इस लेख में भारत के संदर्भ में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का संक्षिप्त इतिहास बताया गया है तथा साथ ही यह अधिनियम भारत में कब लागु हुआ एंव इस अधिनियम का समाज के परिदृश्य में उद्देश्य एंव महत्त्व क्या है, का उल्लेख किया गया है, यदि आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है, तो ऐसे में आपको सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के बारे में जानना बेहद जरुरी है –
सूचना का अधिकार (Right to Information Act 2005)
सूचना के अधिकार से तात्पर्य – उस वैधानिक नागरिक अधिकार से है जो किसी देश के व्यक्ति को सरकारी कार्यकरण से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त करने के अवसर एवं पहुँच प्रदान करता है।
सूचना के अधिकार की शुरुआत कब हुई?
आधुनिक विश्व के लगभग 60 अंग्रेजी देशों में सूचना के अधिकार के सम्बन्ध में उपबन्ध किये गये है। स्वीडन ऐसा देश है जिसने सर्वप्रथम सन् 1766 में सूचना के अधिकार का संवैधानिक उपबन्ध किया था।
भारत में सूचना के अधिकार की माँग 70 के दशक में उस समय उठने लगी थी जब दिल्ली में चर्चित चोपड़ा हत्याकांड के बाद हिन्दुस्तान टाइम्स के पत्रकार ने खतरनाक अपराधियों रंगा बिल्ला से जेल में साक्षात्कार हेतु जेल प्रशासन से इस आधार पर अनुमति माँगी थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सूचना की प्राप्ति समाहित है।
भारत का संविधान प्रारम्भ से ही देश के नागरिकों को भाषा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता था किन्तु जानने का अधिकार इसमें सम्मिलित नहीं रहा है। परन्तु कालान्तर में विभिन्न न्यायिक निर्णयों के आधार पर सूचना के अधिकार की संविधान द्वारा भी पुष्टि की गई।
इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अन्तर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार तथा अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का एक आवश्यक अंग माना गया।
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केस – एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1982, एस. सी.149)
इस मामले में सन् 1982 में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित करते हुए कहा कि – यदि एक समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था को पूर्ण मनोयोग के साथ स्वीकार करता है तो वहाँ के नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि उनकी सरकार क्या कर रही है। इसमें न्यायालय का यह भी मानना था कि संविधान के अनुच्छेद 17(1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सूचना जानने एवं प्राप्त करने की स्वतंत्रता भी समाहित है।
इस तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सूचना के अधिकार को अनुच्छेद 19(1)(क) के अन्तर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक अंग माना गया। इसी क्रम में जयपुर शहर की गन्दगी के बारे में दायर एक जनहित याचिका में राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री दिनकरलाल मेहता ने कहा था कि शहर के प्रत्येक नागरिक को शहर की गतिविधियों, प्रशासन के क्रियाकलापों की जानकारी प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है।
सूचना के अधिकार में बाधाएं
भारत में सूचना के अधिकार की राह में दो बड़ी बाधाएं थी जिनमे पहली शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923 थी जिसके द्वारा देश की एकता, अखण्डता तथा सम्प्रभुता की रक्षा के लिए शासन की नीतियों या प्रक्रियाओं की जानकारी आम जनता को नहीं दी जाती थी।
तथा दूसरी बाधा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 थी, इस अधिनियम की धारा 123 के अन्तर्गत यह उपबन्ध किया गया था कि राज्य के कार्यकलापों की जानकारी प्रशासनिक तंत्र के बाहर उजागर करना या ना करना विभागाध्यक्ष पर निर्भर है।
इसी अधिनियम की धारा 124 के अन्तर्गत भी किसी सरकारी लोक सेवक को शासकीय सूचना उजागर करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है इस सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया था और इसी कानून की आड़ लेकर भारत में प्रशासनिक कार्यों की जानकारी जनसाधारण से छुपा कर रखी जाती थी।
इसके परिणामस्वरूप समय की माँग को देखते हुए सन् 1996 के लोकसभा चुनाव के समय सभी राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में सूचना के अधिकार को स्थान दिया तथा 17 अप्रैल 1996 को राज्य स्तर पर सूचना का अधिकार कानून वाले प्रथम राज्य का गौरव तमिलनाडु को प्राप्त हुआ।
भारत में कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ प्रेस की स्वतंत्रता के माध्यम से कतिपय सूचनाएँ प्रदान किये जाने का प्रावधान पहले से ही मौजूद था।
