इस लेख में अपकृत्य विधि के तहत अंशदायी उपेक्षा जिसे योगदायी उपेक्षा के नाम से भी जाना जाता है का अर्थ, क्षतिपूर्ति, सिद्वांत एंव इसके अपवाद को बताया गया है, इसके अलावा क्या प्रतिवादी योगदायी उपेक्षा से अपना बचाव कर सकता है का आसान शब्दों में उल्लेख किया गया है|
परिचय – योगदायी उपेक्षा
सामान्यत: जीवन में दुर्घटनायें किसी एक व्यक्ति की लापरवाही (उपेक्षा) या असावधानी से घटित होती है और इसके लिए कानून में उसे दोषी मानते हुए सजा अथवा क्षतिपूर्ति का प्रावधान किया गया है। लेकिन अनेक बार दुर्घटना में दोनों पक्षकारों यानि वादी एवं प्रतिवादी की भी लापरवाही (उपेक्षा) या असावधानी शामिल होती है।
ऐसी घटनाओं के कारित होने में दोनों पक्षकारों का योगदान रहता है अर्थात् दोनों संयुक्त रूप से दुर्घटना के उत्तरदायी होते है।
उदहारण के लिए – एक साईकिल सवार जो काफी भीड़-भाड़ वाली सड़क के मध्य से साईकिल चला रहा था इसी दोरान पीछे से एक कार जो तेज गति से आ रही थी से कुचलने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है| इस स्थिति में साईकिल व कार सवार दोनों ही इस दुर्घटना के जिम्मेवार होंगे क्योंकि ना ही तो साईकिल सवार अपनी सही दिशा में जा रहा था और ना ही कार की गति धीमी थी|
जब भी ऐसी घटना घटित होती है तब प्रतिवादी यही बचाव लेता है कि उसमें वादी का भी हाथ रहा है यानि ऐसी घटना के लिए वादी भी उतना ही जिम्मेवार होता है जितना की वह है। इस तरह की उपेक्षा को ‘अंशदायी उपेक्षा’ या ‘योगदायी उपेक्षा’ (Contributory negligence) कहा जाता है।
योगदायी उपेक्षा की परिभाषा
योगदायी उपेक्षा से तात्पर्य ऐसी उपेक्षा से है जिसमें जिस व्यक्ति को क्षति कारित होती है वह भी उपेक्षा का दोषी होता है और क्षति में उसका कुछ योगदान भी निहित रहता है। आसान शब्दों में यह एक ऐसी घटना होती है जिसमे प्रतिवादी के साथ साथ वादी की भी अपनी उपेक्षा होती है जिसके कारण होने वाले नुकसान या दुर्घटना को रोका नहीं जा सकता है, उसे ‘अंशदायी उपेक्षा’ या ‘योगदायी उपेक्षा’ (Contributory negligence) कहा जाता है|
ऐसे मामलों में वादी किसी कर्त्तव्य का उल्लंघन नहीं करता है अपितु उसकी ओर से सावधानी बरतने का अभाव रहता है।
जब वादी स्वंय सावधानी के अभाव में उस क्षति में योगदान देता है, जो प्रतिवादी की लापरवाही या उपेक्षा के कारण होती है, उस स्थिति में वादी को योगदायी उपेक्षा का दोषी माना जाएगा और उपेक्षा के वाद में योगदायी उपेक्षा प्रतिवादी को उपलब्ध एक बचाव के रूप में है, जिससे वह अपने दायित्व से बच सकता है या अपने दायित्व को कम कर सकता है|
इसमें प्रतिवादी को यह साबित करने होता है की वादी भी अपनी सुरक्षा के लिए युक्तियुक्त जिम्मेवार था एंव होने वाले नुकसान में वादी का भी योगदान रहा है|
योगदायी उपेक्षा में क्षतिपूर्ति
योगदायी उपेक्षा का सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि, “यदि हानि में स्वयं वादी की उपेक्षा का योगदान रहता है तो ऐसी हानि के लिए वह प्रतिवादी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता है।”
