नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में माध्यस्थम् क्या है? परिभाषा, माध्यस्थम् कितने प्रकार के होते है एंव इसके क्या फायदे है का उल्लेख किया गया है, उम्मीद है की यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा|

माध्यस्थम् क्या है | What Is Arbitration

माध्यस्थम् विवादों के निपटारे का एक सुलभ एवं सरलतम स्थान है। प्राचीनकाल में जब गाँवों में कोई विवाद उत्पन्न होता था तो उसे पंचों के माध्यम से हल किया जाता था। पंचो में गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते थे और उन पर पूरा भरोसा एवं विश्वास किया  जाता था। उनका निर्णय सभी के लिए लागु होता था।

वर्तमान समय में इसी प्रथा को विधि का स्वरूप प्रदान किया गया जिसे ‘माध्यस्थम्’ (Arbitration) के नाम से जाना जाने लगा है। जिनेवा अभिसमय, 1927 एवं न्यूयार्क अभिसमय, 1958 के अन्तर्गत इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया गया।

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माध्यस्थम् की परिभाषा

माध्यस्थम् से तात्पर्य दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा अपने विवादों का मध्यस्थ नामक एक तीसरे व्यक्ति को निर्णय के लिए सुपुर्द या सन्दर्भित करने से है जो विवादों का निर्णय न्यायिक तौर पर करता हो।

सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – जब दो पक्षकार अपने विवादों को अन्य व्यक्ति की मध्यस्थता से निर्णीत कराने का करार करते है और जिसमें न्यायिक अधिनिर्णय की समस्त औपचारिकताओं का पालन किया जाता है तब उसे माध्यस्थम् कहा जाता है।

जॉन बी. साउण्डर्स के अनुसार  माध्यस्थम् दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच विवाद या मतभेद को दोनों पक्षकारों को न्यायिक तौर पर सुनने के पश्चात् निर्णय के बाल लिए ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को किया गया सन्दर्भ (Reference) है जो सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय नहीं है।

कॉलिन्स बनाम कॉलिन्स के मामले में रोमली एच.आर. द्वारा माध्यस्थम् की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि – माध्यस्थम् पक्षकारों के बीच विशिष्ट विषय-वस्तु पर विवाद या मतभेद का एक या एक से अधिक व्यक्तियों को, अधिनिर्णायक (Umpire) या अधिनिर्णायक के बिना, निर्णय हेतु किया गया सन्दर्भ है। (28 एल.जे.सी एच, 186)

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माध्यस्थम् की विशेषता

उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार माध्यस्थम् की निम्नाकित विशेषता प्रकट होती है

(i) माध्यस्थम् दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच विवादों का सन्दर्भ है जो निपटान हेत किया जाता है।

(ii) ऐसे व्यक्ति को माध्यस्थ कहा जाता है, जिसे विवाद निपटारे हेतु सन्दर्भित किया जाता है।

(iii) माध्यस्थ की नियुक्ति पक्षकारों द्वारा करार के माध्यम से की जाती है

(iv) वह सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय नहीं होता है

(v) वह न्यायाल में संस्थित किया गया वाद भी नहीं है

(vi) माध्यस्थ द्वारा विवादों का निपटारा दोनों पक्षकारों को न्यायिक तौर पर सुनने के पश्चात् किया जाता है।

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माध्यस्थम् कितने प्रकार के है

मुख्य तौर पर माध्यस्थम् तीन प्रकार के होते है

व्यक्तिगत अथवा घरेलू माध्यस्थम्

माध्यस्थम् का यह सर्वाधिक प्रचलित प्रकार है। इसमें दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा अपने विवाद या मतभेद को निर्णय हेतु माध्यस्थम् अधिकरण (Arbitral Tribunal) को सौपा जाता है।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम 1996 में व्यक्तिगत या घरेलू माध्यस्थम की परिभाषा नहीं दी गई है। अधिनियम में अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम की परिभाषा के आधार पर व्यक्तिगत या घरेलू माध्यस्थम् को परिभाषित किया जा सकता है।

इसके अनुसार – ऐसा माध्यस्थम जो अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् नहीं है, वह घरेलू माध्यस्थम् है। घरेलू माध्यस्थम् में दोनों पक्षकार भारतीय नागरिक होते हैं। ऐसे व्यक्ति विधिक व्यक्ति (Legal person) भी हो सकते हैं, जैसे कम्पनी, निगम आदि।

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सांविधिक माध्यस्थम

सामान्यत रूप से माध्यस्थम की प्रक्रिया का निर्धारण पक्षकारों द्वारा आपसी सहमति से किया जाता है। जहाँ ऐसी प्रक्रिया निर्धारित होती है, वहाँ उसी के अनुरूप माध्यस्थम् कार्यवाहियों का संचालन किया जाता है।

लेकिन कभी-कभी किसी अधिनियम की परिधि में आने वाले विवादों को माध्यस्थम द्वारा निपटाने के लिए उस अधिनियम में प्रक्रिया का उल्लेख भी कर दिया जाता है और उसी प्रक्रिया के अनुरूप कार्यवाहियों का संचालन करना होता है|

जैसे – माध्यस्थों की नियुक्ति, माध्यस्थम का स्थान, पंचाट देने की समयावधि, पंचाट का प्रवर्तन; माध्यस्थम कार्यवाहियों पर लागू होने वाली प्रक्रिया, माध्यस्थ का शुल्क आदि। ऐसे माध्यस्थम् को सांविधिक माध्यस्थम् कहा जाता है। सांविधिक माध्यस्थमों में पक्षकारों की सहमति का कोई स्थान नहीं होता।

