नमस्कार, इस पोस्ट में मुस्लिम विधि के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा, संरक्षक के प्रकार तथा उनकी नियुक्ति किस तरह से होती है बताया गया है, जो विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं, इसे जरुर पढ़े| इस पोस्ट में हम जानेगें –

संरक्षक किसे कहते है 

संरक्षक की परिभाषा – ऐसा व्यक्ति जो किसी अवयस्क बच्चे/व्यक्ति के शरीर और सम्पति अथवा दोनों की देखभाल करता है और अवयस्क व्यक्ति कि और से उसके हित में कार्य करता है, उसे संरक्षक (guardian) कहा जाता है, जिस कारण मुस्लिम विधि के सम्बन्ध में संरक्षक का अभूतपूर्व स्थान है| इस प्रकार संरक्षक एक ऐसा व्यक्ति है जो अवयस्क व्यक्ति कि और से उसके हितार्थ व लाभार्थ कार्य करता है|

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (Guardian and Wards Act, 1890) में संरक्षक से अभिप्राय – ऐसे व्यक्ति से है जो किसी अप्राप्तवय (अवयस्क) के शरीर की या उसकी सम्पति की, या उसके शरीर और सम्पति दोनों की देखभाल रखता है और प्रतिपाल्य से तात्पर्य – ऐसे अप्राप्तवय से है, जिसके शरीर या सम्पति अथवा दोनों के लिए कोई  संरक्षक है|

अवयस्क/अप्राप्तवय कि श्रेणी में निम्न व्यक्ति आते है –

(i) मुस्लिम विधि के अन्तर्गत 15 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति,

(ii) भारतीय वयस्कता अधिनियम के अन्तर्गत 18 वर्ष की आयु से कम आयु का व्यक्ति,

(iii) 21 वर्ष से कम आयु का ऐसा व्यक्ति जिसके लिये, न्यायालय ने सरक्षक को नियुक्ति किया है अथवा ऐसा व्यक्ति जो प्रतिपाल्य-न्यायालय (Court of Wards) की देख रेख में हो।

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मुस्लिम विधि के अन्तर्गत 15 साल की आयु प्राप्त कर लेने पर कोई मुसलमान सिर्फ (1) विवाह, (2) मेहर (3) विवाह विच्छेद के मामलों में कार्यवाही कर सकता है, लेकिन अन्य सब मामलों में उसकी वयस्कता 18 साल कि पूर्ण आयु मानी जाती है।

चूँकि 18 साल की आयु की व्यवस्था भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 से शासित होती है और उस समय तक संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के अन्तर्गत अवयस्क के शरीर या सम्पत्ति या दोनों का संरक्षक नियुक्त करने की न्यायालय की शक्ति बनी रहती हैं।

भारतीय वयस्कता अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत सामान्य रूप से 18 वर्ष की आयु पूरी होने पर अवयस्कता का अन्त हो जाता है। परन्तु अवयस्क के 18 वर्ष की आयु होने से पहले अवयस्क के शरीर और सम्पत्ति या दोनों के लिये न्यायालय द्वारा कोई संरक्षक नियुक्त कर दिया जाए या करने को हो अथवा अवयस्क की सम्पत्ति प्रतिपाल्य अधिकरण की देख रेख में हो, उस स्थिति में अवयस्कता की आयु बढ़ कर अवयस्क के 21 वर्ष की आयु पूरी करने तक हो जाती है।

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मुस्लिम कानून के तहत संरक्षक की नियुक्ति –

जब न्यायालय को इस विषय में पूर्ण विश्वास हो जाता है कि किसी अवयस्क के शरीर या सम्पत्ति या दोनों के लिये किसी को संरक्षक नियुक्त करने या घोषित करने का आदेश उसके बेहतर कल्याण के लिये होगा, तब वह उसके अनुसार आदेश पारित कर संरक्षक को नियुक्त  सकता है।

किसी अवयस्क का संरक्षक नियुक्त करने या घोषित करने में न्यायालय “संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम” के सुसंगत उपबन्धों पर विचार-विमर्श करेगा जिसके अधीन अवयस्क आता है तथा उसकी परिस्थितियों में उसका बेहतर कल्याण हो सके|

