इस लेख में हम बात करेंगे साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1)  में वर्णित मृत्युकालिक कथन (Dying Declaration) की, जिसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अध्याय 2 (तथ्यों की सुसंगति के विषय में) में सुसंगत एंव ग्राह्य तथ्य के रूप में स्वीकार किया गया है|

इसके साथ ही इस लेख में मृत्यु पूर्व घोषणा और इससे सम्बंधित नियम क्या है तथा क्या मृत्युकालिक कथन अपनी प्रमाणिकता खो रहा है का भी उल्लेख किया गया है, उम्मीद है कि यह लेख आपको जरुर पसंद आऐगा –

मृत्युकालिक कथन परिचय –

जब भी कोई अपराध होता है तो वह अपराध हमेशा दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य होता है,  जो यह जानते है कि हकीकत में क्या हुआ था, यानी उस अपराधिक कार्य में जो अपराध करता है वह अभियुक्त (दोषी) तथा जो अपराध का शिकार होता है, वह परिवादी (पीड़ित) होता है| इस तरह किसी भी आपराधिक कार्य में हमेशा दो पक्ष होते है जिन्हें उस घटना का सम्पूर्ण ज्ञान होता है|

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भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के अन्तर्गत ऐसे व्यक्तियों के कथन चाहे वे मौखिक हो या लिखित,  सुसंगत माने गये है तथा प्रकरण में ग्राह्य है, जो –

(1) मर चुके हैं, या

(2) मिल नहीं सकते हैं, या

(3) साक्ष्य देने में असमर्थ हो गये हैं, या

(4) जिनकी हाजरी इतने विलम्ब या व्यय के बिना उपाप्त (procure)  नहीं की जा सकती जितना मामले की परिस्थितियों में न्यायालय को अयुक्तियुक्त प्रतीत होती है।

अधिनियम के खण्ड (1) में मृत्युकालिक कथन (Dying declaration) के बारे में प्रावधान है, जिसका वर्णन इस लेख में किया गया है –

मृत्युकालिक कथन से तात्पर्य – “उस व्यक्ति के कथन है जो कि मृत्यु शैय्या पर है”|

संत गोपाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में यह कहा गया है कि – मृत्युकालिक कथन से तात्पर्य उस व्यक्ति के लिखित या मौखिक सुसंगत कथनों से है जो मर चूका है|

धारा 32 के अनुसार – “किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया ऐसा कथन, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई और मामले में उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है, मृत्युकालिक कथन कहलाता है|

मृत्युकालिक कथन या घोषणा क्या है ? –

इसकी परिभाषा साक्ष्य अधिनियम में नहीं दी गई है, लेकिन धारा 32 के अध्ययन से पता चलता है कि–

मृत्युकालिक कथन से अभिप्राय ऐसे कथन से हैं जो किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में किया जाता है या संव्यवहार की परिस्थितियों में से किसी के बारे में, जिसके परिणाम स्वरूप उसकी मृत्यु हुई है, किया जाता है।

इस प्रकार मृत्युकालिक कथन किसी ऐसे व्यक्ति का लिखित या मौखिक कथन है जो मर गया है,  तथा जिसने अपने कथन में अपनी मृत्यु के कारणों को बताया है या उन परिस्थितियों को बताया है जिनमे उसकी मृत्यु हुई है और ऐसे कथन करते समय उसे मृत्यु की आंशका रही हो या नहीं हो

आंग्ल विधि में मृत्युकालिक कथन के लिए निम्न बातें आवश्यक है –

(क) कथन करने वाला व्यक्ति मृत्यु शैय्या पर हो,

(ख) उसे इस बात की युक्तियुक्त आशंका हो गई हो कि उसकी मृत्यु सन्निकट है, या

(ग) वह जीवन की आशा से पूर्णतया निराश हो गया हो, तथा

(घ) ऐसे कथन के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई हो।

भारत में कुल मिलाकर चौथी शर्त का पूरा होना आवश्यक है। यहाँ मृत्यु की आशंका होना जरुरी नहीं है।

