इस लेख में भारत के वैधानिक इतिहास में सन 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट का क्या योगदान रहा | रेगुलेटिंग एक्ट 1773 के प्रावधान, विशेषताएँ तथा रेग्यूलेटिंग एक्ट में क्या दोष रहे इसके साथ इस लेख में रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act of 1773) से संबंधित कुछ मुख्य बिंदुओं को स्पष्ट किया गया है –
रेग्यूलेटिंग एक्ट 1773
केवल व्यापार करने के उद्देश्य से भारत में आने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करना शुरू कर दिया और अन्तोगत्वा सन् 1772 में बंगाल, बिहार एंव उडिसा राज्य की दीवानी प्राप्त कर लेने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने वहां की प्रशासनिक सत्ता पर नियतंत्र स्थापित कर लिया। इस तरह व्यापार के साथ साथ प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था में भी ईस्ट इंडिया कंपनी का नियतत्र बढ़ता चला गया।
जिस कारण ब्रिटिश सरकार, कंपनी के इस विस्तार से चिन्तित थी, इसलिए ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के कार्यकलापों पर नियतंत्र करने एंव कम्पनी को ऋण राशि देने से पूर्व कम्पनी के मामलों की जांच करने हेतु ब्रिटिश संसद द्वारा प्रवर समिति (Select Committee) एवं गुप्त समिति (Secrte Committee) नाम से दो समितियों का गठन किया गया।
इन समितियों का कार्य ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल प्रान्त से सम्बन्धित कार्यो की जांच पड़ताल कर तथा कंपनी की व्यवस्थाओं का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।
इन समितियों द्वारा कम्पनी के न्यायिक एंव प्रशासनिक कुव्यवस्था के सम्बन्ध में अनेक रिपार्टे ब्रिटिश सरकार के समक्ष पेश की गई जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का नियतत्रं स्थापित करने एंव कम्पनी के न्यायिक व प्रशासनिक कुव्यवस्था को दूर करने के लिए सन् 1773 में एक एक्ट पारित किया गया, जिसे सन् 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act, 1773) के नाम से जाना जाता है।
यह भी जाने – निर्धन व्यक्ति कौन है, निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद दायर करने की प्रक्रिया | CPC Order 33
रेगुलेटिंग एक्ट 1773 के प्रावधान
ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित गुप्त समिति के सुझाव पर ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य कम्पनी शासित भारतीय प्रदेशों की शासन व्यवस्था में सुधार करना था। इस अधिनियम द्वारा प्रशासनिक एंव न्याय व्यवस्था मे सुधार हेतु अनेक प्रावधान किये गये जिनमें मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे –
(A) संचालक मण्डल का पुनर्गठन –
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की देखरेख और उसका प्रबन्ध दो संस्थाओं – कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स (Court of Proprietors) एवं कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (Court of Directors) द्वारा किया जाता था। रेग्यूलेटिंग अधिनियम की धारा 1 से 6 द्वारा इन दोनों संस्थाओं का पुनर्गठन किया गया।
यह भी जाने – सन् 1600 का चार्टर एक्ट | भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रारम्भिक शासन काल
कंपनी के संचालक मण्डल में कुल 24 सदस्य होते थे जो निदेशक कहलाते थे, इनका चयन अंशधारियों की आमसभा द्वारा किया जाता था। इस अधिनियम द्वारा इनका कार्यकाल निर्धारित किया गया और यह व्यवस्था की गई कि इन 24 सदस्यों में से एक-चौथाई अर्थात् 6 सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे तथा उनके स्थान पर नए सदस्यों का चयन किया जाएगा।
इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य संचालक मण्डल के सदस्यों के कार्यकाल पर नियन्त्रण स्थापित करना था। सदस्यता के लिए आवश्यक था कि सम्बन्धित व्यक्ति पूर्वी देशों अथवा अन्य विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में सेना अथवा अन्य लोकसेवा में नहीं रहा हो और यदि रहा हो, तो सेवानिवृत्ति के पश्चात् वह कम से कम दो वर्ष तक इंग्लैण्ड में निवास कर चुका हो।
मताधिकार अब केवल ऐसे व्यक्तियों को दिया गया जो अपने पास न्यूनतम 1000 पौण्ड की अमानत रखता हो। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के लिए यह क्षमता 2000 पौण्ड निर्धारित की गई। कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स के लिए मत क्षमता 1000 पौण्ड ही रखी गई थी, लेकिन 3000 पौण्ड पर दो, 6000 पौण्ड पर तीन तथा 10,000 पौण्ड अथवा इससे अधिक पौण्ड पर चार मत देने की क्षमता रखी गई थी। इस प्रकार सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के सदस्यों के निर्वाचन, कार्यकाल एवं मताधिकार में आवश्यक परिवर्तन किए गए।
यह भी जाने – राज्य क्या है? : अर्थ, परिभाषा व इसके आवश्यक तत्व कोन कोनसे है? | विधिशास्त्र
(B) संचालक मण्डल पर संसदीय नियन्त्रण –
रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा संचालक मण्डल पर संसदीय नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। इसके लिए अब यह आवश्यक कर दिया गया कि राजस्व सम्बन्धित समस्त पत्र व्यवहार तथा प्राप्त पत्रों अथवा दस्तावेजों की प्रतियाँ –
(i) भारत सरकार अथवा गवर्नर जनरल की दशा में ट्रेजरी तथा
(ii) सिविल अथवा मिलिट्री प्रशासन की दशा में सम्बन्धित सचिव को प्रेषित की जाऐगी।
यह भी जाने – महिला अपराध क्या है : महिला अपराधी के कारण एंव इसके रोकथाम के उपाय
(C) सर्वोच्च सरकार अथवा परिषद –
रेग्यूलेटिंग एक्ट की उपधारा 7 से 12 कलकत्ता प्रेसीडेंसी की प्रशासनिक व्यवस्था के पूर्नगठन से सम्बन्धित है। कलकत्ता की प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए अधिनियम की उपधारा 7 द्वारा गवर्नर एवं काउन्सिल (Governor In Council) के स्थान पर एक महाराज्यपाल (Governor General) तथा उनकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद् की नियुक्ति की व्यवस्था की गई, इस परिषद् का नेतृत्व महाराज्यपाल ही करता था।
उपधारा 7 के अनुसार नियुक्त महाराज्यपाल सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए एक सर्वोच्च सरकार थी जिसे कलकत्ता प्रेसीडेंसी के सैनिक एवं लोक प्रशासन तथा बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा प्रान्तों की मालगुजारी का कार्य सौंपा गया था। इसके निर्णय बहुमत पर आधारित होते थे तथा किसी विषय पर बराबर मत होने पर गवर्नर जनरल को विशेष मत (Casting Vote) देने का अधिकार था।
गर्वनर जनरल तथा उसके परिषद के सदस्यों का कार्यकाल पाँच वर्ष रखा गया तथा उनकी अवधि पूर्ण होने से पहले केवल इग्लेण्ड का सम्राट् ही कम्पनी के निदेशको की प्रार्थना पर उन्हे पद से हटाने का अधिकार रखता था। वारेन हेस्टिंग्ज को इसका प्रथम गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया तथा प्रथम चार सदस्य के रूप में कर्नल मौनसम, क्लेवरिंग, फिलिप फ्रांसिस तथा रिचर्ड बारबेल नियुक्त किए गए थे। भारत के सन्दर्भ में यह सर्वोच्च सरकार कहलाती थी।
