इस आलेख में स्वामित्व किसे कहते है, इसकी परिभाषा, तत्व एंव लक्षण के साथ साथ ऑस्टिन की स्वामित्व सम्बन्धी अवधारणा की विवेचना तथा स्वामित्व की अवधारणा के बारे में ऑस्टिन व सॉमण्ड के विचारों में अन्तर स्पष्ट को स्पष्ट किया गया, इस आलेख को अन्त तक जरुर पढ़े-
स्वामित्व – परिचय
स्वामित्व सम्पत्ति से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण अधिकार है जो एक न्यायिक संकल्पना है। रोमन विधि में स्वामित्व को किसी वस्तु पर पूर्ण अधिकार (absolute right) के रूप में बताया गया है। उनकी दृष्टि में स्वामित्व, कब्जे से अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि यह पूर्ण अधिकार का द्योतक है जबकि कब्जा केवल भौतिक नियंत्रण का संकेत देता है।
आंग्ल विधि में ‘स्वामित्व’ शब्द का सर्वप्रथम उपयोग सन् 1583 के आस-पास किया गया था। सम्पति का अधिकार उतना ही पुराना है जितना मानव अधिकार। इसलिए सम्पति के अधिकार को मानव अधिकार भी माना गया है।
स्वामित्व की परिभाषा –
सभी विधिशास्त्री इस बात पर तो सहमत हैं कि, समस्त विधिक अधिकारों में स्वामित्व का अधिकार एक महत्त्वपूर्ण अधिकार है, लेकिन उनके द्वारा दी गई परिभाषाएँ अलग अलग हैं, जिनमे कुछ परिभाषायें इस प्रकार हैं –
डेनबर्ग के अनुसार, “स्वामित्व का अधिकार मूर्त वस्तुओं पर सामान्य प्रभुत्व का अधिकार है।”
होम्स के अनुसार, “स्वामित्व के अन्तर्गत स्वामी को सभी को बहिष्कृत करने की अनुमति है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है।”
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मार्कवी के अनुसार, “स्वामित्व से अभिप्राय है किसी वस्तु में उसके स्वामी के समस्त अधिकार निहित होना।”
हिबर्ट के अनुसार, “स्वामित्व में चार प्रकार के अधिकार निहित रहते हैं –
(i) किसी वस्तु के प्रयोग का अधिकार,
(ii) अन्य व्यक्तियों को वस्तु से अपवर्जित करने का अधिकार,
(iii) वस्तु के व्ययन (disposal) का अधिकार, एवं
(iv) वस्तु को नष्ट करने का अधिकार।”
ऑस्टिन की परिभाषा –
स्वामित्व के सम्बन्ध में ऑस्टिन (Austin) की परिभाषा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ऑस्टिन के अनुसार “स्वामित्व किसी निश्चित वस्तु पर ऐसा अधिकार है जो उपयोग की दृष्टि से अनिश्चित, व्ययन की दृष्टि से अनिर्बन्धित एवं अवधि की दृष्टि से असीमित है।”
स्वामित्व के तत्त्व
ऑस्टिन की इस परिभाषा से स्वामित्व के तीन आवश्यक तत्त्व स्पष्ट होते है –
(i) उपयोग की दृष्टि से अनिश्चित –
किसी वस्तु के स्वामी को यह पूर्ण अधिकार होता है कि वह उस वस्तु का मनचाहा उपयोग करे। कोई भी अन्य व्यक्ति उसके उपयोग उपभोग में अनावश्यक विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकता है। लेकिन इतना जरुर है कि स्वामी द्वारा वस्तु का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि वह अन्य व्यक्तियों को क्षति या न्यूसेन्स कारित ना करें।
(ii) व्यसन की दृष्टि से –
अनिर्बन्धित किसी वस्तु के स्वामी को यह भी अधिकार होता है कि वह उस वस्तु का मनचाहा व्ययन (disposal) या अन्तरण करे, जैसे-विक्रय, बन्धक, दान आदि। कोई व्यक्ति उसको ऐसे व्ययन या अन्तरण से तब तक इनकार नहीं कर सकता है जब तक कि उस पर विधितया कोई भार (charge) या निर्बन्धन (restriction) अधिरोपित नहीं किया गया है।
(iii) अवधि की दृष्टि से –
असीमित स्वामित्व एक शाश्वत अधिकार है। उसका कभी अन्त नहीं होता। यहाँ तक कि स्वामी की मृत्यु के पश्चात भी वह उसके विधिमान्य वारिसों में निहित रहता है।
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आलोचना –
