नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में समाजशास्त्रीय विचारधारा क्या है | What Is Sociological Ideology | इस विचारधारा की उत्पत्ति कैसे हुई तथा इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक कोन थे और विधिशास्त्र की इस विचारधारा को आगे बढ़ाने में किन किन विधिशास्त्रियों का योगदान रहा है? का उल्लेख किया गया है

समाजशास्त्रीय विचारधारा

समाजशास्त्र क्या है   समाजशास्त्र को अंग्रेजी में Sociology कहा जाता है। Sociology दो शब्दों Socius और logos से मिलकर बना है। Socius लैटिन भाषा का शब्द हैं जिसका अर्थ – समाज है व Logos एक ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ – विज्ञान या अध्ययन है।

इस प्रकार समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ – समाज का विज्ञान अथवा समाज का अध्ययन है। समाज का अर्थ सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने से है जबकि विज्ञान किसी भी विषय के व्यवस्थित एवं क्रमवद्ध ज्ञान से है।

विधिशास्त्र को समझने के लिए इसकी विचारधारा को 5 भागों मै विभाजित किया गया है, यथा

(1) विश्लेष्णात्मक विचारधारा

(2) ऐतिहासिक विचारधारा

(3) प्राकृतिक विचारधारा

(4) सामाजिक विचारधारा/समाजशास्त्रीय विचारधारा

(5) अमेरिकन यथार्थवादी विचारधारा

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समाजशास्त्रीय विचारधारा की उत्पत्ति

विधिशास्त्र की समाजशास्त्रीय विचारधारा का उद्भव उन्नीसवीं शदी के अंत तथा बीसवीं शदी की शुरुआत में माना जाता है उस समय अनेक सामाजिक परिवर्तन हुए जिसके कारण विधिशास्त्रियों का ध्यान इस और गया की विधि को सामाजिक आवश्यकताओ से अलग नहीं रखा जा सकता है|

विधि के प्रति विधिशास्त्रियों के विचारों में इस परिवर्तन के अनेक कारण थे जिनमें जनसंख्या में वृद्धि, औद्योगीकरण तथा समाज की प्रगति आदि प्रमुख थे।

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में राज्य द्वारा स्वास्थ्य, जन-कल्याण, शिक्षा, अर्थ-व्यवस्था आदि जैसे वैयक्तिक क्रिया-कलापों में रुचि दर्शाथी जाने के फलस्वरूप इन कार्यों को विधि द्वारा नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता अनुभव की गई। इसी अवधि में विधि के प्रति अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया गया क्योंकि तत्कालीन विश्लेषणात्मक पद्धति (Analytical School) तथा एतिहासिक विधि उस समय आने वाली नई समस्याओं को हल करने में असफल रही थीं।

तब समाज और मानव के मध्य तालमेल की आवश्यकता को महसूस किया गया और इसी कारण सामाजिक जीवन प्रवृति को बढ़ावा मिला, जिसके परिणामस्वरूप समाजशास्त्रीय विचारधारा का सूत्रपात हुआ।

समाजशास्त्रीय विचारधारा का अभ्युदय विधिशास्त्र के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह विचारधारा प्रमाणवादी विचारधारा एंव ऐतिहासिक विचारधारा का मिश्रित स्वरूप है| समाजशास्त्रीय विचारधारा में सामाजिक पहलू पर सबसे अधिक ध्यान दिया गया है तथा विधि के अमूर्त सिद्धान्तों पर ध्यान नहीं दिया गया है।

समाजशास्त्रीय विचारधारा पद्धति के अन्तर्गत विधि के क्रियात्मक (functional) स्वरूप की विवेचना की जाती है। इसी कारण इस पद्धति को ‘क्रियाशील विधि’ (law in motion) भी कहा जाता है। जूलियस स्टोन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘दि प्रॉविन्स एण्ड फंक्शन ऑफ लॉ’ में लिखा है कि समाजशास्त्र इस ओर विशेष ध्यान देता है कि “विधि का मनुष्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है और मनुष्यों का विधि पर क्या प्रभाव पड़ता है”।

