इस लेख में हम बात करेंगे साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के तहत विशेषज्ञ कौन है और वे कौन से मामले है जिनके लिए विशेषज्ञों की राय न्यायालय द्वारा प्राप्त की जा सकती है? क्या ऐसी राय बाध्यकारी होती है? इसके साथ ही इस लेख में Expertकी राय क्या है और यह कब सुसंगत एंव ग्राह्य होती है? का भी उल्लेख किया गया है, उम्मीद है कि यह लेख आपको जरुर पसंद आऐगा –
साक्ष्य विधि में विशेषज्ञ कौन है
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में शब्द ‘विशेषज्ञ’ की परिभाषा नहीं दी गई है। धारा 45 में विशेषज्ञ शब्द को ‘विशेष कुशल व्यक्तियों’ (Persons Specially skilled) के रूप में परिभाषित किया गया है।
इसका तात्पर्य यह है कि – किसी विषय विशेष मेंकुशलता रखने वाले व्यक्ति को विशेषज्ञ (Expert) कहा जा सकता है।
सामान्यत किसी विषय में विशेष ज्ञान एवं योग्यता रखने वाले व्यक्ति को Expert माना जाता है, क्योंकि वह उस विषय में कुशल एंव प्रशिक्षित होता है और कभी –कभी अनुभव को भी उसमें सम्मिलित कर लिया जाता है। इस प्रकार विशेषज्ञ के लिए दो बातें आवश्यक हो जाती है –
(क) विशेष ज्ञान, एवं
(ख) अनुभव।
इस प्रकार ऐसा व्यक्ति जिसने अभ्यास, निरीक्षण एवं सतत् अध्ययन द्वारा किसी विषय विशेष में विशिष्ट ज्ञान या अनुभव प्राप्त किया है, उसे विशेषज्ञ कहा जा सकता है।
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अब्दुल रहमान बनाम स्टेट ऑफ मैसूर के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि –विशेषज्ञ के लिए किसी उपाधि का होना आवश्यक नहीं है। (1972 क्रि.लॉज. 407)
रामप्रसाद बनाम श्यामलाल (ए.आई.आर. 1984 एन.ओ.सी. 77 इलाहाबाद) – इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – एक आबकारी निरीक्षक, जिसने 21 वर्षों तक नमूने के परीक्षण का कार्य किया है, विशेषज्ञ हो सकता है। इसके अधीन कभी-कभी अनुभव के साथ-साथ युक्ति युक्तता एवं वैज्ञानिक गुणवत्ता को भी देखा जाता है।
कुल मिलाकर बालकृष्ण दास अग्रवाल बनाम श्रीमती राधादेवी के मामले में यह कहा गया है कि, किसी विषय पर विशेषज्ञ की राय को ग्राह्य करने से पूर्व ऐसे व्यक्ति कि, विशेषज्ञ के रूप में क्षमता की परख कर लेनी चाहिये। (ए.आई.आर. 1989, इलाहाबाद 133)
किशन सिंह बनाम एन. सिंह के मामले में –गूंगे एवं बहरों के विद्यालय के प्राचार्य को विशेषज्ञ मानते हुए उसके प्रमाण पत्र को साक्ष्य में ग्राह्य किया गया। (ए.आई.आर. 1983 पंजाब एण्ड हरियाणा 373) लेकिन केवल पाठ्यपुस्तकों में लेखक की राय को विशेषज्ञ की राय नहीं माना गया है। ऐसी राय के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के अनुसार –
माननीय न्यायालय को विदेशी विधि का या विज्ञान की या कला की किसी बात पर या हस्तलेख या अंगुलि चिन्हों की अनन्यता के बारे में राय बनानी हो, तब उस विषय पर ऐसी विदेशी विधि, विज्ञान या कला में या हस्तलेख या अंगुलि चिन्हों की अनन्यता विषयक प्रश्नों में विशेष कुशल व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य होती है और ऐसे व्यक्ति विशेषज्ञ कहलाते है।
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विशेषज्ञ साक्ष्य की पूर्वापेक्षाएं –
