हेलो दोस्तों, लोकहित वाद एक ऐसा विषय है जिसके बारे में हर कोई चाहे वह छात्र हो या आम नागरिक जानना चाहते है क्योंकि लोकहित वाद हमें समाज मै न्याय विधि के बारे में जानकारी देता है| यह आलेख लोकहित वाद क्या है, इसका अर्थ, विस्तार एवं उद्देश्य पर आधारित है|
लोकहित वाद क्या है
लोकहित वाद 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं 21वीं सदी के प्रारम्भ की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। जिसमे जन साधारण को सस्ता एवं शीघ्र न्याय उपलब्ध कराने तथा संविधान के अनुच्छेद 39क के उपबंधों को मूर्त रूप प्रदान करने का कार्य किया गया है।
इस प्रकार लोकहित वाद एक ऐसी नवीनतम अवधारणा है जिसने समाज के कमजोर वर्ग की आँखों के आँसू पोंछने में सार्थक भूमिका निभाई है। लोकहित वाद को निर्धन एवं मध्यम वर्ग के व्यक्तियों की पीड़ा को दूर करने का एक शस्त्र माना जाता है तथा यह कार्यपालिका की शक्तियों के दुरुपयोग को भी रोकता है।
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लोकहित वाद की परिभाषा
लोकहित वाद (PIL) ऐसा वाद या न्यायिक कार्यवाही है जिसमें जन साधारण अथवा जनता के एक बड़े वर्ग का हित निहित होता है। अथवा दूसरे शब्दों में यह कह सकते है कि ऐसा वाद अथवा न्यायिक कार्यवाही अथवा मामला जिसमे जन साधारण अथवा समाज का हित हो वह लोकहित वाद कहलाता है।
लोकहित वाद निर्धन व कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय दिलाने का एक अनूठा मंच है। जब कोई व्यक्ति निर्धनता, आर्थिक कमजोरी या अन्य किसी कारण से न्यायालय में वाद पेश करने अथवा न्यायिक कार्यवाही करने में असमर्थ रहता है तब उसकी और से अन्य व्यक्ति, स्वैच्छिक संगठन अथवा संस्था द्वारा लोकहित वाद के माध्यम से न्यायालय में वाद अथवा न्यायिक कार्यवाही पेश की जाती है।
जैसे – कोई व्यक्ति अर्थाभाव (निर्धनता) के कारण न्यायालय में देने का साहस नहीं जुटा पाता है तो उसकी ओर से कोई भी अन्य व्यक्ति या संगठन न्यायालय में दस्तक दे सकता है, यही लोकहित वाद है।
उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कृष्ण अय्यर का कहना है कि – “पीडित व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त हो गई है। उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही, लोकहित वाद, प्रतिनिधि वाद आदि ने ले लिया है। अब कोई भी व्यक्ति जो किसी लोकहित (Public Interest) से जुड़ा है, ऐसे हितों की सुरक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है।”
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उदाहरणार्थ – गंगा के पानी में सबका हित है। उस नदी के पानी का प्रयोग जनसाधारण अथवा आमजन द्वारा किया जाता है। इसलिए गंगा के पानी को दूषित होने से रोकने के लिए उस पानी में हित रखने वाले व्यक्तियों द्वारा लोकहित वाद लाया जा सकता है।
इसी प्रकार ताजमहल के सौन्दर्य की रक्षा के लिए लोकहित वाद लाया जा सकता है क्योंकि ताजमहल में जनसाधारण का व्यापक हित निहित है। (एम.सी.मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर.1997 एस.सी.734)
केस – एस.पी.गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया(ए.आई.आर.1982 एस.सी. 149)
इस मामले में कहा गया है कि, न्यायाधीशों के स्थानान्तरणों को अधिवक्ताओं द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत चुनौती दी जा सकती है क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता में सबका हित निहित है।
केस – जम्मू कन्जूमर कौंसिल बनाम स्टेट (ए.आई.आर.2003 एन ओ सी 256 जम्मू-कश्मीर)
इस मामले में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा प्रदूषणमुक्त जल के उपयोग करने के अधिकार को लोकहित वाद का विषय माना गया है।
केस – पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर.1980 एस.सी.1579)
इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा भी कहा गया है कि, “लोकतंत्र में लोकहित वाद विधि के शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विधि का शासन केवल सम्पन्न वर्ग के हितों की ही सुरक्षा नहीं करता है, अपितु समाज के कमजोर वर्ग को भी न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराता है।”