अवयस्क का कल्याण किसमें है, इस पर विचार-विमर्श करने में न्यायालय अवयस्क की आयु, लिंग, धर्म व प्रस्तावित संरक्षक के चरित्र और योग्यता, अवयस्क से उसके रिश्ते, उसकी सम्मति तथा प्रस्तावित संरक्षक के पूर्व सम्बन्धों को भी ध्यान में रखेगा। यदि अवयस्क की आयु ऐसी हो कि वह विवेकपूर्ण अधिमान (intelligent preference) दे सकता हो तो न्यायालय उसके अधिमान पर भी विचार कर सकता है।

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मुस्लिम कानून में संरक्षकता के प्रकार

(1) विवाह के लिए संरक्षक (Jabar)

(2) अभिरक्षा या हिजानत (Hizanat) के लिये संरक्षक।

(3) अवयस्क की सम्पत्ति के लिये संरक्षक |

(1) विवाह के लिए संरक्षक –

हम जानते है कि विधिमान्य विवाह के लिए पक्षकार का विवाह की संविदा के लिये सक्षम होना आवश्यक है| मुस्लिम विधि में विवाह, मेहर, एंव तलाक के मामलों में वयस्कता की आयु 15 वर्ष मानी गई है। यदि 15 वर्ष से पूर्व किसी अवयस्क स्त्री का विवाह किया जाता है तब उसके विवाह की सहमति उसके संरक्षक से ली जायेगी|

यानि किसी अवयस्क की तरफ से उसके विवाह की संविदा उसके संरक्षक द्वारा की जा सकती है। विवाह की संरक्षकता को जबर कहा जाता है तथा इस प्रकार शक्ति सम्पन्न संरक्षक वली कहलाता है।

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अमीर अली के अनुसार – मुस्लिम विधि का यह महत्वपूर्ण अंग है कि पिता अपने अवयस्क पुत्र-पुत्रियों का विवाह कर सकता है।

मुस्लिम विधि के अन्तर्गत सभी सम्प्रदायों में संरक्षक को अपने अवयस्क पुत्र-पुत्रियों का विवाह करने की शक्ति प्राप्त होती है। वह उनका विवाह उनकी इच्छा के अभाव में भी कर सकता है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा की विवाह में संरक्षकता के लिये न्यायालय किसी भी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त नहीं कर सकता है, यह दीगर है की संरक्षक के अभाव में काजी या न्यायालय, स्वयं संरक्षक के रूप में अवयस्क का विवाह तय कर सकता है।

विवाह में संरक्षक नियुक्त होने के लिये यह आवश्यक है कि – वह स्वयं वयस्कता प्राप्त कर चुका हो, स्वस्थचित्त का हो व मुसलमान हो।

(A) विवाह के लिए निम्न व्यक्ति संरक्षक हो सकते है –

(i) पिता, (ii) पिता का पिता, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो, (iii) सगा भाई और अवशिष्ट सम्बन्धियों (residuaries) के अन्तर्गत उत्तराधिकार प्राप्ति के क्रम से पितृपक्ष के अन्य पुरुष सम्बन्धी, (iv) माता, (v) निषिद्ध आसतियों के भीतर के मातृपक्ष के सम्बन्धी तथा (vi) न्यायालय।

शिया विधि – शिया विधि के अन्तर्गत विवाह के लिए केवल पिता और पितामह (चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर के हों ) को ही संरक्षक माना गया हैं।

(B) निकटस्थ संरक्षक –

निकटस्थ संरक्षक के होते हुए दूरस्थ संरक्षण द्वारा किया गया अवयस्क का विवाह शून्य होता है, लेकीन निकटस्थ संरक्षक की सहमति उसे वैध कर सकती है। परन्तु निकटतम संरक्षण तथा विवाह करने वाले संरक्षक के मध्य कई संरक्षण और आते है तब निकटतम संरक्षण की सहमती ऐसे विवाह को वैध नहीं बना सकती है। ऐसा विवाह दम्पत्ति में से किसी एक की घोषणा मात्र से समाप्त हो जाता है और ऐसे विवाह के बाद का उनका सम्भोग भी विवाह विच्छेद में बाधक नहीं होता है।

केस –  अयूब हसन बनाम अख्तरी (ए.आई.आर. 1963 इला. 525)