यह पद्धति ‘विधि’ को सामाजिक प्रगति का साधन मानती है इसलिए अमेरिकन विधिशास्त्री डीन रास्को पाउण्ड ने इसे “सामाजिक यांत्रिकी” (Social Engineering) की संज्ञा दी है। समाजशास्त्रीय विचारधारा प्रमुख रूप से तीन तत्वों पर आश्रित है –

(i) विधि एक सामाजिक परिदृश्य है

(ii) इस विचारधार में विधि के क्रियात्मक स्वरूप की विवेचना की जाती है|

(iii) विधि सामाजिक नियत्रण के विभिन्न उपायों में से एक है|

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समाजशास्त्रीय विचारधारा में विधिशास्त्रियों का योगदान

समाजशास्त्रीय विचारधारा के प्रमुख समर्थकों जर्मी बेन्थम, कॉम्टे, इहरिंग, वेबर, ड्यूगिट, इहर्लिच तथा रास्को पाउण्ड के नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं जिन्होंने सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषण करके विधि-प्रशासन को उनके अनुकूल बनाए जाने पर बल दिया क्योंकि उनके मतानुसार विधि सामाजिक परिवर्तनों का एक सशक्त साधन है।

जर्मी बेन्थम (Jeremy Bentham : 1748-1832)

जर्मी बेन्थम की गणना विधि की विश्लेषणात्मक शाखा के प्रवर्तकों में की जाती है फिर भी विधि की समाजशास्त्रीय पद्धति का बीजारोपण इनकी विचार-शैली से ही प्रारम्भ होता है। बेन्थम मूलत: व्यक्तिवादी विचारधारा के समर्थक थे तथा उनके विधिक विचार उपयोगितावाद पर आधारित थे।

उनके उपयोगितावाद का मूल आधार यह था कि मनुष्य के आचरणों को दुःख तथा सुख (Pain and Pleasure) की अनुभूति के आधार पर आँका जाना चाहिए; अर्थात् यह देखना चाहिए कि मनुष्य के अमुक आचरण से सुख में वृद्धि हुई या दुःख में; अत: बेन्थम ने इस बात पर जोर दिया कि विधायन (Legislation) का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए कि विधि द्वारा मानव सुख में वृद्धि हो।

इसी दृष्टिकोण से बेन्थम को अपने समय का एक महान् विधि सुधारक (Law Reformer) माना गया है। उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक कल्याण में जो संतुलन कायम रखा उससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने सामाजिक हितों के संवर्धन को ही विधि का मुख्य उद्देश्य माना था|

उन्होंने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ‘थियोरी ऑफ लेजिस्लेशन’ में लिखा कि विधि का कार्य है कि वह लोगों के अधिकाधिक सुख के लिए निम्नलिखित की समुचित सुनिश्चितता करें –

(1) आजीविका के निर्वाह (Subsistence);

(2) प्रचुरता (abundance),

(3) समता को प्रोत्साहन (encourage equality)

(4) सुरक्षा का रख रखाव (Maintenance of security)

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ऑगस्ट कोम्टे (August Compte : 1786-1857) 

ऑगस्ट कोम्टे समाजशास्त्रीय अध्ययन को ‘विज्ञान’ के रूप में परिभाषित करने वाले प्रथम व्यक्ति थे। उन्नीसवीं शताब्दी में हुई वैज्ञानिक प्रगति के कारण लोगों में यह धारणा बन गयी थी कि मानवीय आचरण का निर्धारण भी वैज्ञानिक माध्यम से ही किया जाना चाहिये।

इस धारणा से प्रभावित होकर ऑगस्ट कोम्टे ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया जिसे उन्होंने ‘वैज्ञानिक प्रमाणवाद’ कहा है। ऑगस्ट कोम्टे को समाजशास्त्र विज्ञान का पिता कहा जाता है और इनकी रीति को ‘वैज्ञानिक विध्यात्मवाद’ कहा जाता है|