(D) सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना –
रेग्यूलेटिंग एक्ट 1773 के पूर्व मेयर कोर्ट की व्यवस्था थी जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील कलकत्ता की प्रेसीडेंसी एण्ड काउन्सिल तथा इंग्लैण्ड की किंग-इन-कौंसिल (King-in-Council) में की जा सकती थी। मेयर कोर्ट का कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं था।
यही कारण था कि इस एक्ट के अन्तर्गत एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर (Supreme Court of Judicature) की स्थापना की गई। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश होते थे। न्यायाधीश के पद पर ऐसे व्यक्ति नियुक्त हो सकते थे जो इंग्लैण्ड अथवा आयरलैण्ड के बैरिस्टर के रूप में न्यूनतम पाँच वर्षों का अनुभव रखते थे।
इनकी नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट के द्वारा की जाती थी। प्रथम मुख्य न्यायाधीश के रूप में सर एलिजा इम्पे तथा अन्य न्यायाधीशों के रूप में स्टीफन कैंसर, ली मैस्ट्री जॉन हाइ तथा रॉबर्ट चैम्बर्स को नियुक्त किया गया।
इसे सभी प्रकार के सिविल, आपराधिक, सामुद्रिक तथा धर्म सम्बन्धी मामलों की सुनवाई की अधिकारिता प्रदान की गई थी। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील किंग-इन कौंसिल (प्रिवी परिषद) में की जा सकती थी।
(E) सिविल सेवाओं में सुधार –
इस एक्ट के द्वारा सिविल सेवाओं में भी व्यापक सुधार किए गए। महाराज्यपाल के लिए 20,000 पौण्ड, कौंसिल के अन्य सदस्यों के लिए 10,000 पौण्ड, मुख्य न्यायाधीश के लिए 8,000 पौण्ड तथा अन्य न्यायाधीशों के लिए 6000 पौण्ड वार्षिक वेतन निर्धारित किया गया। ये किसी प्रकार का उपहार आदि स्वीकार नहीं कर सकते थे और न ही किसी प्रकार का अन्य व्यापार, व्यवसाय आदि स्वीकार कर सकते थे। इनका उल्लंघन करने वाले व्यक्ति दण्ड के भागी होते थे।
महाराज्यपाल, कौंसिल के सदस्य एवं न्यायाधीश सभी अपने-अपने क्षेत्रों में जस्टिस ऑफ पीस (Justice of Peace) होते थे। सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर को बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) आदि रिट जारी करने का अधिकार भी प्रदान किया गया।
(F) विधायी शक्तियाँ –
विधायी क्षेत्र में सुप्रीम कौंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट दोनों का हस्तक्षेप था। गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल द्वारा ऐसी विधियाँ, अधिनियम तथा अध्यादेश पारित किए जा सकते थे, जैसे फोर्ट विलियम एवं उसके अधीन बस्तियों पर लागू होते थे। ऐसे कानून आंग्ल विधियों से असंगत नहीं हो सकते थे। ऐसे कानूनों का पूर्व प्रकाशन आवश्यक था।
जनसाधारण को ऐसे कानूनों से अवगत करवाने के लिए इनका कोर्ट में सहज दृश्य स्थान पर प्रदर्शित किया जाना भी अपेक्षित था। इनका सुप्रीम कोर्ट में दर्ज होना भी आवश्यक था। इन सबके बारे में प्रावधान रेग्यूलेटिंग एक्ट की धारा 36 एवं 37 में किया गया था।
रेग्यूलेटिंग एक्ट की विशेषताएँ
रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 कई अर्थों में बड़ा महत्त्वपूर्ण था तथा अपने आपमें कई विशेषताएँ समाहित किए हुए था, यथा –
(i) इसके द्वारा कंपनी पर ब्रिटिश शासन का प्रभाव एवं नियन्त्रण स्थापित किया गया।
(ii) कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर (Supreme Court of Judicature) की स्थापना की गई, जो न्यायिक क्षेत्र की एक अद्भुत घटना थी।
