नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विधिशास्त्र की उत्पत्ति और विकास | Developments Of Jurisprudence In Hindi के बारें में बताया गया है|

विधिशास्त्र की उत्पत्ति

सभी विधिवेत्ता इस बात से सहमत हैं कि विधिशास्त्र की उत्पत्ति किसी युग-विशेष में या व्यक्ति विशेष से नहीं हुई है बल्कि यह शास्त्र क्रमिक गति से विकसित हुआ है। इसके विकास में असंख्य विधिशास्त्रियों का सक्रिय योगदान रहा है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विधिशास्त्र के विकास-क्रम को तीन प्रमुख काल-खण्डों में विभाजित किया गया है –

(1) पूर्व रोमन काल (Pre-Roman period);

(2) रोमन काल के दौरान (Roman period);

(3) उत्तररोमन काल (Post-Roman period)

(1) पूर्व रोमन काल

प्राचीन काल में मानव की बौद्धिक क्षमता से उत्पन्न सामाजिक विज्ञान के अस्तित्व को पृथक् रूप से मान्यता प्राप्त नहीं थी। मानव ज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था में एक ही व्यक्ति एक ही समय विभिन्न विज्ञानों का अध्ययन किया करता था।

उदाहरणार्थ, अरस्तू (Aristotle) ने तत्व-मीमांसा, भौतिकी, नीतिशास्त्र आदि का अध्ययन ‘सार्वभौमिक दर्शन-विज्ञान’ नामक एक ही विषय के रूप में किया था। विविध विज्ञानों का स्पष्ट विभाजन नहीं होने के कारण उन्हें दर्शनशास्त्र में शामिल किया गया था। इस तरह अन्य विज्ञानों की भाँति विधिशास्त्र (Jurisprudence) का भी अलग स्थान नहीं था।

यूनानी विधिशास्त्रियों ने ‘प्राकृतिक विधान’ (natural Law) शब्द का प्रतिपादन किया परन्तु इसमें धर्म, नीति तथा विधायन में कोई अन्तर नहीं था; जिस कारण उनके प्राकृतिक विधान को वर्तमान विधिशास्त्र का प्रणेता नहीं माना जा सकता है। वस्तुत: यूनानियों की प्राकृतिक ‘विधान की कल्पना’ से साम्या (Equity) विधि की उत्पत्ति हुई है।

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(2) रोमन काल

कानून के ज्ञान के अर्थ में ‘ज्यूरिसप्रूडेंशिया’ (jurisprudence) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करने का श्रेय रोमवासियों को है, जिन्होंने विधिशास्त्र को एक विशिष्ट स्थान दिलाया। रोम में प्रचलित लैटिन भाषा में ‘ज्यूरिस’ (Juris) शब्द का अर्थ ‘विधि’ तथा ‘पूडेंशिया’ (prudentia) शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ से है जिससे विधिशास्त्र को ज्यूरिसप्रूडेंशिया, अर्थात् ‘विधि का ज्ञान’ कहा जाने लगा।

रोम के शासक जस्टीनियन’ (Justinian) ने अपने शासन काल में विभिन्न विधियों को एकत्रित करके नागरिक विधि कोष (Cropus juris Civilis) नामक संहिता तैयार कराई जिसमें विभिन्न विधियों के सिद्धान्तों को संकलित किया गया था।

जस्टीनियन द्वारा निर्मित पश्चात्वर्ती संविधियों (Statutes) को काल क्रमानुसार संकलित किया गया जिन्हें ‘नोवेले कान्स्टीट्यूशनिस’ (novellae constitutiones) कहा गया जो कॉरपस ज्यूरिस के अंतिम घटक के रूप में ग्रीक भाषा में लिपिबद्ध है।

इसका प्रभाव अनेक सदियों तक इटली के अनेक भागों में बना रहा। रोमन विधि को एकत्रित करके उसका पुनर्लेखन कर उसे व्यवस्थित विधिशास्त्र (Jurisprudence) के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय सम्राट जस्टीनियन को ही जाता है।

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विधिशास्त्री सिसरो ने रोम में प्रचलित ‘ज्यूरिसप्रूडेंशिया’ शब्द के आशय को स्पष्ट करते हुये लिखा है कि न्याय शास्त्रियों के लिये कानूनी व्यवस्थाओं तथा नागरिकों में प्रचलित प्रथाओं के सम्बन्ध में समुचित ज्ञान रखना आवश्यक होता है तथा उनमें अपनी राय को कार्यरूप में परिणित करने की क्षमता होनी चाहिये।

