नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 14 | शाश्वतता के विरुद्ध नियम की परिभाषा, आवश्यक तत्व एंव इसके अपवादों का उल्लेख किया गया है| इस आलेख में धारा 14 | rule against perpetuity की आसान शब्दों में व्याख्या की गई है|
धारा 14 शाश्वतता के विरुद्ध नियम
अधिनियम की धारा 14 शाश्वतता के विरुद्ध नियम (rule against perpetuity) का प्रतिपादन करती है तथा सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में ‘शाश्वतता के विरुद्ध नियम’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है| यह नियम लोक नीति पर आधारित है, जिसके माध्यम से न्यायधीश इस तथ्य पर संतुलन रखता है की सम्पति के अन्तरण की स्वतन्त्रता अपनी स्वंय के विनाश की सीमा तक ना पंहुच जाए और व्यक्ति की ऐसी सभी इच्छाए अथवा योजनाए जो शाश्वतता सृजित करती है, शून्य होगी|
लोक नीति का यह सिद्धान्त है कि किसी भी सम्पत्ति के अन्तरण को शाश्वत रूप से अवरुद्ध नहीं किया जाये, क्योंकि इससे न केवल व्यापार, व्यवसाय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है वरन सम्पत्ति का संचलन (circulation) भी रुक जाता है।
सम्पत्ति अन्तरण का प्रवाह चलता रहे, यही लोक नीति का सिद्धान्त है और इसी सिद्धान्त को सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 14 में ‘शाश्वतता के विरुद्ध नियम’ के रूप में स्थान दिया गया है।
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शाश्वतता के विरुद्ध नियम की परिभाषा
अधिनियम की धारा 14 के अनुसार – “कोई भी सम्पत्ति अन्तरण ऐसा हित सृष्ट करने के लिए प्रवृत्त नहीं हो सकता जो ऐसे अन्तरण की तारीख को जीवित एक या अधिक व्यक्तियों के जीवन काल के और किसी व्यक्ति की , जो उस कालावधि के अवसान के समय अस्तित्व में हो , जिसे यदि वह पूर्ण वय प्राप्त करें तो वह सृष्ट हित मिलना हो, अप्राप्तवयता के पश्चात् प्रभावी होना है।”
इस सिद्धान्त की प्रकृति यह है कि किसी भी सम्पत्ति को हमेशा के लिये अन्तरण करने से रोका नहीं जा सकता। इस धारा में प्रयुक्त ‘शाश्वतता’ शब्द का अर्थ सम्पत्ति को हमेशा के लिये अथवा ऐसे समय तक जो विधि द्वारा अनुज्ञेय नहीं है बाँध दिये जाने अर्थात् सम्पत्ति को अअन्तरणीय (Untransferable) बनाकर किसी एक या किन्हीं व्यक्तियों में निहित कर देने से है।
यह अधिकार सम्पत्ति के अन्तरण करने का एक ऐसा अधिकार है जो सम्पत्ति के साथ संलग्न है तथा इसके उपभोग के लिये एक बहुत महत्वपूर्ण तत्व है। किसी भी सम्पत्ति को हमेशा के लिये किसी एक व्यक्ति या एक ही परिवार में एक वंश से दूसरे वंश तक निहित कर उसे अन्तरण करने से रोक दिया जावे तो इससे समाज का विकास एवं वाणिज्य की प्रगति तो बाधक होगी ही और साथ ही वह सम्पत्ति विशेष भी एक समय पर विनिष्ट हो जावेगी।
जिस कारण से शाश्वतता के विरुद्ध नियम सिद्धान्त का सृजन किया गया है जो की सम्पति को शाश्वत रूप से बांधे रखने के प्रयास को शून्य करार देता है| यह सिद्वांत दो तथ्यों से मिलकर बना है –
(A) सम्पति के स्वामी में सम्पति का अअन्तरणीय अधिकार
(B) सम्पति में भविष्य तक हितो का सृजन|
