नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विक्रय किसे कहते है, परिभाषा, आवश्यक तत्व एंव विक्रय कैसे किया जाता है तथा विक्रय तथा विक्रय की संविदा में प्रमुख अन्तर क्या है आदि को आसान शब्दों में बताया गया है| यह आलेख विधि के छात्रो एंव आमजन के लिए काफी उपयोगी है|
विक्रय क्या है?
सम्पत्ति के अन्तरण में विक्रय (Sale) का महत्त्वपूर्ण स्थान है जिस कारण से यह सर्वाधिक प्रचलित अन्तरण है। विक्रय के द्वारा किसी सम्पत्ति के स्वामित्व का अन्तरण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को किया जाता है।
सामान्य अर्थ में विक्रय प्रतिफल के बदले अन्तरण होता है और प्रतिफल अन्तरण के समय अदा किया जाना चाहिए या पक्षकारों के मध्य हुए करार के अनुसार प्रतिफल को बाद में भी अदा किया जा सकता है| विक्रय के पूर्ण होने के लिए यह आवश्यक नहीं है की प्रतिफल की राशि की अदायगी की जावे इसके लिए प्रतिफल की राशि की अदायगी का वचन ही पर्याप्त है|
इसके अतिरिक्त प्रतिफल की राशि का भुगतान आंशिक रूप से किया जा सकता है आंशिक भुगतान समझौता के अनुसार भविष्य में भी किया जा सकता है|
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विक्रय की परिभाषा –
सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 के अनुसार – विक्रय ऐसी कीमत के बदले में स्वामित्व का अन्तरण है जो दी जा चुकी हो या जिसके देने का वचन दिया गया हो या जिसका कोई भाग दे दिया या हो और किसी भाग के देने का वचन दिया गया हो।
इस प्रकार विक्रय से तात्पर्य — कीमत के बदले में स्वामित्व का अन्तरण है और ऐसी कीमत या तो दी जा चुकी होती है या ऐसी कीमत के दिये जाने का वचन दिया गया होता है।
इस प्रकार विक्रय का संव्यवहार क्रय मूल्य के नकद भुगतान पर भी हो सकता है और उधार पर भी तथा विक्रय पूर्ण होने के पश्चात् सम्पत्ति विक्रेता से क्रेता में निहित हो जाती है।
उदाहरण – क अपनी एक सम्पति ख को एक लाख रुपये में बेचता है तथा क 50,000/- रुपये नकद प्राप्त कर लेता है और 50,000/- रुपये बाद में प्राप्त करना स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार क और ख के मध्य उत्पन्न हुए संव्यवहार को धारा 54 के अन्तर्गत विक्रय माना गया है।
अनेक बार वसीयत, विक्रय के करार, साधारण प्राधिकार पत्र, विशेष प्राधिकार पत्र आदि को विक्रय मन लिया जाता है जबकि इन्हें विक्रय नहीं माना जाता है| क्योंकि इनमे सामान्य तौर से प्रतिफल का भुगतान नहीं होता है|
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विक्रय के आवश्यक तत्व
विक्रय के निम्नाकित महत्वपूर्ण तत्व है जिनके बिना विक्रय अपूर्ण होता है –
(i) विक्रय के पक्षकार
