नमस्कार, यह पोस्ट लॉ स्टूडेंट्स के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं इसलिए इसे जरुर पढ़े। इस पोस्ट में हम जानेंगे की विधिशास्त्र का वर्गीकरण एंव विधिशास्त्र की विषय वस्तु कैसी होती है? के बारें में बताया गया है | अगर आपने इससे पहले विधिशास्त्र के बारे में नहीं पढ़ा है तब आप विधिशास्त्र केटेगरी से विधिशास्त्र के बारे मै और पढ़ सकते है|
विधिशास्त्र का अर्थ
विधिशास्त्र शब्द की उत्पत्ति लैटिन के दो शब्द ‘ज्यूरिस’ (Juris) एवं ‘प्रूडेंशिया’ (Prudensia) से मिलकर हुई है जिनमें शब्द ‘ज्यूरिस’ (Juris) का अर्थ है ‘विधि’ व शब्द ‘प्रूडेंशिया’ (Prudensia) का अर्थ ‘ज्ञान’। इस प्रकार विधिशास्त्र का अर्थ – विधि का ज्ञान है। यहाँ पर ‘विज्ञान’ से आशय किसी विषय के क्रमबद्ध अध्ययन से है।
जेर्मी बेन्थम को आधुनिक विधिशास्त्र का पितामह कहा जाता है। इन्होंने ही सर्वप्रथम विधि को विज्ञान (Science) की संज्ञा दी। विधिशास्त्रियों ने विधिशास्त्र को अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है।
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विधिशास्त्र का वर्गीकरण | Classification of Jurisprudence
विधिशास्त्र का वर्गीकरण मुख्यतः निम्न प्रकार है –
समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र
समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र का उद्भव उन्नीसवीं सदी में हुआ मानव जब यह समझने लगा कि समाज के विकास के लिये उसे सामाजिक अनुशासन में रहकर आपसी सहयोग का मार्ग अपनाना उसके लिए जरुरी है। परिणामस्वरूप विधिशास्त्र की एक नई पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ जो समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र (jurisprudence) के नाम से विकसित हुई।
समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करना है जिस कारण इसे ‘हितों का विधिशास्त्र’ (Jurisprudence of Interest) भी कहा गया है|
जर्मन विधिशास्त्री रूडोल्फ इहरिंग के अनुसार, विधि न तो स्वतंत्र रूप से विकसित हुई है और ना ही यह राज्य की मनमानी देन है। इसका मूल उद्देश्य समाज के परस्पर-विरोधी हितों में टकराव की स्थिति को समाप्त कर उनमें समन्वय और एकरूपता स्थापित करना है।
समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को अमेरिका में प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है। प्रसिद्ध अमेरिकी विधिशास्त्री डीन रास्को पाउंड ने विधिशास्त्र को ‘सामाजिक यांत्रिकी’ (social engineering) की संज्ञा दी है। इस विचारधारा के अनुसार विधिशास्त्र के अन्तर्गत मुख्यतः दो बातों का अध्ययन किया जाता है –
(1) मानव और उसके व्यवहारों पर विधि का क्या प्रभाव पड़ता है व
(2) मानव के संव्यवहार विधि को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
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तुलनात्मक विधिशास्त्र
डॉ० एलेन (Allen) ने विधि के दो या अधिक पद्धतियों के तुलनात्मक अध्ययन करने की पद्धति को तुलनात्मक विधिशास्त्र कहा है। इसी प्रकार नागरिक विधि के अध्ययन करने वाले शास्त्र को नागरिक विधिशास्त्र, दण्ड-विधि के अध्ययन से सम्बन्धित शास्त्र को आपराधिक विधिशास्त्र या चिकित्सक क्षेत्र से सम्बन्धित विधि के अध्ययन को चिकित्सीय विधिशास्त्र (Medical Jurisprudence) कहा गया है।
प्रो० हालैंड ने इस प्रकार के वर्गीकरण को अनावश्यक और व्यर्थ बताते हुए यह विचार व्यक्त किया कि इससे विधिशास्त्र (jurisprudence) का क्षेत्र अनेक भागों में बँटकर सीमित हो जायेगा।
तुलनात्मक विधिशास्त्र को विकसित करने का श्रेय दो विधिशास्त्री – कान्ट तथा स्टोरी को दिया जाता है जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विधायन और विधि में व्यावहारिक सुधार लाने में तुलनात्मक अध्ययन की अहम भूमिका रहती है।
