साक्ष्य कानून में सह अपराधी कौन है? साक्ष्य में उसकी स्थिति और कथन का महत्त्व

इस लेख में साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 के तहत सह अपराधी कौन है? और उसकी साक्ष्य का क्या महत्व है? क्या न्यायालय सह अपराधी के कथन के आधार पर दण्डादेश पारित कर सकता है? का उल्लेख किया गया है, उम्मीद है कि यह लेख आपको पसंद आऐगा –

सह अपराधी परिचय –

कुछ लोग अपराध कारित करने मे अपना षड्यंत्रपूर्वक आशय रखते है और निर्दयता से उस अपराध को पूरा करते है तथा कोई भी ऐसी निशानी नहीं छोड़ते जो साक्ष्य बन सके|

इसलिए सामान्यता पुलिस उनमे से किसी एक या अधिक को इस शर्त के साथ की वह अपने साथियों के खिलाफ साक्ष्य देगा, उसे सह अपराधी कहा जाता है और वह सरकारी गवाह बन जाता है तथा उसे क्षमा कर दिया जाता है| ऐसा सह अपराधी उन व्यक्तियों के खिलाफ गवाही देता है जिनके साथ मिलकर उसने अपराध किया था|

अपराधी मुख्यतया दो प्रकार –

(i) मुख्यअपराधी एवं

(ii) सह अपराधी तथा दाण्डिक विधि के अन्तर्गत दोनों दण्डनीय माने जाते हैं। अधिकांश अपराधों में यह दोनों प्रकार के अपराधी शामिल रहते है।

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सह अपराधी कौन होता है?

सह अपराधी ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जिसने किसी अपराध को घटित करने में अन्य अपराधियों के साथ भाग लिया हो यानि जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर किसी अपराध को करते है तब उन सभी व्यक्तियों को सह अपराधी कहा जाता है|

सह अपराधी होने के लिए किसी व्यक्ति को उसी अपराध के किये जाने में भाग लेना आवश्यक है और ऐसा भाग लेना प्रेरक, सहयोगी अथवा सह अपराधी के रूप में हो सकता है|

ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार वह व्यक्ति जिसने एक दोषी कार्य में भाग लिया हो और वह उस स्थान पर उपस्थित हुआ हो जहां अपराध किया गया है या भले ही वह उस स्थान पर अनुपस्थित हो जहाँ अपराध किया गया है, लेकिन उस व्यक्ति ने अपराध के लिए सलाह दी या उसे प्रोत्साहित (उत्प्रेरित) किया तो वह एक आपराधिक कार्रवाई में उत्तरदायी होगा और ऐसे व्यक्ति को सह अपराधी कहा जाएगा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में सह – अपराधी की परिभाषा नहीं दी गई है, लेकिन धारा 133 में सह-अपराधी की साक्ष्य के बारे में प्रावधान किया गया है। ऐसी स्थिति में सह-अपराधी की साधारण परिभाषा ही करनी होगी।

परिभाषा  सह अपराधी वह व्यक्ति होता है जो अपराध करने में बराबर साथ रहता है, सह–अपराधी शब्द में अपराध में साथ साथ दोषी होना विदित होता है| इसी तरह घूस लेना अपराध है और जो किसी लोक अधिकारी को घूस देने का प्रस्ताव देता है, वह सह–अपराधी होता है|

सह–अपराधी से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से भी है, जो अपराध कारित करने में किसी अन्य अभियुक्त की सहायता करता है या उसे सहयोग देता है।

आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – सह अपराधी अपराध में सहदोषी या साझीदार होता है और उसका अपराध से सम्बन्ध होता है।

लेकिन यह स्पष्ट करना उचित होगा की कोई व्यक्ति जो गुप्तचर या जासूस की हैसियत से अपराध का पता लगाने के लिए किसी अपराध से सम्बन्ध रखता है, उसे सह अपराधी नहीं कहा जाएगा|