विक्रय के संव्यवहार में दो पक्षकार होते है वह पक्ष जो अन्तरण करता है विक्रेता (Seller) कहलाता है तथा जो इस अन्तरण को स्वीकार करता है क्रेता (Buyer) कहलाता है। इन्हें आम भाषा में अन्तरक व अन्तरिती भी कह सकते है अर्थात् विक्रेता अन्तरक होता है और क्रेता अन्तरिती। विक्रेता वह व्यक्ति है जो सम्पत्ति का विक्रय अथवा बेचान करता है। विक्रेता का सक्षम व्यक्ति होना भी आवश्यक है।
अधिनियम की धारा 7 के अनुसार सक्षम व्यक्ति वह व्यक्ति है जो –
(a) वयस्क हो,
(b) स्वस्थचित्त हो,
(c) जिसे सम्पत्ति का विक्रय करने का अधिकार हो यानि वह व्यक्ति सम्पत्ति का स्वामी हो या फिर उसे सम्पत्ति का व्ययन करने का प्राधिकार हो।
इसके अलावा क्रेता ऐसा कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो किसी वस्तु या सम्पति को क्रय करने की क्षमता रखता हो तथा धारा 6 (ज) (iii) के अन्तर्गत अयोग्य न हो।
मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष के मामले में कहा गया है कि – अवयस्क व्यक्ति द्वारा सम्पत्ति का विक्रय नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह संविदा करने के लिए सक्षम नहीं होता। [(1930) 30 कोलकाता 539] जबकि अवयस्क व्यक्ति अन्तरिती अर्थात् क्रेता हो सकता है।
विक्रेता की स्वस्थचितत्ता के सम्बन्ध में ‘लबान्या सिंह बनाम तपौई सिंह’ (ए.आई.आर. 2003 उड़ीसा 155) का एक अच्छा मामला है –
इसमें एक अशिक्षित महिला द्वारा विक्रय-विलेख निष्पादित कर उसका रजिस्ट्रीकरण कराया गया। विलेख तैयार करने वाले व्यक्ति तथा साक्षियों अर्थात् अनुप्रमाणित करने वाले व्यक्तियों के अनुसार वह दस्तावेज निष्पादनकर्ता को पढ़कर सुना दिया गया था तथा उसने उसका सही होना स्वीकार करते हुए उस पर अपनी अंगूठा निशानी लगा दी थी। इस प्रकार विक्रय के इस संव्यवहार को विधिमान्य माना गया।
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(ii) विक्रय की विषय–वस्तु
विक्रय की विषय वस्तु ऐसी स्थावर सम्पति होती है जो की प्रत्यक्ष रूप से अचल सम्पति, जैसे – भूमि, मकान, अथवा ऐसी वस्तु जो भूमि से सलंग्न होती है या ऐसी सम्पति अप्रत्यक्ष भी हो सकती है (मछली पकड़ने का अधिकार अथवा बंधक ऋण आदि|)
धारा 54 केवल अचल सम्पत्ति के विक्रय पर ही लागू होती है इसलिए विक्रय की विषय-वस्तु अचल सम्पत्ति होनी चाहिये। चल सम्पत्ति के विक्रय पर, माल विक्रय अधिनियम के उपबन्ध लागु होते है।
हाजी सुखान बनाम बोर्ड ऑफ रेवेन्यु (ए.आई.आर. 1979 एस.सी. 310) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका द्वारा जमा किये गये कूड़ा-करकट एवं खाद को गढ्ढे से निकाल कर ले जाने के अधिकार को भूमिजन्य लाभ माना है।
(iii) स्वामित्व का अन्तरण –
स्वामित्व का अन्तरण विक्रय का आवश्यक तत्व है। विक्रय में सम्पति के स्वामित्व का अन्तरण होता है और यह अन्तरण विक्रेता से क्रेता को होता है।
स्वामित्व के अन्तरण से अभिप्राय “किसी व्यक्ति द्वारा अपनी उस सम्पति सम्बन्धी सभी अधिकारों और हितों का पूर्ण व स्थाई रूप से अन्तरण से होता है जो सम्पति उस व्यक्ति के अधिकार, हित व स्वत्व की होती है|