इस मामले में “एक अवयस्क का विवाह एक दूरस्थ संरक्षण द्वारा उसके अधिक निकट तथा उचित विधिक संरक्षण से अनुमति लिये बिना किया गया था। इस विवाह में ना तो विधिक संरक्षण से पहले ही अनुमति ली गई थी और ना ही उसने बाद में वैवाहिक संविदा की पुष्टि की थी| इस वाद में यह निर्णय हुआ कि यह विवाह पूर्णतः शून्य है तथा विवाह कि  पूर्णता भी इसे वैध नहीं बना सकती है।

(C) विवाह के लिए वसीयती संरक्षक –

मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह के लिये वसीयती संरक्षक को मान्यता नहीं दी जाती है। इसमें पिता के पास वसीयत द्वारा किसी व्यक्ति को विवाह के लिए संरक्षण नियुक्त करने की शक्ति नहीं होती है।

(D) विवाह की संरक्षकता पर धर्मत्याग का प्रभाव –

मुस्लिम विधि के अन्तर्गत किसी अवयस्क व्यक्ति के विवाह का संरक्षक यदि इस्लाम धर्म का त्याग कर दूसरा धर्म ग्रहण कर लेता है उस स्थिति में वह विवाहार्थं संरक्षकता का अधिकार खो देता है। लेकिन जाति अनर्हता निराकरण अधिनियम, 1850 (Caste Disabilities Removal Act, 1850) के प्रावधानोनुसार विवाह के लिए नियुक्त संरक्षण दूसरा धर्म ग्रहण करने पर भी अपना अधिकार या सम्पत्ति नहीं खोता है।

मुचू बनाम अर्जुन के वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि – “हिन्दू पिता ईसाई धर्म को अंगीकार कर लेने पर अपने बच्चों के संरक्षण और उनकी शिक्षा की व्यवस्था करने के अधिकार से वंचित नहीं होता है।

एक न्यायाधीश स्वयं विवाह करने वाली लड़की से विवाह नहीं कर सकता है। यदि किसी अवयस्क व्यक्ति का विवाह संरक्षण की अनुपस्थिति में सम्पन्न होता है, तब ऐसे व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह वयस्कता प्राप्त करने के पश्चात् यौवनावस्था के विकल्प के अधिकार के आधार पर यदि चाहे तो विवाह को निरस्त कर सकता है।

(2) अभिरक्षा के लिए संरक्षक (हिजानत) –

वयस्क लड़के व लड़कियों के शरीर व उनके लालन-पोषण की संरक्षकता का अधिकार हिजानत कहलाता है। यह अरबी का शब्द है जिसका अर्थ – ‘बच्चे के भरण पोषण के लिये उसका संरक्षण है’।

(A) माँ की संरक्षकता —

मुल्ला तथा हनफ़ी विधि के अनुसार – “सात वर्ष से कम आयु के बालक तथा बालिका के यौवनावस्था तक उनकी संरक्षण माता होती है। शफी और मलिकी विधि के अनुसार लड़की के विवाह तक माता उसके संरक्षण की हकदार होती हैं। यद्यपि बच्चे के पिता द्वारा तलाक दे दिये जाने पर भी माता का यह अधिकार सुरक्षित रहता है, लेकिन यदि तलाक के बाद माता द्वारा किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया जाता है तब वह ऐसे अवयस्क बच्चे की अभिरक्षा (Custody) के अधिकार से वंचित हो जायेगी।

केस – श्रीमती इम्तियाज बानो बनाम मसूद अहमद जाफरी (ए.आई.आर. 1979 इला 125)

इस प्रकरण में – श्रीमती इम्तियाज बानो का विवाह 14 जुलाई, 1967 को मसूद अहमद जाफरी से हुआ। जिनके विवाह उपरांत तीन पुत्र हुए जिनमें से सबसे छोटे पुत्र की मृत्यु हो गयी। दो पुत्रों में से एक की आयु 5 वर्ष और दूसरे की 3 वर्ष थी। पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध खराब होने के कारण तलाक हो गया।

इसमें यह निर्णय दिया गया कि माता दोनों अवयस्क बच्चों की अभिरक्षा की अधिकारी है। इस प्रकरण में फैसले का मुख्य आधार बच्चों के कल्याण को माना गया तथा बन्दी प्रत्यक्षीकरण आवेदन स्वीकार कर लिया गया।