विधि सुधार (अंशदायी उपेक्षा) अधिनियम, 1945 [Law Reforms (contributory negligence) Act, 1945] में यह व्यवस्था की गई कि यदि किसी घटना में वादी एवं प्रतिवादी दोनों की उपेक्षा रहती है तो नुकसानी की मात्रा उस सीमा तक कम हो जाती है जिस सीमा तक वादी की अशंदायी उपेक्षा रही है।
इस सम्बन्ध में जहाँ एक व्यक्ति को कुछ क्षति अपनी असावधानी तथा कुछ दूसरे पक्षकार की असावधानी के कारण कारित होती है वहाँ उसका वाद केवल उसकी अपनी असावधानी के आधार पर अस्वीकृत (खारिज) नहीं कर दिया जायेगा, अपितु प्रतिवादी की योगदायी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए नुकसानी की मात्रा भी कम कर दी जायेगी।
योगदायी उपेक्षा में नुकसानी का अनुमान प्रश्नगत दुर्घटना में दोनों पक्षकारों की उपेक्षा अर्थात दायित्व कितना रहा है के आधार पर लगाया जाता है ना की इस बात पर कि, प्रतिवादी के पास साधन एवं अवसर होते हुए भी उसने दुर्घटना को रोकने का प्रयास नहीं किया।
यह अलग बात है कि प्रतिवादी असावधानी का दोषी है, किन्तु वादी द्वारा साधारण सावधानी, बुद्धि एवं कुशलता का प्रयोग किया जाता तो वह दुर्घटना टल सकती थी या उसकी गम्भीरता कम हो सकती थी। योगदायी उपेक्षा में विधि उस असावधानी पर ध्यान केन्द्रित कराती है जो स्वयं वादी की ओर से बरती गई हो। इसका अर्थ यह हुआ कि, वादी स्वयं अपने कष्ट का जन्मदाता है।
योगदायी उपेक्षा के सिद्धान्त
योगदायी उपेक्षा के सम्बन्ध में मुख्यतया निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये है –
(i) अन्तिम अवसर का सिद्वान्त
अशंदायी असावधानी से जुड़ा यह एक महत्वपूर्ण नियम है, इसके अनुसार जहाँ किसी दुर्घटना के लिए वादी एवं प्रतिवादी दोनों उपेक्षा के दोषी हों, वहाँ यह देखा जाता है कि दुर्घटना को टालने या बचाने का अन्तिम अवसर किसे प्राप्त था यानि किसके हाथ में था और यदि ऐसा व्यक्ति उचित सावधानी बरतता तो दुर्घटना टल सकती थी।
मामला – डेवीज बनाम मान (1842) 10 एम एण्ड डब्ल्यू 546
इस सम्बन्ध में यह एक प्रमुख वाद है, इसमें वादी ने अपने गधे के दोनों पांव बांध कर उसे सार्वजनिक मार्ग पर छोड़ दिया था। तभी प्रतिवादी ने अपनी तेज रफ्तार से चल रही घोड़ा गाड़ी से गधे को टक्कर मारकर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया| जिस पर वादी ने प्रतिवादी के खिलाफ उपेक्षा का वाद दायर किया। इसमें माननीय न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी ठहराया।
इसमें न्यायालय ने कहा कि, प्रतिवादी के पास पर्याप्त अवसर था कि वह युक्तियुक्त सतर्कता और सावधानी का प्रयोग करके वादी की योगदायी उपेक्षा से उत्पन्न खतरे के दुष्परिणाम को टाल सकता था। न्यायमूर्ति पार्क बी० ने अपने निर्णय में अवलोकन किया कि यद्यपि गधा दोषपूर्ण ढंग से सड़क पर था, परन्तु प्रतिवादी को ऐसी गति से सड़क पर जाना चाहिए था कि दुर्घटना रोकी जा सके।
