नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में वारेन हेस्टिंग्स की प्रशासनिक व्यवस्था और 1772 की न्यायिक योजना की विशेषताएँ एंव इसके दोष तथा इन दोषों को दूर करने के लिए कोनसी योजना लागु की गई तथा भारत में अदालत प्रणाली का विकास केसे हुआ आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है जो विधि के छात्रो के लिए काफी महत्वपूर्ण है इसे जरुर पढ़े|
अदालत प्रणाली का विकास
प्रारम्भ में ईस्ट इण्डिया कंपनी भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आई थी, लेकिन धीरे-धीरे उसने राजनीतिक एवं न्यायिक क्षेत्र में भी दस्तक देना प्रारम्भ कर दिया। प्रारम्भिक अवस्था में ईस्ट इण्डिया कंपनी की गतिविधिया व उसका कार्यक्षेत्र केवल प्रेसीडेंसी नगरों तक ही सीमित था, लेकिन समय के साथ साथ कंपनी ने अन्य क्षेत्रो में भी अपना प्रसार किया जिस कारण उसकी राजनीतिक गतिविधियाँ तेज होने लगी।
प्रेसीडेंसी नगरों के आस-पास नए क्षेत्र के रूप में कंपनी ने आंग्ल-बस्तियां स्थापित की और वहां पर प्रशासन व न्याय व्यवस्था को लागु कर उन पर नियन्त्रण किया। इन नए क्षेत्रों को मुफस्सिल (Mofussil) कहा जाने लगा।
इस प्रकार इन नए क्षेत्रों (मुफस्सिल) में लागु की गई न्यायिक व्यवस्था को कालान्तर में अदालत व्यवस्था (Adalat System) के नाम से जाना गया तथा यही व्यवस्था प्रेसीडेंसी नगरों में न्यायिक व्यवस्था (Judicial System) के नाम से जानी जाती थी।
12 अगस्त सन 1765 में ईस्ट इण्डिया कंपनी ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा (वर्तमान मिदनापुर) के प्रान्तों पर अधिकार कर वहां पर सन 1772 में अदालत व्यवस्था लागु की जिनमे आवश्यकतानुसार परिवर्तन होते रहे थे|
डॉ. जैन के अनुसार बंगाल, बिहार व उड़ीसा के प्रान्त मात्र प्रयोगशाला के सामान थे जहाँ पर अंग्रेज प्रशासकों द्वारा अदालत व्यवस्था सम्बन्धी अनेक प्रयोग किये जाते थे जिनमे सफलता मिलने पर उन्हें बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेंसी नगरों में लागु किया जाता था|
यह सभी जानते है की अदालत व्यवस्था का आरम्भ सबसे पहले बंगाल में हुआ जिसके बाद यह व्यवस्था अन्य प्रान्तों में भी स्थापित की गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत मुफस्सिल दीवानी अदालत, मुफस्सिल निजामत अदालत, सदर दीवानी अदालत, सदर निजामत अदालत (सदर फौजदारी) आदि मुख्य थी।
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भारत में वॉरेन हेस्टिंग्स की न्यायिक प्रणाली
सन 1772 में वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया, उस समय इंग्लेंड स्थित कम्पनी के निदेशको ने उसे भारत भेजते समय इस सम्बन्ध में कोई दिशा निर्देश नहीं दिए की पूर्वी भारत में कम्पनी को प्राप्त दीवानी अधिकारों का प्रयोग किस प्रकार किया जाए बल्कि उनकी इच्छा यह थी की कम्पनी बंगाल में ऐसे नियम-विनियम बनाये जिससे देशी प्रजा का शोषण व उन पर अत्याचार ना हो | इस कारण इस आलेख में वारेन हेस्टिंग्स की प्रशासनिक व्यवस्था व न्यायिक योजना (1772) का वर्णन किया गया है|
हेस्टिंग्स की प्रशासनिक व्यवस्था