मृत्युकालिक घोषणा कब सुसंगत एंव ग्राह्य होगी

साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 खण्ड (1) के अनुसार – जब किसी मामले में किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत हो जाता है तो मृत व्यक्ति का कथन जिसे उसने अपनी ‘मृत्यु के कारण के विषय में या जिन परिस्थितियों के परिणाम उसकी मृत्यु हुई है’ उसके विषय में किया गया है, इस धारा के तहत सुसंगत एंव ग्राह्य होगा|

धारा 32 खण्ड (1) में यह स्पष्ट है कि – ऐसा कथन सुसंगत होगा, चाहे कथन के समय, कथन करने वाले को अपनी ‘मृत्यु की प्रत्याशंका (Expectation of death)’ भी न रही हो और चाहे उस कार्यवाही की प्रकृति कैसी भी रही हो।

इस प्रकार किसी अनुपस्थित व्यक्ति का कथन तब साबित किया जा सकता है, जब वह उसकी मृत्यु के कारण के बारे में था या संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया था, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुईऔर मामले में उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है।

इस सम्बन्ध में दृष्टान्त (क) महत्वपूर्ण है जिसमें यह कहा गया है कि,जहाँ प्रश्न यह हो कि क्या ‘क’ की हत्या ‘ख’ द्वारा की गई थी अथवा ‘क’  की मृत्यु किसी संव्यवहार में हुई क्षतियों से हुई है जिसकेअनुक्रम में उससे बलात्संग किया गया था।

प्रश्न यह है कि क्या उससे ‘ख’  द्वारा बलात्संग किया गया था अथवा प्रश्न यह हो कि क्या क’, ‘ख’ द्वारा ऐसी परिस्थितियों में मारा गया था कि ‘क’ की विधवा द्वारा ‘ख’ पर वाद लाया जा सकता है। अपनी मृत्यु के कारण के बारे में ‘क’ द्वारा किये गये वे कथन जो उसने क्रमशः विचाराधीन हत्या, बलात्संग और अनुयोज्य दोष को निर्देशित करते हुए किये है, सुसंगत तथ्य है।

इस सम्बन्ध में पकाला नारायण स्वामी बनाम एम्परर का एक प्रकरण है, इसमें 20 मार्च 1937 को मृतक कुर्रीनकुराजू ने अपनी पत्नी से यह कहा था कि वह बहरामपुर जा रहा है, क्योंकि अभियुक्त-अपीलार्थी की पत्नी ने उसे अपनी बकाया राशि प्राप्त करने के लिए बुलाया है। 21 मार्च, 1937 को नकूराजू बहरामपुर के लिए रवाना हो गया। 23 मार्च, 1937 को मृतक नकूराजू का शव क्षतिग्रस्त अवस्था में एक सन्दूक में मिला जो रेलगाड़ी के एक डिब्बे में पड़ा था। यह सन्दूक अपीलार्थी के लिए खरीदा गया था।

प्रिवी कौंसिल ने मृतक द्वारा अपनी पत्नी को कहे गये उन कथनों को मृत्युकालिक कथन के रूप में साक्ष्य में ग्राह्य माना कि “वह अपीलार्थी की पत्नी के बुलावे पर बहरामपुर जा रहा है”, क्योंकि इससे संव्यवहार की उन परिस्थितियों का पता चलता है।जिसके फलस्वरूप मृतक नकूराजू की मृत्यु हुई थी। (ए.आई. आर. 1939 पी.सी.47)

इसी तरह धरमपाल बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के मामले में कहा गया कि, – जहाँ स्वयं मृतक ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई हो, वह रिपोर्ट उसे पढ़कर सुना दी गई हो तथा उस पर उसकी अंगूठा निशानी कराई हो, वहाँ ऐसी रिपोर्ट को मृत्युकालीन घोषणा माना जा सकता है। (ए.आई. आर. 2008एस.सी. 920)

मृत्युकालिक कथनों की  ग्राह्यता के लिए आवश्यक शर्ते 

(1) कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाना –

धारा 32 (1) की प्रयोज्यता की यह प्रथम शर्त है – कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाना।यदि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती है तो उसके कथन मृत्युकालीन घोषणा के रूप में सुसंगत नहीं होंगे। ऐसे कथनों को साबित करने के लिए उसे स्वयं न्यायालय में उपस्थित होना होगा।

फिर यदि कोई कथन उस व्यक्ति की मृत्यु के कारण सुसंगत हुआ है तो यह साबित करना होगा कि वह व्यक्ति मर चुका है या जीवित नहीं है।