प्रो० हालैण्ड के अनुसार विधिशास्त्र को अलग अस्तित्व दिलाने का श्रेय रोमवासियों को जाता है जिसके लिये विश्व उनका सदैव ऋणी रहेगा।

विख्यात रोमन विधिशास्त्री अल्पियन (Ulpian) ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुए कहा है कि – “यह मानवीय एवं दैविक वस्तुओं का ज्ञान तथा न्यायपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण तथ्यों का विज्ञान है।”

विधिशास्त्री फ्रीडमैन के मतानुसार विधिशास्त्र के विकास में रोमवासियों के बजाय यूनानियों का योगदान अधिक महत्वपूर्ण है। उनके विचार से रोम के विधिशास्त्रियों ने आधुनिक विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र की आधारशिला अवश्य रखी परन्तु विधि के दर्शन (Philosophy of Law) में उनका योगदान नगण्य रहा है।

वर्तमान विधिशास्त्र की संविदा, अपकृत्य अथवा सम्पत्ति सम्बन्धी धारणाओं का मूल आधार प्राचीन यूनानी विधि व्यवस्था में ही दिखलायी पड़ता है।

(3) उत्तर रोमन काल 

मध्ययुग काल के महान् विचारक सेन्ट थॉमस एक्वीनास (Saint Thomas Aquinas) ने विधिशास्त्र को धर्म-दर्शन की एक शाखा के रूप में पुनः स्थापित किया। उनके विचार से विधिशास्त्र में ऐसे कानुन समाविष्ट थे जो प्राकृतिक एवं दैविक तर्क के अनुकूल थे। जिस कारण विधि-विज्ञान को धर्म-दर्शन का ही अंग समझा जाने लगा। परन्तु धार्मिक क्षेत्र में कानून के इस अनावश्यक हस्तक्षेप के विरुद्ध मार्टिन लूथर (Martin Luther) ने आवाज उठाई।

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विधिशास्त्र की उत्पत्ति और विकास

विधिशास्त्र की उत्पत्ति में विधिवेत्ताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिनमे से कुछ इस प्रकार है –

सोलहवीं शताब्दी में धार्मिक रूढ़िवादिता के विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुआ। विधिशास्त्र को धर्म दर्शन से अलग रखे जाने की प्रक्रिया भी सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई और धार्मिक आडम्बरों के कारण धर्म-सुधारकों ने पोप के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया तथा चर्च की प्रधानता समाप्त कर दी|

जिसके परिणामस्वरूप शासक को विधि सम्बन्धी अधिकार प्राप्त हुए तथा इस प्रकार राजनीतिक अधिकारियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे केवल धर्म निरपेक्ष विधियों का ही निर्माण करें। विधिशास्त्र (Jurisprudence) के विकास में यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था इसलिये इस युग को विधि का ‘सुधार-काल’ भी कहा गया है।

सत्रहवीं शताब्दी के सप्रसिद्ध डच न्यायशास्त्री ह्यगो ग्रोशियस (Hugo Grotius) ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि संसार के विभिन्न देश अपने पारस्परिक संव्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि या प्राकृतिक विधि का पालन करने के लिये बाध्य हैं, लेकिन उन्हें आन्तरिक मामलों के लिये आवश्यकतानुसार राष्ट्रीय विधि (municipal law) बनाने का पूर्ण अधिकार है।

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध दार्शनिक थॉमस हॉब्स (Hobbes) ने राज्य के आदेशों को ही विधि मानते हुए यह विचार व्यक्त किया कि राज्य के नागरिकों को इन विधियों का अनुपालन करना चाहिये क्योंकि ये कानून राज्य के शक्ति-सम्पन्न नियम होते हैं।

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लन्दन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्लैकस्टोन (Blackstone) (1723-80 ई०) ने प्राकृतिक विधि के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि यह विधि दैवी आदेश के समतुल्य होने के कारण अन्य सभी कानूनों से श्रेष्ठतम है। प्राकृतिक विधि विश्व के समस्त देशों में समान रूप से लागू होती है तथा कोई भी ऐसा कानून जो प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों के विपरीत हो, वैध नहीं हो सकता।

परन्तु जी बेन्थम (1748-1832) ने ब्लैकस्टोन के इन विचारों का खण्डन करते हुए कहा कि किसी कानून को राज्य का अनुमोदन प्राप्त हो जाने पर राज्य के नागरिक उसका पालन करने के लिये बाध्य होंगे फिर चाहे वह कानून प्राकृतिक नियमों के विपरीत ही क्यों न हो।