कोम्टे का वैज्ञानिक प्रमाणवाद अनुभववादी पद्धति पर आधारित है न कि अनुभूतिवादी (metaphysical) पद्धति पर। उनके मतानुसार ज्ञान का प्रत्येक बिम्ब पूर्व कल्पित विचारों पर आधारित न होकर अनुभव और निरीक्षण पर आधारित होना चाहिये। सामाजिक विकास के प्रति इस सिद्धान्त को लागू करते हुए कोम्टे ने समस्त मानव-इतिहास को तीन चरणों में विभाजित किया।

प्रथम चरण में प्राकृतिक नियमों की व्याख्या दैवी शक्ति के रूप में की गई। द्वितीय चरण में दैवी शक्ति का मानवीकरण हुआ जो कार्य-कारण के सम्बन्धों के रूप में व्यक्त किया गया तथा तृतीय चरण में प्राकृतिक शक्तियों की व्याख्या, तथ्यगत अनुभव और परीक्षण के आधार पर की जाने लगी। कोम्टे का मत था कि सही वैज्ञानिक सिद्धान्तों के मार्गदर्शन से ही मानव समाज का सुधार और विकास सुचारु रूप से हो सकता है।

रूडोल्फ वान इहरिंग (Rudolf Von Ihering : 1818-1892) 

रूडोल्फ वॉन इहरिंग को वर्तमान समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र का जनक माना गया है। विधि को परिभाषित करते हुए इहरिंग कहते हैं कि “विधि सामाजिक दशाओं का यौगिक स्वरूप है जिसे बाह्य विवशता के माध्यम से राज्य की शक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”

इहरिंग ने विधि को सामाजिक हितों को प्राप्त करने का साधन माना है जिसका प्रयोग राज्य द्वारा लोगों के हितों के टकराव के निस्तारण हेतु किया जाता है।

इहरिंग के अनुसार विधि का मुख्य उद्देश्य मानव के वैयक्तिक हित तथा सामाजिक हित में सामंजस्य स्थापित करना है। उनके अनुसार विधि का उद्देश्य व्यक्तिगत हितों को एकरूपता देते हुए ‘सामाजिक हितों’ को सुरक्षा प्रदान करना और उन्हें आगे बढ़ाना है इसलिए उन्हें हितो का विधिशास्त्र भी कहा जाता है।

उनका तर्क है कि समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के बीच परस्पर द्वन्द्व की स्थिति प्रायः उत्पन्न होती रहती है। जिस कारण विधि का मुख्य कार्य इन दोनों प्रकार के हितों में एकरूपता बनाए रखते हुए टकराव की स्थिति को टालना है।

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लिओन ड्यूगिट (Leon Duguit : 1859-1928) 

फ्रांस के विख्यात विधिशास्त्री लिओन ड्यूगिट बोर्डियक्स विश्वविद्यालय में संवैधानिक विधि के प्राध्यापक थे। उन्होंने विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र की संप्रभुता सम्बन्धी धारणा तथा विधि के आदेशात्मक स्वरूप का खण्डन किया। ड्यूगिट के अनुसार समाज का सर्वोच्च लक्ष्य यह है कि ‘मनुष्य एक दूसरे के सहयोग से सुखमय जीवन की ओर अग्रसर हो’।

उन्होंने अपनी ‘लॉ इन दि माडर्न स्टेट’ नामक कृति में लिखा है कि “संप्रभुता की धारणा के स्थान पर जन-सेवा के विचार को महत्व दिया जाना चाहिये”। वर्तमान राज्य के सिद्धान्त का मूल आधार ‘जन सेवा’ है। ड्यूगिट ने ‘सामाजिक समेकता’ का सिद्धान्त (Duguit’s Principle of Social Solidarity) को प्रतिपादित किया था|

मैक्स वेबर (Max Weber) 

मैक्स वेबर ने विधि के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए उसे अधिक तर्क-संगत बनाने का प्रयास किया। उन के अनुसार विधिक विकास पर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये, आर्थिक विनिमय में मुद्रा के बढ़ते हुए उपयोग के साथ वर्तमान संविदा-विधि का विकास हुआ जिसमें समनुदेशन की पूरी छूट रहती है।