मुगल साम्राज्य के अध : पतन के कारण उसकी न्याय प्रणाली समाप्त होने लगी। काजियों के न्यायालयों के स्थान पर जमींदार के न्यायालयों की व्यवस्था हुई तथा उन्हें दीवानी, फौजदारी एवं राजस्व सम्बन्धी सभी मामलों पर अधिकारिता प्राप्त हुई जिस कारण से वे अपने क्षेत्र में स्वयं को सर्वेसर्वा मानने लगे तथा अपनी अधिकार शक्ति का निजी हितों के लिए दुरुपयोग करने लगे क्योंकि मुर्शिदाबाद स्थित मुख्य न्यायालय प्रान्त के आन्तरिक भागों में कार्यरत जमींदारों को अपने नियन्त्रण में रखने में असमर्थ था। इन्हीं कारणों से मुगलों के शासन के पतन के पश्चात् न्याय प्रशासन में शिथिलता आ गई।
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इस स्थिति का वर्णन करते हुए प्रोफेसर कीथ (Keith) ने लिखा है कि उस समय के न्यायालय न्याय के साधन होने की बजाय अंग्रेजी प्रभुसत्ता के द्योतक थे। संरक्षक के रूप में वे बेकार थे, परन्तु दमन के उत्तम प्रतीक थे। कम्पनी के अंग्रेज कर्मचारी प्राय देशी भारतीयों पर अत्याचार करते थे। न्याय क्षेत्र में भ्रष्टाचार आ गया था, कर्मचारियों तथा स्वार्थपरायण न्यायाधिकारियों की पूर्ण नीति के कारण तथा समुचित अपील सम्बन्धी व्यवस्था के अभाव में बंगाल प्रान्त की न्याय व्यवस्था समाप्त होने लगी थी।
इन सभी परिस्थितयों को समाप्त करने तथा न्याय व्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से वारेन हेस्टिंग्स ने न्यायिक योजना लागू की तथा इसी समय से दीवानी कार्य अंग्रेजों द्वारा स्वयं संपादित किये जाने लगे| वारेन हेस्टिंग्स ने अपनी न्यायिक योजना में प्रान्तों पूर्ण शान्ति व्यवस्था कायम रखने के सिद्धान्त को प्राथमिकता दी। भारतीय विधि के इतिहास में अदालत प्रथा का प्रारम्भ इसी समय से माना गया है।
सन् 1772 में बंगाल के गवर्नर का कार्यभार सँभालते ही वारेन हेस्टिंग्स ने प्रान्त की प्रशासनिक तथा न्याय व्यवस्था में सुधार करने हेतु उसने स्वयं एक न्यायिक योजना तैयार की जिसके अन्तर्गत क्लाइव द्वारा लागू की गई दोहरी शासन पद्धति समाप्त कर दी गई। इसके परिणामस्वरूप कठपुतली के समान नवाब को प्रशासनिक दायित्व से पूर्णतः मुक्त कर दिया गया तथा उनका वार्षिक भत्ता घटाकर 16 लाख रुपये रखा गया।
इसके साथ ही हेस्टिंग्स ने कलकत्ते में बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना की। हेस्टिंग्स के प्रयासों से ही उच्चतर न्यायालय को मुर्शिदाबाद से हटा कर कलकत्ता ले जाया गया तथा कलकते में राजस्व विभाग का प्रधान कार्यालय स्थापित किया गया।
सन् 1774 में हेस्टिंग्स ने कम्पनी के निदेशकों के निर्देश पर मुगल सम्राट शाहआलम को दी जाने वाली 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन समाप्त कर इलाहाबाद एवं कड़ा के जिलों को शाहआलम से छीनकर अवध के नवाब सिराजुद्दौला को 50 लाख रुपये के बदले में हस्तान्तरित कर दिया दी, क्योंकि शाहआलम ने मराठों से पनाह माँग ली थी।
इस प्रकार हेस्टिंग्स ने इंस्ट इण्डिया कम्पनी की आर्थिक एवं प्रशासनिक स्थिति में पर्याप्त सुधार किये। सन् 1772-73 की अपनी न्यायिक योजना तथा प्रशासनिक कार्यकुशलता के कारण उसने बंगाल में कार्यरत कम्पनी की प्रतिष्ठा को बढ़ाया था|
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वारेन हेस्टिंग्स की 1772 की न्यायिक योजना
वारेन हेस्टिंग्स के गवर्नर जनरल बनने के समय प्रशासन में अनेक दोष व्याप्त थे। बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से, उपाय सुझाने हेतु उसने गवर्नर की हैसियत से अपनी परिषद् के चार सदस्यों सहित एक समिति गठित की, जो कमिटी ऑफ सरकिट कहलाई, जिसके द्वारा एक योजना तैयार की गई| यह योजना वारेन हेस्टिंग्स की 1772 की न्यायिक योजना के नाम से जानी गई।
