नमस्कार दोस्तों, इस लेख में मुस्लिम विधि के तहत मुस्लिम विवाह क्या है | परिभाषा, इसके आवश्यक तत्व तथा शिया एंव शुन्नी शाखा में विवाह कितने प्रकार के होते है ओर इनके विधिक परिणाम क्या है के बारे में बताया गया है| मुस्लिम विवाह एक महत्वपूर्ण विषय है जो हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है|
मुस्लिम विवाह क्या है?
मुस्लिम समुदाय मै विवाह को निकाह के नाम से जाना जाता है| निकाह अरबी का शब्द है, इसका तात्पर्य स्त्री और पुरुष का आपसी सहमति से सम्भोग और सन्तानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करना है। इस्लाम से पूर्व अरब में विवाह (निकाह) का अर्थ पुरुष व महिला के बीच यौन संबंध से था जो कुछ शर्तो पर आधारित होता था।
मुस्लिम विधि में विवाह को सिविल संविदा माना जाता है और मुस्लिम विवाह की संविदा किसी को भी उसके व्यक्ति या संपत्ति पर कानून की परिभाषा से परे कोई अधिकार नहीं देता है।
महिला अपने निजी अधिकारों की पूर्ण रूप से स्वामी होती है, वह शादी के बाद भी बिना किसी नियंत्रण के स्वतंत्र रूप से अपने अधिकार की संपत्ति या अन्य किसी भी वस्तु को अन्यत्र स्थानांतरित कर सकती है।
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मुस्लिम विवाह की परिभाषा
मुस्लिम समुदाय में विवाह को निकाह कहा जाता है, जिसका अर्थ दो विपरीत लिंगो का मिलन है अथवा दो विपरीत लिंग (पुरुष व महिला) के बीच एक ऐसी स्थायी संविदा की जाती है जो आपसी सहमति व स्वतंत्र इच्छा से संभोग एवं संतानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करती है।
बेली (Baillie) के अनुसार – विवाह अर्थात् निकाह दो विपरीत लिंग वाले व्यक्तियों के बीच एक स्थायी एवं सम्पूर्ण ऐसी सिविल संविदा है जो तत्काल प्रभाव में आ जाती है तथा जिसका उद्देश्य आपसी संभोग एवं संतानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करना है।
मुस्लिम महिला तलाक अधिनियम 1986 पर अधिकारों का संरक्षण की धारा 2 के तहत – मुस्लिम के बीच विवाह या निकाह एक पुरुष और महिला के बीच एक ” गंभीर समझौता ” या ” मिथक-ए-ग़लिद ” है, जो एक दूसरे के जीवन साथी की याचना करता है, जो कानून में है अनुबंध का रूप ले लेता है।
मुल्ला के अनुसार – मुस्लिम विवाह एक संविदा है जिसका उद्देश्य सम्भोग और सन्तानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करना है। इस प्रकार विवाह का उद्देश्य सम्भोग और सन्तानोत्पत्ति को वैधता प्रदान कर सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करना है।
हिदाया (Hedaya) के अनुसार – विवाह एक ऐसी विधिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा स्त्री एवं पुरुष के बीच समागम, सन्तानोत्पत्ति एवं धर्मजत्व को पूर्णरूपेण वैध बनाया जाता है।
अमीर अली के अनुसार – विवाह एक ऐसी संस्था है जिसका उद्भव समाज की रक्षा के लिए हुआ है। इसका उद्देश्य मानव समुदाय को निकृष्टता एवं ‘भ्रष्टता से बचाना है।
