नमस्कार दोस्तों, इस लेख में स्वामित्व के विभिन्न प्रकार | Different kinds of Ownership और निहित स्वामित्व तथा समाश्रित स्वामित्व में प्रमुख अन्तर क्या है? का विस्तार से वर्णन किया गया है| अगर आपने इससे पहले विधिशास्त्र के बारे में नहीं पढ़ा है तब आप विधिशास्त्र केटेगरी से पढ़ सकते है|

स्वामित्व के प्रकार

स्वामित्व का सामान्य गुण यह है कि यह अनन्य (exclusive), अव्यवहित (immediate), अशर्त (unconditional) तथा लाभप्रद (beneficial) होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि स्वामित्व में उपर्युक्त सभी तत्व एक साथ विद्यमान हों। उपर्युक्त गुणों के अस्तित्व या अनस्तित्व के अनुसार स्वामित्व के अनेक प्रकार हो सकते हैं।

उदाहरण  यदि किसी व्यक्ति को किसी वस्तु पर अनन्य स्वामित्व प्राप्त नहीं है वस्तुतः उस वस्तु के दो या अधिक स्वामी हैं तब उस स्थिति में उस वस्तु पर प्रत्येक स्वामी का सह-स्वामित्व होगा और इसी प्रकार यदि स्वामित्व किसी शर्त को पूरा किये जाने या न किये जाने पर निर्भर है, तो ऐसा स्वामित्व सशर्त स्वामित्व (conditional ownership) कहलायेगा।

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अध्ययन की दृष्टि से  स्वामित्व के प्रकार का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है

(i) मूर्त तथा अमूर्त स्वामित्व

सामण्ड ने स्वामित्व शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है – सीमित अर्थ में तथा व्यापक अर्थ में| सीमित अर्थ में स्वामित्व का आशय भौतिक वस्तुओं से होता है। जब किसी व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं पर स्वामित्व प्राप्त हो तब उसे मूर्त स्वामित्व (corporeal ownership) कहते हैं। पार्थिव या मूर्त वस्तु से तात्पर्य उन वस्तुओं से है जिन्हें आँखों द्वारा देखा, परखा या स्पर्श किया जा सकता है, जैसे  भूमि, मकान, सिक्के आदि।

पोलक (Pollock) के अनुसार ‘मूर्त स्वामित्व’ से आशय पार्थिव वस्तु के वैध प्रयोग के पूर्ण अधिकार से है। 

व्यापक अर्थ में  स्वामित्व किसी व्यक्ति और उसमें निहित अधिकार का सूचक है। यह अधिकार वैयक्तिक, साम्पत्तिक (proprietary), लोक-लक्षी (in rem) अथवा व्यक्ति-लक्षी (in personam) इनमें से किसी भी स्वरूप का हो सकता है। अधिकार एक ऐसी अमूर्त संकल्पना है जिसकी अनुभूति आँखों द्वारा नहीं की जा सकती|

उदाहरण  पेटेन्ट, कॉपीराइट, मार्गाधिकार, दिये गये ऋण की राशि प्राप्त करने का अधिकार, आदि। अमूर्त स्वामित्व की विषय-वस्तु कोई मूर्त वस्तु न होकर अधिकार जैसी अमूर्त धारणा होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भौतिक वस्तु के स्वामित्व को मूर्त स्वामित्व कहते हैं, जबकि किसी अधिकार के स्वामित्व को अमूर्त स्वामित्व कहा जाता है।

उदाहरण  यदि किसी व्यक्ति की जेब में दस रुपये हैं, तो उसका उन रुपयों पर ‘मूर्त स्वामित्व’ होगा क्योंकि ये रुपये मूर्त वस्तु हैं जिसकी अनुभूति आँखों द्वारा की जा सकती है| परन्तु यदि उस व्यक्ति को अपने ऋणी से दस रुपये लेने हैं, तो उस ऋण राशि को प्राप्त करने के उसके अधिकार को अमूर्त स्वामित्व कहा जायेगा क्योंकि इस अधिकार को आँखों से अनुभव नहीं किया जा सकता है। 