केस – एस. रेहन फातिमा बनाम सैय्यद बदिनुद्दीन परवेज

इस वाद में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने – एक तीन वर्ष छ: माह के बच्चे की (Custody) के सम्बन्ध में निर्णय देते हुए कहा कि मुस्लिम विधि में माँ का बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार तलाक द्वारा विवाह विच्छेद के पश्चात तथा संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में कोई अन्य विकल्प होने के बावजूद भी बना रहता है और माँ द्वारा धर्म परिवर्तन करने पर भी बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार समाप्त नहीं होता है।

(B) माँ के ना होने पर अन्य स्त्री सम्बन्धी – को  अभिरक्षा का अधिकार निम्न क्रम में दिया जा सकता है –

(i) माँ की माँ, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो, (ii) पिता की माँ, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो, (iii) सगी बहिन, (iv) सहोदरा (uterine) बहिन, (v) सगोत्री बहिन, (vi) सगी बहन की लड़की, (vii) सहोदरा बहिन की लड़की, (viii) सगोत्री बहिन की लड़की, (ix) मौसी, बहिनों के समान क्रम में, (x) बुआ, बहिनों के समान क्रम में।

(C) माँ का अयोग्य हो जाना – माता या उसकी स्त्री सम्बन्धियों का संरक्षकता का अधिकार निम्न अवस्थाओं में समाप्त जाता है –

(i) यदि वह अनैतिक जीवन बिताने लगाती हो, (ii) यदि बच्चे की उचित देखभाल करने में लापरवाही बरतती हो, या (iii) यदि वह ऐसे पुरुष से विवाह कर ले जो बच्चे के सम्बन्ध में  निषिद्ध आसत्तियों के भीतरना आता हो, परन्तु यदि ऐसा विवाह मृत्यु अथवा विवाह विच्छेद के कारण विघटित हो जाता है तो माँ की अभिरक्षा का अधिकार पुनर्जीवित हो जाता है, (iv) यदि वह विवाह के कायम रहते हुए पिता के स्थान से बहुत दूर रहने लगी हो, (v) यदि वह शारीरिक या मानसिक दुर्बलता के कारण बच्चे के लालन-पालन करने में असमर्थ हो जाती हो|

(D) शिया विधि के अनुसार – जब तक लड़का 2 वर्ष तथा लड़की सात वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेती है तब तक माता की संरक्षकता का अधिकार बना रहता है, इसके बाद संरक्षकता का अधिकार पिता में निहित हो जाता है !

(E) माता या अन्य स्त्री सम्बन्धी संरक्षक ना होने पर निम्न पुरुष संरक्षक होंगे – (i) पिता, (ii) निकटतम पैतृक पितामह, (iii) सगा भाई, (iv) सगोत्री भाई, (v) सगे भाई का पुत्र, (vi) सगोत्री भाई का पुत्र, (vii) पिता का सगा भाई, (viii) पिता का सगोत्री भाई, (ix) पिता के सगे भाई का लड़का, (x) पिता के सगोत्री भाई का लड़का|

सात वर्ष से अधिक आयु के लडके और अविवाहित व्यस्क लड़की के संरक्षण का अधिकारी पिता होता है| यदि ऐसे बालक/बालिका का पिता नहीं है तो ऊपर दिए क्रम में अन्य पुरुष सम्बन्धियों को संरक्षण का अधिकार होता है लेकिन फिर भी इनमे से कोई सम्बन्धी नहीं है तब न्यायालय संरक्षण नियुक्त कर सकता है|

यहां यह उल्लेखनीय है कि किसी ऐसे पुरुष को किसी अविवाहिता लड़की के संरक्षण का अधिकार नहीं है, जो कि रिश्ते से निषिद्ध आसत्तियों के भीतर न हो। यदि मातृक और पैतृक रिश्तेदारों में से कोई सम्बन्धी नहीं है तब न्यायालय अवयस्क के शरीर का संरक्षक नियुक्त कर सकता है।

केस – पुलक्कल आइसा कुट्टी बनाम पारत अब्दुल समद (ए० आई० आर० 2005 केरल 68)

इस वाद में, शिशु की माता ने आत्महत्या कर ली थी  इसलिये यह शिशु अपनी नानी के पास रहता था जो स्वयं डायबिटीज की मरीज थी तथा वह अपनी दूसरी पुत्री के ऊपर निर्भर थी। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया था तथा उससे बच्चे भी थे। अब पिता ने अपने इस बच्चे की संरक्षकता का दावा किया।

