इस आलेख में माध्यस्थम् करार किसे कहते हैं एंव एक वैध माध्यस्थम् करार के लिए क्या अनिवार्ताये है तथा पक्षकार द्वारा किन-किन मामलों को माध्यस्थम् को सौंपा जाकर उनका निपटारा कराया जा सकता है, को आसान शब्दों में समझाया गया है,
परिचय – माध्यस्थम् करार
माध्यस्थम् अर्थात् पंच अथवा माध्यस्थ के माध्यम से मामलों का निपटारा करने की प्रथा बहुत ही पुरानी (प्राचीन) है। गाँवों में यह प्रथा काफी प्रचलित रही है एंव वर्तमान में भी देखने को मिल जाती है।
जब भी दो व्यक्तियों के मध्य विवाद उत्पन्न होता है, तब वे उसे पंच या मध्यस्थ के माध्यम से निपटाने का प्रयास करते हैं| गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति पंच या माध्यस्थ होते हैं जिनमे विवादग्रस्त पक्षकारों का विश्वास होता है और इसी कारण उनके फैसलों को दोनों पक्षकारों द्वारा माना जाता है।
इसी व्यवस्था को माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 में स्थान दिया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत माध्यस्थम् करार द्वारा मामलों को निपटारे के लिए माध्यस्थ (Arbitrator) को सौंपा जाता है।
माध्यस्थम् किसे कहते है, इसका उदाहरण है कि, जहां दो लोग या दो समूह किसी बात पर आपस में लड़ रहे होते हैं, तो वे किसी तीसरे व्यक्ति को चुनते हैं जो दोनों की बात सुनकर एक फैसला सुनाता है। इस तीसरे व्यक्ति को माध्यस्थ कहते है|
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उदाहरण –
मान लीजिए कि, एक कंपनी और उसके एक कर्मचारी के बीच वेतन वृद्धि को लेकर विवाद हो गया है। दोनों पक्ष इस विवाद को अदालत में ले जाने के बजाय एक तटस्थ व्यक्ति को माध्यस्थ के रूप में चुन कर उसके सामने अपने विवाद को रखते हैं। वह माध्यस्थ दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद एक समझौता करा सकता है, जिसमें कर्मचारी को एक निश्चित राशि की वेतन वृद्धि मिल जाए।
इसी तरह, दो दोस्तों के बीच किसी बात पर झगड़ा हो गया। दोनों यह नहीं चाहते कि कोर्ट में जाकर केस लड़े। इसलिए वे दोनों मिलकर किसी तीसरे दोस्त को चुनते हैं जिसे दोनों भरोसा करते हैं। वह तीसरा दोस्त दोनों की बात सुनता है और फिर एक ऐसा फैसला सुनाता है जिससे दोनों खुश हो जाएं। यही माध्यस्थम् है।
माध्यस्थम् करार की परिभाषा
माध्यस्थम् करार एक ऐसा समझौता होता है जिसमें विवाद करने वाले पक्षकार, किसी तीसरे निष्पक्ष व्यक्ति या संस्था (माध्यस्थ) को अपने विवाद को सौंपने का करार कर उसे (माध्यस्थ) को निपटारा करने का अधिकार देते हैं। यही माध्यस्थम् करार कहलाता है।
माध्यस्थम् करार विवाद निपटान की एक वैकल्पिक प्रक्रिया है जो न्यायालय में मुकदमेबाजी के विकल्प के रूप में कार्य करती है। इसका मुख्य उद्देश्य पक्षकारों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना और विवाद को शीघ्र और कम खर्चे पर निपटाना होता है।
माध्यस्थम् करार की परिभाषा अधिनियम की धारा 2 (ख) एवं धारा 7 में दी गई है। धारा 2(ख) के अनुसार “माध्यस्थम् करार का तात्पर्य ऐसे करार से है जिसे धारा 7 में निर्दिष्ट किया गया है। इस प्रकार ‘माध्यस्थम् करार’ की वास्तविक परिभाषा के लिए हमें धारा 7 को देखना होगा|
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धारा 7 के अनुसार –
(1) “इस भाग में माध्यस्थम् करार का तात्पर्य पक्षकारों द्वारा ऐसे समस्त अथवा कतिपय विवाद को माध्यस्थम् के लिए प्रस्तुत करने के करार से है, जो एक परिभाषित विधिक सम्बन्ध, चाहे वे संविदात्मक हो या नहीं, के विषय में उनके मध्य उत्पन्न हुए हैं या उत्पन्न हो सकते हैं।