सामंड ने भी विभिन्न देशों की विधियों के गुणदोषों के आधार पर स्वदेशीय विधि का तुलनात्मक मूल्यांकन किये जाने का कथन किया लेकिन वे तुलनात्मक विधिशास्त्र को विधिशास्त्र की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में मानने से इन्कार करते है। उनके अनुसार यह विधिशास्त्र (jurisprudence) के अध्ययन का एक तरीका मात्र है।
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आंग्ल विधिशास्त्र तथा महाद्वीपीय विधिशास्त्र
सामंड ने आंग्ल विधिशास्त्र और महाद्वीपीय (अन्य यूरोपीय देशों के) विधिशास्त्र में विभेद करते हुए कहा है कि इन दोनों में अनेक असमानतायें हैं। अंग्रेजी में ‘विधि’ शब्द का अर्थ अन्य कुछ न होते हुए केवल ‘कानून’ ही है, परन्तु अन्य महाद्वीपीय देशों में इस शब्द का अर्थ केवल ‘कानून’ ही नहीं बल्कि ‘औचित्य’ या ‘अधिकार’ अथवा ‘न्याय’ भी है।
परिणामत: आंग्ल विधिशास्त्र में ‘विधि’ तथा ‘अधिकार’ में अन्तर है जबकि यूरोप के अन्य देशों में ‘विधि’ तथा ‘अधिकार’ में कोई विभेद नहीं है।
इसके अतिरिक्त, आंग्ल विधिशास्त्र के दो मुख्य रूप हैं – विश्लेषणात्मक तथा ऐतिहासिक विधिशास्त्र। परन्तु अन्य यूरोपीय देशों में विधिशास्त्र को केवल नैतिक रूप ही प्राप्त है जो तर्क और विवेक पर आधारित है।
इसी प्रकार महाद्वीपीय विधिशास्त्र विधि और न्याय को पृथक नहीं मानता जबकि आंग्ल विधिशास्त्री इन दोनों शब्दों को पृथक् मानते हैं और दोनों के लिये एक ही शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं समझते हैं।
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जॉन ऑस्टिन द्वारा विधिशास्त्र का वर्गीकरण
जॉन ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को दो वर्गो में विभाजित किया है –
(i) सामान्य विधिशास्त्र –
सामान्य विधिशास्त्र मै विधि के उन सभी उद्देश्यों, सिद्वान्तो, धारणाओं और विभेदों का उल्लेख रहता है जो सभी विधिक व्यवस्थाओं में समान रूप से पाए जाते है| विधि की प्रणालियों से तात्पर्य ऐसी प्रणालियों से है जो अपनी तर्क-शक्ति एवं परिपक्वता के कारण प्रौढ़ वैधानिक व्यवस्था के रूप में विकसित हो चुकी हो। जिस कारण सामान्य विधिशास्त्र को सैद्धांतिक विधिशास्त्र भी कहा जाता है। ऑस्टिन ने सामान्य विधिशास्त्र को ‘सुस्पष्ट विधि का दर्शन’ (philosophy of positive law) कहा है।
(ii) विशिष्ट विधिशास्त्र –
विशिष्ट विधिशास्त्र, विधि के किसी भाग की एक वास्तविक पद्धति का विज्ञान है। दूसरे शब्दों में, विशिष्ट विधिशास्त्र एक संकीर्ण विज्ञान है जिसके अंतर्गत किसी ऐसी वर्तमान या भूतकालीन विधि-प्रणाली का अध्ययन किया जाता है जो किसी राष्ट्र विशेष तक ही सीमित रही हो। इसीलिये विशिष्ट विधिशास्त्र को व्यावहारिक विधिशास्त्र या राष्ट्रीय विधिशास्त्र भी कहा जाता है।
प्रो० हालैंड, ऑस्टिन द्वारा किये गये विधिशास्त्र के विभाजन की आलोचना करते हुए कहते है की विधिशास्त्र को सामान्य और विशिष्ट विधिशास्त्र के रूप में विभाजित करना उचित नहीं है। उनके अनुसार ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को ‘विशिष्ट’ इसलिये बताया कि इसकी विषय-वस्तु विशिष्ट है न कि इस कारण कि यह एक ‘विशिष्ट विज्ञान’ है।
सामण्ड ने भी ऑस्टिन के ‘सामान्य और विशिष्ट’ विधिशास्त्र के भेद की आलोचना की और उनके विचार से सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधिक सिद्धान्तों के सामान्य रूप का नहीं, अपितु विशिष्ट विधि पद्धति के सामान्य अथवा मूल तत्वों का अध्ययन किया जाता है|
सामंड द्वारा विधिशास्त्र का वर्गीकरण