ऑस्टिन की स्वामित्व की इस परिभाषा की अनेक विधिवेताओं द्वारा आलोचना की गई है। आलोचकों का यह कहना है कि ऑस्टिन की स्वामित्व की परिभाषा अपूर्ण एवं अव्यावहारिक है।
आज स्वामित्व के अधिकार पर विभिन्न विधियों के अन्तर्गत अनेक निर्बन्धन अधिरोपित हैं, यथा- राज्य द्वारा जनहित में किसी भूमि या सम्पत्ति का अधिग्रहण था अवाप्त किया जाना, किसी व्यक्ति द्वारा अपनी भूमि या सम्पत्ति पर अवैध पौधारोपण (गांजा, भांग, अफीम आदि) नहीं किया जा सकना आदि।
सॉमण्ड की परिभाषा –
सॉमण्ड की परिभाषा में ऑस्टिन की परिभाषा को परिष्कृत किया गया है। ऑस्टिन की स्वामित्व की परिभाषा को परिमार्जित करते हुए सॉमण्ड का कहना है कि “किसी वस्तु का स्वामित्व व्यक्ति और उस वस्तु के परस्पर सम्बन्ध का प्रतीक है।”
आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि “स्वामित्व किसी व्यक्ति व उसमें निहित अधिकारों का रिश्ता या सम्बन्ध है।”
मार्कवी (Markby) ने भी स्वामित्व की ऐसी ही परिभाषा दी है। उसके अनुसार “स्वामित्व किसी व्यक्ति और किसी वस्तु के बीच ऐसे सम्बन्धों का द्योतक है जो उस वस्तु से सम्बन्धित समस्त अधिकार उस व्यक्ति में निहित करता है।”
सॉमण्ड ने अपनी परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि – किसी भौतिक वस्तु या स्वामित्व ऐसे अवशिष्ट उपयोग का अधिकार है जिसमें से अन्य व्यक्तियों के विल्लंगम (encumbrance) के रूप में निहित उपयोग के समस्त विशेष एवं सीमित अधिकारों को अलग कर दिया गया हो।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी विल्लंगमयुक्त सम्पत्ति के संदर्भ में स्वामित्व एक ऐसा अधिकार है जो उस सम्पत्ति पर होने वाले समस्त विल्लंगमों को निकाल देने के पश्चात् स्वामी के पास शेष बचता है।
उदाहरण – एक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति किसी दूसरे व्यक्ति के पास बन्धक रखता है। यहाँ बन्धकदार का सम्पत्ति पर बन्धक अधिकार उस सम्पत्ति पर विल्लंगम होगा। ऐसी स्थिति में बन्धनकर्ता द्वारा बन्धकदार को प्रदत्त इस बन्धक अधिकार को छोड़कर शेष अधिकार बन्धककर्त्ता का स्वामित्व का अधिकार माना जाएगा।
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सॉमण्ड के अनुसार स्वामित्व एक ऐसी संकल्पना अर्थात् अवधारणा है जो व्यक्ति एवं अधिकार के बीच दो सम्भावित सम्बन्धों के प्रतिकूल है –
(i) स्वामित्व कब्जे के प्रतिकूल है। स्वामित्व विधितः (de jure) होता है जबकि कब्जा तथ्यतः (de facto)। किसी व्यक्ति या किसी वस्तु पर कब्जा स्वामित्व के बिना भी हो सकता है और स्वामित्व के साथ भी।
(ii) स्वामित्व भार या विल्लंगम के प्रतिकूल है। किसी अधिकार का स्वामी ऐसा व्यक्ति होता है जिसमें वह अधिकार निहित हो, जबकि उस अधिकार का विल्लंगमधारी वह व्यक्ति होता है जिसमें स्वयं में अधिकार निहित नहीं होता है। अपितु उसके सम्बन्ध में सीमित करने वाले अधिकार निहित होते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सॉमण्ड के अनुसार स्वामित्व से तात्पर्य किसी व्यक्ति और किसी वस्तु के बीच परस्पर सम्बन्ध से है। साथ ही यह स्वामित्व तथा उसमें निहित किसी अधिकार के सम्बन्ध को अभिव्यक्त करता है।
सॉमण्ड की परिभाषा ऑस्टिन की परिभाषा से कुछ अलग है। ऑस्टिन के अनुसार, स्वामित्व केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित है जबकि सॉमण्ड के अनुसार, स्वामित्व भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं होकर यह एक अधिकार भी है। सॉमण्ड के अनुसार, एक व्यक्ति जिसे स्वत्वाधीन बनाता है प्रत्येक मामले में वह अधिकार है।
