अपना स्वामित्व का त्याग करने का पूर्ण अधिकार होता
स्वामित्व का अर्जन (Acquisition of Ownership)
स्वामित्व (ownership) के सन्दर्भ में वस्तुएँ दो प्रकार की हो सकती हैं। ऐसी वस्तुएँ जिनका स्वामित्व किसी व्यक्ति में न हो। ऐसी वस्तुएँ स्वामीहीन सम्पत्ति (res nullius) कहलाती हैं तथा इन्हें कब्जे में लेकर इन पर स्वामित्व अर्जित किया जा सकता है। परन्तु ऐसी वस्तुओं पर, जो पहले से किसी व्यक्ति के स्वामित्व में हैं, व्युत्पन्न रीति (derivative method) से स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता है।
सामण्ड ने स्वामित्व अर्जित करने के दो तरीके बताये हैं –
(1) विधि के प्रवर्तन द्वारा अर्जन –
इसे मूल अर्जन (original acquisition) भी कहते हैं| उदाहरण किसी स्वामित्व विहीन वस्तु को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का उस वस्तु पर स्वामित्व मूल अर्जन द्वारा हासिल किया जाता है।
(2) किसी कृत्य या घटना के परिणाम स्वरुप –
यदि कोई व्यक्ति निर्वसीयतता (intestacy) सम्बन्धी विधि के प्रवर्तन से अथवा दीवाला सम्बन्धी कानून (Law of Bankruptcy) के प्रवर्तन के कारण किसी अन्य की सम्पत्ति पर स्वामित्व प्राप्त करता है, तो ऐसा स्वामित्व विधि की क्रिया द्वारा अर्जित कहा जायेगा| इसे व्युत्पन्न अर्जन (derivative acquisition) भी कहते हैं।
परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु का निर्माण करता है या उसे किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त करना है, तो ऐसा स्वामित्व उस व्यक्ति के कृत्य द्वारा अर्जित कहलायेगा। इसी प्रकार वसीयत, दान या क्रय द्वारा प्राप्त की गई संपत्ति या वस्तु पर स्वामित्व व्युत्पन्न अर्जन द्वारा हासिल किया गया माना जाता है।
‘सामण्ड’ के अनुसार ‘स्वामित्व’ सम्बन्धी धारणा में सामाजिक परिवर्तनों के साथ समय समय बदलाव होता रहता है। उनके अनुसार प्राचीन युग में स्वामित्व के अधिकार को अनन्य तथा पूर्ण (absolute) माना गया था जबकि वर्तमान समय में स्वामित्व के अधिकार को सीमित करने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। आधुनिक भूमि सम्बन्धी कानूनों में भूमि-स्वामियों के अधिकारों पर लगाये गये निर्बन्धन (restrictions) इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
इसके अलावा वर्तमान में निजी स्वामित्व (private ownership) के स्थान पर लोक स्वामित्व (public ownership) को महत्व दिया जा रहा है ताकि निजी व्यक्ति अपनी स्वामित्व शक्ति के बल पर जन साधारण का शोषण ना कर पायें। भारत में प्रमुख उद्योगों, रेलों, बैंकों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण निकायों के राष्ट्रीयकरण की नीति इसी उद्देश्य से अपनाई गई थी। कम्पनी विधि के अन्तर्गत लिमिटेड कम्पनियों को प्रोत्साहन भी इसी प्रयोजन से दिया गया है।
स्वामित्व के लक्षण
(1) स्वामित्व पूर्ण (absolute) अथवा निर्बन्धित (restricted) हो सकता है, अर्थात् वह या तो अनन्य होता है या सीमित। स्वामित्व स्वेच्छा से अथवा विधि द्वारा सीमित हो सकता है। जब एक ही वस्तु या सम्पत्ति के अनेक सह-स्वामी (co-owners) होते हैं, तो प्रत्येक स्वामी का अधिकार दूसरे सह-स्वामी के अधिकार द्वारा सीमित हो जाता है।
(2) किसी देश की आपात्कालीन स्थिति में स्वामित्व के अधिकारों को निर्बन्धित (restrict) किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, युद्ध-काल में भवनों को सेवा के उपयोग या अन्य किसी कार्य के लिए अर्जित किया जा सकता है।
