हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में सेशन न्यायालय के समक्ष कोई आपराधिक मामला विचारण के लिए किस प्रकार आता है? सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण Trial before the court of Sessions, Sec. 225 – 237 CrPC in Hindi का उल्लेख किया गया है 

सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण

सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 225 से 237 तक में किया गया है।

यह उल्लेखनीय है कि सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण हेतु कोई मामला सीधा नहीं आता है। ऐसा मामला विचारण हेतु दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 209 के अन्तर्गत सेशन न्यायालय को सुपुर्द (Commit) किया जाता है।

सेशन न्यायालय के समक्ष कोई मामला/प्रकरण तब पेश किया जाता है जब सेशन न्यायालय को उस मामले का विचारण करने की अनन्य अधिकारिता होती है। जब ऐसा मामला सेशन न्यायालय में कमिट होकर आता है तब उसके विचारण हेतु CrPC 1973 की धारा 225 से 237 तक में वर्णित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है|

सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण की प्रक्रिया

(1) विचारण का संचालन

संहिता की धारा 225 के अनुसार – सेशन न्यायालय के समक्ष प्रत्येक विचारण में अभियोजन का संचालन लोक अभियोजक (Public Prosecutor) द्वारा किया जायेगा। लोक अभियोजक को ही अधिकार है कि वह अभियोजन के मामले का प्रारम्भ करे, साक्षियों की परीक्षा करे और मामले को वापस ले (राजकिशोर रविदास बनाम स्टेट, ए. आई. आर. 1969, कलकत्ता 328)

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(2) अभियोजन के मामले का कथन

जब कोई मामला धारा 209 के अन्तर्गत सेशन न्यायालय में कमिट किया जाता है और इस दौरान अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष लाया जाता है या वह न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है तब लोक अभियोजक द्वारा इस कथन के साथ मामले का प्रारम्भ किया जायेगा कि –

(क) अभियुक्त के विरुद्ध क्या आरोप है तथा

(ख) ऐसे आरोप या आरोपों को किस साक्ष्य द्वारा साबित किया जायेगा। (धारा 226)

(3) उन्मोचन

जब सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण हेतु मामला आता है। तब सेशन न्यायालय द्वारा –

(क) अभिलेख एवं उसके साथ संलग्न दस्तावेजों पर विचार किया जायेगा; तथा

(ख) अभियोजन एवं अभियुक्त को सुना जायेगा

ऐसी सुनवाई के पश्चात् यदि न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो अभियुक्त को उन्मोचित (discharge) कर दिया जायेगा। (धारा 227)

इसे ‘बहस चार्ज‘ के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि – उन्मोचन का आदेश देने से पूर्व न्यायालय को सम्पूर्ण मामले का अध्ययन एवं उस पर विचार कर लेना चाहिये तथा ऐसे मामलों में न्यायालय को केवल डाकघर की तरह कार्य नहीं करते हुए मामले के सभी तथ्यों, दस्तावेजों एवं प्रमाणों पर विचार करना चाहिये।

जगदीश चन्द्र निझावन बनाम एस. के. सर्राफ के प्रकरण अनुसार – मामले पर विचार करने के पश्चात् यदि न्यायालय यह पाता है कि वह सिविल प्रकृति का है तो अभियुक्त को आपराधिक आरोपों से उन्मोचित किया जा सकता है। (ए. आई. आर. 1999, एस. सी. 217)

(4) आरोप की विरचना

मामले पर विचार करने एवं दोनों पक्षों को सुन लेने के पश्चात् यदि न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त द्वारा अपराध कारित किये जाने की उपधारणा किये जाने के आधार है और मामला अनन्य रूप से (exclusively) सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो उसके द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध लिखित में आरोपों की विरचना की जायेगी, उन्हें अभियुक्त को पढ़कर सुनाया व समझाया जायेगा तथा उससे यह पूछा जायेगा कि वह अपना दोषी होना स्वीकार करता है या मामले का विचारण चाहता है।

सीआरपीसी की धारा 228 के तहत यदि न्यायालय यह पाता है कि मामला अनन्य रूप से सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है तो उसके द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध आरोपों की विरचना करते हुए उसे विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास अन्तरित कर दिया जायेगा। ऐसे अन्तरण पर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उस मामले का विचारण पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामले के विचारण की तरह किया जायेगा।

स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम एस. बी. जौहरी के मामले में कहा गया है कि आरोपों की विरचना करते समय न्यायालय को केवल यह देखना चाहिये कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है या नहीं। इस प्रक्रम पर साक्ष्य के गुणावगुण पर विचार किये जाने की आवश्यकता नहीं होती। (ए. आई. आर. 2000 एस. सी. 665)

सोमा चक्रवर्ती बनाम स्टेट के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि आरोप की विरचना के लिए मात्र अभिलेख पर यह सामग्री होना पर्याप्त है कि अभियुक्त द्वारा किसी अपराध का कारित किया जाना प्रकट होता है। (ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2149)

