नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में विधिशास्त्र के अधीन फ्रेड्रिच कार्ल वोन सेविनी के लोक चेतना सिद्धान्त, इस सिद्धान्त की आलोचना | अन्य विधि-संबंधी विचारों से तुलनात्मक अध्ययन | Savigny’s Theory of Volkgeist आदि के बारें में बताया गया है –
सेविनी का लोक चेतना सिद्धान्त
जर्मन विधिशास्त्री सैविनी का सफ़र 1779 से 1861 तक माना जाता है| सैविनी का जन्म लोरेन के इतिहास में दर्ज एक परिवार के फ्रैंकफर्ट एम मेन में हुआ था, जिसका नाम मोसेले की घाटी में चार्मेस के पास सविग्नी के महल से लिया गया था। सैविनी ने विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाये जाने पर विशेष बल दिया था।
सैविनी ने परम्परा पर आधारित विधि के ऐतिहासिक विकास का समर्थन करते हुए विधि के संहिताकरण का कड़ा विरोध किया| इस दृष्टि से सैविनी को ऐतिहासिक विचारधारा का जनक कहा जा सकता है| सन 1803 में सैविनी ने दास रेच्ट डेस बेसित्ज़ (द लॉ ऑफ़ पॉज़िशन) प्रकाशित की जिसको एंटोन थिबॉट ने एक उत्कृष्ट कृति के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसने रोमन कानून के पुराने गैर-आलोचनात्मक अध्ययन को समाप्त कर दिया था|
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लोक चेतना का सिद्धान्त
ऐतिहासिक विचारधारा के विकास मै सैविनी के लोक चेतना सिद्धान्त (Theory of Volkgeist) को मील का पत्थर माना जाता है, इसे अन्तरचेतना का सिद्वांत भी कहा जाता है| सैविनी का मत था की विधि केवल अमूर्त सिद्धान्तों और नियमों का संग्रह मात्र नहीं है अपितु वह किसी समुदाय विशेष या देश विशेष के व्यक्तियों की आन्तरिक आवश्यकताओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति है। विधि की उत्पत्ति लोगों के पारस्परिक सहयोग से हुई है।
अपनी प्रारम्भिक अवस्था में विधि को मानव स्वभाव और आचरण का एक अभिन्न अंग माना गया था। विधि का स्वरूप समदायों की भाषा, रीति-रिवाजों तथा गठन पर निर्भर करता था। वस्तुतः किसी समाज-विशेष के गठन तथा उसकी भाषा और रीति-रिवाजों को वहाँ की विधि से अलग नहीं रखा जा सकता है, ये सभी एक दूसरे में शामिल हो जाते हैं।
फ्रेड्रिच कार्ल वोन सैविनी का मत था कि किसी राष्ट्र के विकास के साथ-साथ वहाँ की विधि भी विकसित होती रहती है। जब राष्ट्र में चेतना उत्पन्न होती है तो वहाँ की विधि भी प्रभावी हो जाती है लेकिन जब राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता खो देता है तो विधि का विनाश हो जाता है।
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सैविनी ने ‘राष्ट्र’ शब्द की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि इसका तात्पर्य उस मानव-समुदाय से है जो सामयिक, ऐतिहासिक तथा भौगोलिक श्रृंखलाओं द्वारा एक-दूसरे से सूत्रबद्ध हैं। जिस कारण सैविनी ने विधि को जन जीवन की सामान्य लोक चेतना का प्रतीक माना है और उनके विचारों को लोक चेतना सिद्धान्त की संज्ञा दी गयी है।
“वोक्सजिस्ट” एक ऐसी अवधारणा है जो एक आम आत्मा को लोगों के समुदाय के रूप में दर्शाती है। सैविनी का स्पष्ट मत था कि यदि विधि के स्वाभाविक विकास से किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो जाती है, तो देश में अराजकता और अशांति फैलना स्वाभाविक है जो जनता के लिए कष्टदायी होती है।
विचारधारा के मूलभूत सिद्धान्त
सैविनी के ऐतिहासिक विचारधारा के मूलभूत सिद्धान्त निम्नलिखित थे –
(1) सैविनी के मतानुसार विधि निर्मित नहीं की जाती अपितु वह जन-समुदाय में विद्यमान रहती है। विधि का विकास शारीरिक विकास की भांति जैविक सिद्धान्त पर निर्भर रहता है तथा वह अपने-आप होता रहता है।
