हेल्लो दोस्तों, इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता की प्रकृति, विधि के प्रकार, प्रक्रिया विधि एवं मौलिक विधि में अन्तर, सिविल प्रक्रिया संहिता का उद्देश्य को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –

सिविल प्रक्रिया संहिता की प्रकृति

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसे समाज एवं परिवार में अनेक कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वाह करना होता है, जैसे – सम्पत्ति का लेन-देन, शादी-विवाह, व्यापार-व्यवसाय, निर्माण कार्य आदि। कभी-कभी ये सहज ही में सम्पन्न हो जाते है तो कभी पग-पग पर व्यवधानों का सामना करना होता है।

अपनी व्यथा के निवारण के लिए वह न्यायालय की शरण भी लेता है। न्यायालय अपनी एक विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से व्यथित पक्ष को उपचार प्रदान करते हैं। इसी प्रक्रिया का उल्लेख इस संहिता में किया गया|

सिविल प्रक्रिया संहिता अपने आप में एक पूर्ण संहिता है। जब एक बार कोई कार्यवाही इस संहिता के अन्तर्गत प्रारम्भ कर दी जाती है तो अधिकार एवं उपचार, अन्यत्र कहीं न कहीं मिल ही जाते है। संहिता में विहित प्रक्रिया के अलावा अन्य सारी प्रक्रियायें निषेधित है।

कोई व्यक्ति अपने अधिअक्र एंव दयित्व्यों को किस तरह से प्रवर्तन करेगा या इनका उल्लंगन होने पर किस प्रक्रिया का अनुसरण करेगा, इन सबका उल्लेख प्रक्रिया सम्बन्धी विधि में दिया गया है|

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सिविल प्रक्रिया संहिता में विधि के प्रकार –

विधि को मूलतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

(i) मौलिक अथवा सारभूत विधि – मौलिक विधि वह है जो अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को परिभाषित करती है अथवा उनकी विवेचना करती है।

सारभूत विधि का कार्य सारवान् विधिक अधिकारों, प्रास्थिति तथा विधिक कर्तव्यों को परिभाषित करना तथा सृजित व प्रदत्त करना है, भारतीय संविदा अधिनियम, सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम, भारतीय दण्ड संहिता आदि मौलिक विधियाँ है|

(ii) प्रक्रिया विधि – प्रक्रिया विधि वह है जो मौलिक विधि को प्रवृत्त करने के लिए कार्यवाही का निर्धारण करती है। सॉमण्ड के अनुसार – विधि की वह शाखा है जो विवाद के क्रम को प्रशासित अथवा नियंत्रित करती है प्रक्रिया विधि कहलाती है। सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की प्रस्तावना प्रक्रिया सम्बन्धी उद्देश्य को स्पष्ट करती है|

प्रक्रिया विधि वास्तव में कार्यवाही की विधि को कहते है, जिसके अन्तर्गत सिविल एवं दाण्डिक समस्त कार्यवाहियाँ आ जाती है। इस प्रकार व्यवहार प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम आदि प्रक्रिया विधि है। वास्तव में प्रक्रियात्मक विधि का कार्य उस तन्त्र एवं रीति को सुनिश्चित करना है जिसके द्वारा व्यक्ति के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित एवं लागू किया जाना है।

घनश्याम दास बनाम डोमीनियम ऑफ इण्डिया के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – सिविल प्रक्रिया संहिता प्रक्रियात्मक विधि है। यह न तो कोई अधिकार देती है और न किसी अधिकार को छीनती है। यह सिविल न्यायालयों द्वारा अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया को विनियमित करती है। (ए.आई.आर. 1984 एस. सी. 1004)

प्रक्रिया विधि एवं मौलिक विधि में अन्तर –

इस आलेख में प्रक्रिया विधि एवं मौलिक विधि के अन्तर को संक्षेप में स्पष्ट किया गया है। इन दोनों में मुख्य रूप से निम्नलिखित अन्तर मिलता है –

(i) प्रक्रिया विधि वाद की कार्य प्रणाली को नियंत्रित करती है, जबकि मौलिक विधि का सम्बन्ध वाद के प्रयोजन एवं विषय-वस्तु से होता है।