पक्षकार सांविधिक उपबन्धों का अनुसरण करने के लिए आबद्ध होते हैं। सामान्यतया सहकारी समितियाँ अधिनियम, कम्पनी अधिनियम, विद्युत आपूर्ति अधिनियम आदि में सांविधिक माध्यस्थमों की व्यवस्था होती है।

अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम

अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम का सृजन बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की देन है। संचार माध्यमों में अभिवृद्धि तथा राष्ट्रीय व्यापार नीति में उदारीकरण के समावेश से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा वाणिज्य में आशातीत वृद्धि हुई है। ऐसी स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार-वाणिज्य में विवादों एवं मतभेदों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

इसी कारण माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 में ऐसे विवादों के निपटारे तथा विदेशी पंचाटों के प्रवर्तन के बारे में प्रावधान किया गया है। अधिनियम में ऐसे माध्यस्थमों को ‘अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम्’ (International Commercial Arbitration) का नाम दिया गया है।

अधिनियम की धारा 2(1) () के अनुसार “अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् से ऐसे विवादों से सम्बन्धित कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत है जो ऐसे विधिक सम्बन्धों से उद्भूत हो जो भारत में प्रवृत्त विधि के अधीन वाणिज्यिक समझे गये हो, चाहे ऐसे विधिक सम्बन्ध संविदात्मक हो या नहीं तथा माध्यस्थम के पक्षकारों में से कम से कम एक पक्षकार निम्न व्यक्तियों में से कोई एक हो –

(i) ऐसा कोई व्यक्ति, जो भारत से भिन्न किसी देश का नागरिक है या उसका (भारत से भिन्न किसी देश का) आभ्यासिक निवासी है या

(ii) ऐसा कोई निगमित निकाय, जो भारत से भिन्न किसी देश में निगमित है या

(iii) ऐसी कोई कम्पनी, संगम या व्यष्टि निकाय, जिसका केन्द्रीय प्रबन्ध और नियन्त्रण भारत से भिन्न किसी देश में किया जाता है। या

(iv) विदेशी सरकार।

माध्यस्थम के लाभ

माध्यस्थम के मुख्य लाभ निम्नलिखित है

सरल एवं द्रुतगामी प्रक्रिया

माध्यस्थम की प्रक्रिया अत्यन्त सरल एवं द्रुतगामी है। इसमें न्यायालय जैसी जटिल प्रक्रिया नहीं है। माध्यस्थम् की कार्यवाही पर सिविल प्रक्रिया संहिता तथा साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।

अधिवक्ता अथवा विधि विशेषज्ञ की नियुक्ति की आवश्यकता भी नहीं होती है। इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण होता है।

खर्चीली एवं विलम्बकारी

माध्यस्थम की प्रक्रिया न तो व्यय साध्य है और न ही विलम्बकारी। न्यायालयों में कार्य की अधिकता के कारण मुकदमों के निपटारे में काफी समय लग जाता है तथा व्यय भी अधिक होता है,

जबकि माध्यस्थ के समक्ष एक ही विवाद होने से उसका शीघ्र एवं कम व्यय में निपटारा हो जाता है। माध्यस्थम् में सामान्यतः माध्यस्थ को चार माह में और अधिनिर्णायक (Umpire) को दो माह में पंचाट (Award) देना होता है।

पक्षकारों द्वारा नियुक्ति

माध्यस्थम में मध्यस्थों की नियुक्ति पक्षकारों द्वारा की जाती है। मध्यस्थ पक्षकारों के विश्वासी व्यक्ति होते हैं, जिस कारण मध्यस्थ द्वारा जो भी निर्णय दिया जाता है वह निर्णय पक्षकारो को स्वीकार होता है तथा पक्षपात की आशंका भी नहीं रहती है।

विशेषज्ञ की सेवायें

मध्यस्थ की नियुक्ति पक्षकारों द्वारा की जाती है, अतः वे विवाद की विषयवस्तु के अनुरूप विशेषज्ञ को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त कर सकते हैं। इससे बेहतर न्याय की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं, जबकि न्यायालय में न्यायाधीशों का किसी विषय-वस्तु का विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है।

व्यक्तिशः निरीक्षण

माध्यस्थम का एक लाभ यह भी है कि माध्यस्थ द्वारा स्वयं विवादित स्थल या विषय-वस्तु का निरीक्षण किया जा सकता है जिससे सही निष्कर्ष पर पहुँचने में काफी मदद मिलती है,

जबकि न्यायालयों में यह कार्य सामान्यत: न्यायालयों द्वारा नियुक्त सर्वे कमिश्नर द्वारा किया जाता है जो उतना उपयोगी साबित नहीं होता।

प्राधिकार का प्रतिसंहरण

माध्यस्थम कार्यवाहियों के दौरान यदि यह प्रतीत होता है कि कोई माध्यस्थ भ्रष्ट आचरण या कदाचार का दोषी है तो पक्षकार द्वारा उसके प्राधिकार का प्रतिसंहरण किया जा सकता है।

गोपनीयता

माध्यस्थम कार्यवाहियाँ सर्वथा गोपनीय होती है। माध्यस्थ भी ऐसी कार्यवाहियों को सार्वजनिक नहीं कर सकते, जबकि न्यायालय की कार्यवाहि खुले न्यायालय में होती है जिससे गोपनीयता नहीं रह पाती।

इसी प्रकार माध्यस्थम के और भी अनेक लाभ हैं जिसके कारण दिन-प्रतिदिन इसका प्रचलन बढ़ रहा है।

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