इस प्रकार इस नियम के अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा कई व्यक्तियों के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण किया जा सकता है लेकिन अन्तिम अन्तरिती के सम्पत्ति में हित निहित होने को उसके वयस्कता की आयु प्राप्त करने के बाद नहीं टाला जा सकता ।
उदाहरण – क एक सम्पत्ति का ख, ग, घ आदि के पक्ष में उनके जीवन काल तक के लिए अन्तरण करता है। अन्तिम अन्तरिती घ का ज्येष्ठ पुत्र ङ है । यहाँ ङ जन्म लेते ही सम्पत्ति में उसका हित निहित नहीं होगा चाहे अन्तरण के समय वह जन्मा ही नहीं हो। लेकिन इसके साथ यह व्यवस्था की जाती है कि जब तक ङ अवयस्क रहता है, सम्पत्ति में उसका हित निहित नहीं होगा|
वहाँ शाश्वतता के विरुद्ध नियम यह अपेक्षा करता है कि ङ के वयस्क होते ही सम्पत्ति में उसका हित निहित हो जायेगा। वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात् सम्पत्ति में ड के हित निहित होने को नहीं टाला जा सकता । यहाँ ङ का अवयस्कता के दौरान सम्पति में समाश्रित हित (Contingent interest) रहेगा तथा वयस्क होते ही वह हित निहित हिन (vested interest) में बदल जायेगा । यहीं ‘शाश्वतता के विरुद्ध नियम’ (Rule against perpetuity) है ।
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धारा 14 के आवश्यक तत्व
शाश्वतता के विरुद्ध नियम (धारा 14) के आवश्यक तत्व निम्नलिखित है
(i) सम्पत्ति का अन्तरण –
शाश्वतता के विरुद्ध नियम (धारा 14) का सिद्धान्त सम्पत्ति के अन्तरणों के सम्बन्धों में ही लागू होता है। उक्त धारा 14 में प्रयुक्त प्रारंभिक शब्द ‘सम्पत्ति अन्तरण’ से स्पष्ट होता है की यदि सम्पत्ति कोई संव्यवहार अन्तरण नहीं है तो धारा 14 लागू नहीं होगी।
(ii) सम्पत्ति में हित का सृजन –
जब सम्पत्ति के अन्तरण द्वारा किसी व्यक्ति में उस सम्पत्ति में हित सृजित किया जाता है तब ही उक्त धारा के प्रावधान लागू होते हैं। सम्पत्ति के जिस संव्यवहार से उस सम्पत्ति में कोई हित का सृजन नहीं होता है वहाँ उपरोक्त धारा लागू नहीं होती है| जैसे – वैयक्तिक संविदाएं, विक्रय का करार, अग्र क्रयाधिकार आदि।
(iii) जीवित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में पूर्व हित का सृजन –
धारा 14 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को पूर्ण रूप से किसी ऐसे व्यक्ति को अन्तरित करना चाहता है जो अन्तरण के समय जीवित नहीं है, उस स्थिति में यह आवश्यक है कि उसके जन्म तक वह ऐसी सम्पत्ति का पूर्व हित किसी जीवित व्यक्ति में सृजित करे|
यह पूर्व हित आवश्यक नहीं है कि एक व्यक्ति में ही सृजित किया जावे, इसके लिये एक के बाद एक अनेक व्यक्तियों में कर सकता है। इसमें शाश्वतता के विरुद्ध नियम का हनन नहीं होगा क्योंकि इनकी सीमा ऐसे व्यक्तियों की मृत्यु तक निर्धारित है।
उदाहरण – ‘अ’ अपनी सम्पत्ति का अन्तरण पूर्ण रूप से ‘द’ के होने वाले बच्चे को करता है। इससे पूर्व उक्त सम्पत्ति में जीवन हित पहले ‘ब’ उसके बाद ‘स’ तथा उसके बाद ‘द’ के हक मे सृजित किया जाता है जो कि अन्तरण समय जीवित थे। इस प्रकार का अन्तरण धारा 14 के अंतर्गत मान्य है।
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(iv) अजात व्यक्ति (अंतिम अन्तरिती) का अस्तित्व में आना –