यदि ऐसा ना हो तो कोई भी व्यक्ति किसी के लोकमार्ग पर पड़े माल पर अथवा वहाँ सोते हुए किसी मनुष्य पर गाड़ी चढ़ाकर अथवा जानबूझकर गलत तरफ जाती हुई गाड़ी से गाड़ी टकराकर अपने कृत्य को उचित बतायेगा।
इस सिद्वांत के अनुसार – “जब कोई घटना दो व्यक्तियों की योगदायी उपेक्षा के परिणामस्वरूप घटित होती है तब इसके लिए वही दायी होता है जिसे घटना रोकने का अन्तिम अवसर (last opportunity) प्राप्त होता है यानि वह दूसरे की उपेक्षा के बावजूद भी करीत घटना के लिए दायी होता है।
(ii) वैकल्पिक खतरे का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त को अंग्रेजी में the dilemma principle या choice of evils, the agony of moment के नाम से भी जाना जाता है। जब वादी प्रतिवादी के गलत कार्य से अचानक बड़े खतरे में पड़ जाता है और खतरे को टालने के लिए युक्तियुक्त निर्णय करता है और परिणामस्वरूप क्षति उठाता है तो प्रतिवादी दायी माना जाता है।
क्योंकि अचानक खतरे में पड़े हुए व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह सामान्य स्थिति की भाँति ऐसी परिस्थिति में भी शान्त मस्तिष्क और बुद्धि का प्रयोग करेगा।
यह सिद्धान्त तभी लागू होता है जब वादी खतरे की आशंका के कारण अपने को बचाने का युक्तियुक्त ढंग अपनाता है। ऐसी स्थिति में होने वाली क्षति के लिए वादी उपेक्षा का दोषी नहीं माना जायेगा।
इस नियम के अनुसार किसी व्यक्ति को अपने लिए ऐसी परिस्थिति उत्पन्न नहीं करनी चाहिये जिसमें उसको खतरा और क्षति उठानी पड़े और यह कहा जाये कि उसने अपनी बुद्धि के प्रयोग न करने से हानि उठाई। वास्तव में हमें सामान्य बुद्धि वाले लोगों का विचार करके ही व्यवहार करना चाहिये।
मामला – क्लोयाईस बनाम डेथिक (1848) 12 क्यू. बी. 439
इस प्रकरण के अनुसार प्रतिवादी ने एक खतरनाक खाई बनाई जिसको ढँकने के लिये कोई प्रबन्ध नहीं किया और एक पतला रास्ता जाने के लिये छोड़ दिया जहाँ पर उसने कूड़ा-करकट इकट्ठा कर दिया था। वादी ने अपने घोड़े को कूड़े पर से निकालने का प्रयत्न किया। घोड़ा खाई में गिर कर मर गया। इस मामले में यह निर्णय किया गया कि वादी को नुकसानी मिलनी चाहिये, क्योंकि प्रतिवादी ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि वादी को वहाँ से होकर अपना घोड़ा ले जाना पड़ा।
(iii) अभिन्नता का सिद्धान्त
पूर्व में यह नियम था कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा या अपने जाने की व्यवस्था के लिये किसी व्यक्ति से सम्पर्क करता है और ऐसे व्यक्ति की एवं अन्य व्यक्ति को असावधानी से दुर्घटना घटित होती है, जिससे उस व्यक्ति को क्षति पहुँचती है, तो वह इसमें होने वाली उपेक्षा के लिये तीसरे व्यक्ति पर मुकदमा नहीं चला सकता है, क्योंकि उसका सम्बन्ध तो वाहक (Carrier) से होता है|
मामला – थारोगुड बनाम ब्राइएन (1849) 8 सी. बी. 115
