इस लेख में प्रशासनिक विधि के अधीन सशर्त विधायन किसे कहते है? सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजित विधायन में अन्तर । what is conditional legislation & Difference between conditional legislation and delegated legislation का उल्लेख किया गया है, यदि आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा की  तैयारी कर रहे है, तो ऐसे में आपको प्रशासनिक विधि के बारे में जानना बेहद जरुरी है –

सशर्त विधायन (delegated legislation)

सशर्त विधायन एक ऐसा विधायन है जिसे सम्पूर्ण से पारित तो विधायिका द्वारा किया जाता है लेकिन उसका क्रियान्वयन कार्यपालिका अर्थात् प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है। प्रशासन को ही यह सुनिश्चित करना होता है कि किसी विधि-विशेष को –

(i) कब लागू किया जाये, और

(ii) उसका विस्तार क्या हो।

कार्यपालिका द्वारा यह कार्य शासकीय राजपत्र में अधिसूचना (Notification) जारी करके किया जाता है। साथ ही अधिनियम में उसकी प्रयोज्यता एवं विस्तार के बारे में कुछ शर्तें भी सुनिश्चित की जाती है। उन शर्तों के पूरा हो जाने पर ही कार्यपालिका द्वारा अधिनियम को लागू किये जाने पर ही कार्यपालिका द्वारा अधिनियम को लागू किये जाने की तिथि एवं क्षेत्र का विनिश्चय किया जा सकता है।

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सशर्त विधायन की परिभाषा

आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अधिनियम में उन परिस्थितियों का उल्लेख कर दिया जाता है जिनमें उसे लागू किया जाना होता है और जब ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है तब अधिनियम के लागू होने की तिथि की घोषणा कर दी जाती है, इस प्रक्रिया को हम संक्षेप में ‘सशर्त विधायन (Conditional legislation) कह सकते है।

केस – जागृति बनाम स्टेट (.आई.आर. 1994 आन्ध्र प्रदेश 225)

इस प्रकरण में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वर्तमान समय में सामान्यतः किसी अधिनियम को लागू करने की तिथि सुनिश्चित करने का कार्य शासन-प्रशासन के जिम्मे छोड़ दिया जाता है। शासन-प्रशासन को ही यह देखना होता है कि क्या अधिनियम को लागू किये जाने के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई है। उसे प्रयोज्यता की अवधि में वृद्धि करने का भी अधिकार होता है। इसे सशर्त विधायन कहा जाता है। ऐसे विधायन को अत्यधिक प्रत्यायोजन का मामला मानकर निरस्त नहीं किया जा सकता है।

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केस – क्वीन बनाम बूराह (आई.एल.आर. 1878, 5 आई.ए. 178)

प्रिवी कौन्सिल द्वारा इस प्रकरण में कहा गया है कि – जहाँ विधानमण्डल के पास विधि निर्माण की सम्पूर्ण शक्तियाँ होती हैं वहाँ उनका प्रयोग अबाध रूप से या सशर्त किया जा सकता है। विधानमण्डल द्वारा किसी विधि को लागू करने की तिथि एवं उसके क्षेत्र को सुनिश्चित करने का कार्य शासन-प्रशासन को सौंपा जा सकता है| उस स्थिति में यही सशर्त विधायन है।

सशर्त विधायन में विधियों का निर्माण पूर्णरूपेण विधानमण्डल द्वारा किया जाता है, केवल उसका प्रवर्तन किसी शर्त के पूरा होने पर शासन प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है। शर्तों की पूर्ति का समाधान बाहरी शक्ति अर्थात् शासन प्रशासन को ही करना होता है।

ऐसा ही एक और मामला ‘एम्परर बनाम बनवारीलाल शर्मा’ (ए.आई.आर. 1945 पी.सी. 48) का है। इसमें गवर्नर जनरल द्वारा भारत शासन अधिनियम, 1935 की धारा 317 के अधीन एक अध्यादेश जारी कर विशेष आपराधिक न्यायालयों के गठन की व्यवस्था की गई थी। कार्यपालिका को यह अधिकार दिया गया था कि जब भी प्रान्तों में आपात स्थिति उत्पन्न हो, इन न्यायालयों को प्रवर्तित किया जा सकता है। कार्ड चांसलर विस्काउन्ट साइमन ने इसे सशर्त विधायन माना।

सशर्त विधायन कहाँ लागु होता है

सशर्त विधायन वहाँ परिलक्षित/लागु होता है जहाँ विधायिका द्वारा निम्नलिखित मामलों में प्राधिकार शासन प्रशासन को प्रदान किया जाता है –