अजात व्यक्ति के पक्ष में किया गया अन्तरण तब ही वैध होगा जबकि ऐसा व्यक्ति पूर्वहित की सम्पत्ति से पूर्व अस्तित्व में आ गया हो। यदि उसके अस्तित्व में आने से पूर्व ही ‘पूर्व हित’ की समाप्ति हो जाती है तो यह अन्तरण उसके पक्ष में मान्य नहीं होगा।
उदाहरण – ‘अ’ अपनी सम्पत्ति का अन्तरण पहले ‘ब’ के जीवन पर्यन्त के लिये तथा उसके बाद उसके होने वाले पुत्र को अन्तरित करता है| यह अन्तरण उस पुत्र के पक्ष में मान्य तब ही होगा जबकि पुत्र का जन्म ‘ब’ की मृत्यु से पूर्व हो जावे। ऐसा न होने पर सम्पत्ति वापिस अन्तरक को चली जावेगी।
(v) पूर्ण हित का अन्तरण –
अजात व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति के पूर्ण हित का अन्तरण आवश्यक होता है। यदि ऐसे व्यक्ति के पक्ष में जीवन हित सृजित किया जाता है तो यह धारा 13 के तो विपरीत तो होगा ही, साथ ही धारा 14 में शाश्वतता मानी जावेगी, जो कि शून्य होगी|
क्योंकि यदि जीवन हित एक अजात व्यक्ति के बाद दूसरे अजात व्यक्ति के पक्ष में जीवित व्यक्ति की तरह सृजित किया जाता रहा तो सम्पत्ति हमेशा के लिये अथवा बहुत समय के लिए एक ही परिवार में बंधी रह जायेगी जो कि धारा 14 के प्रावधानों के विपरीत है|
(vi) सम्पत्ति का निहित होना –
शाश्वतता की अवधि जो धारा 13 द्वारा अजात व्यक्ति के जन्म तक सीमित थी, उसे धारा 14 द्वारा ऐसे व्यक्ति की अवयस्कता की समाप्ति तक की अवधि तक बढ़ा दिया। लेकिन इस अवधि में अधिक समय के लिये किया गया अन्तरण शून्य होगा।
भारतीय वयस्कता अधिनियम 1875 के अनुसार वयस्कता की आयु 18 साल की है लेकिन अवयस्क का संरक्षक नियुक्त होने पर यह उम्र 21 साल होगी। इस प्रकार किसी सम्पत्ति का अन्तरण अधिकतम अजात व्यक्ति के 18 साल या संरक्षक नियुक्त होने पर 21 साल तक सीमित किया जा सकता है।
उदाहरण – ‘अ’ अपनी सम्पत्ति का अन्तरण ‘ब’ को जीवन भर के लिये और उसके बाद उसके होने वाले बच्चों को उनके द्वारा 19 साल की उम्र प्राप्त करने पर करता है। इस तरह का अन्तरण बच्चों के पक्ष में निष्प्रभावी होगा क्योंकि अधिकतम सीमा 18 साल है। इस सन्दर्भ में सम्पत्ति बच्चे के जन्म के साथ ही निहित नहीं होगी वरन अन्तरक ने जो उम्र निर्धारित की (यदि उम्र 18 साल से अधिक नहीं है) है उस पर होगी|
(vii) किसी भावी हित को सृष्ट करने पर लागू होना –
सम्पत्ति में किसी हित के भविष्य में सृष्ट होने पर ही यह नियम लागू होता है अर्थात् सम्पत्ति में हित को भविष्य में सृष्ट होने सम्बन्धी व्यवस्था हो। यदि सम्पत्ति के हित का सृजन वर्तमान में कर दिया गया है तब वहाँ यह नियम लागू नहीं होता है।
(viii) गर्भस्थ शिशु के पक्ष में किया गया अन्तरण मान्य –
गर्भस्थ शिशु को जीवित व्यक्ति के समतुल्य माना गया है। लेकिन इसका फायदा अन्तरण के प्रारम्भ में दिया जा सकता है, अन्त में नहीं। लेकिन आंग्ल विधि में इसका फायदा दोनों तरफ मिल सकता है।
उदाहरण – ‘अ’ अपनी सम्पत्ति का अन्तरण अपने पुत्र ‘ब’ के लिये जीवन हित तथा उसके बाद अवशिष्ट हित पौत्र ‘स’ को 18 साल की उम्र प्राप्त करने पर दिया। अन्तरण के समय ‘ब’ गर्भस्थ शिशु था। यह अन्तरण भारतीय विधि में मान्य माना जावेगा यदि ‘ब’ की मृत्यु पौत्र ‘स’ के जन्म के उपरांत होती हो। परन्तु यदि ‘ब’ की मृत्यु ‘स’ को अपनी पत्नी के गर्भ में छोड़ जाने की स्थिति में हो गयी हो तो यह अन्तरण भारतीय विधि में मान्य नहीं होगा लेकिन आंग्ल विधि में मान्य होगा|