बेन्थम की इस विचारधारा के परिणामस्वरूप विधि विज्ञान (juridical science) धर्म-दर्शन के बन्धनों से मुक्त हो गया। बेन्थम ने विधि-निर्माण (विधायन) को महत्वपूर्ण मानते हुये उसे विधिशास्त्र का ही एक अंग माना।

विधिशास्त्र को मानवीय ज्ञान की एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में विकसित करने का श्रेय जॉन ऑस्टिन (1790-1859 ई०) को दिया जाता है। उनके अनुसार विधिक विज्ञान को केवल संप्रभू या राज्य की सर्वोच्च विधायनी शक्ति के प्राधिकार की आवश्यकता होती है तथा यह आवश्यक नहीं कि वह विधि प्राकृतिक नियमों के अनुकूल ही हो।

उनके विचार से विधिशास्त्र का सम्बन्ध केवल काल-विशेष में प्रचलित विधि से ही है तथा विधि कैसी होनी चाहिए (Law as it ought to be) यह विधान-शास्त्रियों का विषय है। उसका स्पष्ट मत था कि किसी भी राज्य की निश्चयात्मक विधि वहाँ की सर्वोच्च विधायिनी शक्ति या राज्य की कृति होती है।

वर्तमान रूप में विधिशास्त्र को ऐतिहासिक शाखा (historical school) का प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है। इस शाखा के मूल प्रवर्तक सर हेनरी मेन ने इस बात पर जोर दिया कि विधिशास्त्र से सम्बन्धित समस्याओं को भली-भाँति समझने के लिये उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर विचार करना आवश्यक होता है जिनमें से उनका विकास हुआ है।

विधिशास्त्र के विकास में सुविख्यात विधिशास्त्री केल्सन (Kelson) का योगदान भी उल्लेखनीय है जिन्होंने विधि को प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र से केवल पृथक् ही नहीं किया अपितु उसे एक विशुद्ध ज्ञान के रूप में मान्यता दिलाई। विधिशास्त्र के प्रति वस्तुनिष्ठ (objective) दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने इसे राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र या समाजशास्त्र से पूर्णतः स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में प्रतिस्थापित किया।

ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित विधि के आदेशात्मक सिद्धान्त (Command Theory of Law) को अस्वीकार करते हुए केल्सन ने कहा कि यह तर्क उचित नहीं है कि कानून राज्य द्वारा जारी किये गये आदेश होने के कारण नागरिकों के प्रति बन्धनकारी होते हैं। उनका कहना है कि ऑस्टिन के विधि-सम्बन्धी सिद्धान्त का मूल आधार राज्य की शास्ति (sanction) है जो स्वयं मनोवैज्ञानिक तत्व है और किसी भी मनोवैज्ञानिक तत्व का शुद्ध सिद्धान्त के रूप में समावेश उचित नहीं है।

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विधिशास्त्र के विकास का इतिहास विधि की आधुनिकतम क्रियात्मक शाखा के विचारकों का उल्लेख किये बिना अधूरा रह जायेगा। इस विचारधारा के मुख्य प्रवर्तक अमेरिका के डीन रास्को पाउण्ड (Roscoe Pound) हैं जिन्होंने विधिशास्त्र को सामाजिक यांत्रिकी निरूपित किया है।

पाउंड ने विधि को एक सामाजिक संस्था निरूपित करते हुए इसे मानव के परस्पर संव्यवहारों को नियंत्रित रखने वाला साधन माना है।

वर्तमान समय में विधिशास्त्र के अन्तर्गत तुलनात्मक पद्धति पर विशेष बल दिया जा रहा है जिससे विधि का सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके। इसके अन्तर्गत किसी भी विधि प्रणाली का मूल्यांकन अन्य विधि प्रणालियों से उसकी तुलना के आधार पर किया जाता है ताकि उसे अधिक व्यावहारिक तथा सुदृढ बनाया जा सके।

प्रायः सभी विधिशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि विधिशास्त्र का विकास क्रमशः परिस्थिति के अनुसार हुआ है। विधिशास्त्र सम्बन्धी धारणाओं में समयानुसार परिवर्तन होते रहे हैं क्योंकि इस शास्त्र का मानवप्रवृत्तियों से सीधा सम्बन्ध है। विधिशास्त्र (Jurisprudence) के विकास के प्रत्येक चरण में विचारकों का प्रयास यही रहा है कि इस शास्त्र को अधिकाधिक व्यावहारिक तथा ग्राह्य बनाया जा सके।