सामंड ने विधिशास्त्र को तीन भागों में बांटा है| विधि के इन विविध पहलुओं का पृथक् विवेचन करने से विधिशास्त्र का विषय ही अधुरा हो जायेगा जिस कारण विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिये इन तीनों का समावेश होना आवश्यक है। ऐतिहासिक (historical) तथा नैतिक (ethical) शाखा है।
(i) विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र
विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र से आशय विधियों के प्राथमिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करना है। इस विश्लेषण में उनके ऐतिहासिक उद्गम अथवा विकास या नैतिक महत्व आदि का निरूपण नहीं किया जाता है। विधिशास्त्र की इस शाखा के प्रणेता जॉन ऑस्टिन थे|
विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र राज्य के प्रति अपने सम्बन्ध को ही विधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू समझता है। इसके अन्तर्गत विधि को राज्य के संप्रभुताधारी का समादेश माना गया है। इसीलिये इसे विधि की आदेशात्मक शाखा (Imperative School) भी कहा जाता है।
(ii) ऐतिहासिक विधिशास्त्र
विधिक पद्वति के प्राथमिक सिद्वान्तो तथा आधारभूत संकल्पनाओं के इतिहास को ‘ऐतिहासिक विधिशास्त्र’ कहा गया है। सर्वप्रथम प्रसिद्ध विधिशास्त्री सैविनी (Savigny) ने विधिशास्त्र के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपना कर ऐतिहासिक विधिशास्त्र का सूत्रपात किया था।
इंग्लैण्ड के सर हेनरी मेन को ऐतिहासिक विधिशास्त्र का संस्थापक माना जाता है। इस शाखा का उद्देश्य विधि के उद्गम, विकास तथा विधि को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों के सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करना है। ऐतिहासिक विधिशास्त्र मै राज्य के प्रति विधि के सम्बन्ध को विशेष महत्व ना दिया जाकर उन सामाजिक प्रथाओं को अधिक महत्व दिया जाता है जिनसे विधि का निर्माण हुआ है। ऐतिहासिक विधिशास्त्र समाज की प्राचीन विधिक संस्थाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है।
(iii) नैतिक विधिशास्त्र
नैतिक विधिशास्त्र का सम्बन्ध विधि के नैतिक पहलू से है। विधि कैसी है अथवा कैसी थी, इसका विवेचन करना नैतिक विधिशास्त्र का कार्य नहीं है वरन इसका मुख्य कार्य यह है कि विधि अथवा कानून कैसा होना चाहिए| सामण्ड ने नैतिक विधिशास्त्र को नीतिशास्त्र और विधिशास्त्र का सामान्य आधार माना है।
नैतिक विधिशास्त्र का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह विधि के लक्ष्यों का निर्धारण करे और उन आदर्शवादी तथ्यों की खोज करे जिन्हें समाज स्वीकार करना चाहता है। सामण्ड के अनुसार नैतिक विधिशास्त्र मै निम्नलिखित बातों का समावेश होना चाहिए –
(i) विधि और न्याय के परस्पर सम्बन्धों का निर्धारण
(ii) विधि के सिद्धान्तों का ज्ञान
(iii) न्याय की स्थापना के लिये आवश्यक साधनों की खोज, माशाहलम
(iv) न्याय और विधि की विषय-वस्तु और उनके क्षेत्रों का निर्धारण तथा
(v) विश्लेषण पद्धति के मूलभूत सिद्धान्तों के नैतिक महत्व का परिणाम।
जर्मी बेन्थम द्वारा विधिशास्त्र का वर्गीकरण
विख्यात आंग्ल-विधिवेत्ता जर्मी बेन्थम ने विधिशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया है।
(i) व्याख्यात्मक विधिशास्त्र
व्याख्यात्मक विधिशास्त्र के अंतर्गत विधि अथवा कानून क्या है? इस बात की व्याख्या की जाती है| दूसरे शब्दों में विधि मै नैतिकता या अनैतिकता का कोई सरोकार नहीं होता है, वह तो केवल प्रचलित विधि के विश्लेषण से संबंधित रहती है।
बेंथम के इन विचारों का उल्लेख उनके द्वारा सन् 1782 में लिखी पुस्तक – ‘लिमिट्स ऑफ ज्यूरिसप्रूडेंस डिफाइन्ड’ में मिलता है, जिसे एवरेट (Everett) ने सन् 1945 में प्रकाशित कराया था।
(ii) मूल्यांकात्मक विधिशास्त्र