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निर्णित वाद –
“बी. आर. कोटेश्वर राव बनाम जी. रामेश्वरी बाई (ए.आई.आर. 2004 आन्ध्रप्रदेश 34)” के प्रकरण में आन्ध्रप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है कि विक्रय के संव्यवहार में विक्रय पूर्ण होते ही सम्पत्ति में का स्वत्व विक्रेता से क्रेता को अन्तरित हो जाता है और ऐसे अन्तरण का स्वैच्छिक होना आवश्यक है तथा अन्तरण का उद्देश्य एवं प्रतिफल “विधि व अनैतिक एवं लोक नीति के विरुद्ध न हो|
इसके अलावा ऐसे अन्तरण का उद्देश्य एवं प्रतिफल उत्पीड़न, असम्यक् असर, कपट, दुर्व्यपदेशन व भूल के अधीन भी ना हो। विक्रेता को अन्तरण की प्रकृति को अच्छी तरह से समझना चाहिए जैसा कि ‘लबान्यासिंह बनाम तपोई सिंह (ए.आई.आर. 2003 उड़ीसा 155) के प्रकरण में कहा गया है।
(iv) प्रतिफल यानि कीमत –
एक मूल्य या कीमत के बदले स्वामित्व का अन्तरण विक्रय का आवश्यक तत्व है| बिना प्रतिफल के अन्तरण कभी भी विक्रय नहीं हो सकता इस कारण विक्रय में प्रतिफल अर्थात् कीमत का होना आवश्यक है।
मूल्य यानि कीमत से तात्पर्य एक ऐसी निर्धारित धन राशि से है जिसका भुगतान विक्रय के अन्तरण को पूर्ण करने के लिए किया जाता है और ऐसी राशी का भुगतान समझौता के अनुसार भविष्य में भी किया जा सकता है और ऐसी राशि का भुगतान आंशिकभी हो सकता है|
निर्णित वाद –
राजो बनाम लज्जो (1928) 26 ए.एल. जे. 169) के मामले में कीमत का अर्थ सामान्यत: धन/राशि से लगाया गया है। सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में शब्द ‘धन’ की परिभाषा नहीं है परन्तु माल विक्रय अधिनियम में दी गई ‘धन’ की परिभाषा को ही अंगीकृत कर लेने की अनुशंसा की गई है। (आयकर आयुक्त बनाम मोटर एण्ड जनरल स्टोर्स, ए.आई.आर. 1967 एस.सी. 200)
स्टेट ऑफ चेन्नई बनाम गेगन डंकरले एण्ड कम्पनी के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि “विक्रय के संव्यवहार में प्रतिफल के रूप में कहीं न कहीं धन का होना आवश्यक है। यदि प्रतिफल धन के रूप में नहीं होकर वस्तु के रूप में होता है तो ऐसा संव्यवहार विक्रय नहीं होकर विनिमय (Exchange) या बार्टर (Barter) आदि होगा। (ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 560)
कीमत का संदाय नकद या उधार किसी भी रूप में हो सकता है। आवश्यक मात्र यह है कि कीमत का संदाय किया जाये। (मोतीलाल बनाम उग्रनारायण, ए.आई.आर 1950 पटना 288)
के. लक्ष्मण राव बनाम जी. रत्न मणिक्याम्मॉ (ए.आई.आर. 2003 आन्ध्रप्रदेश 241) के मामले में विक्रय के करार के निष्पादन के लिए व्यवस्थापन को भी प्रतिफल माना गया है। (Settlement can be considered as a consideration for execution of agreement of sale.)