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आर. के. डालमिया बनाम दिल्ली प्रशासन  के मामलें में न्यायालय ने सह–अपराधी की परिभाषा इस प्रकार दी है कि –

जो व्यक्ति अपराध कारित करने में भाग लेता है या सहायक बनता है या उसका उत्प्रेरण करता है, उसे सह अपराधी कहा जाता है।

इसी तरह चौरी के अपराध में अपराधी से चोरी का सामान खरीदने वाला व्यक्ति भी सह–अपराधी होता है। इसके अलावा जो व्यक्ति अपराध के कारित किए जाने में चौकीदार की भूमिका निभाता है, वह भी सह अपराधी होता है।

लेकिन एम. ओ. शमसुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ केरल के प्रकरण में कहा गया कि – रिश्वत के मामलों में अपराधी के खिलाफ जाल बिछाने में रिश्वत देने की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति सह–अपराधी नहीं होता।  (1995) 2 एस. सी. सी. 351

इस प्रकार अपराध कारित करने में सह – अपराधी के लिए निम्न बातें आवश्यक है –

(क) उसका अपराध में भाग लेना, या

(ख) अपराध में सहयोग करना, या

(ग) अपराध का दुष्प्रेरण करना, आदि।

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सह – अपराधी की साक्ष्य का महत्त्व

हमारे सामने कई बार प्रश्न आता है कि क्या सह–अपराधी की साक्ष्य का महत्त्व है? अथवा क्या सह–अपराधी की साक्ष्य पर न्यायालय दण्डादेश दे जा सकता है? भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 133 में हमें इस प्रकार जे सभी प्रश्नों का उत्तर मिलता है। धारा 133 के अनुसार सामान्य नियम यह है कि –

(i) सह अपराधी, अभियुक्त व्यक्ति के खिलाफ सक्षम गवाह है,

(ii) दोषसिद्वि इसलिए अवैध नहीं होगी कि वह सह अपराधी के असंपुष्ट परिसाक्ष्य के आधार पर की गई है|

यह असंपुष्ट परिसाक्ष्य का तात्पर्य यह है कि – सह अपराधी ने अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य दिया है, जबकि अन्य साक्ष्यों के द्वारा सह अपराधी के साक्ष्य की पुष्टि नहीं की गई है|

इस प्रकार धारा 133 के नियमों से यह स्पष्ट है कि –

(क) सह – अपराधी अभियुक्त के विरुद्ध सक्षम साक्षी हो सकता है, तथा

(ख) कोई दोष सिद्धि केवल इसलिए अवैध नहीं होगी, क्योंकि वह किसी सह – अपराधी के अपरिपुष्ट (uncorroborated) परिसाक्ष्य के आधार पर की गई है।

क्या सह –अपराधी की साक्ष्य की सम्पुष्टि आवश्यक है? –

यद्यपि धारा 133 के अनुसार अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए सह –अपराधी की साक्ष्य की सम्पुष्टि आवश्यक नहीं है, लेकिन यदि धारा 114 के दृष्टान्त – (ख) के सन्दर्भ में देखें तो सह –अपराधी के साक्ष्य की सम्पुष्टि आवश्यक प्रतीत होती है।

वर्तमान में न्यायालयों की भी यह धारणा बनने लगी है कि सह – अपराधी की साक्ष्य की पुष्टि होना आवश्यक है। मात्र सह–अपराधी की अपरिपुष्ट साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जाना सुरक्षित नहीं है।

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प्रमुख वाद

जी. एस. बक्षी बनाम दिल्ली प्रशासन के प्रकरण में यह कहा गया है कि – सह अपराधी की साक्ष्य को अत्यन्त सावधानी से ग्राह्य किया जाना चाहिए एवं तात्त्विक रूप से उसकी सम्पुष्टि हो जानी चाहिए। (ए. आई. आर. 1979 एस. सी. 569)