सामण्ड ने स्वामित्व सम्बन्धी इस भेद को निरर्थक माना हैं, उनके अनुसार प्रत्येक स्थिति में स्वामित्व की वास्तविक विषय वस्तु अधिकार ही होती है न कि भौतिक पदार्थ।

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(ii) एकल स्वामित्व तथा सह स्वामित्व

यदि स्वामित्व का अधिकार एक ही व्यक्ति में निहित होता है तब ऐसे स्वामित्व को ‘एकल स्वामित्व’ कहते है। लेकिन स्वामित्व का अधिकार दो या दो से अधिक व्यक्तियों में संयुक्त रूप से निहित हो, तो उस दशा में प्रत्येक के स्वामित्व को ‘सह-स्वामित्व’ कहा जायेगा। इसका आशय यह कभी नहीं है कि सभी व्यक्ति उस सम्पत्ति के किसी हिस्से के पृथक्-पृथक् स्वामी हैं।

स्वामित्व का अधिकार एक अविभाज्य अधिकार है जो एक साथ अनेक व्यक्तियों में संयुक्त रूप से निहित हो सकता है। लेकिन बँटवारे द्वारा स्वामित्व के अधिकार को पृथक्-पृथक् हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है।

सह स्वामित्व (co-ownership) के दो प्रमुख भेद है

(a) सामान्य या एक ही स्वामित्व

सामान्य या एक ही स्वामित्व में दो या दो से अधिक अधिक व्यक्ति एक साथ किसी भूमि या वस्तु पर अपना स्वामित्व रखते हैं। उनका कब्जा अविभाजित रहता है और उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अन्य सह-स्वामियों के साथ उस भूमि या वस्तु का स्वामी होता है।

सामान्य स्वामित्व में किसी एक सह-स्वामी की मृत्यु के बाद उसका अधिकार उसके उत्तराधिकारी को प्राप्त हो जाता है। सामान्य स्वामित्व को सह आभोग (tenancy in common) भी कहते हैं। 

(b) संयुक्त स्वामित्व –

संयुक्त स्वामित्व में किसी सह-स्वामी की मृत्यु हो जाने पर उसका स्वामित्व (ownership) भी समाप्त हो जाता है तथा शेष जीवित सह-स्वामी उत्तरजीविता के अधिकार (right of survivorship) के आधार पर उस सम्पत्ति के पूर्ण स्वामी हो जाते हैं। इसके सह-स्वामी की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी को स्वामित्व प्राप्त नहीं होता, अपितु वह शेष जीवित सह-स्वामियों में अन्तरित हो जाता है।

संयुक्त स्वामित्व को संयुक्त आभोग भी कहा जाता है। किसी भागीदारी फर्म में भागीदारों (Partners) का स्वामित्व संयुक्त स्वामित्व होता है।

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(iii) न्यास स्वामित्व तथा हितप्रद स्वामित्व

सम्पत्ति का न्यास दोहरे स्वामित्व (duplicate ownership) का एक अनोखा उदाहरण है। न्यास सम्पत्ति पर एक ही समय दो व्यक्तियों का स्वामित्व होता है। जैसे – एक तो न्यासी (trustee) उस सम्पत्ति पर स्वामित्व रखता है व दूसरी ओर हिताधिकारी को भी उस सम्पत्ति पर स्वामित्व प्राप्त होता है।

न्यास सम्पत्ति न्यासी के स्वामित्व को ‘न्यास-स्वामित्व’ कहते हैं तथा उस सम्पत्ति पर हितग्राही के स्वामित्व को हितप्रद स्वामित्व कहा जाता है।

वस्तुतः न्यासी का स्वामित्व हितग्राही के कल्याण के लिए ही होता है, जिससे वह नाम मात्र का स्वामी होता है तथा न्यास सम्पत्ति का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए नहीं कर सकता है। न्यास सम्पत्ति का वास्तविक स्वामित्व हितग्राहियों में निहित होता है, अर्थात् सम्पत्ति हितग्राही की होती है, न कि न्यासी की

न्यासी तो न्यास सम्पत्ति से सम्बन्धित हितग्राही के अधिकारों का केवल प्रतिनिधित्व या प्रबंधन करता है, अन्यथा भी हितग्राही को छोड़कर किसी तीसरे व्यक्ति के बजाय न्यास के स्वामित्व को विधिक प्राथमिकता प्राप्त है। 