मणिबेन बनाम स्टेट ऑफ गुजरात के मामले में कहा गया है कि – मृत्युकालीन घोषणा की ग्राह्यता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मृत्यु ऐसी घोषणा के शीघ्र बाद हो जाये। कुछ दिनों बाद मृत्यु होने मात्र के आधार पर ऐसे कथनों को खारिज नहीं किया जा सकता। (ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1932)

(2) कथन का मृत्यु के कारणों से सम्बन्धित होना –

ऐसे कथनों का मृत्यु के कारणों से सम्बन्धित होना जरुरी है, यदि कथनों का मृत्यु के कारणों से सम्बन्ध नहीं है तो वे साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होंगे।

जयेन्द्र सरस्वती स्वामी गल बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु के मामले में कहा गया है कि – मृत्युकालीन घोषणा की ग्राह्यता के लिए मृतक के कथनों का मृत्यु के कारणों अथवा संव्यवहार की ऐसी परिस्थितियों से जिसका परिणाम मृत्यु रहा, से सम्बन्धित होना आवश्यक है। (ए.आई. आर. 2005 एस. सी. 716)

उदाहरण – एक मामले में एक लड़की के साथ बलात्कार किया गया था। बलात्कार के तुरन्त बाद उसने अपने शरीर में आग लगाकरआत्म हत्या कर ली। इसमें बलात्कार के सम्बन्ध में किये गये कथनों को सुसंगत नहीं माना गया, क्योंकि बलात्कार मृत्यु का कारण नहीं था। (नारायण सिंह का मामला, ए.आई. आर. 1962 एस.सी. 237)

इसी तरह एक अन्य मामला जिसमें एक स्त्री के साथ बलात्कार किया गया था। बलात्कार के तीन दिन पश्चात् उस स्त्री ने आत्म हत्या कर ली।इसमें बलात्कार के सम्बन्ध में किये गये कथनों को सुसंगत नहीं माना गया, क्योंकि उसका मृत्यु से कोई सम्बन्ध नहीं था। (कापेवियाह का मामला, ए.आई. आर. 1932 मद्रास233)

(3) संव्यवहार की परिस्थितियाँ ऐसी होना जिसका परिणाम मृत्यु रहा हो –

धारा 32 (1) की प्रयोज्यता की तीसरी शर्त है – कथन का संव्यवहार की ऐसी परिस्थितियों से सम्बन्धित होना जिसका परिणाम मृत्यु हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि कथन संव्यवहार की ऐसी परिस्थितियों से सम्बन्धित है जिसके परिणामस्वरूप कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो तो वह साक्ष्य में ग्राह्य होगा।

एक मामले में एक घर में कारित डकैती में एक स्त्री को चोटें आती हैं। मृत्यु से पूर्व वह उन परिस्थितियों का कथन करती है जिसमें डकैती हुई। उसके इस कथन को साक्ष्य में ग्राह्य माना गया, यद्यपि उसकी मृत्यु का कारण डकैती नहीं था, अपितु डकैती के दौरान कारित चोटें थीं। (दानूसिंह का मामला, ए.आई.आर. 1925 इलाहाबाद227)

(4) मृत्यु का प्रश्न विचाराधीन होना –

धारा 32 (1) की प्रयोज्यता की यह चौथी शर्त है – विचाराधीन कार्यवाही में कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु का प्रश्नगत होना।सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कार्यवाही ऐसी होनी चाहिए जिसमें कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु का प्रश्न विचाराधीन हो। कार्यवाही सिविल या दाण्डिक कैसी भी हो सकती है। इस प्रकार उपरोक्त परिस्थितियों में मृत्युकालीन घोषणा के कथन साक्ष्य में सुसंगत होते है।

(5) मृत्युकालिक कथन पूर्ण होने चाहिए –

मृत्युकालिक कथनों का पूर्ण होना आवश्यक है, मृतक व्यक्ति द्वारा किया गया अपूर्ण कथन साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होता है| जबकि हत्या के प्रकरण में मृतक द्वारा किया गया यह कथन कि उसे गोली से मारा गया है, अपने आप में पूर्ण है भले ही वह अन्यथा अपूर्ण हो|