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सूचना का अधिकार अधिनियम कब लागू हुआ –
भारत के सन्दर्भ में सूचना के अधिकार की लड़ाई मुख्य तौर पर ग्रामीण तथा निर्धन वर्ग के लोगों द्वारा लड़ी गई थी। राष्ट्रीय स्तर पर 25 जुलाई 2000 को अटल बिहारी बाजपेयी की राजग सरकार ने एच.डी. शौश्री कार्यदल की रिपोर्ट पर सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2000 प्रस्तुत किया जिसे गृह मंत्रालय की स्थायी समिति को भेजा गया। समिति ने एक वर्ष पश्चात् इसे संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जो सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 के रूप में लागू हुआ।
इस अधिनियम में एक सबसे बड़ी कमी यह थी कि इस अधिनियम में आम जनता द्वारा प्रशासन से तो सूचना मांगने का प्रावधान था लेकिन प्रशासन के लिए कोई बाध्यता नहीं थी कि, वह ऐसी सूचना दे। इसी कारण इस अधिनियम की सम्पूर्ण राष्ट्र में आलोचना हुई।
सन् 2004 में संप्रग सरकार सत्ता में आयी और उसने 23 दिसम्बर 2004 को नया सूचना का अधिकार विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। जिस पर लम्बी बहस हुई है और उसके पश्चात् 146 संशोधनों के साथ 11 मई 2005 को लोकसभा ने इसे स्वीकार किया और अगले दिन ही इसे राज्यसभा द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया।
भारत के राजपत्र में यह अधिनियम 21 जून 2005 को प्रकाशित हुआ और यह अधिनियम सन 2005 दिनांक 12 अक्टूबर 2005 (विजयदशमी के दिन) जम्मू कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू हो गया। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 कुल 31 धारायें तथा दो अनुसूचियों में विभक्त है। देश के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त जम्मू-कश्मीर कैडर के पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी वजाहत हबीबुल्ला को बनाया गया जिसे 26 अक्टूबर 2005 को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा शपथ दिलवायी गई।
सूचना के अधिकार में शामिल अधिकार
सूचना का अधिकार में निम्नलिखित अधिकारों को सम्मिलित किया गया है –
(i) कृति दस्तावेजों, अभिलेखों का निरीक्षण
(ii) दस्तावेजों या अभिलेखों के टिप्पण, उद्धरण या प्रमाणित प्रतिलिपि लेना
(iii) सामग्री के प्रमाणित नमूने देना
(iv) डिस्केट फ्लापी, टेप वीडियो कैसेट के रूप में सूचना अभिप्राप्त करना आदि।
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सूचना के अधिकार का मुख्य उद्देश्य क्या है?
(i) लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में पारदर्शिता लाना तथा उसके उत्तरदायित्व में संवर्धन करना।
(ii) लोक प्राधिकारियों के नियंत्रधीन सूचना तक जनसाधारण की पहुँच सुनिश्चित करना ।
(iii) भ्रष्टाचार को रोकना।
(iv) केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोगों का गठन करना।
(v) सरकारों के प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करना ।
(vi) नागरिकों के सूचना के अधिकार की व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करना।
(vii) शासन तथा उसके उपक्रमों को उत्तरदायी बनाना ।
(viii) संवेदनशील सूचनाओं की गोपनीयता बनाये रखना।
(ix) विरोधी हितों के बीच सामंजस्य स्थापित करना।
(x) लोकतंत्रात्मक आदर्श की सम्प्रभुता को बनाये रखना।
(xi) जन सामान्य की सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करना।
सूचना का अधिकार अधिनियम की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?
सूचना का अधिकार अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है –
(i) सुशासन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक।
(ii) प्रशासनिक जवाबदेही और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना।
(iii) सरकारी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता को प्रोत्साहन करना ।
(iv) जन सेवाओं की आपूर्ति की प्रक्रिया में सुधार की सम्भावना।
(vi) जीवन सम्बन्धी अनिवार्य आवश्यकताओं का संरक्षण।
(vii) प्रशासन में जन सहभागिता सुनिश्चित करने का सबसे सशक्त माध्यम ।
(viii) सामाजिक आर्थिक विकास की प्रेरणा प्रदान करना। 8. प्रशासनिक कार्यकुशलता के स्तर में सुधार लाना।
(ix) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना।
(x) शासन व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर नागरिकों को जागृत करना ।
(xi) भ्रष्टाचार के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग ।
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संदर्भ – बुक प्रशासनिक विधि (डॉ. गंगा सहाय शर्मा)