यही कारण है कि हालैण्ड ने विधिशास्त्र को निश्चयात्मक विधि का प्रारूपिक विज्ञान माना है, तो सामण्ड ने इसे नागरिक विधि का विज्ञान कहा है। परन्तु वर्तमान में विधिशास्त्र के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि विधि का कार्य मनुष्य के सामाजिक जीवन को निर्देशित करना है।

यही कारण है कि इसे ‘हितों का विधिशास्त्र’ (Jurisprudence of Interests) कहा गया है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक फिलिप हैक (Phillip Hack) ने कहा है कि विधिशास्त्र का मुख्य कार्य मानव-हितों के आपसी टकरावों को समाप्त करना है; अर्थात् विधि का मुख्य प्रयोजन मानव हितों का संरक्षण करना है।

परन्तु उल्लेखनीय है कि प्रमुख विधिशास्त्रियों का समर्थन प्राप्त होते हुए भी इस विचारधारा को अभी न्यायिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है।

वर्तमान में विधिशास्त्र के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए अमेरिकी विधि शास्त्रियों ने यथार्थवादी आन्दोलन प्रारंभ किया। इस नये आन्दोलन के प्रणेता यूजेन इहरलिक का मत है की विधि के विकास का स्रोत न तो राज्य के विधायन में है और न ही विधि के विज्ञान में या न्यायिक विनिश्चयों में, अपितु वह समाज में सन्निहित है। बाद में इस शास्त्र को अमेरिका में जॉन चेपमैन ग्रे (John Chapman Gray) तथा ओलीवर वेन्डल होम्स ने पूर्ण रूप से स्थापित किया। 

उल्लेखनीय है कि वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विधिशास्त्र के प्रति विधिवेत्ताओं का दृष्टिकोण निरन्तर बदलता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसकी विषयवस्तु “कानून” होने के कारण वह समय तथा स्थान के अनुसार परिवर्तनशील है। मानव समाज, युगों से परिस्थिति के अनुसार बदलता चला आ रहा है।

इसके साथ ही कानून में भी समयोजित परिवर्तन होते चले आ रहे हैं। आज की जटिलताओं के युग में विधिशास्त्र (Jurisprudence) को एकाकी विषय बनाये रखना अनुचित होगा। अत: इसे अधिक विकासशील एवं अन्तर-अनुशासनिक (inter-disciplinary) बनाना होगा ताकि वह वर्तमान मानवीय समस्याओं का समाधान पूर्वक हल कर सके। यही कारण है कि वर्तमान में विधिशास्त्र के प्रति तुलनात्मक विश्लेषण पद्धति अपनाई जाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है।

सारांश –

वर्तमान परिवेश में विधिशास्त्र के प्रति परम्परागत रूढ़िवादी दृष्टिकोण को त्याग कर अधिक व्यापक नीति अपनाना उचित होगा ताकि इसके निर्दिष्ट लक्ष्य को साध्य किया जा सके। मानव के सर्वांगीण विकास के लिये विधि को अधिक व्यापक तथा क्रियात्मक बनाना परम आवश्यक है जिससे इसका उपयोग मानवीय हितों की रक्षा के उपयुक्त साधन के रूप में किया जाना संभव हो सके।

अन्त में यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि यद्यपि पाश्चात्य विधि प्रणाली और अध्ययन का स्रोत रोमन विधि है तथापि भारतीय विधि चिंतन का मूल आधार स्मृतिकारों और टीकाकारों की वे कृतियाँ हैं जिनमें धर्म और नैतिक उपदेशों के अतिरिक्त विधि के नियमों का उल्लेख तथा निर्वचन किया गया है।

यह बात अलग है कि इन रचनाकारों ने विधि, धर्म और नैतिकता में विशेष अन्तर नहीं माना है। ये कृतियाँ प्राचीन हिन्दू विधिशास्त्र की आधार-शिला मानी जाती हैं।

इनमें कर्तव्य को ही विधियों का प्रमुख स्रोत माना गया है तथा सदाचार को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। परन्तु कालान्तर में मुगल शासन तथा अंग्रेजी शासन के कारण भारतीय विधि चिंतन का रूप पूर्णत: बदल गया और वह पाश्चात्य विधि प्रणाली के प्रभाव से न बच सका।

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References :-  jurisprudence and legal theory 14th Version 2005 (Dr. N.V.pranjape)