(2) विधि का विकास आदिम समुदायों में प्रचलित कुछ सहज ग्राह्य विधिक सम्बन्धों से प्रारम्भ होकर वर्तमान में सामाजिक प्रगति के कारण विधि की जटिलताओं में परिणित हो गये, विधि के सम्बन्ध में जनता की धारणाओं का प्रतिनिधित्व वकील वर्ग द्वारा किया जाता है जो स्वयं भी जनता का ही एक अंश है। जिससे विधि-निर्माण में विधायकों के बजाय अधिवक्ताओं की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए।
(3) विधि का स्वरूप सार्वभौमिक (universal) नहीं होता है और ना ही इसे सभी स्थानों पर समान रूप से लागू ही किया जा सकता है। विधि देश-विशेष के अनुसार वहाँ के लोगों की भावनाओं तथा धारणाओं के अनुकूल बदलती रहती है।
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सैविनी ने किसी राष्ट्र-विशेष की भाषा तथा वहाँ प्रचलित विधि में समानता स्थापित करते हुए कहा है कि एक देश की भाषा या विधि दूसरे देश के प्रति लागू नहीं की जा सकती है। किसी देश की विधि वहाँ के जन-समुदाय की लोक चेतना (Volkgeist) का प्रतीक होती है।
(4) सैविनी के अनुसार कानून के पीछे वास्तविक शास्ति ‘सामाजिक दबाव’ ही है। उनके अनुसार प्राकृतिक विधि के ‘नैतिक आदेश’ को विधि की शास्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
(5) सैविनी का मत था कि विधि निर्माण करते समय उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार किया जाना चाहिए अर्थात् यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि –
(क) किस विषय पर पहले क्या विधि प्रचलित थी और
(ख) अब उसमें परिवर्तन, संशोधन की आवश्यकता क्यों हुई।
(6) सैविनी के अनुसार विधि स्थायी स्वरूप की नहीं होती है| वह जन-भावना के अनुरूप समय समय पर बदलती रहती है, राष्ट्र के विकास के साथ साथ वह विकसित होती रहती है तथा उस राष्ट्र के विघटन के साथ वह समाप्त हो जाती है।
(7) सैविनी जर्मन विधि के संहिताकरण के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि इससे विधि के विकास की गति रुक जाने की संभावना ठीक उसी प्रकार थी जिस प्रकार कि किसी अवरुद्ध तालाब का पानी निकासी के अभाव में रुका रह जाता है।
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लोक चेतना सिद्धान्त की आलोचना
इसमें कोई शक नहीं है कि सैविनी के विचार तत्कालीन जर्मन समाज की भावनाओं के अनुकूल होते हुए भी उनमें भावुकता और काल्पनिकता का अंश अधिक था। अनेक विधिशास्त्रियों ने सैविनी के लोक चेतना सिद्धान्त की आलोचना की जिसका निष्कर्ष इस प्रकार है –
(1) डॉ० एलेन (Alen) ने सैविनी के इस कथन को गलत बताया कि विधि किसी समुदाय या समाज विशेष की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो रोमन विधि समस्त यूरोप में सफल नहीं हो पाती क्योंकि यह विधि यूरोपीय जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं थी।
(2)डॉ० एलेन ने सैविनी के इस मत का भी खण्डन किया कि विधि के निर्माण में अधिवक्ताओं का विशेष योगदान रहता है क्योंकि वे जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एलेन के अनुसार विधियों तथा पूर्वोक्तियों (Precedents) का निर्माण न्यायाधीशों द्वारा भी किया जाता है।
(3) सैविनी का यह कहना उचित नहीं है कि विधि सदैव ही जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। कभी-कभी विधि के विकास में व्यक्ति विशेष के योगदान का अत्यधिक महत्व रहता है फिर चाहे वह व्यक्ति विदेशी नागरिक ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए न्यायाधीश कोक तथा लिटिलटन ने विधि को केवल विकसित ही नहीं किया वरन उसे एक नई दिशा भी प्रदान की।
(4) सैविनी का लोक चेतना सिद्धान्त जिसे उन्होंने ‘वोल्कजिस्ट’ कहा है, स्वयं ही बाह्य तथ्यों पर आधारित एक आदर्शात्मक कल्पना मात्र है।
