नमस्कार दोस्तों, इस लेख में मुस्लिम विधि के तहत मेहर क्या है? परिभाषा, मेहर के प्रकार एंव इसके उद्देश्य, विषय वस्तु तथा प्रकृति के बारे में बताया गया है| मुस्लिम विवाह में मेहर एक अनिवार्य तत्व है इसके बिना विवाह विधिमान्य नहीं होता है|
मेहर क्या है | What Is Dower
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत ‘मेहर’ विवाह की एक आवश्यक प्रसंगति है। मेहर के अभाव में विवाह को पूर्ण नहीं माना जाता है। यदि विवाह की संविदा में मेहर निश्चित नहीं किया गया है तो यह उपधारणा कर ली जाती है कि मेहर अनिवार्य रूप से देय है|
मेहर की परिभाषा –
सामान्यतया मेहर उस राशी या सम्पति को कहा जाता है जो मुस्लिम पति द्वारा अपनी पत्नी को सम्मान के रूप दिया जाता है|
मुल्ला के अनुसार – मेहर एक ऐसी धनराशि अथवा सम्पत्ति है जिसको पत्नी विवाह के प्रतिफल के रूप में पति से प्राप्त करने के लिए हकदार होती है। (Mahr or dower is sum of money or other property which the wife is entitled to receive from the husband in consideration of the marriage: Mulla’s Principles of Mahomedan Law, Note 285)
विल्सन के अनुसार – “मेहर पत्नी द्वारा शरीर के समर्पण का प्रतिफल है।”
सक्सेना के अनुसार – महर एक ऐसी सम्पत्ति है जो विवाह के पश्चात् पत्नी को अपने शरीर के समर्पण के लिए सम्मान के रूप में दी जाती है।
तैय्यबजी के अनुसार – मेहर को इस प्रकार व्यक्त किया गया है की महर विधि अथवा पक्षकारो के मध्य संविदा अनुसार विवाह उपरांत भुगतान की जाने वाली राशी है।
डॉ. एस.जंग के अनुसार – मेहर स्त्री के बुजा के उपयोग बदले में दिया जाने वाला प्रतिकर है।
फातिमा बीबी बनाम लाल दीन (ए.आई.आर. 1937 लाहौर 345) के मामले में मेहर की परिभाषा देते हुए यह कहा गया है कि – मेहर एक ऐसी कीमत है जो विवाह की संविदा में, पत्नी को जिसे सम्पत्ति माना जाता है, प्रतिफलस्वरूप दी जाती है।
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मेहर के प्रकार | types of dower
मेहर मुख्यतः दो तरह का होता है
(1) उचित मेहर –
इसे Mehr-e-Misl के नाम से भी जाना जाता है। विवाह के समय मेहर की राशि निर्धारित नहीं होने की दशा में पत्नी उचित महर पाने की हकदार होती है।
ऐसी राशि का निर्धारण करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए –
(क) पति की आर्थिक स्थिति
(ख) पत्नी का स्तर
(ग) पत्नी के पैतृक परिवार की स्त्रियों द्वारा ली गई महर की राशि (हिदाया, 45, 53 बेली 1.92.95)
(घ) परिवर्ती सामाजिक परिस्थितियाँ, आदि
रिवाज़ी मेहर – शिया विधि में अधिकतम सीमा 500 दिरहम है तथा सुन्नी विधि में रिवाज़ी महर की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है।
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(2) निश्चित मेहर –
इसे Mehr-e-Musa / Mehr-e-Tafweez के नाम से भी जाना जाता है। निश्चित अथवा विनिर्दिष्ट महर से अभिप्राय ऐसे मेहर से है जो विवाह के समय पति द्वारा सुनिश्चित किया जाता है कि विवाह संपन्न के बाद कितनी राशी पति द्वारा पत्नी को दी जाएगी। ऐसी राशि पति की हैसियत अथवा साधनों से परे भी हो सकती है। यह राशि ऐसी भी हो सकती है कि इसके संदाय के पश्चात् उत्तराधिकारियों के लिए कुछ भी नहीं बचे। यह महर लिखित या मौखिक भी हो सकता है|
निश्चित महर की राशि का निर्धारण निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए –
(क) पति एवं पत्नी का स्तर,
(ख) पति की तलाक देने की निरंकुश शक्ति,
(ग) पत्नी के परिवार की स्थिति
(घ) उसका बौद्धिक स्तर
(ङ) वैयक्तिक पसन्द
(च) पति की आर्थिक स्थिति
(छ) परवर्ती परिस्थितियाँ एवं सामाजिक दशायें।
शिया विधि के अंतर्गत अगर अवयस्क (Minor) का विवाह अभिभावक द्वारा संपन्न कराया जाता है तो पति के असमर्थ होने पर महर के भुगतान के लिए अभिभावक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होंगे।
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निश्चित मेहर दो प्रकार का होता है –
(क) तात्कालिक मेहर Mu – ajjal / Prompt Dower –
ऐसा महर जो विवाह के पश्चात् पत्नी की मांग पर तत्काल देय होता है। इस महर की मांग विवाह के पश्चात् पत्नी द्वारा कभी भी की जा सकती है। यदि पति मेहर की राशि का संदाय नहीं करता है तो पत्नी पति को सहवास से इन्कार कर सकती है।