स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम मोहनलाल सोनी के मामले में तो उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि यदि आरोप की विरचना के समय अभियुक्त की ओर से कोई दस्तावेज प्रस्तुत किये जाते हैं तो उन पर भी न्यायालय द्वारा विचार किया जाना चाहिये। (ए.आई. आर. 2000 एस.सी. 2583)

(5) दोषी होने का अभिवचन

संहिता की धारा 229 के अनुसार अभियुक्त को आरोप सुनाये व समझाये जाने के पश्चात् यदि वह अपने दोषी होने का कथन करता है तो ऐसे कथन को न्यायालय द्वारा लेखबद्ध किया जायेगा तथा अभियुक्त को स्वविवेकानुसार दोषसिद्ध किया जायेगा।

यह उल्लेखनीय है कि दोषी होने का कथन स्पष्ट एवं असंदिग्ध होना चाहिये। यदि अभियुक्त यह कथन करता है कि दुर्घटना का कारण वाहन का ब्रेक खराब हो जाना है तो इसे दोषी होने का कथन नहीं माना जायेगा।

(6) अभियोजन की साक्ष्य

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 230 के अनुसार जब अभियुक्त द्वारा दोषी होने का कथन नहीं किया जाता है अथवा वह विचारण का दावा करता है तब न्यायालय द्वारा अभियोजन की साक्ष्य के लिए तारीख नियत की जायेगी तथा साक्षियों की हाजिरी या दस्तावेजों के प्रस्तुतीकरण हेतु आदेशिका जारी की जायेगी। एंव

संहिता की धारा 231 के तहत नियत तिथि को न्यायालय द्वारा उपस्थित साक्षियों के कथन लेखबद्ध किये जायेंगे और न्यायालय द्वारा उचित समझे जाने पर किसी साक्षी की प्रति परीक्षा को आस्थगित किया जा सकेगा या किसी साक्षी को अतिरिक्त परीक्षा के लिए पुनः बुलाया जा सकेगा।

बन्टी उर्फ गुड बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश के प्रकरण अनुसार – जब न्यायालय के समक्ष कोई साक्षी उपस्थित होता है तो यथासम्भव उसके परीक्षण में विलम्ब नहीं किया जाना चाहिये। लेकिन यदि किसी साक्षी के परीक्षण में थोड़ा विलम्ब हो जाता है तो मात्र इसी आधार पर अभियोजन के मामले पर सन्देह नहीं किया जा सकता है। (ए. आई. आर. 2004 एस. सी. 261)

(7) दोषमुक्ति

सीआरपीसी की धारा 232 के अधीन अभियोजन का साक्ष्य पूर्ण हो जाने और अभियुक्त की परीक्षा करने एवं अभियोजन और प्रतिरक्षा को सुनने के पश्चात् यदि सेशन न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि अभियुक्त द्वारा अपराध किया गया है तब न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त को ‘दोषमुक्त’ (acquit) कर दिया जायेगा।

(8) प्रतिरक्षा का प्रारम्भ

यदि अभियुक्त को धारा 232 के अन्तर्गत दोषमुक्त नहीं किया जाता है, उस स्थिति में अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा आरम्भ करने की अपेक्षा की जाती है और उसके द्वारा प्रस्तुत साक्षियों के कथनों को लेखबद्ध किया जायेगा। यदि अभियुक्त द्वारा कोई लिखित कथन पेश किये जाते हैं तो उन्हें अभिलेख में फाइल किया जायेगा।

यदि अभियुक्त द्वारा किसी साक्षी को बुलवाने के लिए न्यायालय से आदेशिका जारी किये जाने की प्रार्थना की जाती है तो ऐसी आदेशिका जारी की जा सकेगी, बशर्ते कि ऐसी प्रार्थना –

(क) तंग करने, या

(ख) न्याय में विलम्ब करने; या

(ग) न्याय के उद्देश्यों को विफल करने वाली नहीं हो। ( धारा 233)

(9) बहस

संहिता की धारा 234 के तहत जब अभियोजन एवं अभियुक्त का साक्ष्य समाप्त हो जाता है तब लोक अभियोजक द्वारा अपने मामले का उपसंहार किया जायेगा तथा अभियुक्त की ओर से उसका उत्तर दिया जायेगा। यदि इस प्रक्रम पर अभियुक्त की ओर से कोई विधि-प्रश्न उठाया जाता है तो न्यायाधीश की अनुज्ञा से लोक अभियोजक द्वारा ऐसे प्रश्न या प्रश्नों पर अपना निवेदन किया जा सकेगा। इसे बहस अन्तिम (Final arguments) कहा जाता है।