शाश्वतता के विरुद्ध नियम बनाने की आवश्यकता
शाश्वतता के विरुद्ध नियम बनाने की आवश्यकता निम्न कारणों से हुई –
(i) पारिवारिक स्वाभिमान – मनुष्य हमेशा अपनी सम्पत्ति को अपने परिवार तक ही सीमित रखना चाहता है। सम्पत्ति को परिवार से अलग करना, वह इसकी परिवार के स्वाभिमान के विरुद्ध मानता है।
(ii) सम्पत्ति अर्जित करने वाले व्यक्ति के मन में सम्पत्ति के प्रति मोह होता है और वह चाहता है कि उसके उत्तराधिकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग नहीं करें । इसलिये वह सम्पत्ति का शाश्वत अन्तरण कर उसे चिरस्थायी बनाने का प्रयास करता है।
(iii) अधिकांश व्यक्ति यह चाहते हैं कि वे सम्पत्ति का जन्म – जन्मान्तर तक उपयोग करते रहे । ऐसे व्यक्ति पूर्व जन्म में विश्वास करते हैं और चाहते हैं कि अगले जन्म में भी उस सम्पत्ति का उपभोग करें । इस धारणा से सम्पत्ति के शाश्वत अन्तरण को बढ़ावा मिलता है।
(iv) पारिवारिक सम्पत्ति को हर हालत में विक्रय या अन्यथा व्ययन से बचाने की भावना भी शाश्वतता को प्रोत्साहित करती है।
(v) सम्पत्ति के साथ सम्पत्ति के स्वामी का नाम एक वंश के बाद दूसरे वंश में जुड़ने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में होती है। इन्हीं सब धारणाओं को विफल करने के लिए ही शाश्वतता के विरुद्ध नियम का प्रतिपादन किया गया ।
शाश्वतता के विरुद्ध नियम की प्रयोज्यता की शर्ते है
(i) इसके लिए एक अन्तिम अन्तरिती (Ultimate beneficiary) का होना आवश्यक है । ऐसा व्यक्ति अवयस्क अथवा अजन्मा (Unborn) व्यक्ति हो सकता है ।
(ii) ऐसे अन्तिम अन्तरिती के अवयस्क होने पर सम्पत्ति के अन्तरण को या सम्पत्ति में हित निहित होने को केवल अवयस्क रहने तक टाला जा सकता है ; उसके बाद नहीं ।
(iii) अन्तिम अन्तरिती में सम्पत्ति के हित निहित होने से पूर्व कम से कम एक पूर्विक हित (prior interest) का सृजन होना आवश्यक है ; जैसा कि अधिनियम की धारा 13 में बताया गया है ।
(iv) यह नियम सम्पत्ति के विक्रय , दान आदि के माध्यम से किये जाने वाले अन्तरणों पर लागू होता है ; पारिवारिक व्यवस्थापन , विभाजन , समर्पण आदि पर प्रयोज्य नहीं होता है ।
(v) यह नियम ऐसे अन्तरणों पर लागू होता है जो सम्पत्ति में हित – सृजन की क्षमता रखते हैं ; सम्पत्ति से बाहर हित – सृजन जैसे – वैयक्तिक संविदायें , हक़शफा आदि पर यह लागू नहीं होता है ।
शाश्वतता के विरुद्ध नियम के अपवाद
यह नियम निम्न संव्यवहार या परिस्थितियों में लागू नहीं होता है –
(i) लोक लाभ (Public utility) के लिये किये गये अंतरण के संदर्भ में सम्पत्ति अंतरण की धारा 18 के अनुसार शाश्वतता का नियम ऐसे सम्पत्ति अंतरण की दशा में लागू नहीं होगा जो लोक के फायदे के लिये धर्म, ज्ञान, वाणिज्य, स्वास्थ्य को या मानव जाति के लिये लाभप्रद किसी अन्य उद्देश्य को अवसर करने के लिये किया गया हो।