वेबर ने अपने सैद्धान्तिक निष्कर्ष विधि के विकास के तुलनात्मक अध्ययन तथा निजी अनुभवों पर आधारित किये। उनके अनुसार समाज-विशेष की राजनीतिक स्थिति, सभ्यता, आचार-विचार तथा धार्मिक सहिष्णुता का वहाँ की विधि के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

सारांश यह है कि मैक्स वेबर ने विधि को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों पर आश्रित मानते हुए उसके सापेक्ष स्वरूप (relative character) को स्वीकार किया। दुर्भाग्यवश सन् 1920 ई० में उनका अकस्मात् देहावसान हो गया अन्यथा सम्भवतः वे अपने विधिक सिद्धान्तों को और अधिक विकसित करते।

इयूगेन इहल्लिच (Eugen Ehrlich : 1862-1922) 

आस्ट्रिया के विधिशास्त्री इयूगेन इहलिच के अनुसार किसी समाज विशेष की वास्तविक विधि वस्तुत: वहाँ के पारस्परिक विधि-स्रोतों, संविधियों और निर्णीत वादों में शामिल होती है तथा समाज की मान्यताएँ भी अन्ततः विधि में प्रतिबिम्बित होती हैं। इस तर्क की पुष्टि इहर्लिच इंग्लैण्ड की वाणिज्यिक विधि (Commercial law) के विकास का उदाहरण देकर करते हैं।

विधियां सामाजिक रीतियों का अनुसरण करती है। परन्तु इहलिच कहते हैं कि अनेक मामलों में कानून जो कुछ भी कहता है, समाज की परम्परा वैसा न करते हुए कुछ और ही करती है।

इहर्लिच के अनुसार “विधि के विकास का केन्द्र-बिन्दु विधायन या न्यायालयीन निर्णय नहीं होकर समाज स्वयं है।” इहर्लिच ने अपने गुरु इहरिंग की “जीती जागती विधि” को अपनी विचारधारा का केन्द्र-बिन्दु बनाया तथा विधि और सामाजिक विषयों के अन्तर को यथा सम्भव कम किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया था।

इहर्लिच ने राज्य की बजाय समाज को अधिक महत्व दिया हैं। इहर्लिच का मत था की राज्य द्वारा निर्मित औपचारिक विधि सामाजिक नियंत्रण का एक साधन है जो प्रचलित रूढ़ि, नैतिकता, परम्परा आदि अन्य साधनों से मिलकर कानून का रूप ग्रहण कर लेती है तथा सामाजिक दबाव ही मनुष्य को विधि द्वारा निर्धारित आचरण करने के लिए बाध्य करता है तथा मनुष्य का अस्तित्व समाज से अलग व पृथक् भी नहीं है।

फ्रेंकोइस गिने (Francois Geny : 1861-1944) 

फ्रेंकोइस गिने फ्रांस के नेन्सी विश्वविद्यालय में विधि के प्रोफेसर थे। वे यूरोपीय महाद्वीप के प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विधि-व्यवस्था में न्यायिक निर्णयों तथा न्यायिक प्रक्रिया के महत्व पर बल दिया। उन्होंने विधि के अध्ययन में मुक्त वैज्ञानिक शोध पद्धति अपनायी जाने की अनुशंसा की|

डीन रास्को पाउंड ने गिने को विधि के सामाजिक-दर्शन का प्रबल समर्थक माना है। गिने ने विधि को सामाजिक विज्ञान की एक शाखा निरूपित करते हुए उसे अनावश्यक औपचारिकता से दूर रखे जाने पर बल दिया।

फ्रेंकोइस गिने के अनुसार न्यायाधीशों का यह परम कर्तव्य है कि वे विधि-संहिता के उपबंधों की तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्याख्या करें ताकि न्याय समाजोपयोगी हो और उसमें लोगों की आस्था बनी रहे। उनके अनुसार प्रत्येक राज्य को विधि के निर्माण में निम्न बातों पर जरुर ध्यान देना चाहिए –