सॉमण्ड की परिभाषा अत्यन्त व्यापक होते हुए भी यह आलोचना का विषय रही है। ड्यूगिट (Duguit) का कहना है कि स्वामित्व का सम्बन्ध वस्तु से होता है न कि किसी कल्पित अधिकार से।
इसी तरह प्रो. कूक (Prof. Cook) सॉमण्ड के स्वामित्व सम्बन्धी विचारों को एक अनावश्यक भ्रांति (unnecessary confusion) के रूप में निरूपित करते हैं।
ग्लेनविल विलियम्स के अनुसार सॉमण्ड द्वारा भौतिक पदार्थों के स्वामित्व को एक अलंकार कहना स्वामित्व शब्द के भ्रामक अर्थ का द्योतक है। प्रो. कोकौरेक स्वामित्व के अधिकार को विधिक संरक्षण की विषय वस्तु मानते हैं।
स्वामित्व की कतिपय अन्य विधिशास्त्रियों द्वारा भी परिभाषायें दी गई हैं, यथा-हॉलैण्ड (Holland) के अनुसार, “स्वामित्व से अभिप्राय किसी वस्तु पर पूर्ण नियन्त्रण से है।”
बकलैण्ड (Buckland) के अनुसार, “स्वामित्व किसी वस्तु के प्रति ऐसा अधिकार है जो उस वस्तु में निहित अन्य व्यक्तियों के सभी अधिकारों को निकाल देने के बाद शेष बचता है।”
पोलक (Pollock) के अनुसार, “किसी वस्तु के प्रति विधि द्वारा अनुदत्त उपयोग तथा व्ययन शक्ति की सम्पूर्णता को स्वामित्व कहा जाता है।”
नोएस (Noyes) के अनुसार, “स्वामित्व एक ऐसी चुम्बकीय शक्ति है जो उसमें से सभी उपभोग के अधिकारों को निकाल देने के पश्चात शेष बचती है और जो लुप्त होने वाले अधिकारों द्वारा अस्थायी रूप से धारित विभिन्न तत्त्वों को स्वयं की ओर आकर्षित करती है।”
होहफेल्ड (Hohfeld) के अनुसार, “स्वामित्व अधिकारों, विशेषाधिकारों एवं शक्तियों का ऐसा संकलन है जो स्वामी के अलावा अन्य व्यक्तियों में शाश्वत या सीमित समय के लिए निहित रहता है।”
स्वामित्व के तत्त्व –
स्वामित्व की परिभाषा से हमें इसके महत्वपूर्ण तत्वों के बारें में पता चलता है, जो इस प्रकार हैं –
(i) स्वामित्व में वस्तु पर व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण रहता है अर्थात् वस्तु में व्यक्ति के पूर्णहित निहित रहते हैं।
(ii) किसी वस्तु का स्वामी उस वस्तु का मनचाहा उपयोग, उपभोग, व्ययन आदि कर सकता है।
(iii) किसी वस्तु पर स्वामित्व अवधि की दृष्टि से असीमित अर्थात् शाश्वत होता है।
(iv) स्वामी के अन्य व्यक्तियों को अपनी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपवर्जित करने का अधिकार होता है।
(v) किसी वस्तु के स्वामी को उसे विनष्ट करने का अधिकार होता है।
(vi) स्वामी को अपना स्वामित्व का त्याग करने का पूर्ण अधिकार होता है।
स्वामित्व के लक्षण
स्वामित्व के निम्नांकित लक्षण (characteristics) है –
(i) स्वामित्व पूर्ण अथवा निर्बन्धित हो सकता है।
(ii) विशेष परिस्थितियों में स्वामित्व को निर्बन्धित किया जा सकता है।
(iii) किसी वस्तु के स्वामी को अपने स्वामित्व का अस्तित्त्व बनाये रखने के लिए कर (Tax), शुल्क (Fees) आदि देना पड़ता है।
(iv) कोई भी व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का उपयोग उपभोग इस प्रकार नहीं कर सकता है जिससे अन्य व्यक्तियों को क्षति कारित हो।
(v) कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्ति के साथ कपट आदि करके अपनी सम्पत्ति का व्ययन नहीं कर सकता है।
(vi) किसी सम्मति के स्वामी की मृत्यु हो जाने पर भी स्वामित्व समाप्त नहीं होता अर्थात् वह उसके विधिक उत्तराधिकारियों में निहित हो जाता है।
(vii) सामान्यतः पागल, जड़ एवं अवयस्क व्यक्तियों द्वारा स्वामित्व के अधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
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