सबसे पूर्व वह विशेषज्ञ जिसकी अभिसाक्ष्य ग्राह्य होने वाली है, उसे दो चीजें साबीत की जानी चाहिए –
(1) वह विषय जिसमे विशेषज्ञ का परिसाक्ष्य जरुरी है|
(2) अभीष्ट गवाह हकीकत में विशेषज्ञ है एंव वह सच्चा और स्वतंत्र गवाह है|
किस स्थिति में विशेषज्ञ की राय साक्ष्य में स्वीकार्य है –
कभी-कभी न्यायालय के समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती है जबकि किसी विवाद्यक अथवा सुसंगत तथ्य के बारे में निष्कर्ष निकलने से पूर्व उसे कतिपय तकनीकी प्रश्नों का हल निकालना होता है जो सामान्य ज्ञान तथा अनुभव से बाहर है।
इसलिए ऐसे तकनीकी प्रश्नों का हल निकालने के लिए न्यायालय ऐसे व्यक्तियों की सहायता लेता है जो उस विषय के विशेषज्ञ होते है और ऐसे विशेषज्ञ व्यक्तियों की रायें साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 में सुसंगत एंव ग्राह्य मानी गई है, लेकिन यह जरुरी नहीं है कि ऐसी राय माननीय न्यायालय के लिए बाध्यकारी हो|
श्री. मोहनराव बनाम पी.बी. सुब्रह्मनेश्वरराव के प्रकरण में यह कहा गया है कि, – विशेषज्ञ की राय केवल न्यायालय के आदेश से ही अभिप्राप्त की जा सकती है, पक्षकार अपनी इच्छा से ऐसी राय अभिप्राप्त नहीं कर सकते। लेकिन जहाँ राय किसी विदेशी विधि, विज्ञान अथवा कला के किसी बिन्दु पर हो वहाँ बाद संस्थित करते समय इन विषयों पर विद्यमान राय पर विश्वास किया जा सकता है।(ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 2492 आंध्रप्रदेश)
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साक्ष्य अधिनियम : विशेषज्ञ की राय कब सुसंगत होती है?
सामान्यत किसी तथ्य के बारे में उसी व्यक्ति की साक्ष्य को सुसंगत माना जाता है जो ऐसे तथ्य के बारे में जानकारी रखता हो। केवल मात्र राय साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होती। लेकिन अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है जब किसी विवाधक तथ्य पर किसी विशेषज्ञ की राय आवश्यक हो जाती है।
सामान्यत ऐसे विषय तकनीकी प्रकृति के होते है और ऐसे व्यक्तियों की राय को ‘विशेषज्ञ की राय’ (Expert’s Opinion) कहा जाता है।
न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ की राय प्राप्त करना –
(1) विदेशी विधि (Foreign law) –
विदेशी विधि से तात्पर्य ऐसी विधि से है जो भारत में प्रवृत्त नहीं है। इसके पीछे कारण यह है कि देशीय विधि का ज्ञान होने की अपेक्षा या उपधारणा तो की जाती है लेकिन विदेशी विधि के ज्ञान की नही| इस कारण विदेशी विधि के किसी प्रश्न पर न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ की राय प्राप्त की जा सकती है।
यह आवश्यक नहीं है कि न्यायालयों को विदेशी विधियों का ज्ञान हो ही, लिहाजा जब कभी भी किसी विदेशी विधि से सम्बन्धित कोई प्रश्न आ जाता है तो न्यायालय द्वारा उस पर उस विधि के विशेषज्ञ से राय प्राप्त की जा सकती है।
इस सम्बन्ध मेंअजीज बानो बनाम मुहम्मद इब्राहीम हुसैन[आई.एल.आर. (1915) 47 इलाहाबाद 823] का प्रकरण महत्वपूर्ण है|
अनेक बार यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर विदेशी विधि का विशेषज्ञ किसे माना जाये और क्या ऐसे व्यक्ति का व्यावसायिक व्यक्ति होना जरुरी है?