डॉ. जंग के के अनुसार भी – मुस्लिम विवाह मुख्य रूप से एक संविदा होते हुए भी एक श्रद्धात्मक कार्य भी है जिसका उद्देश्य संभोग एवं सन्तानोपत्ति का अधिकार तथा सामाजिक हित के लिए सामाजिक जीवन का नियमन है।
प्रिवी काउंसिल ने शोहरत सिंह बनाम जाफरी बेगम के मामले में कहा कि मुस्लिम कानून के तहत निकाह (शादी) एक धार्मिक समारोह है क्योंकि इसमें पवित्र कुरान की आयतें पढ़ी जाती है|
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मुस्लिम विवाह के प्रकार
मुस्लिम कानून में निम्नाकित मुस्लिम विवाह सम्पन्न होते है
(i) निकाह
निकाह एक स्थायी विवाह है। निकाह मै दो वकीलों द्वारा वर और वधु की सहमति लेने के बाद उनके विवाह रजिस्टर पर हस्ताक्षर करवाने के पश्चात काजी (मौलवी) द्वारा निकाह को अरबी मे पढ़ा संपन्न किया जाता है।
(ii) मुताह
मुत्ता का शाब्दिक अर्थ अस्थाई होता है, मुत्ता विवाह मै किसी व्यक्ति का विवाह मुस्लिम स्त्री के साथ अस्थाई होता है, इसमें निश्चित होता है| मुत्ता विवाह मै विवाह की अवधी व मेहर की राशी निश्चित होना आवश्यक है| शिया मुसलमानों मे मुत्ता विवाह का रिवाज है तथा सुन्नी केवल निकाह मे ही विश्वास रखते है। यह एक निश्चित अवधि जैसे एक दिन, एक सप्ताह, एक साल या इससे अधिक समय के लिए होता है।
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सुन्नी शाखा के अनुसार
सुन्नी शाखा में मुख्यतः तीन प्रकार के मुस्लिम विवाह होते है
मान्य विवाह (Valid marriage)
मान्य विवाह को ‘वैध विवाह’ अथवा ‘सही विवाह’ भी कहा जाता है। ऐसे विवाह जो विधिमान्य विवाह की समस्त शर्तो को पूरा कर सम्पन्न किया जाता है सही विवाह कहलाता है| विधिमान्य मुस्लिम विवाह की शर्ते –
(i) पक्षकार वयस्क एवं स्वस्थचित हो,
(ii) पक्षकारों द्वारा स्वतंत्र सम्मति प्रदान करना
(iii) एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव देना तथा दूसरे पक्षकार द्वारा स्वीकृति देना
(iv) प्रस्ताव एवं स्वीकृति एक बैठक मै होना
(v) गवाह उपस्थित होना
(vi) विवाह निषिद्ध आसत्तियों के भीतर नहीं होना।
शून्य विवाह (Void marriage)
शून्य विवाह को ‘अवैध’ अथवा ‘बातिल विवाह’ भी कहा जाता है| ऐसा विवाह जो निषिद्ध आसत्तियों के भीतर किया गया हो ‘बातिल विवाह’ कहलाता है। निषिद्ध आसत्तियों से अभिप्राय ऐसी स्त्रियों से है जिनके साथ किसी पुरुष द्वारा विवाह नहीं किया जा सकता है। इसमें तीन प्रकार के सम्बन्ध आते हैं –
(i) रक्त-सम्बन्ध
(ii) विवाह-सम्बन्ध
(iii) धात्रेय-सम्बन्ध।
इन्हें ‘स्थायी प्रतिषेध’ (Absolute Prohibition) भी कहा जाता है।
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अमान्य विवाह (Irregular mariage) –
अमान्य विवाह को ‘फासिद विवाह’ कहा जाता है। फासिद विवाह के तत्व निम्न है –
(i) गवाहों की अनुपस्थिति में किया गया विवाह
(ii) पांचवीं पत्नी के साथ किया गया विवाह
(iii) एक ही समय में एक से अधिक पति के साथ किया गया विवाह
(iv) इद्दत की अवधि के दौरान किया गया विवाह
(v) किसी अन्य धर्म की स्त्री के साथ किया गया विवाह
(vi) अवैध संभोग वाला विवाह
(vii) गर्भवती स्त्री से विवाह
(viii) हज (तीर्थ) यात्रा के दौरान किया गया विवाह