इस योजना का मुख्य उदेश्य प्रजा को राहत दिलाना तथा प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार लाना था| इस योजना में 37 विनियम बनाये गये जिन्हें फोर्ट विलियम स्थित सपरिषद-राज्यपाल द्वारा 21 अगस्त 1772 को लागु किया गया।
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इस न्यायिक योजना के अनुसार निम्नलिखित न्यायालयों की व्यवस्था की गई –
मुफस्सिल दीवानी अदालत
दीवानी न्याय प्रशासन के प्रत्येक जिले में एक मुफस्सिल दीवानी अदालत की स्थापना की गई थी| इस अदालत में जिले का कलक्टर ही न्यायाधीश का कार्य करता था, जो कि अंग्रेज व्यक्ति होता था तथा उसकी सहायता के लिए जिले का भारतीय दीवान व न्यायालय के अन्य कर्मचारी हुआ करते थे|
इस न्यायालय को सम्पत्ति विषयक मामले चाहे वह वास्तविक हो अथवा व्यक्तिगत, कौटुम्बिक मामले जैसे विवाह, उत्तराधिकार, जाति आदि, ऋण, संविदा, लगान आदि से सम्बन्धित मामले निपटाने का अधिकार प्राप्त था। यह न्यायालय सप्ताह में दो बार लगता था और पांच सौ रुपये तक के मूल्य के वादों में इसका निर्णय अंतिम होता था|
चूँकि जिले का कलेक्टर जो इस अदालत में न्यायाधीश का कार्य करते थे, अंग्रेज होने के कारण उन्हें देशी भारतीयों की व्यक्तिक विधि का ज्ञान नहीं था जिसके परिणामस्वरूप न्याय निर्णय में उनकी सहायता के लिए मुस्लिम काजी तथा हिन्दू पंडित की व्यवस्था की गई थी जो उन्हें मुस्लिम व हिन्दू विधि के उपबंधो से अवगत कराते थे|
मुफस्सिल निजामत/फौजदारी
प्रत्येक जिले की दूसरी प्रमुख न्यायालय को मुफस्सिल फौजदारी अदालत कहा गया जो सभी प्रकार के आपराधिक मामलों का निर्णय कर सकती थी| यदि किसी गम्भीर मामले में मृत्युदण्ड दिया जाता तो उसकी पुष्टि सदर निजामत अदालत के द्वारा की जानी आवश्यक थी।
इन अदालतों में पुराने भारतीय न्यायिक अधिकारी काजी एवं मुफ्ती न्यायाधीश का कार्य करते थे तथा इनकी सहायता के लिए दो मौलवियों की नियुक्ति का प्रावधान था।
मुफस्सिल निजामत अदालतों पर कलेक्टर का नियन्त्रण रहता था। कलेक्टर यह देखता था कि न्याय निर्णयन साक्ष्य के आधार पर किया गया है अथवा नहीं और वह विशुद्ध एवं निष्पक्ष है अथवा नहीं। जिले की फौजदारी अदालतों में काजी, मुफ़्ती व मौलवी आदि की नियुक्ति करने का अधिकार जुलाई सन 1773 से कलकत्ते की सदर निजामत अदालत के दरोगा, काजी-उल-कुज्जत तथा प्रमुख मुफ़्ती को दिया गया था, लेकिन उनके द्वारा की गई नियुक्ति का गवर्नर जनरल द्वारा अनुमोदन किया जाना आवश्यक था|
सदर दीवानी अदालत
कलकत्ता में एक सदर दीवानी अदालत की स्थापना की गई थी जिसने 18 मार्च 1773 से कार्य करना शुरू किया, जो समस्त बंगाल, बिहार व उड़ीसा क्षेत्र के लिए सर्वोच्च दीवानी अदालत थी इसमें राज्यपाल तथा उसकी परिषद् के दो सदस्य न्यायाधीश का कार्य करते थे।
इस अदालत की गणपूर्ति के लिए कम से कम तीन न्यायाधीशों की उपस्थिति आवश्यक थी लेकिन गवर्नर तथा उसकी परिषद् के सभी सदस्य इस अदालत के न्यायाधीश की हैसियत से कार्य कर सकते थे|