न्यास के सम्बन्ध में सामण्ड ने कहा कि – इसका मुख्य उद्देश्य उन व्यक्तियों के अधिकारों और हितों को संरक्षण देना है, जो किसी कारणवश स्वयं प्रभावी रूप से अपने हितों का संरक्षण करने में असमर्थ हैं।

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जिन व्यक्तियों को न्यास द्वारा संरक्षण दिया जा सकता है, उन्हें चार भागों में रखा गया है –

(i) अजन्मा व्यक्ति (unborn persons) – ऐसा व्यक्ति जिसका अभी जन्म नहीं हुआ है, उसके स्वामित्व के उचित प्रबन्ध तथा संरक्षण के लिए उन न्यासियों में निहित कर दिया जाता है जो उसकी उचित देखभाल करते हैं। 

(ii) शिश, पागल अथवा अन्य अक्षम व्यक्ति  ऐसे व्यक्तियों की सम्पत्ति के संरक्षण के लिए भी न्यास का निर्माण हो सकता है क्योंकि ये व्यक्ति स्वयं उसका प्रबन्ध करने में असमर्थ होते हैं। 

(iii) किसी सम्पत्ति में समान हित रखने वाले व्यक्ति  यदि किसी सम्पत्ति में समान हित रखने वाले व्यक्तियों की संख्या बहुत अधिक है, तो असंख्य सह-स्वामियों के कारण सम्पत्ति के प्रबन्धन में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होना स्वाभाविक कारण है। अतः ऐसी स्थिति में सम्पत्ति को किसी न्यासी या न्यासियों में निहित कर दिया जाता है जो उसका प्रबन्ध इन असंख्य व्यक्तियों के हित में करते हैं। 

(iv) किसी सम्पत्ति में परस्पर विरोधी हित रखने वाले व्यक्ति  यदि किसी सम्पत्ति में व्यक्तियों के परस्पर विरोधी हित निहित हों, तो ऐसी सम्पत्ति को विनाश से बचाने की दृष्टि से उसे न्यासियों में निहित कर दिया जाता है, जो उस सम्पत्ति की देखभाल परस्पर विरोधी हित रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लाभ के लिए करते हैं। 

(iv) विधिक स्वामित्व तथा साम्यिक स्वामित्व

विधिक स्वामित्व तथा साम्यिक स्वामित्व का भेद इंग्लैण्ड के कॉमन लॉ तथा साम्या विधि पर आधारित है। कई बार किसी एक ही वस्तु पर एक व्यक्ति का स्वामित्व होता है और दूसरे का उस पर साम्यिक स्वामित्व हो सकता है।

उदाहरण के रूप में  किसी न्यासी का स्वामित्व विधिक स्वामित्व होता है, जबकि हितग्राही का स्वामित्व साम्या द्वारा मान्य होने के कारण साम्यिक स्वामित्व माना जाता है।

सारांश यह है कि जिस स्वामित्व का उद्भव कॉमन लॉ के नियमों से हुआ है उसे ‘विधिक स्वामित्व’ कहते हैं और जिस स्वामित्व की उत्पत्ति साम्या के नियमों से हुई है, उसे ‘साम्यिक स्वामित्व’ कहा जाता है। कॉमन लॉ ने साम्यिक स्वामित्व को मान्य नहीं किया था तथा इसे केवल चांसरी न्यायालय ने मान्यता प्रदान की थी|

विधिक स्वामित्व तथा साम्यिक स्वामित्व में अंतर को एक उदाहरण से समझ सकते है

यदि कोई व्यक्ति अपना ऋण किसी अन्य व्यक्ति को मौखिक रूप से समनुदेशित अथवा सुपुर्द (assigns orally) करता है, तो वह व्यक्ति अभी भी उस ऋण का विधिक-स्वामी होगा क्योंकि उसने ऋण को लिखित समनुदेशन द्वारा अन्तरित नहीं किया है तथा दूसरा व्यक्ति उस ऋण का साम्यिक स्वामी माना जायेगा।

यहाँ ऋण एक ही है किन्तु उसके स्वामी दो हैं। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि विधिक स्वामित्व और साम्यिक स्वामित्व का भेद विधिक और साम्यिक अधिकार के भेद से पूर्ण रूप से अलग है।