इस मामले में मृतक ने ड्राइवर से सम्पर्क स्थापित कर बस द्वारा अपने जाने की व्यवस्था की और बस से दुर्घटना होने से उसकी मृत्यु हो गई। वाद प्रस्तुत किये जाने पर न्यायालय ये कहा कि मृतक की ड्राइवर से जान-पहचान होने से वह बस में सवार हुआ था और उसकी मृत्यु का कारण ड्राइवर की अपेक्षा मृतक की अपनी असावधानी थी।
यदि वादी द्वारा किराये पर ली गयी टेक्सी किसी अन्य सवारी से भिड़ जाती और यह दुर्घटना दोनों सवारियों के ड्राइवरों की असावधानी से होती, तब ऐसे मामले में वादी दूसरी गाड़ी के ड्राइवर से नुकसानी नहीं प्राप्त कर सकता था क्योंकि किसी गाड़ी के ड्राइवर की असावधानी उसके यात्री की भी असावधानी समझी जाती थी। इस सिद्धान्त को ‘अभिन्नता का सिद्धान्त’ (Doctrine of Indenufication) कहा जाता था।
भारतीय कानून – भारत में ऐसा कोई परिनियम नहीं है की जिससे योगदायी उपेक्षा का दायित्व स्थापित किया जा सके| कॉमन विधि के नियम की भांति यहाँ के किसी भी नियम में वादी नुकसानी नहीं प्राप्त कर सकता|
योगदायी उपेक्षा के अपवाद
निम्नलिखित दशाओं में वादी के सम्बन्ध में योगदायी असावधानी का सिद्धान्त लागू नहीं होता है –
(i) जहाँ उचित कार्यों की कल्पना की जा सकती है
जहाँ वादी द्वारा उचित कार्य की कल्पना की जा सकती है, वहाँ योगदायी असावधानी का बचाव लागू नहीं होता है। किन्हीं परिस्थितियों में वादी अपनी ओर से अधिक मात्रा में सावधानी बरतने के लिए आबद्ध नहीं है। वह अपने द्वारा किये गये कार्य के उचित होने का विश्वास कर सकता है।
जहाँ वादी अपने भाई के साथ ट्रेन में यात्रा कर रहा हो, यात्रा के दौरान वादी ने अपने भाई को कोई वस्तु दिखाने के लिए खिड़की में लगे लोहे के सरियों पर हाथ रखा। खिड़की की चिटकनी बंद नहीं होने से वह खिड़की खुल गई और वादी गिर पड़ा।
यहाँ वादी के पास यह विश्वास करने का उचित कारण था कि रेलवे कर्मचारियों द्वारा गाड़ी चलाने से पूर्व सभी खिड़कियाँ एवं दरवाजे ठीक से बंद कर दिये होंगे वहां वादी से खिड़कियों एवं दरवाजों का परीक्षण करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती और वादी नुकसानी प्राप्त करने का अधिकारी है|
(ii) दुर्घटना रोकने का अंतिम अवसर
जहाँ कोई दुर्घटना रोकने का अंतिम अवसर वादी के हाथ में नहीं होकर प्रतिवादी के हाथ में हो, वहाँ भी अंशदायी असावधानी का बचाव लागू नहीं होता है।
उदहारण के लिए – ए अपने पालतू पशु की टाँगे बाँधकर उसे असावधानी से एक तंग गली में छोड़ देता है और बी तेज रफ्तार से अपनी गाड़ी में आ रहा था जिससे वह जानवर टकराने से क्षतिग्रस्त हो गया। ए द्वारा बी के खिलाफ नुकसानी का वाद दायर किया गया।
बी ने अपने बचाव में यह कहा कि ए की असावधानी से यह दुर्घटना कारित हुई थी। लेकिन यहाँ बी के अंशदायी असावधानी के इस बचाव को नहीं माना जा सकता क्योंकि यदि बी सावधानी से गाड़ी चलाता तो यह दुर्घटना टल सकती थी यानि इस प्रकार दुर्घटना को रोकने का अन्तिम अवसर बी के हाथ में था ।
(iii) जहाँ वादी संकट से बचने के लिए दूसरे संकटपूर्ण मार्ग का आश्रय लेता है