सर एलिजाह इम्पे ने 18 अक्तूबर 1780 से 15 नवम्बर 1782 तक इस अदालत में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया| इस अवधी में दीवानी न्याय-प्रशासन में सुधार की दृष्टि से उन्होंने सन 1780 में 13 अनुच्छेदों की एक संहिता तैयार की जिसका सन 1781 में 95 अनुच्छेदों की संहिता के रूप में विस्तार किया गया|
यह अदालत जिले की मुफस्सिल दीवानी अदालतों के ऐसे मामलों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करता था, जिनमें विवादास्पद धनराशि 500 रुपए से अधिक होती थी। इस प्रकार सदर दीवानी अदालत एक तरह से अपीलीय अदालत भी थी।
सदर निजामत अदालत
कलकत्ते की सदर निजामत (फौजदारी) अदालत उस क्षेत्र की सर्वोच्च फौजदारी अदालत थी| इस अदालत में नाजिम द्वारा एक भारतीय पदाधिकारी की नियुक्ति की जाती थी जिसे दरोगा-ए-अदालत कहा जाता था| उसकी सहायता के लिए काजी, मुफ्ती, मौलवी आदि की नियुक्ति की जाती थी।
सन 1773 में वारेन हेस्टिंग्स ने सदरुल-हक़-खान को दरोगा के पद पर नियुक्त किया| फोर्ट विलियम के गवर्नर जनरल को दरोगा के सदर निजामत अदालत सम्बन्धी कार्यों पर देख रेख रखने के निर्देश दिए गये थे|
उसके बाद सुविधा की दृष्टि से अक्टूबर 1775 में इस अदालत को कलकत्ते से मुर्शिदाबाद स्थानान्तरित किया गया जहाँ वह सन 1790 तक कार्य करती रही, लेकिन लार्ड कार्नवालिस ने इस अदालत को सन 1790 में मुर्शिदाबाद से हटाकर पुनः कलकत्ते में स्थापित कर दिया|
इस अदालत के मुख्य कार्य थे –
(क) मुफस्सिल निजामत अदालत के ऐसे निर्णयों की पुष्टि करना जिनमें 100 रुपए से अधिक का जुर्माना किया गया हो,
(ख) मुफस्सिल निजामत अदालत द्वारा दिए गए मृत्युदण्ड की पुष्टि करना,
(ग) मुफस्सिल निजामत अदालत की कार्यवाहियों को दोहराना आदि थे|
इस अदालत पर गवर्नर एवं उसकी कौंसिल का नियन्त्रण था।
लघुवाद न्यायालय
जिले के आंतरिक क्षेत्रो के छोटे-छोटे मामलों को निपटाने के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने उपरोक्त न्यायालयों के अलावा जिले में अनेक लघुवाद न्यायालयों की स्थापना की थी। इसमें न्याय निर्णयन का कार्य परगना के प्रधान किसान (मुखिया) का होता था, यह दस रुपए मूल्य तक के मामले तय कर सकता था। ऐसे मामलों में उसका निर्णय अन्तिम होता था।
विनियम की धारा 16 द्वारा कोई भी न्यायाधिकारी पक्षकारो से स्वंय के लिए किसी भी तरह से फ़ीस नहीं ले सकता था| इसी समय से काजी एवं मुफ्ती को कम्पनी द्वारा मासिक वेतन दिया जाने लगा जिससे वे कम्पनी के वेतनभोगी कर्मचारी कहलाये जाने लगे|
1772 की न्यायिक योजना की विशेषताएँ
(i) इस योजना के अन्तर्गत मुफस्सिल क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर आंग्ल विधि को जबरन थोपा नहीं गया था।
(ii) हिन्दुओं एवं मुसलमानों की वैयक्तिक विधियों को संरक्षण प्रदान करते हुए विवाह, उत्तराधिकार, जाति एवं धर्म सम्बन्धी मामलों में हिन्दुओं के लिए धर्मशास्त्रों तथा मुसलमानों के लिए कुरान के अनुसार न्याय निर्णयन की व्यवस्था की गई थी।
(iii) हिन्दू एवं मुसलमानों के लिए उनकी वैयक्तिक विधियों (Personal Laws) को समान महत्त्व प्रदान किया गया था।
1772 की न्यायिक योजना के दोष
(i) इस योजना से कलेक्टर काफी शक्तिशाली बन गया, क्योंकि वही प्रशासन, मालगुजारी की वसूली, न्याय प्रशासन (न्यायाधीश एवं मजिस्ट्रेट) आदि का कार्य देखता था। इससे कलेक्टर स्वेच्छाचारी बन गए थे तथा न्याय में भी विलम्ब होने लगा था। स्वयं हैरिग्टन (Harrington) ने इसे योजना का एक बहुत बड़ा दुर्गुण बताया है ।