इस वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि पिता का दूसरा विवाह कोई ऐसा आचरण नहीं है जिसके आधार पर उसे अपने बच्चे की संरक्षकता के दावे से दूर रखा जाये। नानी की भावुकता का पूर्ण आदर करते हुए न्यायालय का यह विवेक था कि बच्चे के सर्वोपरी कल्याण के लिए उसे पिता के पास रहना चाहिये।

(F) अवयस्क पत्नि का संरक्षक – पति अपनी अवयस्क पत्नी के संरक्षण का तब तक अधिकारी नहीं होता है जब तक कि वह वयस्कता की आयु न प्राप्त कर ले।

नूर कादिर बनाम जूलेखा बीबी, (1885, 11 कलकत्ता) के वाद में कहा गया कि – “किसी अवयस्क विवाहिता पत्नि का संरक्षक उसका पति नहीं होकर उसकी माता होती है|

(G) अधर्मज सन्तान की संरक्षक – मैकनॉटन के अनुसार – विधितः अधर्मज सन्तान न माता का व न पिता का होता है| वह एक प्रकार से किसी का सम्बन्धी नहीं होता है, लेकिन उसे वयस्कता प्राप्त करने तक भरण-पोषण के लिये माता का संरक्षण मिलना चाहिये।

इसलिए अधर्मज सन्तान को सात वर्ष की आयु तक माता की अभिरक्षा में रखा जाता है और उसके बाद वह सन्तान इस निर्णय के लिये स्वतन्त्र है कि वह किसके साथ रहेगी या दोनों से अलग।

केस – गौहर बेगम बनाम सुग्गी नाजमा बेगम (1960, एस.सी.आर. 597)

इस प्रकरण में, गौहर बेगम, त्रिवेदी नामक एक हिन्दू की रखेल और गायिका थी। गौहर बेगम को एक पुत्री अंजुम थी, जिसे त्रिवेदी अपनी पुत्री मानता था। अंजुम को उसकी माता की सहेली नाजमा के पास रहने के लिये भेज दिया गया था। लेकिन बाद में नाजमा बेगम ने गौहर बेगम को उसकी पुत्री को लौटाने से इन्कार कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि – “मुस्लिम विधि के अन्तर्गत अधर्मज पुत्री की संरक्षिका उसकी माता ही हो सकती है और उसे माता को वापस करने से इन्कार करना दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 के अनुसार अवैध बन्दीकरण है और इस सम्बन्ध में सन्तान के पितृत्त्व के सम्बन्ध में विवाह निष्प्रयोजन है, इस कारण अंजुम को उसकी माता के संरक्षण में वापस किया जाये।

(H) शिया विधि – 1- जब लड़का दो साल से कम और लड़की सात साल से कम की हो, तब –

(i) माँ और उसके न होने पर, (ii) पिता, उसके न होने पर, (iii) पिता का पिता, (iv) पिता के पिता के न होने पर यह अनिश्चित है कि यह अधिकार किसको पहुँचेगा।

2- जब लड़का दो साल से ज्यादा और लड़की सात साल से ज्यादा की हो, तब संरक्षण का अधिकार पिता का होगा।

(i) अभिरक्षा (हिजानत) के अधिकार की प्रकृति (Nature) – अलग पोस्ट में वर्णन किया गया है|

(3) अवयस्क की सम्पत्ति के लिये संरक्षक –

मुस्लिम विधि के अनुसार सम्पत्ति के संरक्षक तीन प्रकार के माने जा सकते है –

(i) कानूनी संरक्षक (Legal Guardians) में निम्न व्यक्ति अवयस्क की सम्पत्ति की संरक्षकता के हकदार होते है –

(अ) पिता, (ब) पिता के वसीयतनामे द्वारा नियुक्त निष्पादक (Executor), (स) पिता का पिता, (द) पिता के पिता के वसीयतनामे द्वारा नियुक्त निष्पादक।

इनके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति किसी अवयस्क का नैसर्गिक विधिक संरक्षक नहीं होता है। यानि माँ, भाई, चाचा आदि अवयस्क की सम्पत्ति के कानूनी संरक्षण नहीं हो सकते।

केस – गुरु बक्श सिंह बनाम बेगम रफीया (ए.आई.आर. 1979 एन.पी. 66)