योगदायी उपेक्षा के बचाव का यह तीसरा अपवाद है। इसे ‘वैकल्पिक संकट का सिद्धान्त’ (Doctrine of Alternative danger) भी कहा जाता है।
इसके अनुसार – जहाँ प्रतिवादी ने अपने किसी कार्य से वादी को घोर संकट में डाल दिया हो, वहाँ यदि वादी उस संकट से बचने के लिए किसी दूसरे संकटपूर्ण मार्ग का आश्रय लेता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वादी ने जल्दबाजी करके असावधानी से इस संकट को आमंत्रित किया था।
उदाहरण के लिए – यदि भीषण आग के संकट से बचने के लिए वादी एकदम से पानी में कूद पड़ता है तो इसे स्वाभाविक कृत्य माना जायेगा।
जहाँ प्रतिवादी की असावधानी से घोड़ा गाड़ी अत्यधिक तेज रफ्तार से चलने लगी तब उसमें बैठा हुआ वादी अपने-आपको बचाने के लिए घोड़ा गाड़ी से कूदता है और जिससे वह घायल हो जाता है। वहां योगदायी उपेक्षा के बचाव के अपवाद को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ कि वादी द्वारा दो संकटों में से एक को चुनना स्वाभाविक एवं न्यायसम्मत था।
इसी तरह यदि एक पत्नी अपने पति को संकट से बचाने के लिए स्वयं संकट मोल लेती है तो भी इसे वादी की योगदायी उपेक्षा नहीं माना जायेगा।
मुख्य रूप से यही योगदायी उपेक्षा के बचाव के अपवाद है।
योगदायी उपेक्षा से सम्बंधित प्रकरण
यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम युनाइटेड इण्डिया इन्श्योरेन्स क. लि. (ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 640)
इसमें एक रेलवे क्रासिंग फाटक पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। फाटक पर रेलवे का कोई कर्मचारी नियुक्त नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने इसे रेलवे की उपेक्षा मानते हुए कहा कि रेलवे ऐसे मामलों में यात्रियों या राहगीरों की योगदायी उपेक्षा का बचाव नहीं ले सकती।
मलय कुमार गांगुली बनाम सुकुमार मुखर्जी (ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1162)
इस मामले में चिकित्सकों की लापरवाही के कारण एक महिला की मृत्यु हो गई। चिकित्सा के दौरासन उस महिला के पति ने चिकित्सा में हस्तक्षेप करते हुए कुछ सुझाव दिये। चिकित्सक ने इस हस्तक्षेप को पति की आंशिक लापरवाही बताते हुए बचाव लिया। उच्चतम न्यायालय ने पति के सुझाव के तौर पर हस्तक्षेप को उसकी योगदायी उपेक्षा नहीं माना।
विद्यादेवी बनाम मध्यप्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (ए.आई.आर. 1975 मध्यप्रदेश 80)
इस प्रकरण में मुख्य विचारणीय बिन्दु यह था कि क्या ऐसे व्यक्ति को नुकसानी पाने का अधिकार है जो स्वयं उपेक्षा का दोषी रहा हो और यदि हाँ तो किस सीमा तक? न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि ऐसे मामलो में नुकसानी की मात्रा दूसरे पक्षकार की उपेक्षा के अनुपात में तय की जायेगी। इस मामले में मोटर साइकिल चालक की उपेक्षा 2/3 तथा बस चालक की उपेक्षा 1/3 मानी गई और इसी अनुपात में नुकसानी का आदेश दिया गया।
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संदर्भ – बुक अपकृत्य विधि 22वां संस्करण (एम.एन.शुक्ला)