(ix) तलाक के पश्चात् किया गया पुनर्विवाह आदि।
इन तत्वों को ‘अस्थायी प्रतिषेध’ (Relative Prohibitions) भी कहा जाता है। इन अस्थायी प्रतिषेधों को कुछ औपचारिकताओं के पूर्ण होने पर दूर किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए पांचवीं पत्नी के साथ किया गया विवाह उस समय ‘मान्य हो जाता है जब प्रथम चार पत्नियों में से किसी एक को तलाक दे दिया जाता है या उसके साथ विवाह-विच्छेद हो जाए।
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शिया शाखा के अनुसार
शिया शाखा में मुख्यतः दो तरह के विवाह होते है
(i) मान्य विवाह (ii) शून्य विवाह।
शिया शाखा में अमान्य विवाह का प्रचलन नहीं है और न ऐसे विवाहों को मान्यता प्रदान की जाती है। इसमें विवाह या तो मान्य होता है या फिर शून्य।
मुस्लिम विवाह के आवश्यक तत्व
मुस्लिम विवाह के कुछ आवश्यक तत्व निम्नलिखित है
(1) पक्षकारों का सक्षम होना
विवाह में के पक्षकारों का सक्षम होना आवश्यक है। सक्षमता से तात्पर्य दोनों पक्षकारों का –
(i) मुसलमान होना,
(ii) वयस्क होना, एवं
(iii) स्वस्थचित्त होना।
वयस्क के लिए दोनों पक्षकारों का 15 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेना है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 1929 के अन्तर्गत यह आयु मान्य नहीं है लेकिन मुस्लिम समाज में व्यवहार की दृष्टि से इसी आयु को वयस्कता की आयु माना जाता रहा है।
हिदाया के अनुसार विवाह के लिए वयस्क के रूप मै पुरुष की 12 वर्ष व स्त्री की 9 वर्ष आयु है।
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(2) प्रस्ताव एवं स्वीकृति
मुस्लिम कानून मै विवाह के लिए प्रस्ताव व स्वीकृति का पूरा किया जाना आवश्यक है। इसमें एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव (Proposal) रखा जाता है एवं दूसरा पक्ष इस प्रस्ताव को स्वीकार (Acceptance) करता है। इसे ‘इजब-ओ-कबूल’ भी कहा जाता है।
प्रस्ताव एवं स्वीकृति का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। प्रस्ताव और स्वीकृति इतनी स्पष्ट होनी चाहिए कि दोनों पक्षकारों के मध्य दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने का आशय प्रकट हो जाये। (मुस. जैनवा बनाम अब्दुल रहमान, ए.आई.आर. 1945 पेशावर 51)
यदि विवाह में का कोई पक्षकार वयस्क अथवा स्वस्थचित्त नहीं हैं तो उसकी ओर से उसके संरक्षक द्वारा विवाह के प्रस्ताव एवं स्वीकृति की औपचारिकता पूरी की जा सकती है।
(3) एक बैठक
विधिमान्य विवाह के लिए एक बैठक का होना जरुरी है जिसमें प्रस्ताव एवं स्वीकृति की औपचारिकताओं को पूरा किया जाता है। यदि दोनों के बीच अन्तराल हो जैसे प्रस्ताव एक बैठक में रखा जाता है और स्वीकृति दूसरी बैठक में दी जाती है तो वह विधिमान्य विवाह नहीं होगा।
लेकिन वर्तमान मै पत्र व्यवहार, ऑनलाइन से भी प्रस्ताव एवं स्वीकृति की औपचारिकता पूरी की जा सकती है। इसके लिए प्रस्ताव एवं स्वीकृति की औपचारिकता को उपयुक्त समय में पूरा किया जाना अनिवार्य है।
