नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में लोकहित वाद एवं निजी हित वाद में महत्वपूर्ण अन्तर | Important Differences Between Public Interest Litigation and Private Interest Litigation को स्पष्ट किया गया है, यह आलेख विधि के छात्रो के लिए महत्वपूर्ण है|
लोकहित वाद एवं निजी हित वाद
लोकहित वाद – जैसा की हम जानते लोकहित वाद 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं 21वीं सदी के प्रारम्भ की देन है जबकि निजीहित वाद एक परम्परागत विधिक प्रक्रिया है।
लोकहित वाद से तात्पर्य एक ऐसी न्यायिक कार्यवाही या वाद से है जिसमें जन साधारण का हित शामिल रहता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यापक जन हित से जुड़ा मामला लोकहित वाद कहलाता है।
उच्चत्तम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कृष्णा अय्यर का मत है कि लोकहित वाद एक ऐसी अवधारणा है जिसमें कोई भी व्यक्ति जो किसी सार्वजनिक हित से जुड़ा है, ऐसे हितों की सुरक्षा के लिए न्यायालय में न्यायिक कार्यवाही या वाद पेश कर सकता है।
निजीहित वाद – निजीहित वाद (Private Interest Litigation) लोकहित वाद से अलग है। इसमें व्यक्ति या संस्था विशेष का अपने स्वंय का निजी हित शामिल होता है। व्यक्ति या संस्था द्वारा अपने निजी हितों के संरक्षण अथवा हितो की रक्षा के लिए न्यायिक कार्यवाही या वाद पेश किया जाता है और ऐसी कार्यवाही स्वयं व्यथित या पीड़ित पक्षकार के द्वारा ही की जाती है, किसी अन्य के द्वारा नहीं की जा सकती।
उदाहरण – यदि ए की भूमि में बी द्वारा अतिक्रमण किया जाता है तो ए द्वारा बी के विरुद्ध की गई न्यायिक कार्यवाही लोकहित वाद नहीं होकर, निजी हित वाद होगी।
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लोकहित वाद एवं निजी हित वाद में अन्तर
लोकहित वाद एवं निजीहित वाद में निम्नलिखित अन्तर मिलता है
(i) प्रकार
लोकहित वाद व्यापक जनहित से जुड़ा होता है। जिस कारण इसे लोकहित या सार्वजनिक हितवाद कहा जाता है, जबकि निजीहित वाद में व्यक्ति विशेष के हित निहित रहते है। जिस कारण इसे निजी हितवाद कहा जाता है|
(ii) उद्देश्य
लोकहित वाद का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करना है, जबकि निजीहित वाद का मुख्य उद्देश्य निजी हितों की रक्षा करना है।
(iii) पक्षकार
लोकहित वाद में दो पक्षकार नहीं होते हैं अर्थात् यह द्विपक्षीय नहीं होता है। निजीहित वाद मै दो पक्षकार होते है अर्थात निजी हित वाद द्विपक्षीय होता है।
(iv) प्रकृति
लोकहित वाद की प्रकृति भविष्यलक्षी (prospective) होती है। निजीहित वाद की प्रकृति भूतलक्षी (retrospective) होती है।
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(v) अधिकार/उपचार
लोकहित वाद में अधिकार एवं उपचार एक-दूसरे पर निर्भर नहीं करते हैं क्योंकि इसमें उपचार चाहने वाला व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करता है। निजीहित वाद में अधिकार एवं उपचार एक दूसरे पर निर्भर करते हैं क्योंकि इसमें उपचार चाहने वाला व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करता है।
(vi) न्यायिक कार्यवाही
लोकहित वाद की न्यायिक प्रक्रिया अत्यन्त सरल होती है। निजीहित वाद की प्रक्रिया कठिन अर्थात् जटिल, व्ययसाध्य एवं विलम्बकारी होती है।
(vii) साक्ष्य
लोकहित वाद में साक्ष्य कम विस्तृत एवं तकनीकी बारीकियों से मुक्त होता है। निजीहित वाद में साक्ष्य का समुचित व गहनता से आक्कलन किया जाता है।
(viii) वाद या याचिका वापस
लोकहित वाद में वाद या याचिका को वापस नहीं लिया जा सकता है। निजीहित वाद में वाद या याचिका को वापस लिया जा सकता है।
(ix) विषय – वस्तु
लोकहित वाद की विषय-वस्तु सामान्यतः सामाजिक एवं राष्ट्रीय अधिकार होती है। निजीहित वाद की विषय-वस्तु निजी अथवा स्वयं की हित होती है।
(x) न्यायाधीश की कार्यप्रणाली
लोकहित वाद में न्यायाधीश का कार्य एवं दृष्टिकोण अत्यन्त संवेदनशील एवं राष्ट्रीय दायित्व से परिपूर्ण होता है निजीहित वाद में न्यायाधीश का कार्य एवं दायित्व साक्ष्य के मूल्यांकन तक सीमित होता है
(xi) याचिका संस्थित
लोकहित वाद किसी भी व्यक्ति द्वारा पेश किया जा सकता है जिसका ऐसे किसी मामले में हित निहित रहता है।
इसमें पीड़ित या व्यथित पक्षकार द्वारा ही कार्यवाही हेतु वाद या याचिका प्रस्तुत की जानी आवश्यक नहीं है। निजीहित वाद में कार्यवाही पीड़ित या व्यथित पक्षकार द्वारा ही करनी होती है।
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शीला बर्से बनाम यूनियम ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2211)
उच्चत्तम न्यायालय द्वारा इस मामले में लोकहित वाद एवं प्राइवेट हित वाद के बीच अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है –
लोकहित वाद में, परम्परागत प्राइवेट मुकद्दमा से भिन्न विवाद का निपटारा करने की मैकेनिज्म है, क्योंकि लोकहित वाद में व्यक्तिगत अधिकारों का निर्धारण अथवा न्यायनिर्णयन नहीं होता,
जबकि साधारण परम्परागत न्याय निर्णयनों (निजिहित वाद) में केवल दो पक्षकार होते हैं तथा विवाद भूतकालीन घटना के विधिक परिणामों के निर्धारण से सम्बन्धित होता है तथा उपचार पक्षकारों की तर्क सम्मतत्ता पर निर्भर करता है,
तथा लोकहित वाद में कार्यवाहियाँ परम्परागत तरीके व अवरोध से बाहर श्रेष्ठ व आर्थिक बदलाव की सांविधिक प्रतिज्ञा है तथा समान अवसर पर आधारित व्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिए विकसित की गई है।
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