(5) अनेक विधियों ऐसी है जिनका निर्माण जन-चेतना की अदृश्य अभिव्यक्ति पर आधारित न होकर मानव समुदाय के परस्पर संघर्षों पर आधारित होता है, जो सैविनी के लोक चेतना सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। जैसे श्रमिक विधियाँ|
(6) अनेक विधियाँ ऐसी हैं जो शासक अपनी सुविधा के लिए बनाता है तथा उनमे जन चेतना की अभिव्यक्ति नहीं होती हैं। दासता का कानून इसका अच्छा उदाहरण है।
(7) सैविनी के अनुसार लोक चेतना की अनुभूति प्रचलित प्रथाओं में व्याप्त रहती है। उनके अनुसार विधान केवल प्रथाओं का संहिताबद्ध रूप है, परन्तु इस मान्यता के कारण विधायन की सृजनात्मक शक्ति की जो उपेक्षा हुई वह उचित नहीं है| उपर्युक्त आलोचना के बावजूद सैविनी के विचारों से विधिक इतिहास के अध्ययन को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है।
सैविनी की ऐतिहासिक विचारधारा को बाद में विको, हर्डर तथा पुश्ता (Puchta) आदि विधिशास्त्रियों ने विकसित किया। इन विचारकों ने राज्य द्वारा निर्मित विधि का विरोध करते हुए आचार और परम्पराओं पर आधारित विधि को अधिक महत्व दिया।
विधि–संबंधी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन
सैविनी और ऑस्टिन दोनों का ही विधि-क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सैविनी विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के प्रवर्तक थे और ऑस्टिन विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र के समर्थक थे। सैविनी ने विधि को लोक-चेतना का परिणाम माना है जबकि ऑस्टिन विधि को संप्रभु का समादेश मानते हैं।
सैविनी और ऑस्टिन के विधि सम्बन्धी विचारों में निम्न असमानताएं थी –
(1) ऑस्टिन का आज्ञात्म्क सिद्धान्त इंग्लिश विधि पर आधारित था जबकि सैविनी ने रोमन तथा जर्मन विधि को अपनी लोक चेतना का आधार बनाया।
(2) ऑस्टिन ने अपने सिद्धान्त में तर्क (Reason) को विशेष महत्व दिया जबकि सैविनी ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण पर महत्त्व दिया।
(3) ऑस्टिन विधि को राज्य की उपज मानते हैं परन्तु सैविनी विधि को राज्य का पूर्ववर्ती मानते हैं।
(4) ऑस्टिन ने ‘शास्ति’ को विधि का आधार-बिन्दु माना लेकिन सैविनी इसे अस्वीकार करते है।
सैविनी और हेनरी मेन की विचारधारा में अंतर
सैविनी तथा सर हेनरी मेन दोनों ही विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के प्रवर्तक थे, लेकिन अनेक बातों में उनके विचार एक-दूसरे से अलग अलग हैं। जहाँ सैविनी ने प्रथाओं को महत्व दिया वहीँ हेनरी मेन ने सभ्यता के विकास के साथ साथ विधायन द्वारा निर्मित संहिताबद्ध विधि की आवश्यकता पर बल दिया।
हेनरी मेन ने इंग्लैण्ड की तत्कालीन विधि की अस्पष्टता का उदाहरण देते हुए कहा कि इसका मूल कारण विधि प्रधान रूप से नयायाधीशों द्वारा निर्मित की गयी थी ना कि विधान-मण्डल द्वारा।
हेनरी मेन ने सैविनी के लोक चेतना सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने विधान मण्डल की सृजनात्मक शक्ति को स्वीकार किया जिसे विधि निर्माण का एक आवश्यकअंग माना गया है। उनका “प्रास्थिति से संविदा की ओर” (status to Fontract) का सिद्धान्त व्यावहारिक होने के साथ साथ तत्कालीन पूँजीवादी और औद्योगिक समाज की परिस्थितियों के लिये उसी प्रकार अनुकूल था|
जिस प्रकार सैविनी का लोक चेतना सिद्धान्त तत्कालीन जर्मन समाज की आन्तरिक भावनाओं के अनुकूल था। यद्यपि इन दोनों विधिशास्त्रियों के विचारों में अन्तर है| दोनों को उन मानवीय संस्थाओं की मौलिक दृढ़ता के प्रति अटूट विश्वास था जिन पर अधिकांश विधिक इतिहासकार अविश्वास करते हैं।
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Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)