किंग बनाम वास्कर विले के प्रकरण में न्यायाधीश विस्काउन्ट रीडिंग द्वारा यह कहा गया है कि – यद्यपि सह अपराधी की साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि के लिए न्यायालय के समक्ष कोई वैधानिक बाधा नहीं है, फिर भी यह एक व्यावहारिक नियम बन गया है कि ऐसे साक्ष्य की अन्य साक्ष्य द्वारा पुष्टि कर ली जाये। [(1916) 2 के. बी. 58]

रामेश्वर कल्याण सिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान इस प्रकरण में अपीलार्थी (रामेश्वर कल्याण सिंह) पर एक आठ वर्षीय बालिका (पूरनी) के साथ बलात्कार करने का आरोप था। इसमें स्वयं उस बालिका का साक्ष्य और उसकी माता को किया गया कथन प्रश्नगत था।

उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि वह बालिका स्वयं साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के अन्तर्गत सक्षम साक्षी है और सह–अपराधी की साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकता है, लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे साक्ष्य को विश्वसनीय बनाने के लिए किसी अन्य साक्ष्य द्वारा उसकी सम्पुष्टि अपेक्षित है। (1952 एस. सी. आर. 526)

के. हासिम बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु के प्रकरण में यह कहा गया है कि – सह अपराधी की साक्ष्य की सम्पुष्टि की आवश्यकता एक प्रज्ञा का नियम है, ऐसी सम्पुष्टि न्यायाधीश के मस्तिष्क में साफ-साफ होनी चाहिए। (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 120)

सह-अपराधी की साक्ष्य की सम्पुष्टि क्यों आवश्यक है? –

सम्पुष्टि की आवश्यकता के तीन कारण माने गए है –

(क) सह-अपराधी की प्रवृत्ति सदैव अपने ऊपर से दोष हटाने की रहती है, अतः वह मिथ्या साक्ष्य दे सकता है,

(ख) अपराध में एक सहयोगी होने के कारण इस बात की प्रबल सम्भावना रहती है कि वह शपथ की पवित्रता की अवहेलना कर सकता है तथा मिथ्या साक्ष्य दे सकता है, एवं

(ग) उसका अभियोजन पक्ष की ओर झुकाव हो सकता है, क्योंकि अभियोजन पक्ष द्वारा उसे क्षमा का वचन दिया जाता है।

इस सम्बन्ध में सुरेश चन्द्र बाहरी बनाम स्टेट ऑफ बिहार का प्रकरण है, जिसमे इन्ही सम्भावनाओं एवं शंकाओं से बचने के लिए सह अपराधी के साक्ष्य की सम्पुष्टि की अपेक्षा की गई है (ए. आई. आर. 1994 एस. सी. 2420)।

सह अपराधी के साक्ष्य की आवश्यकताएं –

किसी भी प्रकरण में सह-अपराधी के साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि करने के लिए निम्न बातें आवश्यक है –

(i) सह अपराधी का साक्ष्य विश्वास के योग्य होना चाहिये,

(ii) अपराध के साथ अभियुक्त का सम्बन्ध स्थापित करते हुए तात्विक विशिष्टियों में उसका साक्ष्य संपुष्ट किया जाना चाहिए,

साधारण नियम यह है कि, सह-अपराधी के परिसाक्ष्य में संपुष्टि की आवश्यकता सदैव रहती है जिस कारण सह-अपराधी के साक्ष्य की सम्पुष्टि का नियम अब एक विधिक नियम बन गया है|

सरदार बनाम राज्य के प्रकरण में अभिनिर्धारित किया गया कि, जब तक ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाता तब तक इकबाली गवाह के साक्ष्य पर दोषी व्यक्ति के विरुद्ध दोषसिद्धि अभिलिखित करना निरापद नहीं है (नि.प. 1974 राज. 18 पृष्ठ 21)

महत्वपूर्ण आलेख

 

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संदर्भ – Books :- Rajaram Yadav, The Law of Evidence (17th Edition)

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