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लोकहित वाद के मामलों मै न्यायालयों द्वारा समय-समय पर लोकहित वादों की व्याख्या की गई है। निम्नांकित मामलें लोकहित वाद की परिधि में माने गये है —
(i) बंधुआ मजदूरी
(ii) श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी
(iii) बाल शोषण
(iv) नारी उत्पीड़न
(v) पुलिस यंत्रणा
(vi) पर्यावरण संरक्षण
(vii) दलित एवं पिछड़े वर्गों पर अत्याचार
(viii) पारिवारिक पेंशन
(ix) हिंसा से प्रभावित पीड़ित व्यक्ति
(x) नारी निकेतनों की दुर्दशा
(xi) कारागृहों में शोषण, उत्पीड़न एवं अव्यवस्था, आदि।
लेकिन निम्न मामले लोकहित वाद (pil) की परिधि में शामिल नहीं है —
(क) भू-स्वामी एवं किरायेदार के बीच विवाद;
(ख) सेवा अथवा नौकरी;
(ग) सरकार के विरुद्ध निजी शिकायतें;
(घ) शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश आदि।
केस – मो. कलीमुद्दीन अंसारी बनाम स्टेट ऑफ बिहार (ए.आई.आर. 2003 पटना 37)
इस प्रकारम में पटना उच्च न्यायालय द्वारा ऐसे मामले को लोकहित वाद नहीं माना गया जिसमें सड़कों के निर्माण हेतु उच्च न्यायालय से निर्देश जारी करने का अनुतोष चाहा गया था।
केस – प्रयाग व्यापार मण्डल बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (ए.आई.आर. 1997 इलाहाबाद 1)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति निजी हितों से प्रेरित होकर रिट संस्थित करता है तो उसे लोक हित वाद नहीं माना जा सकता है।
इसी तरह राजनीति से प्रेरित किसी मामले को लोकहित का मामला नहीं माना जा सकता है क्योंकि लोकहित वाद का लक्ष्य न तो राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करना है और न ही राजनैतिक समस्याओं का समाधान करना। तथा किसी सार्वजनिक उपक्रम पर कार्य या कार्यलोप (act or omission) के आरोप के मामले को भी लोकहित वाद नहीं है माना जा सकता।
लोकहित वाद का उद्देश्य
लोकहित वाद का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग को न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना है। जो व्यक्ति अर्थाभाव या अन्य किसी कारण से न्यायालय में दस्तक दे सकने में असमर्थ है, उनके हितों को लोकहित वादों के माध्यम से संरक्षण प्रदान किया जाता है|
केस – बिहार लीगल सपोर्ट सोसायटी बनाम चीफ जस्टिस (ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 38)
इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – “लोकहित वाद की अवधारणा का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग की सहायता करना तथा उन्हें न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना है।”
केस – गिरीश व्यास बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 2043)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि लोकहित वाद की प्रकृति प्रतिकूलात्मक मुकदमेबाजी की नहीं है। यह सरकारी तंत्र को मानव अधिकारों को अर्थपूर्ण बनाने की चुनौती भी देती है और अवसर भी प्रदान करती है।
न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती का मत है कि – न्याय अब केवल सम्पन्न व्यक्तियो की बपौती नहीं है। न्यायालय के मन्दिर सर्वसाधारण के लिए खुले हैं। इस प्रकार लोकहित वाद के प्रमुख उद्देश्य निम्नाकिंत है –
(i) समाज के कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय सुलभ कराना;
(ii) सभी को न्याय प्राप्ति के समान अवसर उपलब्ध कराना;
(ii) संविधान की भावना के अनुरूप सभी को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान कराने की दिशा में पहल करना;
(iv) मानवाधिकारों (Human Rights) को संरक्षण प्रदान करना;
(v) वितरित न्याय की अवधारणा (Concept of distributive justice) को फलीभूत बनाना
(vi) मानव मात्र में बंधुत्व की भावना का संचार करना;
(vii) देश की एकता, अखण्डता एवं गरिमा को बनाये रखना; आदि
लोकहित वाद के उपरोक्त उद्देश्य इस बात में भी परिलक्षित होते हैं कि ऐसे मामलों को तकनीकी आधारों पर खारिज नहीं किया जा सकता है।