(i) किसी विद्यमान विधि को किसी क्षेत्र विशेष या भू-भाग में विस्तार देने के सम्बन्ध में,

(ii) किसी क्षेत्र विशेष या भू-भाग में विधि को लागू करने की तिथि को सुनिश्चित करने के सम्बन्ध में,

(iii) अधिनियम की सीमा तथा दायरे को सुनिश्चित करने के सम्बन्ध में,

(iv) किसी अस्थायी अधिनियम की अवधि में अभिवृद्धि करने के सम्बन्ध में,

(v) परिस्थिति विशेष में, जहाँ शासन किसी विशेष विधि को लागू करना उचित समझे, लागू करने के सम्बन्ध में, तथा

(vi) विधि के प्रवर्तन हेतु तथ्यों एवं आँकड़ों को तय करने के सम्बन्ध में।

इस प्रकार कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सशर्त विधायन (Conditional Legislation) में विधियों का निर्माण तो विधायिका द्वारा ही किया जाता है लेकिन कुछ शर्ते पूरी होने पर उनके प्रवर्तन की तिथि एवं विस्तार तय करने का कार्य शासन-प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है।

सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजन विधायन में अन्तर 

सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजित विधायन में गहरा अन्तर पाया जाता है और यह अन्तर वस्तुतः विवेकाधिकार के बिन्दु पर आधारित है।

सशर्त विधायन में कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्तियाँ अत्यन्त कम होती है। इसमें विधियों का निर्माण विधायिका द्वारा ही किया जाता है लेकिन कार्यपालिका को केवल प्रवर्तन की तिथि एवं क्षेत्र सुनिश्चित करने का विवेकाधिकार प्रदान किया जाता है। जबकि प्रत्यायोजित विधायन में कार्यपालिका को विस्तृत शक्तियाँ प्रदान की जाती है।

सशर्त विधायन में कार्यपालिका को तथ्यान्वेषण के द्वारा उन परिस्थितियों का पता लगाना होता है, जिनमें किसी विधि को लागू किया जाना है, इससे अधिक और कुछ करने का विवेकाधिकार कार्यपालिका को नहीं होता है। जबकि प्रत्यायोजित विधायन में कार्यपालिका को इस बात का विवेकाधिकार होता है कि उसके द्वारा विवेक शक्ति का प्रयोग किया जाये या नहीं।

हमदर्द दवाखाना बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 554) के प्रकरण में सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजित विधायन में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि –

सशर्त विधायन में विधि का निर्माण पूर्णरूपेण विधायिका द्वारा किया जाता है, कार्यपालिका पर केवल कतिपय शर्तों की पूर्ति कर उसके क्रियान्वयन का कर्त्तव्य अधिरोपित किया जाता है। जबकि प्रत्यायोजित विधायन में प्रत्यायोजित किया हुआ अधिकारी विधियों में निर्धारित सीमा में कमियों की पूर्ति कर सकता है।

इस तरह रघुनाथ पाण्डे बनाम स्टेट ऑफ बिहार (ए.आई.आर. 1982 पटना 1) के मामले में भी सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजित विधायन के मध्य अन्तर बताया गया है कि –

जब विधायिका द्वारा विधि निर्मित होकर, बाहर आ जाती है तो वह परिपूर्ण होती है और उसमें इस सम्बन्ध में शर्तें निहित रहती है कि उसे कब एवं किस प्रकार लागू किया जाये। कार्यपालिका की शर्तों की पूर्ति बाबत समाधान हो जाने पर उसे लागू कर दिया जाता है, यह सशर्त विधायन है। जबकि प्रत्यायोजित विधायन में नीतियों एवं सिद्धान्तों का उल्लेख अधिनियम में स्वयं विधायिका द्वारा कर दिया जाता है और शेष बातों की पूर्ति करने का कार्य कार्यपालिका पर छोड़ दिया जाता है। अधिनियम के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शासन-प्रशासन द्वारा ही नियम आदि बनाये जाते है।

निष्कर्ष

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जहाँ सामाजिक, आर्थिक एवं कल्याणकारी विधायनों में निरन्तर अभिवृद्धि हो रही है, वहाँ सशर्त विधायन की अवधारणा काफी सार्थक सिद्ध हुई है। आज विधायिका द्वारा नीतियों एवं सिद्धान्तों युक्त विधायन तो बनाया जा सकता है लेकिन देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप उन्हें लागू किया जाना उसके लिए कठिन कार्य है। उपयोगितानुसार विधियों को लागू करने का कार्य कार्यपालिका द्वारा ही आसानी से सम्पन्न किया जा सकता है।

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संदर्भ – बुक प्रशासनिक विधि (डॉ. गंगा सहाय शर्मा)