(ii) इस योजना में विवाह, उत्तराधिकार, जाति एवं धर्म से सम्बन्धित मामलों को छोड़कर शेष मामलों में लागू होने वाली विधि का वर्णन नहीं किया गया था। उस समय यह परिकल्पना कर ली जाती थी कि, ऐसे मामलों का निपटारा पक्षकारों द्वारा नियुक्त मध्यस्थों (Arbitrators) द्वारा किया जाएगा।
(iii) इस योजना से न्याय प्रशासन में अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, क्योंकि कई मामले ऐसे आते थे जिनके सम्बन्ध में कुरान और धर्मशास्त्रों में कोई व्यवस्था नहीं थी। फलस्वरूप वे साम्य, न्याय एवं सदविवेक सिद्धान्तों के आधार पर निपटाए जाते थे जिनसे विभिन्नता एवं अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी।
(iv) यह योजना अधूरी थी और इसका कोई कानूनी आधार नहीं था।
1774 की योजना द्वारा सुधार
हेस्टिंग्स की सन 1772 की न्यायिक योजना के दोषों को दूर करने के लिए एक नई व्यवस्था की आवश्यकता थी| इसलिए वारेन हैस्टिंग्स ने दो वर्ष बाद ही सन 1774 में प्रान्तीय परिषदों (Provincial Councils) की व्यवस्था लागु की जिसमें मुख्य प्रावधान थे –
प्रदेशों का डिवीजनों में विभाजन
सन् 1774 की योजना द्वारा बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा को छह डिवीजनों कलकता, वर्षमान, ढाका, मुर्शिदाबाद, दिनापुर और पटना में विभाजित कर दिया गया तथा प्रत्येक डिवीजन में कई जिले सम्मिलित किए गए।
प्रान्तीय कौंसिल की स्थापना
प्रत्येक डिवीजन में एक प्रान्तीय कौंसिल (Provinicial Council) की स्थापना की गई थी, जिसके अनेक कार्य थे। इनमें से एक कार्य मालगुजारी की वसूली की देखरेख करना था। इसमें कंपनी के चार पाँच अनुबन्धित अंग्रेज कर्मचारी होते थे।
दीवान एवं आमिल की नियुक्ति
इस योजना के अन्तर्गत अंग्रेज कलेक्टरों को वापस बुला लिया गया तथा उनके स्थान पर दीवान (Diwan) आमिल (Amil) के रूप में भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति की गई। यह मुफस्सिल दीवानी अदालत में न्यायाधीश का कार्य भी करते थे तथा मालगुजारी की वसूली के दायित्व का भी निर्वहन करते थे।
अपीलीय न्यायालय
प्रान्तीय कौंसिल अपीलीय न्यायालय (Court of Appeal) का कार्य भी देखती थी। मुफस्सिल दीवानी अदालत के दीवान एवं आभिल के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई की अधिकारिता प्रान्तीय परिषद को प्रदान की गई थी जिनके 1000 रुपए तक की धनराशि के मुकदमों में दिए गए निर्णय अन्तिम होते थे। 1000 रुपए से अधिक धनराशि वाले मामलों के विरुद्ध अपील सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थी।
डिवीजन मुख्यालय पर मुफस्सिल दीवानी अदालत का नहीं होना
इस योजना के अन्तर्गत डिवीजन मुख्यालय पर मुफस्सिल दीवानी अदालत की स्थापना नहीं की गई थी, क्योंकि वहाँ प्रान्तीय कौंसिल अथवा अपील का न्यायालय अवस्थित था। यही अपीलीय न्यायालय डिवीजन मुख्यालय के लिए मुफस्सिल दीवानी अदालत का कार्य भी करता था।
यह सर्वविधित है की सन् 1774 की न्यायिक योजना द्वारा हेस्टिंग्स की सन 1772 की न्यायिक योजना के दोषों को दूर करने का प्रयास किया गया लेकिन फिर भी इस योजना से अनेक दोष रह गए थे जिसके कारण सन् 1780 एवं सन् 1781 (बंदोबस्त अधिनियम, 1781) की योजनाएँ लागू करनी पड़ी।
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