(iii) न्याय प्रशासन को प्रथम बार कार्यपालिका से मुक्त किया गया और यहीं से न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पृथककरण की परम्परा का सूत्रपात हुआ।
(iv) न्यायाधीशों के पदों पर विधि विशेषज्ञों अर्थात् विधि में पारंगत व्यक्तियों को नियुक्त किया गया।
(v) निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्याय प्रशासन के लिए गवर्नर जनरल, कौंसिल के सदस्य एवं न्यायाधीशों के भेंट, उपहार आदि स्वीकार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
(vi) इनके लिए निजी व्यापार, व्यवसाय आदि भी वर्जित कर दिए गए ताकि इनमें अनुशासन, निष्ठा और निष्पक्षता बनी रहे।
(vii) सिविल सेवाओं में सुधार के लिए गवर्नर जनरल, कौंसिल के सदस्यों तथा न्यायाधीशों के वेतन में अभिवृद्धि की गई।
(viii) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर को विभिन्न रिटें (Writs) जारी करने की अधिकारिता प्रदान की गई।
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष
अनेक विशेषताओं के होते हुए भी रेग्यूलेटिंग एक्ट अनेक दोषों से परिपूर्ण था। इस एक्ट के मुख्यतया निम्नांकित दोष थे –
(i) गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल के सदस्यों में से अधिकांश भारत की परिस्थितियों से अवगत नहीं थे, अतः वे भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल सुझाव नहीं दे पाते थे।
(ii) निर्णय बहुमत से लिए जाते थे जिसके कारण गवर्नर जनरल महत्त्वपूर्ण नीतियों के बहुमत के अभाव में क्रियान्वित नहीं कर पाया था।
(iii) गवर्नर जनरल एण्ड काउन्सिल के सदस्यों में आपस में मतभेद होते रहने से न तों अनुकूल नीतियाँ बन पाती थीं और न ही क्रियान्वित हो पाती थीं।
(iv) कलकत्ता का गवर्नर जनरल अब अत्यन्त शक्तिशाली हो गया था, क्योंकि बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर तथा कौंसिलों को उसके अधीनस्थ कर दिया गया था। इससे इनमें आपस में कटुता उत्पन्न होने लग गई थी।
(v) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर की स्थापना का अनुभव भी बड़ा कटु रहा। कई मामलों को लेकर गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। दोनों में शक्ति परीक्षण की होड़ भी लगी रहती थी।
(vi) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर की अधिकारिता (Jurisdiction) भी सुस्पष्ट नहीं थी। यह भी सुनिश्चित नहीं था कि निर्णय किस विधि के अन्तर्गत किए जाएँगे अर्थात् भारतीय रीति-रिवाजों, प्रथाओं के अनुसार अथवा आंग्ल विधि के अनुसार। वास्तविकता यह है कि विनिर्णय आंग्ल विधि के अनुसार ही किए जाते थे।
इस तरह सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोषों के कारण गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर के बीच संघर्ष एवं तनाव की स्थिति बन गई थी। इसलिए इस एक्ट की कमियों एवं दोषों को दूर करने के लिए सन् 1781 में एक्ट ऑफ सैटलमेंट (Act of Settlement, 1781) पारित किया गया|
महत्वपूर्ण आलेख
CePC 1973 के अन्तर्गत अभियुक्त के अधिकार (Rights of the Accused) की विवेचना
समन केस क्या है, मजिस्ट्रेट द्वारा इसका विचारण कैसे किया जाता है
धारा 3 : साबित, नासाबित व साबित नहीं हुआ की व्याख्या | भारतीय साक्ष्य अधिनियम
नोट :- इस आलेख को बनाने में सावधानी बरती गयी है लेकिन फिर भी किसी तरह की त्रुटि या व्याकरण और भाषाई अशुद्धता के लिए हमारी वेबसाइट lawstudys.com जिम्मेदार नहीं होगी |
बुक – भारत का वैधानिक एंव सवैधानिक इतिहास (डॉ. परांजपे)