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(v) निहित स्वामित्व तथा समाश्रित स्वामित्व

ऐसा स्वामित्व जिसमे स्वामित्व प्राप्त करने सम्बन्धी सभी बातें पूर्ण हो जाती हैं तथा स्वामी का हक पहले से ही पूर्ण रहता है तो वह स्वामित्व निहित स्वामित्व (vested ownership) कहलाता है|

जैसे – यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति किसी दूसरे व्यक्ति को अन्तरित कर देता है, तो उस दूसरे व्यक्ति को उस सम्पत्ति पर निहित स्वामित्व प्राप्त होगा। निहित स्वामित्व में स्वामी को पूर्ण अधिकार (absolute right) प्राप्त हो जाते है|

इसी प्रकार यदि स्वामित्व प्राप्त करने सम्बन्धी कुछ बातें घटित या पूर्ण हो जाती हैं लेकिन कुछ का पूर्ण होना या न होना शेष रह जाता है, तो ऐसा स्वामित्व समाश्रित स्वामित्व कहलाता है। समाश्रित स्वामित्व में स्वामी केवल सशर्त स्वामी होता है।

उदाहरण  यदि कोई व्यक्ति अपनी वसीयत में यह उल्लेख करता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी जायदाद उसकी पत्नी को (पत्नी के जीवन-पर्यन्त) सौंपी जाये तथा पत्नी की मृत्यु के पश्चात् वह जायदाद ‘क’ को सौंपी जाये और यदि ‘क’ उस समय तक मृत हो, तो उसे ‘ख’ को सौंपा जाये, तो उस दशा में ‘क’ और ‘ख’ दोनों ही उस सम्पत्ति के समाश्रित स्वामी होंगे क्योंकि ‘क’ को सम्पत्ति तभी मिलेगी जब वसीयतकर्ता की पत्नी की मृत्यु हो जाये और ‘क’ उस समय जीवित हो। इसी प्रकार ‘ख’ को सम्पत्ति तभी मिलेगी जब वसीयतकर्ता की पत्नी और ‘क’ दोनों ही की मृत्यु हो जाये और ‘ख’ जीवित रहे ।

इसका सारांश यह है कि समाश्रित स्वामित्व में सम्पत्ति का स्वामित्व किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने या ना होने पर ही स्वामी में निहित होता है। स्वामी का समाश्रित स्वामित्व विनिर्दिष्ट घटना के घटित होने या ना होने पर निहित-स्वामित्व में परिवर्तित हो जाता है।

समाश्रित स्वामित्व की दो शर्ते है

(a) पुरोभाव्य शर्त (Condition Precedent) –

पुरोभाव्य शर्त ऐसी शर्त होती है जिसकी पूर्ति होने पर अधूरा हक पूरा हो जाता है। पुरोभाव्य शर्त की दशा में जो अधिकार पहले ही सशर्त अर्जित किया गया होता है, वही पूर्ण रूप से अर्जित हो जाता है।

(b) उत्तरभाव्य शर्त (Condition Subsequent) –

उत्तरभाव्य शर्त ऐसी शर्त होती है जिसकी पूर्ति होने पर हक का लोप हो जाता है, अर्थात् वह नष्ट हो जाता है।

उदाहरणा  यदि कोई वसीयतकर्ता अपनी सम्पत्ति पत्नी के लिए इस शर्त के साथ छोड़ जाता है कि यदि वह पुनर्विवाह करती है, तो उस सम्पत्ति से वंचित हो जायेगी तथा वह सम्पत्ति वसीयतकर्ता के पुत्रों को चली जायेगी, तो इस दशा में पत्नी को उस सम्पत्ति पर निहित स्वामित्व प्राप्त होगा तथा वसीयतकर्ता के पुत्र उस सम्पत्ति पर समाश्रित स्वामित्व रखेंगे।

