ऐतिहासिक स्रोतों में मुख्य रूप से विधिवेत्ताओं की कृतियाँ, लेख, टिप्पणियाँ, निर्णय, पत्रिकायें, लॉ रिपोर्ट्स आदि आती हैं। विधिक स्रोतों में विधायन, पूर्ण-निर्णय, रूढ़िगत विधि एवं अभिसमयात्मक विधि को शामिल किया गया है।

कानून के छात्रों के लिए अध्ययन की दृष्टि से विधि के मुख्यतया तीन स्रोत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं –

(i) विधायन (Legislation),

(ii) पूर्व-निर्णय (Precedents), एवं

(iii) रूढ़िगत या प्रथागत विधि (Customary law)।

इस आलेख में विधायन क्या है, इसकी परिभाषा, विधायन के प्रकार, महत्त्व आदि के बारें में विस्तृत रूप से बताया गया है,

परिचय – विधायन (Legislation)

विधिशास्त्र में विधायन को एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है क्योंकि विधि के स्त्रोत में यह सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है और इसके महत्त्व के दो प्रमुख कारण है – पहला, राज्य की विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधि को ही कानून के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसे संप्रभु शक्ति का बल प्राप्त होता है तथा,

दूसरा, राज्य के विधान मण्डल में सदस्य जन प्रतिनिधि होने से इनके द्वारा पारित विधि को आमजन का समर्थन मिलता है| मुख्य तौर पर विधायन का आशय विधि निर्माण से है, इसे विधान भी कहा जाता है।

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विधायन के अन्तर्गत विधि का निर्माण विधायिका द्वारा किया जाता है जो विधि सभी पर आबद्धकर होती है तथा जिसे न्यायालयों द्वारा मान्य एवं प्रवर्तित किया जा सकता है। इसमें मुख्य रूप से विधायिका द्वारा पारित अधिनियम (Acts) आदि आते हैं।

सभी सभ्य देशों में विधायन की प्रकृति एवं प्रवृत्ति गतिशील अवधारणा के रूप में मान्य है। दूसरा यह कि विधायन का क्षेत्र पूर्व निर्णय एंव रूढी से अधिक विस्तृत है, इसमें विधि के यह दोनों स्त्रोत समाविष्ट हो सकते हैं।

अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंस्टीट्यूशन के अनुसार मेन का मानना है कि, आधुनिक राज्यों की संरचना में प्रधान तथ्य विधायन की शक्ति है।

विश्लेष्णात्मक विचारधारा के समर्थक विधायन को ही श्रेष्ठ मानते है, उनके अनुसार यह एक अधिनियमित विधि है जो सोच एंव चिंतन के विश्लेषण पर आधारित है जबकि ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थक रूढी को अधिक महत्त्व देते है|

विधायन का, आंग्ल विधि में संविधि या लिखित विधि और सामान्य विधि के रूप में अन्तर किया जाता है लेकिन भारत या अन्य देशों में ऐसा नहीं है।

यही कारण है की विधान को आधुनिक काल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है तथा इसका निर्माण राज्य के अस्तित्व के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है।

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विधायन (Legislation) का अर्थ

विधायन जिसे विधान भी कहा जाता है, यह आंग्ल भाषा के शब्द ‘legislation’ का हिन्दी रूपान्तरण है जो लैटिन के दो शब्दों ‘legis’ एवं ‘latio’ से मिलकर बना है,

शब्द लेजिस (legis) का अर्थ है ‘विधि’ तथा शब्द ‘लेशियो’ (latio) का अर्थ है ‘प्रस्थापना’। इस प्रकार शब्द ‘विधायन’ का शाब्दिक अर्थ ‘विधि की प्रस्थापना’ है।

विधायन की परिभाषा

विधायन की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा अपने-अपने ढंग से परिभाषाएँ दी गई हैं, जो निम्नलिखित है –

बेन्थम तथा मिल के अनुसार – “किसी भी प्रकार का विधि निर्माण विधायन कहलाता है।”

सॉमण्ड के अनुसार – “विधायन विधि का वह भाव है जो एक शक्ति प्रदत्त प्राधिकारी के विधिक नियमों की घोषणा में शामिल (सन्निहित) है।”

ऑस्टिन के अनुसार – ऐसे सभी विधिक कृत्य जो विधि का निर्माण, संशोधन या परिवर्तन करते है विधायन कहलाते है|

प्रो. ग्रे के अनुसार – “राज्य के विधायी अंग की औपचारिक घोषणाएँ ही विधायन हैं। आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, विधायन राज्य के विधायी अंग के प्रारूपिक कथन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

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तत्व या लक्षण

विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा दी गई परिभाषाओं से विधायन के निम्नलिखित तत्त्व स्पष्ट होते है –