मूल्यांकात्मक विधिशास्त्र का उद्देश्य है की विधि कैसी होनी चाहिए? सरल शब्दों मै इसका तात्पर्य कानून किस प्रकार तथा कैसा होना चाहिए है|
बेन्थम ने व्याख्यात्मक विधिशास्त्र को वापिस दो भागों में विभाजित किया है –
(A) प्राधिकारिक व्याख्यात्मक विधिशास्त्र – जिसका सृजन विधायी शक्ति से होता है, अर्थात् जिसे विधान-मण्डल से शक्ति प्राप्त होती है
(B) अप्राधिकारिक व्याख्यात्मक विधिशास्त्र – जो विधिक साहित्य से अपनी विषय-सामग्री प्राप्त करता है।
बेन्थम ने वापिस अप्राधिकारिक व्याख्यात्मक विधिशास्त्र को पुनः दो भागों में वर्गीकृत किया है
(A) स्थानीय अप्राधिकारिक विधिशास्त्र – इसमें किसी देश-विदेश का विधि-साहित्य समाविष्ट रहता है|
(B) सार्वभौमिक प्राधिकारिक विधिशास्त्र – इसमें समस्त विश्व की विधि-सामग्री का समावेश रहता है।
विधिशास्त्र की विषय–वस्तु
विधिशास्त्र की विषय-वस्तु में विधि तथा उससे सम्बन्धित विभिन्न संकल्पनाओं का समावेश होता है। विधिशास्त्र का मूल उद्देश्य विधि की उत्पत्ति, प्रगति, विकास एवं कार्यों (functions) का अध्ययन करना है। दूसरे शब्दों में, इस शास्त्र के अन्तर्गत विधि की प्रकृति और उसके विभिन्न तत्वों की विवेचना की जाती है तथा उसके विभिन्न स्रोतों और उद्देश्यों का अध्ययन किया जाता है।
विधिशास्त्र के प्रति विधिशास्त्रियों के विचारों में सदैव ही भिन्नता रही है। परिणामतः इस शास्त्र की विषय-वस्तु इसके प्रति अपनाये गये दृष्टिकोण की विशिष्टता पर निर्भर करती है।
उदाहरण के लिये, विधिशास्त्र के प्रति विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले विचारकों के अनुसार इस शास्त्र के अन्तर्गत नागरिक विधि तथा अन्य प्रकार की विधियों के परस्पर सम्बन्धों पर विचार किया जाता है और इस विधि के प्रमुख तत्वों जैसे राज्य, संप्रभुता तथा न्याय-प्रशासन आदि का विश्लेषण किया जाता है
इसमें विधि के विभिन्न स्रोतों की विवेचना की जाती है और वैधानिक अधिकार, व्यावहारिक एवं आपराधिक दायित्व, सम्पत्ति, स्वामित्व, आधिपत्य, आभार, संविदा और. वैधानिक व्यक्तित्व आदि विधिक संकल्पनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाता है।
विधि के प्रति नैतिक दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिशास्त्री, विधिशास्त्र के अन्तर्गत न्याय और विज्ञान के परस्पर सम्बन्धों तथा न्याय की स्थापना के लिये अपनाये जाने वाले मूलभूत सिद्धान्तों के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं। वर्तमान में विधिशास्त्र के प्रति समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस दृष्टि से विधिशास्त्र के अन्तर्गत उन सभी विधियों के मूलभूत सिद्धान्तों का अध्ययन समाविष्ट है जो समाज में न्याय की स्थापना के लिये लागू किये जाते हैं।
ड्यूग्यिट (Duguit) ने विधिशास्त्र के प्रति समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए कथन किया है कि वास्तव में इसे ‘सामाजिक-विज्ञान’ ही कहा जाना उचित होगा। विधिशास्त्र की विषय-वस्तु विधि तथा उससे संबंधित धारणाएँ होने के कारण मनुष्य और समाज से इसका घनिष्ट सम्बन्ध है। चूँकि मनुष्य और समाज एक दूसरे पर निर्भर करते हैं, इसलिये ‘सामाजिक समेकता’ (social solidarity) से ही इन दोनों का हित संभव हो सकता है।
ऑगस्ट कॉम्टे (August Comte) की भाँति ड्यूग्यिट ने भी यह स्वीकार किया है कि व्यक्ति का केवल एक ही अधिकार होता है, वह है उसे सदैव कर्तव्यरत रहने का अधिकार, अतः प्राइवेट अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं होती है। (विधिशास्त्र का वर्गीकरण, विधिशास्त्र का वर्गीकरण, विधिशास्त्र का वर्गीकरण, विधिशास्त्र का वर्गीकरण, विधिशास्त्र का वर्गीकरण)
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