जैसे विवाह में के किसी पक्षकार को प्रस्ताव का पत्र मिलता है और पत्र पढ़ते ही स्वीकृति का पत्र डाक में डाल दिया जाता है तब उसे विधिमान्य विवाह माना जायेगा।
(4) स्वतंत्र सम्मति
विवाह के लिए स्वतंत्र सम्मति (Free consent) का होना जरुरी है। बिना स्वतंत्र सम्मति का विवाह विधिमान्य नहीं है और ऐसी स्वतंत्र सम्मति झूठ, कपट, फरेब, धमकी, मिथ्या व्यपदेशन आदि से मुक्त होनी चाहिए।
अब्दुल लतीफ बनाम नियाज अहमद के मामले में कहा गया है कि कपट अथवा मिथ्या व्यपदेशन के आधार पर अभिप्राप्त सम्मति से किया गया विवाह तब तक मान्य नहीं होगा जब तक कि उसका अनुसमर्थन नहीं कर दिया जाता। [(1909) 31 इलाहाबाद 343]
यदि अवयस्क की ओर से उसके संरक्षक द्वारा सम्मति प्रदान की जाती है तब उसके वयस्क होने पर उस विवाह का अनुसमर्थन किया जाना आवश्यक है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि सम्मति अभिव्यक्त अथवा विवक्षित (Express or implied) हो सकती है। जैसे मुस्कराना, हंसना, चुप रहना आदि स्वतंत्र सम्मति के उदाहरण हैं।
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(5) साक्षियों की उपस्थिति
मुस्लिम कानून मै विवाह के समय दो साक्षियों (गवाहों) की उपस्थिति आवश्यक है। साक्षियों का मुसलमान होना अपेक्षित है। अंधा एवं गूंगा व्यक्ति गवाह हो सकता है लेकिन बहरा व्यक्ति सक्षम गवाह नहीं हो सकता। दो पुरुष व्यक्ति अथवा एक पुरुष एवं दो स्त्रियां गवाह हो सकती हैं।
शिया विधि के अन्तर्गत विवाह के समय गवाहों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है। शफेई विधि में स्त्रियां साक्षी नहीं हो सकती। केवल पुरुष ही विवाह के साक्षी हो सकते हैं।
(6) निषिद्ध आसत्तिया
विधिमान्य विवाह के लिए विवाह में का पक्षकार निषिद्ध आसत्तियों के भीतर नहीं आते हो। इसके अन्तर्गत तीन प्रकार के सम्बन्ध आते हैं –
(i) रक्त सम्बन्ध
(ii) विवाह सम्बन्ध
(iii) धात्रेय सम्बन्ध।
विधिमान्य मुस्लिम विवाह के लिए इन आवश्यक तत्वों (शर्तों) का पूरा किया जाना आवश्यक है। इनके अभाव मै किया गया विवाह ‘बातिल’ अथवा ‘प्रासिर’ हो सकता है।
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मुस्लिम विवाह के विधिक प्रभाव
मुस्लिम विवाह के कुछ मुख्य विधिक प्रभाव निम्न है
मान्य विवाह के विधिक प्रभाव
(i) दोनों पक्षकार एक-दूसरे से इर्स प्राप्त करने के हकदार हो जाते हैं,
(ii) पक्षकारों के बीच निषिद्ध आसत्तियों का उद्भव हो जाता है,
(ii) पति-पत्नी के बीच समागम वैध हो जाता है और उनसे उत्पन्न सन्तान औरस होती है,
(iv) पति को दाम्पत्य जीवन का आनन्द उठाने का अधिकार मिल जाता है;
(v) पति को पत्नी के साथ समागम (संभोग) करने का अधिकार मिल जाता है
(vi) विवाह-विच्छेद की अवस्था में पत्नी को इद्दत की अवधि काटनी होती
(vii) पत्नी, पति के युक्तियुक्त आदेशों (आज्ञाओं) की पालना करने के लिए आबद्ध हो जाती है,
(viii) पत्नी मेहर प्राप्त करने की हकदार हो जाती है,
(ix) पत्नी पति से भरणपोषण पाने की हकदार हो जाती है,
(x) पत्नी अपने लिए पृथक कमरे की मांग कर सकती है,