इस मामले में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि – मुस्लिम विधि के अन्तर्गत माँ अवयस्ककी सम्पत्ति का कानूनी संरक्षक नहीं होती। पिता या पिता के पिता उसमें से किसी को या किसी और को भी अपना निष्पादक नियुक्त कर सकता है और उसमें उनके समान शक्ति होगी। लेकिन पिता और पिता के अलावा किसी अन्य जिसमे माता भी शामिल है को विधितः वसीयत द्वारा किसी को निष्पादक नियुक्त करने का अधिकार नहीं होता है|

(A) अचल सम्पत्ति – अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में कानूनी संरक्षक अवयस्क की अचल सम्पत्ति को विक्रय या बन्धक के द्वारा अन्तरित नहीं कर सकते, यदि ऐसा अन्तरण अवयस्क के लिए – सर्वधा आवश्यक हो और उसके स्पष्ट लाभ के लिये हो तब किया जा सकता है।

इस प्रकार कुछ अन्य स्थितियों में कानूनी संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति से संव्यवहार कर सकता है –

(i) जब मृत व्यक्ति, जिससे अवयस्क को सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त हुई हो, के ऋणों और वसीयत (Legacy) द्वारा दी हुई सम्पत्ति के भुगतान का कोई दूसरा साधन न हो।

(ii) जब अवयस्क की जीविका का कोई दूसरा साधन न हो और उनके भरण-पोषण के लिये विक्रय सर्वथा जरूरी हो।

(iii) जब वह सम्पत्ति का दोगुना प्राप्त कर सके।

(iv) जहां सम्पति का खर्च आमदनी से अधिक हो।

(v) जहाँ सम्पत्ति का क्षय हो रहा हो।

(vi) जब सम्पत्ति हड़प ली गई हो और सरक्षक को इस आशंका के लिये कारण हो कि मूल्य उचित नहीं मिलेगा।

गुलाम हुसैन कुतुबुद्दीन मानेर बनाम अब्दुल रसीद, अब्दुल रज्जाक मानेर के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “एक अवयस्क बच्चे की माता को बच्चे के पिता के जीवित रहते हुए, सम्पत्ति को दान में स्वीकार करने के लिये संरक्षक नहीं बनाया जा सकता। यानि पिता के जीवित रहते माता संरक्षक नहीं हो सकती|

(B) चल सम्पत्ति – चल सम्पत्ति के सम्बन्ध में कानूनी सरक्षक द्वारा अवयस्क को अनिवार्य आवश्यकताओं, जैसे – भोजन, वस्त्र और पालन के लिये अवयस्क की चल सम्पत्ति (Chattels) को विक्रय या बन्धक किया जा सकता है।

(ii) न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक –

कानूनी संरक्षक के अभाव में अवयस्क की सम्पति की देखभाल और सुरक्षा के लिये संरक्षक (वली) नियुक्त करने का कर्तव्य न्यायालय पर आता है। संरक्षक नियुक्त करते समय न्यायालय अवयस्क के कल्याण व हितार्थ को ध्यान में रखते हुए चाचा के बजाय माँ को सम्पत्ति का संरक्षक नियुक्त कर सकता है और सरक्षक नियुक्त करते समय न्यायालय पिता के हितों को भी  ध्यान में रखता है|

न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक की शक्ति – न्यायालय द्वारा नियुक्त सरक्षक बिना न्यायालय की पूर्व अनुमति के अवयस्क की अचल सम्पत्ति को क्रय, दान, विनिमय अथवा अन्य किसी प्रकार से अन्तरित नहीं कर सकता है और ना ही उसे किसी प्रकार से बन्धक या भारित कर सकता है।

इसके अलावा वह अवयस्क की अचल सम्पत्ति को पाँच वर्षों से अधिक अवधि के लिये या ऐसी अवधि के लिये जो अवयस्क हो जाने के एक वर्ष से अधिक समय के लिए विस्तृत हो, पट्टे पर नहीं दे सकता है। यदि वह न्यायालय कि अनुमति के बिना ऐसा करता है तो वह संव्यवहार अवयस्क द्वारा शून्यकरणीय होता है।