(ख) आस्थगित मेहर Mu – vajjal / Deferred Dower –
ऐसा महर जो पत्नी की मांग पर देय नहीं होकर मृत्यु अथवा तलाक द्वारा विवाह के विघटन पर देय होता है। (Deferred dower is payable on dissolution of marriage by death or divorce. Mulla’s Principles of Mahomedan Law. Note 290)
पत्नी विवाह के विघटन से पूर्व इस महर की मांग नहीं कर सकती है, लेकिन पति यदि चाहे तो इसे तात्कालिक महर मानकर इसका कभी भी भुगतान कर सकता है।
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उदाहरण – पत्नी व पति के बीच यह तय होता है कि जैसे ही पति दूसरा विवाह करेगा उसे तुरंत महर का भुगतान करना पड़ेगा। मृत्यु या विवाह विच्छेद या एग्रीमेंट के द्वारा किसी निश्चित घटना के घटित होने से पूर्व पत्नी इस प्रकार के महर की मांग नहीं कर सकती है। लेकिन पति ऐसा मेहर पत्नी को इन घटनाओं से पूर्व प्रदान कर सकता है।
कुरान के अनुसार विवाह मै पत्नी को “कुबेर पर्वत के बराबर सोना भी यदि मेहर में दिया जाये तो कम है।” पैगम्बर मोहम्मद साहब के अनुसार “कुरान की शिक्षा दिया जाना भी पर्याप्त मेहर है।”
विल्सन के अनुसार – दो मुट्ठी खजूर और एक जोड़ी जूता भी पर्याप्त महर हो सकता है।”
केस – शेख मोहम्मद बनाम आयशा बीबी (1938 मद्रास 609)
कई बार विवाह के समय यह सुनिश्चित नहीं किया जाता है कि महर तात्कालिक होगा या आस्थगित अथवा कितना तात्कालिक होगा और कितना आस्थगित, तब मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार सम्पूर्ण मेहर तात्कालिक माना जायेगा, चाहे पक्षकार सुन्नी हो या शिया।
केस – हुसैन खां बनाम गुलाब खातून (1911) 35 बम्बई 386
जहाँ मेहर का एक भाग तात्कालिक एवं दूसरा भाग आस्थगित हो लेकिन दोनों की राशि सुनिश्चित नहीं की गई हो, वहाँ बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार सुन्नी विधि के अन्तर्गत न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह सम्पूर्ण महर की राशि को तात्कालिक मान लें।
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मेहर की विषय वस्तु –
(i) धनराशी या भूमि अथवा ईमारत के रूप में देय
(ii) अन्न / व्यापार किये जाने वाला सामान के रूप में देय
(iii) वस्तु/पशु विशेष के रूप में देय
(iv) कुरान की शिक्षा के रूप में देय
(v) अगले वर्ष की फसल नहीं दे सकते
(vi) जो वास्तु या सामान मुस्लिम के लिए हराम हो नहीं दे सकते
(vii) पति द्वारा दी जाने वाली सेवाएँ नहीं दे सकते|
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मेहर के उद्देश्य
(i) पति के विवाह करने की स्वच्छन्दता पर रोक लगाना
(ii) पत्नी को उसके शरीर के समर्पण के बदले सम्मान स्वरूप राशि प्रदान करना।
मेहर की प्रकृति
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत महर को एक ‘ऋण’ (Debt) माना गया है। अपने पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा पत्नी अपनी महर की राशि को अपने पति की सम्पति से अन्य लेनदारों की तरह वसूल कर सकती है।
लेकिन यह ऋण एक ‘असुरक्षित प्रकृति का ऋण’ (Unsecured debt) होता है। यदि मृतक पति की सम्पति विधवा पत्नी के कब्जे में है तो वह उसे तब तक अपने कब्जे में रख सकती है जब तक कि महर की राशि का भुगतान नहीं कर दिया जाता। [बीबी बचून बनाम शेख हमीद (1871) 14 एम.आई.ए. 377]
न्यायमूर्ति महमूद ने अब्दुल कादिर बनाम सलीम के वाद में विवाह और महर की तुलना विक्रय की संविदा और प्रतिकर से करते हुए यह कहा कि –
“विक्रय की संविदा से तुलना करके महर को दाम्पत्य समागम के लिये प्रतिकर समझा जा सकता है। जब तक मेहर का भुगतान न किया जाये तब तक पति का प्रतिरोध करने का पत्नी का अधिकार, मूल्य के बिना पूरा या आंशिक भुगतान पाये हुए विक्रेता के कब्जे में पड़े हुए माल पर विक्रेता के धारणाधिकार के सदृश है और उसका पति को समर्पण करना क्रेता को माल सौंपने के तुल्य है।”
फतवा काजी खाँ (मुस्लिम विधि का ग्रन्थ) के अनुसार –
महर विवाह का आवश्यक भाग है, यदि विवाह की संविदा के समय उसका उल्लेख न हो, तो भी विधि स्वत: संविदा के आधार पर उसकी पूर्वधारणा कर लेगी। यदि विवाह से पहले स्त्री अपने महर के अधिकार के त्याग का करार करे या मेहर के ही बिना विवाह करने के लिये तैयार हो, तो ऐसा करार (विवाह) या सहमति अमान्य होगी।
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