(xi) पति के यदि एक से अधिक पत्नियां हों तो वह समान व्यवहार की अपेक्षा कर सकती है, तथा
(xii) उचित आधारों पर पत्नी विवाह-विच्छेद कराने की हकदार हो जाती है|
शून्य विवाह के विधिक प्रभाव
बातिल विवाह प्रारम्भ से शून्य होता है। ऐसे विवाह के कोई विधिक प्रभाव उत्पन्न नहीं होते हैं। पक्षकारों के बीच किसी प्रकार के अधिकार एवं कर्त्तव्य भी उत्पन्न नहीं होते। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान ‘जारज’ मानी जाती है। वस्तुत: बातिल विवाह का मुस्लिम विधि मै कोई अस्तिस्व ही नहीं है।
अमान्य विवाह के विधिक प्रभाव
अमान्य विवाह (फासिद विवाह) के विधिक प्रभाव को दो भागो मै बाँटा जा सकता है –
(i) विवाहोत्तर संभोग से पूर्व – फासिद विवाह का न तो कोई अस्तित्व होता है और न ही विधिक प्रभाव। यदि ऐसे संभोग से पूर्व विवाह-विच्छेद हो जाता है तो पत्नी को इद्दत की अवधि काटने की आवश्यकता नहीं होती है। वह विवाह विच्छेद के तुरन्त बाद किसी अन्य पुरुष से विवाह कर सकती है।
(ii) विवाहोत्तर संभोग के पश्चात – (i) पत्नी महर प्राप्त करने की हकदार हो जाती है (ii) पत्नी को इद्दत की अवधि काटनी होती है (iii) सन्तान औरस मानी जाती है (iv) पक्षकारों के बीच पारस्परिक उत्तराधिकार का अधिकार उद्भूत नहीं होता (v) पत्नी भरणपोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं होती (vi) पति द्वारा दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
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मुस्लिम विवाह की प्रकृति
मुस्लिम विवाह की प्रकृति के संबंध में मतभेद हैं। कुछ न्यायविद इसे विशुद्ध रूप से एक सिविल संविदा मानते है जबकि कुछ न्यायविद इसे एक धार्मिक संस्कार भी मानते है। मुस्लिम कानून मै विवाह की प्रकृति को दोनों ही रूप मै समझना आवश्यक होगा।
सिविल संविदा होने पर –
तत्व | अंतर |
प्रस्ताव व स्वीकार / इजब-ओ-कबूल | मुस्लिम विवाह मै एक पक्ष प्रस्ताव (इज़ाब) रखता है और दूसरा पक्ष इसे स्वीकार (क़ुबुल) करता है, उसी प्रकार सिविल संविदा मै भी एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव दिया जाता है और दूसरा पक्ष इस प्रस्ताव को स्वीकार है। |
स्वतन्त्र सहमति | विवाह के लिए दोनों पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति आवश्यक है उसी तरह सिविल संविदा मै भी दोनों पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति आवश्यक है|
स्वतंत्र सहमति के बिना कोई विवाह अथवा विधिमान्य संविदा नहीं हो सकती और ऐसी सहमति जबरदस्ती, धोखाधड़ी या अनुचित प्रभाव के माध्यम से प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। |
प्रतिफल/ मेहर | विधिमान्य विवाह मै एक पक्षकार द्वारा विवाह स्वरूप मेहर की राशी दी जाती है तथा दूसरा पक्ष इसे प्राप्त करता है, निकाह की वैधता हेतु प्रतिफल आवश्यक है यदि प्रतिफल नियत भी नहीं होता तो भी पत्नी उचित मेहर की अधिकारिणी है।
यह मेहर प्रेम स्नेह तथा समान का प्रतीक होता है, उसी प्रकार सिविल संविदा मै भी एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को किसी करार या अन्य कार्य के लिए प्रतिफल दिया जाता है। |