(i) यह राज्य के विधायी अंग (संसद या राज्य विधानमंडल) द्वारा निर्मित होता है,

(ii) यह विचारपूर्वक निर्मित नियमों का संग्रह है;

(iii) यह लिखित स्वरूप में होते है; तथा

(iv) इसमें आज्ञापक तत्त्व (imperative elements) शामिल होते है, जो बाध्यकारी होते है।

चिपमैन ग्रे के अनुसार – विधान , समाज के विधायी अंगो का प्रारूपिक कथन (Formal Utterances) है यानि यह राज्य के विधायी अंगो की औपचारिक घोषणा है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विधायिका द्वारा निर्मित कानून ही विधायन है। उदाहरण के लिए, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, संविदा अधिनियम, परिसीमा अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम आदि अधिनियम, विधायिका द्वारा पारित विधि होने से विधायन है।

विधायन के प्रकार (types of legislation)

विधायन के विस्तृत अध्ययन के लिए विधान को निम्नलिखित रूपों में विभाजित किया जा सकता है, सामंड ने भी विधान को दो भागों में विभाजित किया है (i) सर्वोच्च विधान (ii) अधीनस्थ विधान –

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(i) सर्वोच्च विधायन –

सर्वोच्च विधान से तात्पर्य ऐसे विधायन से है जिसका उद्भव राज्य की प्रभुता सम्पन्न शक्ति से होता है। इसे किसी अन्य विधायी शक्ति या प्राधिकारी द्वारा विनियमित, नियंत्रित, निरसित आदि नहीं किया जा सकता है। आसान शब्दों में राज्य की संप्रभु शक्ति द्वारा निर्मित विधि को, सर्वोच्च विधायन कहा जाता है।

निर्विवादित रूप में विधान की शक्ति राजनीतिक समुदाय की संप्रभुता में विहित होती है, इसमें अन्य विधायी शक्ति का हस्तक्षेप नहीं होता है।

उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड में अधिराष्ट्रीय संसद सर्वशक्तिमान है तथा उसकी शक्ति पर किसी प्रकार का विधिक अंकुश नहीं है, इस कारण उसके द्वारा निर्मित विधि, सर्वोच्च विधान है।

इस तरह भारत में भी संसद द्वारा निर्मित विधियों को, सर्वोच्च विधान माना जाता है लेकिन भारत में ऐसी विधियों के स्वेच्छाचारी होने पर उन्हें न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

(ii) अधीनस्थ विधायन (Subordinate Legislation)

अधीनस्थ विधान से आशय ऐसे विधायन से है जो सर्वोच्च शक्ति के अलावा अन्य किसी शक्ति अथवा प्राधिकारी द्वारा निर्मित होते हैं। यानि यह विधायन सर्वोच्च सत्ता की प्रत्यायोजित शक्ति के अधीन निर्मित होते है।

दुसरे शब्दों में अधीनस्थ विधायन से तात्पर्य, ऐसे विधायन से है जो सर्वोच्च शक्ति के अलावा अन्य किसी प्राधिकारी द्वारा निर्मित होते है तथा उन पर किसी उच्च विधायी शक्ति अथवा प्राधिकारी का नियंत्रण रहता है।

उदाहरण स्वरूप विधायी शक्तियों का कार्यपालिका प्राधिकारियों को प्रत्यायोजन किये जाने पर उस पर संसद या राज्य विधानमंडल का नियंत्रण रहता है।

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मामला – बैंक ऑफ इण्डिया बनाम ओ.पी. स्वर्णकार (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 858)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, यदि अधीनस्थ विधान के अन्तर्गत कोई सांविधिक विनियम (Statutory regulations) बनाये जाते हैं तो उन्हें संसद के समक्ष रखा जाना आवश्यक है ताकि संसद द्वारा उनके औचित्य पर विचार किया जा सके।

अध्ययन की दृष्टि से अधीनस्थ विधान को निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

(i) उपनिवेशिक विधान (Colonial legislation),

(ii) कार्यपालिका विधान (Executive legislation),

(iii) न्यायिक विधान (Judicial legislation),

(iv) नगरपालिका विधान (Municipal legislation),

(v) स्वायत्त शासन सम्बन्धी विधान (legislation by Autonomous Bodies) एवं

(vi) प्रत्यायोजित विधान (Delegated legislation)।

वर्तमान समय में अधीनस्थ विधान की श्रृंखला में ‘प्रत्यायोजित विधायन’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज विधायिका के पास इतना समय नहीं है कि वह अपने द्वारा पारित विधियों के सभी बिन्दुओं पर विस्तृत उपबन्ध बना सकें।

ऐसी स्थिति में विधायिका द्वारा नीतिपरक विधि बनाकर उसकी क्रियान्विती हेतु नियम आदि बनाने की शक्तियाँ कार्यपालिका प्राधिकारियों को सौंप दी जाती है। यही प्रत्यायोजित विधायन है।