विल्सन बनाम विल्सन के मामले में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए माननीय न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि –विदेशी विधि के विशेषज्ञ के लिए उसका व्यायसायिक व्यक्ति (Professional) होना आवश्यक नहीं है। (1903 पी 157)
इसी तरह एच. एल. आजमी बनाम कम्प्ट्रोलर ऑफ कस्टम के मामले में न्यायालय ने उक्त मत की पुष्टि करते हुए कहा है कि –बैंकिंग का काम करने वाले व्यक्ति को विदेशी बैकिंग विधि का विशेषज्ञ माना जा सकता है। [(1954) 1 वीकली रिपोर्टर्स 1405 प्रिवी कौंसिल]
(2) विज्ञान या कला (Science and Art) –
जब माननीय न्यायालय को विज्ञान या कला के किसी विषय पर राय बनानी होती है तब न्यायालय ऐसे विषय पर विशेष कुशल व्यक्तियों की राय प्राप्त कर सकता है।
किसी व्यक्ति की चोटों के बारे में चिकित्सक की राय प्राप्त की जा सकती है चूँकि वह उसका विशे-षज्ञ होता है। (रामस्वरूप बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 715)
शब्द ‘विज्ञान’ एवं ‘कला’ को व्यापक अर्थों में ग्राह्य किया गया है। इनमें वे सभी विषय आ जाते है जिन पर राय बनाने के लिए विशेष अध्ययन या अनुभव को आवश्यकता होती है। आयु का ठीक-ठाक पता लगाने के लिए एवं मृत्यु के कारणों को जानने के लिए चिकित्सक की राय, सिक्के के असली या कूटकृत होने का पता लगाने के लिए मिण्टमास्टर की राय आदि विशेषज्ञ की राय मानी जाती है।
फील्ड का कहना है कि –विज्ञान एवं कला शब्दों को अत्यन्त विस्तृत भाव में ग्राह्य किया जाना चाहिये। विज्ञान को ऊँचे विज्ञान तक सीमित नहीं रखना चाहिये और नही कला शब्द को बारीक कलाओं तक, अपितु हस्तकलायें, व्यापार, व्यवसाय तथा कौशल के अर्थों में ग्राह्य किया जाना चाहिये जो संस्कृति के विकास के कारण साधारण लोगों से हटकर कलात्मक एवं वैज्ञानिक मामलों के क्षेत्र में चले गये है। (Field: Evidence: 9th edition: Page 2442)
अमीर अली के अनुसार – राय हेतु विषय ऐसा होना चाहिए जो तकनीकी स्वरूप का हो।
अमोल चव्हाण बनाम श्रीमती ज्योति चव्हाण (ए.आई.आर. 2012 मध्यप्रदेश 61) – इस प्रकरण में पत्नी की ओर से पति की नपुंसकता (impotency) के आधार पर विवाह विच्छेद की याचिका पेश की गई थी। पति की नपुंसकता को चिकित्सीय परीक्षण द्वारा ही साबित किया जा सकता था। न्यायालय ने पति के चिकित्सीय परीक्षण का आदेश देते हुए ऐसे मामलों में विशेषज्ञ की राय को आवश्यक माना। न्यायालय ने कहा कि इससे संविधान के अनुच्छेद 20 (3) एवं 21 का अतिक्रमण नहीं होता है।
(3) हस्तलेख एवं अंगुलि चिन्ह –
इसी तरह जब न्यायालय को किसी व्यक्ति के हस्तलेख याअंगुलि चित्र(Hand writing or Finger impressions) के बारे में राय बनानी हो, उस स्थिति में माननीय न्यायालय ऐसे विषय के विशेषज्ञ व्यक्तियों अर्थात हस्तलेख विशेषज्ञ (Hand writing Expert) की राय प्राप्त कर सकता है।
हस्तलेख विशे-षज्ञ की राय सबसे कम तथा कम विश्वसनीय साक्ष्य है, इसलिए यह माना जाता है कि, केवल हस्तलेख विशेषज्ञ की राय के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी मानना सही नहीं है|
उदाहरण – जब एक व्यक्ति किसी दस्तावेज पर अपने हस्ताक्षरों से इन्कार करता है तब न्यायालय उस व्यक्ति के हस्ताक्षरों की हस्तलेख विशेषज्ञ से जाँच करवा सकता है।
वी. एस. कृष्णा बनाम वी. वीरभद्र राव के वाद में यह कहा गया कि – प्रोमेसरी नोट के आधार पर मार्गाधिकार की घोषणा के वाद में प्रतिवादी द्वारा प्रोनोट पर अपने हस्ताक्षर से इन्कार किये जाने पर ऐसे हस्ताक्षरों को तुलना हेतु विशेषज्ञ के पास भेजा जा सकता है। (एआई.आर. 2009 एस.सी. 47)