लोकहित वाद का विस्तार
लोकहित वाद का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसके क्षेत्र का अध्ययन दो दृष्टियों से किया जा सकता है — विषयवस्तु की दृष्टि से तथा अधिकारिता (locus standi) की दृष्टि से।
विषय-वस्तु (subject matter) की दृष्टि से —
(i) जो व्यापक जन हित (public interest) से जुड़े हुए हैं;
(ii) जिनमें निजी हित (private interest) निहित नहीं है;
(iii) जो राजनीति से प्रेरित नहीं है।
ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि निजी हित से जुड़े मामले लोकहित वाद के माध्यम से नहीं उठाये जा सकते हैं। (स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र बिहारी सेवाश्रम बनाम स्टेट ऑफ बिहार, ए.आई.आर. 2008 एन.ओ.सी. 98, पटना, नेशनल कौंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, ए.आई.आर. 2007, एस.सी. 2631)।
अधिकारिता’ (locus standee) की दृष्टि से –
लोकहित से जुड़े मामलों को किसी भी व्यक्ति अथवा संगठन द्वारा न्यायालय में उठाया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि पीड़ित अथवा व्यथित व्यक्ति ही न्यायालय में दस्तक दें। ।
सामान्य नियम यह है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत कोई रिट केवल उसी व्यक्ति द्वारा संस्थित की जा सकती है जिसके विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो।
लेकिन अब समाज का कोई भी व्यक्ति, संघ या संगठन किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के विधिक अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय में दस्तक दे सकता है जो निर्धनता या अन्य किसी कारण से न्यायालय तक पहुँचने में असमर्थ है| आवश्यक मात्र यह है कि ऐसे मामलों में व्यापक जनहित निहित हो।
लोकहित वाद के बढ़ते हुए क्षेत्र का अच्छा उदाहरण पत्रों एवं समाचार पत्रों की कतरनों को रिट मानकर उन पर कार्यवाही किया जाना है। पिछले कुछ वर्षों से समाचार पत्रों की कतरनों तथा पोस्ट कार्डों व पत्रों को रिट मानकर कार्यवाही करने की प्रवृत्ति में अभिवृद्धि हुई है।
बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1982 एस.सी. 805), पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई. आर. 1982 एस.सी. 1473), सुनील बचा बनाम दिल्ली प्रशासन (ए.आई.आर. 1980 एस.सी. 1579) आदि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें पत्रों एवं समाचारों की कतरनों को रिट मानकर कार्यवाही की गई है।
लोकहित वाद के लिए आवश्यक यह है कि –
(i) ऐसा मामला व्यापक जनहित से जुड़ा हुआ हो;
(i) उसमें किसी का निजी हित निहित नहीं हो;
(iii) वह सद्भावपूर्वक हो;
(iv) राजनीति से प्रेरित न हो।
गंगा के पानी एवं ताज के सौन्दर्य को प्रदूषण से बचाना आदि लोकहित वाद के अच्छे उदाहरण हैं।
पर्यावरण एवं पारिस्थिति के मामले लोक हित वाद के माध्यम से उठाये जा सकते हैं। (बॉम्बे डाईंग एण्ड मेन्यूफेक्चरिंग क. लि. बनाम बम्बई एन्वायरमेन्टल एक्शन ग्रुप, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1489)।
गिरीश व्यास बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 2043) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि लोकहित वाद सरकार एवं सरकारी तंत्र के लिए एक चुनौती भी है और वह उन्हें इस बात का अवसर भी प्रदान करता है कि वे मानव के मूलभूत अर्थात् बनियादी अधिकारों को अर्थपूर्ण बनाये।
लोकहित वाद कौन ला सकता है?
सामान्यतः कोई भी वाद ऐसे व्यक्ति द्वारा संस्थित किया जाता है जिसके अधिकारों का अतिक्रमण या उल्लंघन हुआ हो। लोकहित वाद ऐसे किसी भी व्यक्ति या संगठन द्वारा संस्थित किया जा सकता है जिसमें जन साधारण का व्यापक हित हो। ‘अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ इसका अच्छा उदहारण है
प्रशान्त कुमार बेहरा बनाम स्टेट ऑफ ओडिशा के मामले में यह कहा गया है कि लोक हित वाद केवल पीड़ित पक्षकार द्वारा ही प्रस्तुत किया जा सकता है अर्थात् लोकहित वाद लाने वाले व्यक्ति का ‘पीड़ित’ होना अपेक्षित है। (ए.आई.आर. 2018 एन.ओ.सी. 325 उड़ीसा)
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