हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में समन केस क्या है | सीआरपीसी की धारा 251 से 259 के तहत समन केस की प्रक्रिया क्या है? What is Summons Case का उल्लेख किया गया है,  उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –

प्रकृति एवं प्रक्रिया की दृष्टि से आपराधिक मामलों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है –

(क) समन केस (Summons Case)

(ख) वारन्ट केस (Warrant Case)

समन केस क्या है What is Summons Case

समन केस की परिभाषा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (ब) में दी गई है। इसके अनुसार – “समन मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो किसी अपराध से सम्बन्धित है तथा जो वारन्ट मामला नहीं है।”

वारंट मामलों में मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास, या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय मामले आते है इस प्रकार वे मामले जो दो वर्ष तक की अवधि के कारावास अथवा अर्थदण्ड अथवा दोनों से दण्डनीय किसी अपराध से सम्बन्धित है समन केस के अधीन आते है।

इस तरह समन केस एवं वारन्ट केस की कसौटी दण्ड की अवधि है। यदि कोई मामला पचास रुपये के अर्थदण्ड से दण्डनीय है तो उसे समन मामला माना जायेगा। (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बनाम हिन्दुस्तान मोटर्स, ए. आई. आर. 1970 आन्ध्रप्रदेश 176)

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समन मामले में अभियुक्त को प्रथम बार समन जारी किया जाता है, लेकिन किसी कारण से यदि मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट जारी कर दिया जाता है तो वारंट जारी कर दिए जाने मात्र से मामलों की प्रकृति में परिवर्तन नहीं होगा।

पदमनाथ बनाम अहमद दोबी के मामले में कहा गया है कि, किसी समन मामले में वारंट जारी कर देने मात्र से वह मामला वारन्ट मामला नहीं हो जाता (1970 क्रि. लॉ. ज. 1700)

इस आलेख में मुख्य जोर समन केस की प्रक्रिया पर दिया गया है। समन मामले में प्रक्रिया के सामान्य चरण अन्य विचारण के समान होते है, लेकिन यह विचारण त्वरित उपचार के लिए कम औपचारिक होता है।

समन केस में विचारण की प्रक्रिया

समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख संहिता की धारा 251 से 259 में किया गया है। इनके अनुसार समन ग्रामलों में विचारण की प्रक्रिया इस प्रकार है –

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(1) अभियोग का सारांश सुनाया जाना –

जब किसी समन मामले में अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है या वह मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है तब सर्वप्रथम उसे उस अपराध की विशिष्टियाँ बताई जायेगी, जिसका उस पर अभियोग है। और उससे यह पूछा जायेगा कि वह दोषी होने का अभिवाक् करता है अथवा प्रतिरक्षा करना चाहता है। ऐसे मामलों में यथारीति आरोप विरचित किया जाना आवश्यक नहीं है। (धारा 251)

प्रचलित भाषा में इसे ‘सारांश अभियोग’ कहा जाता है। यह व्यवस्था आज्ञापक है। विचारण आरम्भ करने करने से पूर्व अभियुक्त को उस अपराध की विशिष्टियों से अवगत करा दिया जाना आवश्यक है जिसका कि उस पर अभियोग है। (म्युनिसिपल कौंसिल, अजमेर बनाम रामा, ए. आई. आर. 1965 राजस्थान 108)

(2) दोषी होने के कथन पर दोषसिद्ध किया जाना –

अपराध की विशिष्टियाँ – सुनने के पश्चात् यदि अभियुक्त अपने दोषी होने का अभिवाक् अर्थात् कथन करता है। तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसके कथनों को उसी के शब्दों में लेखबद्ध किया जायेगा और उसे स्वविवेकानुसार दोषसिद्ध किया जायेगा (धारा 252 )

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जहाँ छोटे मामलों (petty ofrences) में संहिता की धारा 206 के अन्तर्गत समन जारी किया जाता है और अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना पत्र के द्वारा अपने दोषी होने का कथन करता है; यहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे कथनों के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकेगा और उसके द्वारा भेजी गई रकम को जुर्माने की राशि में समायोजित कर लिया जायेगा (धारा 253)

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(3) साक्ष्य लेखबद्ध किया जाना –

जब अभियुक्त द्वारा अपने दोषी होने का कथन नहीं किया जाता है और वह विचारण चाहता है तब सर्वप्रथम अभियोजन की तथा तत्पश्चात् प्रतिरक्षा (defence) की साक्ष्य लेखबद्ध की जायेगी।

इस दौरान अभियोजन या अभियुक्त की प्रार्थना पर किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने का निर्देश देने वाला समन जारी किया जा सकेगा। (धारा 254)

(4) दोषसिद्धि या दोषमुक्ति का निर्णय –

अभियोजन एवं अभियुक्त की साक्ष्य लेने के पश्चात् यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो उसे ‘दोषमुक्त’ (acquity) कर दिया जायेगा।

लेकिन यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषो है तो उसे ‘दोषसिद्ध’ (convict) घोषित करते हुए दण्डादेश पारित कर सकेगा (धारा 255)

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केवल अपराध स्वीकार कर लिये जाने मात्र के आधार पर सजा को कम नहीं किया जाना चाहिये। ‘स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश बनाम चन्द्रिका’ (ए. आई. आर. 2000 एस. सी. 164) के मामले में अपराध स्वीकार कर लिये जाने पर कम सजा देने की सौदेबाजी को लोकनीति के विरुद्ध माना गया है।

(5) परिवादी के हाजिर नहीं होने का प्रभाव –

संहिता की धारा 256 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि सुनवाई के लिए नियत किसी दिन परिवादी न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसका परिवाद खारिज करते हुए अभियुक्त को दोषमुक्त घोषित किया जा सकेगा, बशर्ते कि ऐसे मामले की सुनवाई को अन्य किसी दिन के लिए स्थगित किया जाना वह उचित नहीं समझे।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि परिवादी की ओर से मामले की पैरवी किसी प्लीडर द्वारा की जाती है तो ऐसे परिवादी को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकेगी। (धारा 256) यह व्यवस्था केवल परिवाद पर संस्थित मामलों के लिए है, पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामलों के लिए नहीं (स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम एम. घासी मुसलमान, ए. आई. आर. 1962 राजस्थान)

(6) परिवाद का वापस लिया जाना –

धारा 257 के अन्तर्गत परिवादी मामले में निर्णय सुनाये जाने से पूर्व कभी भी परिवाद को अभियुक्त के विरुद्ध और यदि एकाधिक अभियुक्त है तो उन सबके विरुद्ध या उनमें से किसी के विरुद्ध वापस ले सकेगा। परिवाद को ऐसे वापस लिये जाने का प्रभाव अभियुक्त को दोषमुक्ति होगा।

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संदर्भ :- बाबेल लॉ सीरीज (बसन्ती लाल बाबेल)

बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)