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विक्रय कैसे किया जाता है
सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 में विक्रय की रीतियों का भी वर्णन किया गया है, इसके अनुसार – 100/- रुपये या 100/- रुपये से अधिक की स्थावर सम्पत्ति का विक्रय केवल रजिस्ट्रीकृत विलेख द्वारा ही किया जा सकता है तथा 100/- रुपये से कम की स्थावर सम्पत्ति का विक्रय रजिस्ट्रीकृत विलेख द्वारा या कब्जे के परिदान (Delivery of possession) द्वारा किया जा सकता है।
निर्णित वाद –
नारायण स्वामी बनाम लक्ष्मी के मामले में चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि – सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण की ये दो ही विधियाँ मान्य हैं अन्य नहीं। (ए.आई.आर. 1939 चेन्नई 1220)
गेस्ट बनाम हेम्फ्रे के मामले में यह कहा गया है कि – कब्जे के परिदान (Delivery of Possession) द्वारा सम्पत्ति अन्तरण में मकान का कब्जा, चाबियाँ सौंप कर परिदत्त किया जा सकता है| [(1801) वी 818]
हनमन्त बनाम पीर आजमदीन में कहा गया है की – भूमि के कब्जे के परिदान में भूमि पर जाकर कब्जा परिदत्त किया जा सकता है इसके लिए सम्पूर्ण भूमि पर घूमकर कब्जा दिया जाना आवश्यक नहीं है। [(1904) 6 मुम्बई एल.आर. 1104]
विक्रय तथा विक्रय की संविदा में अन्तर –
विक्रय तथा विक्रय के करार में अन्तर को स्पष्ट करने से पूर्व विक्रय की संविदा (Agreement to sale) को समझना जरुरी होगा –
अधिनियम धारा 54 के अनुसार – स्थावर सम्पत्ति की विक्रय संविदा वह संविदा है जिसमें स्थावर सम्पत्ति का विक्रय पक्षकारों के बीच तय हुए निबन्धनों पर होगा। यह स्वतः ऐसी सम्पत्ति में कोई हित या उस पर कोई भार सृष्ट नहीं करती।
विक्रय के करार के लिखित होने पर उस पर पक्षकार के हस्ताक्षर होना अपेक्षित है। यदि पक्षकार के हस्ताक्षर नहीं हैं तो उसे लिखित करार नहीं माना जाता है और ऐसी स्थिति में पक्षकारों के आशय को मौखिक साक्ष्य द्वारा साबित किय जा सकता है।
विक्रय तथा विक्रय की संविदा में अन्तर
विक्रय | विक्रय की संविदा |
विक्रय में स्वामित्व का अन्तरण विक्रेता से क्रेता को अन्तरित होता है | विक्रय की संविदा से सम्पत्ति में हित सृजित नहीं होते अर्थात् स्वामित्व का अन्तरण नहीं होता। |
विक्रय (Sale) से क्रेता के पक्ष में सम्पति में स्वत्व निहित हो जाता है | इसमें क्रेता के पक्ष में किसी भी प्रकार का हित या भार सृजित नहीं होता है| लेकिन अंग्रेजी विधि में स्थिति इसके विपरीत है| |
सम्पति का विक्रय होने के बाद विक्रेता का सम्पति में स्वामित्व समाप्त हो जाता है| | इसमें विक्रेता का स्वामित्व समाप्त नहीं होता है लेकिन संव्यवहार कभी भी विक्रय के रूप में परिपक्व हो सकता है| |
विक्रय एक तरह से निष्पादित संविदा (Executed contract) होती है | विक्रय की संविदा निष्पाद्य संविदा (executor contract) होती है। |
विक्रय एक अन्तरण है जो सम्पति अन्तरण अधिनियम के प्रावधानों (धारा 54 से 57) के द्वारा विनियमित होता है| | विक्रय के लिए संविदा अन्तरण नहीं है या संविदा मात्र है जो पक्षकारों की इच्छा के अनुसार ही विनियमित होती है| |
विक्रय (Sale) कभी भंग नहीं होता है | विक्रय के करार को भंग किया जा सकता है। |
निष्पाद्य संविदा किसे कहते है? –
निष्पाद्य संविदा उसे कहते है – जिसमें कुछ करना शेष रहता है, जबकि निष्पादित संविदा में कुछ भी करना शेष नहीं रहता है।
जैसे — क तथा ख के बीच यह करार होता है कि क अपनी एक सम्पति ख को 10,000/- रुपये में विक्रय करने का वचन देता है और ख द्वारा उक्त कीमत का संदाय कर दिये जाने पर सम्पति का कब्जा उसे परिदत्त कर दिया जायेगा। यह विक्रय की संविदा है क्योंकि इसमें कीमत का संदाय एवं कब्जे का परिदान दोनों ही बाकी है और जब ये दोनों ही शर्त पूरी हो जाती है तब वह संविदा विक्रय का रूप ले लेती है।
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