मृत्युकालिक घोषणा की विश्वसनीयता का परीक्षण (टेस्ट ऑफ़ रिलियाबिलिटी)

मृत्युकालिक कथन को एक कमजोर प्रकृति का साक्ष्य माना गया है लेकिन यह कोई निरपेक्ष नियम नहीं है, मृत्युकालीन घोषणा प्रत्येक मामले के तथ्यों एंव परिस्थितयों पर निर्भर करती है कि उसे ग्राह्य किया जाए या नहीं|

अनेक बार यह कहा जाता है कि मृत्युकालीन घोषणा के कथन अपनी विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता खो चुके है।कई बार यह भी प्रश्न उठता है कि क्या मात्र ऐसे कथनों के आधार पर किसी अभियुक्त को दोष सिद्ध किया जा सकता है?

ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें यह निर्धारित किया गया है कि यदि मृत्युकालीन घोषणा के कथनों की सत्यता पर न्यायालय को पूर्णरूप से विश्वास हो जाता है तो मात्र इस आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकता है।

लालूघोष बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल के मामले में यह कहा गया है कि – मृत्युकालीन घोषणा के कथनों की प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के कथनों से अभिपुष्टि होने पर अभियुक्त को उसके आधार पर दोषसिद्ध किया जा सकता है। (ए.आई.आर. 2019 एस.सी.1058 )

दर्शन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में भी यह कहा गया है कि – मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि के लिए कथनों का इतना अन्तः विश्वसनीय (Inspire confidence) होना अपेक्षित है जिस पर पूर्णरूप से भरोसा किया जा सके। (ए.आई. आर. 1983 एस.सी.554)

ठीक ऐसा ही मत स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम संजयडी राजहंस के मामले में व्यक्त किया गया है कि – “Dying declaration should be of such nature as to inspire full confidence” अर्थात मृत्युकालीन घोषणा इस प्रकृति की होनी चाहिए कि उस पर पूर्णरूप से विश्वास किया जा सके। (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 97)

एक मामले में चिकित्सकीय रिपोर्ट में एक स्थान पर दुर्घटनावश जल जाने के निशान बताये गये तो दूसरे स्थान पर स्वयं द्वारा जल जाने के सुझाव के तौर पर किये गये प्रश्नों के उत्तर में मृत्युकालीन घोषणा के कथनों में यह कहा गया कि दहेज की माँग से तंग आकर उसने अपने पर केरोसीन डालकर आग लगा ली। ऐसे कथनों को सन्देहास्पद मानते हुए साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया गया।  (शेख महबूब बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्रए. आई. आर. 2005 एस.सी. 1805)

जहाँ मृत्युकालीन घोषणा के कथनों की अन्य साक्ष्य से पुष्टि हो रही हो वे साक्ष्य में सुसंगत माने गये हैं। लेकिन ऐसी मृत्युकालीन घोषणा को साक्ष्य में ग्राह्य नहीं माना गया है जिस पर न तो तिथि अंकित की गई और न ही समय तथा मृतक के हस्ताक्षर भी नहीं कराये गये और न इसका स्पष्टीकरण दिया गया। (स्टेटऑफ उत्तर प्रदेश बनाम शिशुपाल सिंह, ए.आई. आर. 1994 एस.सी. 129)

ऑग्ल विधि से भिन्नता –

मृत्युकालिक कथन के सम्बन्ध में भारतीय विधि एवं आंग्ल विधि में भिन्नता है।आंग्ल विधि में मृत्युकालीन घोषणा के कथनों के लिए यह आवश्यक है कि वे उस समय किये गये हो जब कथन करने वाले व्यक्ति को मृत्यु की युक्तियुक्त आशंका हो गई हो जबकि भारतीय विधि में यह आवश्यक नहीं है।

भारतीय विधि में जो कुछ आवश्यक है, वह है – कथन करने के पश्चात् उसे करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाना।

बी. शशिकला बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्रप्रदेश के मामले में कहा गया है कि – “मृत्युकालीन घोषणा के कथनों की ग्राह्यता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे मृत्यु की आशंका के समय किये गये हो।”(ए.आई. आर. 2004 एस.सी. 616)

 

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संदर्भ – भारतीय साक्ष्य अधिनियम 17वां संस्करण (राजाराम यादव)