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा की पत्नी के पुनर्विवाह की शर्त उसके स्वयं के निहित स्वामित्व (vested ownership) के सम्बन्ध में उत्तरभाव्य शर्त (condition subsequent) है, जबकि वसीयतकर्ता के पुत्रों के समाश्रित स्वामित्व के सम्बन्ध में वह पुरोभाव्य शर्त (condition precedent) है। पत्नी पुनर्विवाह करती है, तो उसके निहित स्वामित्व का लोप हो जायेगा तथा पुत्रों का समाश्रित स्वामित्व, निहित स्वामित्व में बदल जायेगा तथा वे उस सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेंगे।

पुरोभाव्य शर्त तथा उत्तरभाव्य शर्त में अन्तर –

(i) पुरोभाव्य शर्त हित निर्मित होने की पूर्ववर्ती होती है, जबकि उत्तरभाव्य शर्त की दशा में पहले हित का सृजन होता है तथा शर्त का प्रभाव उत्तरवर्ती होता है। 

(ii) परोभाव्य शर्त में शर्त का अनुपालन होने तक संपदा निहित होना निलम्बित रहता है परन्तु उत्तरभावी शर्त में निलम्बन नहीं होता है। 

(iii) पुरोभाव्य शर्त में एक बार हित निहित किया जाने पर शर्त की अपूर्ति के कारण उसे छीना नहीं जा सकता, परन्तु उत्तरभाव्य शर्त में हित निहित होने पर भी शर्त पूरी न होने की दशा में हित छिन जाएगा। 

(iv) यदि पुरोभाव्य शर्त का पालन असंभव हो या वह अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध हो, तो ऐसी दशा में अन्तरण शून्य तथा निष्प्रभावी होगा, परन्तु उत्तरभाव्य शर्त असंभव, अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध होने पर भी अन्तरण प्रभावी होगा और ऐसी शर्त की अनदेखी कर दी जाएगी।

आशय यह है कि पुरोभाव्य शर्त विधिमान्य होना आवश्यक है, जबकि उत्तरभाव्य शर्त विधिमान्य न होने पर भी उसकी अविधिमान्यता की उपेक्षा करके उसे प्रवर्तित किया जाएगा। 

(v) पुरोभाव्य शर्त के प्रति तत्सदृश्य का सिद्धान्त (Doctrine of cypres) लागू होता है, जबकि उत्तरभावी शर्त की दशा में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है। 

स्वामित्व के प्रकार (निहित स्वामित्व तथा समाश्रित स्वामित्व में अन्तर) 

निहित स्वामित्व समाश्रित स्वामित्व
निहित स्वामित्व किसी शर्त की पूर्ति पर निर्भर नहीं होता है तथा इससे अधिकार का तत्काल सृजन हो जाता है। समाश्रित स्वामित्व किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने या न होने की शर्त पर आधारित रहता है।
अन्तरण द्वारा अन्तरित किये गये निहित स्वामित्व की दशा में यदि अन्तरिती की कब्जा लेने के पूर्व ही मृत्यु हो जाती है तब भी उसका स्वामित्व निरस्त नहीं होगा समाश्रित स्वामित्व अन्तरिती की मृत्यु हो जाने की दशा में शर्त पूरी होने के पहले कार्यान्वित नहीं हो सकेगा।
यदि निहित स्वामित्व के अन्तरिती के वास्तविक उपभोग के पूर्व मृत्यु हो जाती है, तो निहित हित उसके उत्तराधिकारियों को अन्तरित हो जाएगा समाश्रित स्वामित्व को दशा में हित मृतक के वारियों को अन्तरित नहीं होगा क्योंकि ऐसा स्वामित्व असंक्राम्य (inalienable) होता है, जो वंश के आधार पर उत्तराधिकारियों को प्राप्त नहीं हो सकता है।
निहित स्वामित्व अन्तरणीय (transferable) तथा उत्तराधिकार में प्राप्य (heritable) होता है समाश्रित स्वामित्व अन्तरणीय (transferable) तथा उत्तराधिकार में प्राप्य (heritable) नहीं होता। 
निहित स्वामित्व में अधिकार तत्काल ही प्राप्त हो जाता है, भले ही उसका उपयोग भविष्य के लिए टल गया हो समाश्रित स्वामित्व में ऐसा अधिकार तुरन्त प्राप्त नहीं होता है वरन् वह किसी शर्त के घटित होने या न होने पर निर्भर रहता है।

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Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)