योग्यता | विधिमान्य मुस्लिम विवाह मै दोनों पक्षकारों का विवाह के योग्य होना आवश्यक है योग्यता से तात्पर्य पक्षकार का आयु, शारीरिक व मानसिक रूप से समर्थ होना है,
यदि विवाह में का कोई पक्षकार वयस्क अथवा स्वस्थचित्त नहीं हैं तो उसकी ओर से उसके संरक्षक द्वारा विवाह के प्रस्ताव एवं स्वीकृति दी जा सकती है। इसी तरह सिविल संविदा मै भी पक्षकारो का आयु, शारीरिक व मानसिक रूप से समर्थ होना जरुरी है जैसे ‘मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष’ (1903) 30 कलकत्ता 539] के मामले में कहा गया है की अवयस्क व्यक्ति के साथ किया गया करार शून्य होता है| |
धार्मिक संस्कार होने पर –
प्रो. ए.ए.ए. फैजी के अनुसार – मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह को विधिक, सामाजिक एवं धार्मिक तीनों दृष्टिकोणों से देखा जाता है। विधिक दृष्टिकोण से यह एक संविदा है, सामाजिक दृष्टिकोण मै पत्नी को एक उच्च सामाजिक दर्जा प्रदान किया जाता है तथा धार्मिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत विवाह मनुष्य के उत्थान व विकास के लिए आवश्यक है।
शोहरत सिंह बनाम जाफरी बेगम के मामले मै प्रिवी कौंसिल ने कहा की मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह (निकाह) एक धार्मिक संस्कार है, क्योंकि विवाह के समय पवित्र कुरान की आयतें पढ़ी जाती है|
(i) मुस्लिम विवाह विशुद्ध रूप से एक सिविल संविदा ही नहीं है बल्कि एक धार्मिक संस्कार भी है। विवाह के संस्कार को रूढ़िवादी दृष्टिकोण के रूप में माना जाता है, यह न्यायपालिका द्वारा भी समर्थित है।
(ii) पैगंबर मोहम्मद साहब के अनुसार शादी हर एक शारीरिक रूप से स्वस्थ मुस्लिम के लिए जरूरी है जो इसे वहन कर सकता है।
(iii) इसी प्रकार पैगंबर साहब ने कहा की -“विवाह मेरी सुन्ना है और जो लोग इस तरह के जीवन का पालन नहीं करते हैं वे मेरे अनुयायी नहीं हैं”, और यह कि “इस्लाम कोई मठ नहीं है”।
(iv) पैगंबर मोहम्मद कहते हैं- “जो शादी करता है वह अपने धर्म का आधा हिस्सा पूरा करता है; अब परमेश्वर के भय में सदाचारी जीवन व्यतीत करके शेष आधा भाग पूरा करना उसके ऊपर है।”
कई न्यायिक उपदेशों ने भी मुस्लिम विवाह की धार्मिक प्रकृति का समर्थन किया है।
अब्दुल कादिर के मामले की समीक्षा मै कहा की – “यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि मौलवी समीउल्लाह ने कुछ अधिकारियों को यह दिखाते हुए एकत्र किया कि विवाह केवल एक सिविल संविदा के रूप में नहीं बल्कि एक धार्मिक संस्कार के रूप में है।”
जे. जंग के अनुसार – “मुस्लिम विवाह इबादत की एक संस्था है जिसे कानूनी रूप से अनुबंधित किया जाता है जो संभोग को नियंत्रित करता है; लेकिन इसकी निरंतरता दाम्पत्य स्नेह के रखरखाव पर निर्भर है। अंतिम विश्लेषण में यह कहा जा सकता है कि विवाह इस्लाम मे न तो विशुद्ध रूप से सिविल संविदा है और न ही एक संस्कार के रूप में, यह किसी और से नहीं बल्कि दो के सम्मिश्रण से रहित है।
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