(1) उस स्थान विशेष की भौतिक वास्तविकताएं, जैसे-जलवायु, धर्म, आचार, आदतें आदि।

(2) उस स्थान या देश-विशेष का साधारण वातावरण तथा परिस्थितियाँ।

(3) प्राकृतिक विधि के समता, वैयक्तिक स्वतंत्रता आदि संबंधी सिद्धान्त तथा

(4) उस समाज-विशेष की नैतिक धारणाएँ तथा सामाजिक मान्यताएँ आदि।

डीन रास्को पाउन्ड (Dean Roscoe Pound : 1870-1964) 

अमरीकी विधिशास्त्री डीन रास्को पाउंड का जन्म सन् 1870 में नेब्रास्का स्थित लिंकन में हुआ था। अपनी युवावस्था में वे वनस्पतिशास्त्र की ओर आकर्षित थे। सन् 1901 में वे सुप्रीम कोर्ट के सहायी न्यायाधीश (Auxiliary Judge) नियुक्त किये गये तथा सन् 1903 में उन्हें नेब्रास्का विश्वविद्यालय के लॉ स्कूल का संकायाध्यक्ष बनाया गया।

तत्पश्चात् सन् 1916 से लेकर 1936 तक पाउंड हारवर्ड विद्यालय में विधिशास्त्र के प्रोफेसर रहे। इस अवधि में उन्होंने समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र पर अनेक शोधपत्र लिखे जो हारवर्ड लॉ रिव्यू में नियमित रूप से छपते रहे।

पाउन्ड ने अपने विधि-दर्शन को ‘हितों’ (interest) पर आधारित करते हुए कथन किया कि ‘हित’ को विधि की प्रमुख विषयवस्तु मानना उचित होगा। उन्होंने विधि द्वारा संरक्षित विभिन्न हितों को तीन श्रेणियों में विभाजित करते हुए कहा कि विधि का कार्य केवल यह है कि वह मनुष्यों के हितों की रक्षा करे, अर्थात् उनकी इच्छाओं, आवश्यकताओं और माँगों की पूर्ति करे। उन्होंने मनुष्यों की इच्छाओं, आशाओं तथा माँगों को ऐसे तत्व माना जो सभ्यता को विकसित करते हैं|

‘सभ्यता’ से उनका तात्पर्य यह था कि सृष्टि से निरन्तर संघर्ष करते हुए मानव अपनी शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करता रहे, पाउण्ड विधि को एक साधन मात्र मानते थे। उनके अनुसार विधि एक ऐसा ज्ञान और अनुभव है जिसके माध्यम से सामाजिक नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। रास्को पाउण्ड ने “सामाजिक यांत्रिकी” (Social Engineering) का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया|

भारतीय परिप्रेक्ष्य मै समाजशास्त्रीय विचारधारा

भारत में विधि के प्रति समाजशास्त्रीय एवं क्रियात्मक दृष्टिकोण अपनाए जाने के प्रमाण अनेक विधियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात् भारत की विधि व्यवस्था को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिये निरन्तर प्रयास किये गये तथा आज भी किये जा रहे हैं।

भारतीय संविधान में उल्लिखित कल्याणकारी राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के प्रयत्नस्वरूप अनेक सामाजिक, आर्थिक तथा मानवीय विधान लागू किये गये जो गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा या भेदभाव, छूआछूत आदि को समाप्त कर समाजवाद को स्थापित कर सके।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय विचारधारा के अन्तर्गत विधि और सामाजिक घटनाओं के परस्पर प्रभाव का जो अन्वेषण और परीक्षण किया गया है, वह सराहनीय है।

इस पद्धति का विकास अमेरिका में रास्को पाउण्ड द्वारा किया गया। पाउण्ड ने विधि के समाजशास्त्रीय अन्वेषण को तीन चरणों में पूरा किये जाने का उल्लेख किया है।

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