विधायन का महत्त्व

विधि निर्माण में विधान को सबसे प्रबल, प्रमुख एंव अधिकारिक स्त्रोत माना गया है, क्योंकि इसे प्राचीन विधियों को समाप्त करने एंव वर्तमान विधियों में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त होती है|

विधि के स्रोत के रूप में विधान के महत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न विधिशास्त्रियों एवं विचारधाराओं के अलग – अलग मत रहे हैं –

– विधि की ऐतिहासिक विचारधारा (historical school) के समर्थक विधान को विधि के स्रोत के रूप में कोई विशेष महत्त्व नहीं देते है। उनका मानना है कि, विधायन में क्रियात्मक शक्ति का अभाव है, इसलिए विधायन द्वारा विधि का निर्माण सम्भव नहीं है।

इस विचारधारा के समर्थकों का यहाँ तक मानना है कि, विधान द्वारा विधि में संशोधन, परिवर्तन या विकास आसान नहीं है इसलिए ऐतिहासिक विचारधारा के विधिशास्त्री रूढ़ि को विधि का श्रेष्ठतम स्त्रोत मानते हैं।

– जबकि दूसरी तरफ विश्लेषणात्मक विचारधारा (Analytical School) के समर्थक विधायन को ही विधि का श्रेष्ठतम या उत्कृष्ट स्रोत मानते हैं। उनके अनुसार यह एक अधिनियमित विधि (enacted law) है जो सोच एंव चिंतन के विश्लेषण पर आधारित है तथा यही वास्तविक विधि है।

ब्लेकस्टोन (Blackstone) के मतानुसार, संसद द्वारा अधिनियमित विधि राज्य की सर्वोत्कृष्ट विधि है जो सभी नागरिकों एवं उपनिवेशों पर बाध्यकारी प्रभाव रखती है तथा यदि किसी अधिनियम में सम्राट के प्रति उपबन्ध हो तो यह उसको भी आबद्ध कर सकती है।

संसद के प्राधिकार के बिना इन विधियों में संशोधन, परिवर्तन या परिवर्द्धित नहीं हो सकता है तथा इस विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि, न्यायालयों द्वारा पूर्व निर्णयों के आधार पर निर्णयज विधि का निर्माण विधायिका के कार्य क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप है।

विधान के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए रास्को पाउंड ने विधि के चार प्रमुख प्रयोजन बताये है –

(i) न्याय व्यवस्था स्थापित करना

(ii) समाज में समानता लाना

(iii) प्रत्येक व्यक्ति की स्वाधीनता सुनिश्चित करना

(iv) मानव को अधिकतम संतुष्टि मिलना|

विधायन की सर्वोच्चता के दो प्रमुख कारण है –

(i) अलिखित संविधान वाले देशों में विधान विधि का श्रेष्ठतम स्रोत है, क्योंकि यहाँ संसद की शक्ति को परिसीमित नहीं किया जा सकता है और ना ही संसद द्वारा किसी भी प्रकार की विधि का निर्माण व उसमे संशोधन, परिवर्तन या उसे निराकृत किया जा सकता है।

संसद द्वारा निर्मित विधि को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है जबकि रूढ़ि या पूर्व-निर्णय, अधिनियमित विधि से असंगत है तो उसे विधि का स्रोत नहीं माना जा सकता है।

(ii) लिखित संविधान वाले देशों में किसी उच्चस्तरीय विधान के प्रारूप को विधि का बल प्राप्त होता है इसलिए विधान को सर्वोच्च माना जाता है।

इस प्रकार ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थक विधान को विधि का महत्त्वपूर्ण स्रोत नहीं मानते है जबकि विश्लेषणात्मक विचारधारा के समर्थक विधायन को विधि का एक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत मानते है। जबकि दोनों ही विचारधारायें पूर्ण रूप से सही नहीं हैं और इन दोनों को परिष्कृत किये जाने की आवश्यकता है।

वर्तमान समय में विधान ही विधि का श्रेष्ठतम स्रोत मानना उपयुक्त नहीं है, बल्कि सत्य तो यह है कि विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ि एवं प्रथा तथा पूर्व-निर्णय का भी बराबर का महत्त्व/योगदान है।

लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विधान द्वारा निर्मित विधि में क्रियात्मक शक्ति नहीं होती। वास्तविकता तो यह है कि, वर्तमान में विधायिका द्वारा अनेक विधियों का निर्माण किया जा रहा है जिससे उसकी सृजनात्मक शक्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है।

मामला – मेघा कोतवाल लेले बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (ए.आई. आर. 2013 एस.सी. (3)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, विधि समय के अनुकूल होनी चाहिए तथा उसमें समय के साथ संशोधन एवं परिवर्तन की क्षमता होनी चाहिए।

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