लेकिन चैक अनादरण के मामलों में जहाँ चैक अपर्याप्त कोष (Insufficient fund) के कारण अनादरित होता है, वहाँ उस पर अंकित हस्ताक्षरों को तुलना हेतु विशेषज्ञ के पास भेजने का प्रश्न ही नहीं उठता है। (एम. श्याम सुन्दर बनाम के. अंजनेयाचारी, ए.आई.आर. 2009 एन.ओ.सी. 122. आंध्रप्रदेश)।
इसी प्रकार जहाँ किसी दस्तावेज के निष्पादन का समय व स्थान विवादास्पद हो,वहाँ ऐसे दस्तावेज के निष्पादन का समयअर्थात दस्तावेज की आयु जानने के लिए हस्तलेख विशेषज्ञ की राय प्राप्त की जा सकती है। (उप्पू झांसी लक्ष्मी बाई बनाम वेंकटेश्वर राव, ए.आई.आर. 1994, आन्ध्रप्रदेश 90) लेकिन ऐसी जाँच यथा समय कराया जाना अपेक्षित है।
श्रीमती रेणु देवी केड़िया बनाम श्रीमती सीता देवी (ए.आई. आर. 2005 आन्ध्रप्रदेश 780) के मामले में 9 वर्ष बाद कराई गई जाँच को समुचित नहीं माना गया, क्योंकि इतने लम्बे समय में हस्ताक्षरों में अन्तर आ जाना स्वाभाविक है।
जगन्नाथ शर्मा बनाम किशन चन्द शर्मा (ए.आई.आर. 2018 एन.ओ.पी. 217 दिल्ली) के मामले में हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट को विश्वसनीय नहीं माना गया, क्योंकि विशेषज्ञ द्वारा समझौता विलेख पर अंकित हस्ताक्षरों से मूल हस्ताक्षरों की तुलना नहीं की गई तथा रिपोर्ट अन्य साक्ष्य को सम्मुष्ट नहीं कर रही थी।
जी. सत्यरेड्डी बनाम गवर्नमेन्ट ऑफ आन्ध्रप्रेदश (ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3661) के मामले में तो उच्चतम न्यायालय द्वारा यहाँ तक कहा गया है कि – हस्तलेख की जाँच अत्यन्त सावधानी से की जानी चाहिये। जहाँ कोई व्यक्ति अपने हस्ताक्षरों में पूरे नाम का उल्लेख नहीं कर केवल वर्णमाला के शब्दों (Alphabets) का प्रयोग करता है वहाँ उसकी विश्वसनीयता पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिये।
लेकिन फिर भी हस्तलेख विशेषज्ञ की राय पर विश्वास करना या नहीं करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। (बी. विजयनन्दी बनाम श्रीमती पी. भाग्य लक्ष्मी, ए.आई.आर. 2005, आन्ध्रप्रदेश 35)
क्या विशेषज्ञ की राय न्यायालय के प्रति बाध्यकारी होती है –
जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है कि – विशेषज्ञ की राय को मानना या न मानना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है यानि विशेषज्ञ की राय मानने के लिए न्यायालय आबद्ध नहीं है।
वी. कार्तिकेय उर्फ कृष्णा मूर्ति बनाम एस. कमलाम्मा के मामले में विशेषज्ञ की राय को कमजोर एवं कम विश्वसनीय साक्ष्य माना गया है। ऐसी साक्ष्य पर अत्यन्त सावधानी एवं सतर्कता से विचार किये जाने की अपेक्षा है। (ए.आई.आर. 1994 आन्ध्रप्रदेश 102)
फारेस्टरेंज ऑफिसर बनाम पी. एम. अली के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विशेषज्ञ की राय मात्र एक राय होती है। वह अर्थान्वयन में न्यायालय की मदद नहीं कर सकती। (ए.आई. आर. 1994 एस.सी. 120)
किसन चन्द बनाम सीताराम के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विशेषज्ञ की राय किसी साक्षी के कथनों से अधिक विश्वसनीय नहीं हो सकती, इसलिए मात्र विशे-षज्ञ की राय पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। (ए.आई.आर. 2005 पंजाब एण्ड हरियाणा 156)
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विशेषज्ञ की राय कमजोर प्रकृति की साक्ष्य होने से वह न्यायालय पर आबद्ध कर नहीं होती। इस सम्बन्ध में सुरेश कुमार बनाम मेवाराम के मामले में कहा गया है कि – विशेषज्ञों की भिन्न –भिन्न रायें होने पर स्वयं न्यायालय हस्ताक्षरों की तुलना कर निष्कर्ष निकाल सकता है। (ए.आई. आर. 1991 पंजाब एण्ड हरियाणा 254)
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संदर्भ – भारतीय साक्ष्य अधिनियम 17वां संस्करण (राजाराम यादव)