न्यायालय सरक्षक को उपरोक्त कार्यों में से कोई कार्य करने की अनुमति तभी देता है जब ऐसा कार्य प्रतिपाल्य के लिये आवश्यक हो अथवा उसके लिये प्रत्यक्षतः लाभप्रद हो। यानि ऐसे संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के साथ उतनी ही सावधानी के साथ संव्यवहार करना चाहिये जितनी कि कोई सामान्य बुद्धि का आदमी अपनी सम्पत्ति के साथ करता है।

(iii) वस्तुतः संरक्षक (De facto Guardian) –

ऐसा व्यक्ति, जो न तो कानूनी सरक्षक है और ना ही न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया है, लेकिन जिसने स्वेच्छा से अवयस्क के शरीर और सम्पत्ति की संरक्षकता का भार ग्रहण कर लिया है, वह अवयस्क के शरीर और सम्पत्ति का वस्तुतः संरक्षक कहलाता है। वस्तुतः संरक्षक स्वयं नियुक्त किया हुआ संरक्षक होता है तथा उसकी अवयस्क की देखभाल के प्रति केवल जिम्मेदारी होती है, अधिकार नहीं।

चिना बनाम विनायथाम्मल (1929 मद्रास 110) के वाद में यह निर्धारित किया गया कि – “अवयस्क के सम्बन्ध में एक आध छुट-पुट कृत्य या अवयस्क को कुछ समय तक अपने पास रखने मात्र से वस्तुतः संरक्षक नहींबना जा सकता है इसके लिए निरन्तर संव्यवहार द्वारा ही अवयस्क कि सम्पति का वस्तुतः संरक्षक बना जा सकता है|

सम्पति अंतरण की शक्ति नहीं – वस्तुतः संरक्षक की स्थिति कानूनी संरक्षक और न्यायालय द्वारा नियुक्त सरक्षक से बिल्कुल अलग होती है। उसे अवयस्क की सम्पत्ति को अन्यत्र रहन या बैय करने का आधिकार नहीं होता है

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 27 के अनुसार – बिना न्यायालय द्वारा अधिकृत किये वस्तुतः सरक्षक द्वारा अवयस्क की अचल सम्पत्ति का किया हुआ अन्तरण पूर्णतया शून्य होता है| यदि वयस्कता प्राप्त कर लेने पर अवयस्क द्वारा ऐसे अन्तरण का अनुसमर्थन भी कर दिया जाए तब भी ऐसे अन्तरण शून्य ही होगा|

झूलन प्रसाद बनाम रामराज प्रसाद के वाद में पटना उच्च न्यायालय ने यह कहा कि” सह हिस्सेदार के द्वारा अपनी तथा अवयस्क की सम्पत्ति का विक्रय सह हिस्सेदार के हिस्से तक वैध है, लेकिन अवयस्क के हिस्से का विक्रय शून्य है।

इमाम बाँदी बनाम मुतसद्दी के वाद में निर्णीत किया गया कि – “किसी वस्तुतः संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के अन्तरण का कोई अधिकार या शक्ति नहीं है और उसके द्वारा किया गया अन्तरण शून्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय का अनुमोदन मो० अमीन बनाम अहमद में किया है।

मोहम्मद अमीन बनाम वकील अहमद के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि ”वस्तुतः सरक्षक अवयस्क की तरफ से पारिवारिक प्रबन्ध (family settlement) नहीं कर सकता है।

(B) वस्तुतः संरक्षक (De facto Guardian) पर अन्य निर्बन्धन (Restrictions) –

(i) वह अवयस्क की अचल सम्पत्ति को किसी वाद के पंच फैसले (Arbitration) के लिये निर्देशित नहीं कर सकता।

(ii) वह अवयस्क की ओर से उत्तराधिकार के अन्य हिस्सेदार के वसीयती दान (Legacies) को मान्य बनाने की अनुमति नहीं दे सकता।

(iii) वह साझेदारी की संविदा या अवयस्क के पिता की मृत्यु हो जाने से समाप्त साझेदारी के व्यापार को जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकता।

(iv) वह अवयस्क के पिता के ऋणों के लिये दस्तावेज लिखकर अवयस्क को आबद्ध नहीं कर सकता।

(v) वस्तुतः सरक्षक अवयस्क की ओर से सम्पत्ति का विभाजन नहीं कर सकता है। उसके द्वारा किया गया विभाजन शून्य है, भले ही विभाजन अवयस्क के हित में ही क्यों न किया गया हो|

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संदर्भ :- अकील अहमद 26वां संस्करण