(10) निर्णय

संहिता की धारा 235 के प्रावधानों अनुसार न्यायाधीश द्वारा दोनों पक्षों को सुनने के पश्चात् निर्णय सुनाया जायेगा, यदि अभियुक्त को दोषसिद्ध (Convict) किया जाता है और उसे संहिता की धारा 360 के अन्तर्गत परिवीक्षा का लाभ नहीं दिया जाता है तो उसे ‘दण्ड के प्रश्न’ पर सुना जायेगा तथा विधिनुसार दण्डादेश पारित किया जायेगा।

दण्ड की मात्रा के सम्बन्ध में शिवाजी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, दण्ड का सामाजिक एवं लोक व्यवस्था पर समुचित प्रभाव पड़ता है, अतः यह उदाहरणात्मक होना अपेक्षित है। अपर्याप्त दण्ड देकर अनावश्यक सहानुभूति प्रदर्शित करना न्याय हित में नहीं है। (ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 56)

अल्लाउद्दीन मियाँ शरीफ मियाँ बनाम स्टेट ऑफ बिहार के मामले में यह कहा गया है कि सेशन मामलों में दोषसिद्धि के पश्चात् अभियुक्त को दण्ड के प्रश्न पर अपनी बात कहने का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। सामान्यतः दोषसिद्धि के आदेश के पश्चात् आगामी सुनवाई की तिथि पर दण्ड के प्रश्न पर सुना जाना चाहिये। (ए. आई. आर. 1989 एस. सी. 1456)

मुनियापन्न बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु के प्रकरण में भी यह कहा गया है कि दण्ड के प्रश्न पर सुना जाना मात्र एक औपचारिकता नहीं है। न्यायालय को इस बिन्दु पर सामाजिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए विचार करना चाहिये; न कि न्यायालयिक दृष्टि से। (ए. आई. आर. 1981 एस. सी. 1220)

(11) पूर्व दोषसिद्धि

संहिता की धारा धारा 236 के तहत यदि अभियुक्त पर किसी पूर्व दोषसिद्धि का भी आरोप हो और वह ऐसे आरोप को स्वीकार नहीं करता हो तब ऐसी पूर्व-दोषसिद्धि पर साक्ष्य ली जाकर निष्कर्ष निकाला जायेगा।

(12) धारा 199 (2) के अधीन संस्थित मामलों में विचारण की प्रक्रिया

संहिता की धारा 237 में ऐसे मामलों के विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है जो इस संहिता की धारा 199 (2) के अन्तर्गत संस्थित किये गये हैं।

धारा 199 (2) के अन्तर्गत मानहानि के मामलों के अभियोजन के बारे में प्रावधान किया गया है, यदि मानहानि का कोई मामला –

(क) भारत के राष्ट्रपति;

(ख) उपराष्ट्रपति;

(ग) किसी राज्य के राज्यपाल;

(घ) किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक;

(ड) संघ, संघ राज्यक्षेत्र या राज्य के मंत्री अथवा

(च) संघ या राज्य के कार्यकलापों के सम्बन्ध में नियोजित अन्य लोक सेवक, के लोक कृत्यों के निर्वहन में उसके आचरण के सम्बन्ध में है

तब ऐसे मामलों में –

(i) लोक अभियोजक द्वारा सेशन न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत किया जायेगा

(ii) सेशन न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध का संज्ञान (cognizance) उसको मामला सुपुर्द (commit) किये बिना लिया जायेगा तथा

(iii) सेशन न्यायालय द्वारा उसका विचारण मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किये गये वारन्ट मामलों के विचारण की प्रक्रिया के अनुसार किया जायेगा।

ऐसे मामलों में यदि दोनों पक्षकारों में से कोई भी चाहे तो उनका विचारण बन्द कमरे में किया जा सकेगा। यदि विचारण के दौरान न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त उन्मोचित या दोषमुक्त घोषित किये जाने योग्य है तो वह तदनुसार आदेश पारित कर सकेगा।

यदि न्यायालय का यह भी समाधान हो जाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध अभियोग लगाने का कोई उचित कारण अथवा आधार नहीं था तो वह अपने निर्णय में अभियुक्त को एक हजार रुपये तक के प्रतिकर (compensation) के संदाय का आदेश दे सकेगा। लेकिन ऐसा आदेश देने से पूर्व सम्बन्धित मंत्री अथवा लोक सेवक को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जायेगा।

इससे यह स्पष्ट होता है कि – राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल अथवा संघ राज्य क्षेत्र के प्रशासक के विरुद्ध ऐसा आदेश नहीं दिया जा सकेगा।

पी. सी. जोशी बनाम स्टेट के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि, यदि परिवाद मिथ्या, निरर्थक एवं तंग करने वाला पाया जाता है तो न्यायालय द्वारा परिवादी से अभियुक्त को प्रतिकर दिलाया जा सकता है। (ए. आई. आर. 1961 एस. सी, 387)

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संदर्भ :- बाबेल लॉ सीरीज (बसन्ती लाल बाबेल)

बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)