(ii) अधिनियम की धारा 17 के अन्तर्गत संचयन (accumulation) में किये गये निर्देशों पर शाश्वतता का नियम लागू नहीं होगा| जैसे – ऋण की अदायगी के अभिप्राय से निर्दिष्ट संचयन शाश्वत होने पर भी संचयन के विरुद्ध प्रतिपादित सिद्धान्त द्वारा अवैध नहीं होगा।
(iii) वैयक्तिक करारों पर जिनसे सम्पत्ति में कोई हित सृजित नहीं होता है, शाश्वतता का नियम लागू नहीं होगा। जैसे – एक मन्दिर का शैवियत एक परिवार विशेष को एक वंश के बाद दूसरे वंश को (generation to generation) मन्दिर का पुजारी नियुक्त करने का करार करता है तथा उसके वेतन एवं शर्तों की भी व्यवस्था करता है। यह करार मान्य है तथा यह शाश्वतता के नियम से प्रभावित नहीं होगा।
इसी प्रकार असीमित समय के लिये भूमि को खरीदने का करार भी उक्त अपवाद में आता है। यद्यपि अंग्रेजी विधि में ऐसे करार पर शाश्वतता का नियम लागू होता है। भारतीय विधि के अनुसार उक्त करार से सम्पत्ति में कोई सा भी हित सृजित नहीं होता है।
(iv) बंधक के मोचन के सन्दर्भ में शाश्वतता का नियम लागू नहीं होता है। शाश्वतता का नियम वहीं लागू होता है जहाँ किसी अचल सम्पत्ति में नया हित सृजित किया जाता है। जबकि बंधक के मामले में नये हित के सृजन का कोई आशय नहीं होता है क्योंकि बंधक का यह आवश्यक तत्व है कि मोचन का अधिकार बंधक कर्ता को हमेशा रहता है।
अतः बंधकनामा में यह शर्त कि बंधक सम्पत्ति को बंधककर्ता अपनी इच्छानुसार कभी भी मोचन कर सकता है, शाश्वतता के नियम के विरुद्ध नहीं मानी जावेगी
(v) पट्टेनामे में पट्टाग्रहिता को पट्टे की नवीनता के सन्दर्भ में लगायी गयी शर्त शाश्वतता के नियम के विरुद्ध नहीं मानी जावेगी अर्थात् पट्टाग्रहिता प्रत्येक 10 साल या 20 साल या जैसा भी समय निश्चित किया गया हो, पट्टे का नवीनीकरण कराता रहेगा, यह शर्त यदि किसी पट्टे के दस्तावेज में लगायी जाती है तो इस पर शाश्वतता के नियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(vi) किसी भूमि में अनिश्चित समय तक हकशफा के अधिकार का करार पर शाश्वतता के नियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि इस अधिकार से अचल सम्पत्ति में कोई हित सृजित नहीं होता है। अतः किसी करार में यह शर्त कि उल्लिखित सम्पत्ति में हकशुफा का अधिकार वंशानुगत रहेगा, शाश्वतता के विपरीत नहीं मानी जावेगी|
केस – स्टेनले बनाम लेफ [(1732 ) 2 पी.डब्ल्यू.एम.एस. 686] के मामले में यह कहा गया है कि
शाश्वतता विधि के प्रतिकूल है ; सामान्य सम्पदा के लिए अहितकर है , व्यापार व्यवसाय के लिए हानिप्रद है और सम्पत्ति के संचयन ( Circulation ) को अवरुद्ध करने वाली है ; अतः साम्या ( Equity ) के आधार पर इसे मान्य नहीं किया जा सकता है। इससे शाश्वतता के विरुद्ध नियमके उद्देश्य निम्न है –
(i) सम्पत्ति के संचयन को अवरुद्ध होने से रोकना
(ii) व्यापार व्यवसाय को हानि से बचाना
(iii) राष्ट्र व समाज को आर्थिक प्रगति के पथ पर अग्रसर करना
(iv) औद्योगीकरण को बढ़ावा देना
(v) कुटुम्ब को वित्तीय आपत्तियों से निपटने के लिए सक्षम रखना
(vi) जनसाधारण की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, आदि ।
शाश्वतता के विरुद्ध नियम
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