(ii) प्रक्रिया विधि का सम्बन्ध उन साधनों से होता है जो न्याय प्रशासन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए प्रयोग में लाये जाते है, जबकि मौलिक विधि का सम्बन्ध स्वयं न्याय प्रशासन के उद्देश्यों से होता है।

(iii) प्रक्रिया विधि वाद से सम्बन्धित पक्षकारों एवं न्यायालयों के सम्बन्धों एवं आचरणों को नियन्त्रित करती है, जबकि मौलिक विधि वाद की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में पक्षकारों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं आचरणों को नियन्त्रित करती है।

(iv) प्रक्रिया विधि ऐसी कार्य प्रणाली को नियन्त्रित करती है जो न्यायालय के भीतर है, जबकि मौलिक विधि उन तथ्यों को नियन्त्रित करती है। जो न्यायालय से बाहर के है।

(v) प्रक्रिया विधि वाद की कार्य-प्रणाली को नियन्त्रित करती है, जबकि मौलिक विधि अधिकारों एवं कर्त्तव्यों की विवेचना करती है।

प्रक्रिया विधि का आशय

किसी भी प्रक्रिया विधि का आशय न तो नये अधिकारों का सृजन करना होता है और ना ही विद्यमान अधिकारों को छीनना| यह मुख्य रूप से न्यायालयीन प्रक्रिया को विनियमित करती है। इसी संदर्भ में सिविल प्रक्रिया विधि का आशय भी सिविल न्यायालयों में केवल प्रक्रिया को विनियमित करना है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है निति प्रक्रिया सहिता मौलिक विधि नहीं होकर प्रक्रिया सम्बन्धी विधि है। अतः इसका उद्देश्य वाद संस्थित होने से डिक्री के निष्पादन तक की कार्यवाहियों को नियमित करना है।

सिविल प्रक्रिया संहिता का उद्देश्य

जैसा की संहिता की प्रस्तावना में कहा गया है की यह अधिनियम सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया से सम्बन्धित है जिसमे कहा गया है कि, व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंगन होने पर न्यायालय किस प्रक्रिया से उसे उपचार प्रदान करेगा और उन उपचारों को किस प्रकार से निष्पादित किया जाएगा|

उपरोक्त प्रस्तावना से सिविल प्रक्रिया संहिता के निम्न उद्देश्य स्पष्ट होते है –

(i) संहिता का उद्देश्य मात्र सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया को समेकित एवं संशोधित करना है।

(ii) संहिता का मुख्य उद्देश्य पीड़ित पक्षकारों को अपने अधिकारों एवं दायित्वों को सरल प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करवाना है।

(iii) संहिता एक सामान्य विधि है जो व्यक्तिगत एवं विशिष्ट विधि को प्रभावित नहीं करती है अर्थात् यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारों का कार्यान्वयन विशिष्ट अथवा क्षेत्रीय विधि की प्रक्रिया द्वारा करवाना चाहता है तो उसे इस संहिता में दी गई प्रक्रिया प्रभावित नहीं करेगी।

(iv) कोई भी व्यक्ति चाहे निर्धन हो या धनवान सभी को इस संहिता में अपने अधिकारों के उल्लंघन की समान प्रक्रिया उपलब्ध है। निर्धन व्यक्तियों को धन के अभाव के कारण विशिष्ट प्रावधान संहिता में उपलब्ध है।

(v) 1908 की सिविल प्रक्रिया संहिता में पूर्व संहिता के दोषों को दूर कर के प्रक्रिया में विलम्ब को दूर करने का प्रयास किया गया है।

(vi) समय व्यतीत होने के परिणामस्वरूप यदि संहिता में उल्लिखित प्रक्रिया किसी पक्षकार के साथ न्याय कर पाने में विफल रहती है तो इस संहिता में धारा 151 के अन्तर्गत न्यायालय को न्याय दिलाने के उद्देश्य से ऐसी प्रक्रिया के परिवर्तन का अधिकार प्रदान किया गया है।

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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)