वर्तमान में भाडा नियंत्रण अधिकारियों द्वारा किरायेदारों को मकान आवंटित किया जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि स्वामित्व को निर्बन्धित किया जा सकता है क्योंकि ऐसे मकानों के स्वामियों को रेन्ट कन्ट्रोल अधिकारी के निर्देशों का पालन करना अनिवार्य है।
(3) सम्पत्ति के स्वामी को अपना स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार बनाये रखने के लिए राज्य को कर (tax) देना पड़ता है अत: उसका स्वामित्व इस शर्त पर निर्बन्धित होता है कि वह अपनी सम्पत्ति के उपयोग के बदले राज्य को वांछित कर का भुगतान करता रहे।
(4) कोई भी स्वामी अपने स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग इस प्रकार नहीं कर सकता कि जिससे दूसरे स्वामियों के अधिकारों का अतिलंघन हो। उसे अपने अधिकार का उपयोग इस प्रकार करना चाहिये कि जिससे अन्यों को क्षति न पहुँचे।
(5) कोई स्वामी अपनी सम्पत्ति का मनमाने ढंग से व्ययन (disposition) नहीं कर सकता है। अत: कोई व्यक्ति अपने लेनदारों (creditors) को ऋण की राशि से वंचित करने के कपटपूर्ण उद्देश्य से अपनी सम्पत्ति का अन्तरण नहीं कर सकता है। अनेक देशों में स्वामियों को अपनी सम्पत्ति विदेशियों को अन्तरित करने की छूट नहीं रहती है।
(6) विधि के अन्तर्गत अवयस्क (नाबालिग) अथवा पागल व्यक्ति अचल सम्पत्ति (immovable property) पर स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते क्योंकि विधिक धारणा यह है कि ऐसे व्यक्ति अपने कार्यों की वास्तविक प्रकृति तथा उसके परिणामों को समझने की क्षमता नहीं रखते हैं।
(7) स्वामी की मृत्यु से सम्पत्ति का स्वामित्व समाप्त नहीं हो जाता अपितु वह स्वामी के दायादों (heirs) में अन्तरित हो जाता है।
(8) सामान्यतः पागल, जड़ एवं अवयस्क व्यक्तियों द्वारा स्वामित्व के अधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
स्वामित्व की विषय–वस्तु
साधारणत: स्वामित्व (ownership) की विषय वस्तु केवल भूमि, मकान, टेबल, घड़ी आदि जैसी भौतिक वस्तुएँ ही होती हैं। परन्तु कभी-कभी भूमि या वस्तुओं के अतिरिक्त व्यक्ति के स्वामित्व में अन्य हितों का समावेश भी हो सकता है, जैसे ऋणी से ऋण की राशि प्राप्त करने का अधिकार, पेटेन्ट या कॉपीराइट का अधिकार या किसी अन्य की भूमि में आने-जाने का अधिकार इत्यादि।
सामंड के अनुसार किसी वस्तु पर स्वामित्व का अधिकार स्थायी, असीमित एवं दायाह स्वरूप का होता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी भूमि या वस्तु का उपयोग करने का सीमित अधिकार प्राप्त है, तो वह उसका स्वामी न होकर केवल विल्लंगमधारी (encumbrancer) मात्र होगा। स्वामित्व एक पूर्ण एवं आत्यंतिक अधिकार है।
सामण्ड ने ‘अधिकार’ को स्वामित्व की विषय-वस्तु के रूप में स्वीकार तो किया है किन्तु उनके अनुसार उपर्युक्त अधिकारों में से केवल कुछ अधिकार ही स्वामित्व की विषय-वस्तु हो सकते हैं तथा मनुष्य अधिकार को धारण करता है, न कि उस अधिकार के स्वामित्व को।
उदाहरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को वाक स्वातन्त्र्य का अधिकार (right of speech) या प्रतिष्ठा सम्बन्धी अधिकार (right of reputation) होता है, किन्तु ऐसा नहीं कहा जाता कि उनका उन अधिकारों का स्वामित्व है। इसी प्रकार कोई इन अधिकारों को अन्तरित नहीं कर सकता है
इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि यद्यपि भौतिक वस्तु स्वामित्व की विषय-वस्तु होती है परन्तु इसके कुछ अपवाद हैं। किसी राज्य के क्षेत्राधिकार के बाहरी भू-प्रदेश पर राज्य का स्वामित्व नहीं हो सकता। इसी प्रकार स्वच्छन्दता से विचरने वाले जंगली जानवर, जीवित व्यक्ति, वायु, चन्द्रमा, सूर्य आदि पर स्वामित्व नहीं हो सकता है।
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