(2) एक माध्यस्थम् करार किसी संविदा में एक माध्यस्थम् खण्ड के प्ररूप में अथवा एक पृथक् करार के प्ररूप में हो सकेगा।
(3) एक माध्यस्थम् करार लिखित में होगा।
(4) एक माध्यस्थम् करार लिखित है यदि इसमें अन्तर्विष्ट है,
(क) पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित किया गया एक दस्तावेज;
(ख) एक ऐसे पत्र, टेलेक्स, टेलीग्राम या दूरसंचार के अन्य माध्यम का जिसके अन्तर्गत इलेक्ट्रोनिक साधनों के माध्यम से संसूचना भी है; विनिमय (आदान-प्रदान) जो करार के एक अभिलेख का प्रावधान करता है; या
(ग) एक ऐसे दावा तथा प्रतिरक्षा के कथनों का आदान-प्रदान, जिसमें करार के अस्तित्व का एक पक्षकार द्वारा अभिकथन किया जाता है और दूसरे पक्षकार द्वारा उससे इन्कार किया जाता हो।
(5) एक माध्यस्थम् खण्ड को अन्तर्विष्ट करने वाले संविदाकृत दस्तावेज में निर्देश एक माध्यस्थम् करार का गठन करता है यदि संविदा लिखित में है और निर्देश ऐसा है कि उस माध्यस्थम् खण्ड को संविदा का भाग बनाया जा सकता है।”
इस प्रकार धारा 7 के अनुसार, “दो पक्षकारों के मध्य उत्पन्न विवाद को निपटारे के लिए, किसी माध्यस्थ को सौंपने का करार, माध्यस्थम् करार कहलाता है।” यानि किसी विवाद को निपटान हेतु माध्यस्थ को सौंपने का करार, माध्यस्थम् करार है।
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माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व –
अधिनियम की धारा 2 (ख) एवं धारा 7 में वर्णित माध्यस्थम् करार की परिभाषा से इसके निम्नांकित आवश्यक तत्व परिलक्षित होते हैं –
(1) करार का लिखित होना –
विधिमान्य माध्यस्थम् करार की पहली अनिवार्यता उसका लिखित में होना है। धारा 7 (3) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि – “माध्यस्थम् करार लिखित में होगा।” इससे स्पष्ट है कि, मौखिक करार माध्यस्थम् की कार्यवाही प्रारम्भ करने के लिए पर्याप्त नहीं है और ना ही ऐसा करार आबद्धकर होता है।
बनारसी दास बनाम गन्ना आयुक्त (ए. आई आर. 1967 एस.सी. 1417) के मामले में ऐसे करार को विधिमान्य माना गया है, जो लिखित में है, किन्तु जिसका ब्यौरा मौखिक समझौते या वार्ता द्वारा तय किया जाना है।
इस प्रकरण अनुसार माध्यस्थम् करार का लिखित दस्तावेज के रूप में होना आवश्यक नहीं है, बल्कि एक पक्षकार द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना तथा दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकार किया जाना मात्र पर्याप्त है। यह विनिमय पत्र, टेलेक्स, टेलीग्राम या दूरसंचार के किसी अन्य माध्यम के रूप में भी हो सकता है।
(2) विवाद को निर्देशित करने का आशय होना –
माध्यस्थम् करार का कोई निर्धारित प्ररूप नहीं होता है बल्कि इसमें विवाद को माध्यस्थम् के लिए सन्दर्भित करने का पक्षकारों का आशय होना आवश्यक है। ‘रुक्मिनी बाई बनाम कलेक्टर, जबलपुर’ (ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 479) के मामले में यह कहा गया है कि, माध्यस्थम् करार का किसी निश्चित प्रारूप में होना आवश्यक नहीं है।
इसके लिए ‘माध्यस्थ’ या ‘माध्यस्थम्’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाना भी आवश्यक नहीं है। किसी संविदा के एक खण्ड में विवाद को माध्यस्थम् को सुपुर्द करने का उल्लेख मात्र भी पर्याप्त है। इस सम्बन्ध में माननीय न्यायालय द्वारा यहाँ तक कहा गया है कि, पत्रों के माध्यम से भी विवादों को माध्यस्थम् को निर्देशित किए जाने की स्वीकृति प्रदान की जा सकती है।
माध्यस्थम् करार के गठन की प्रक्रिया इतनी आसान है कि यदि पक्षकारों के पत्राचार (Correspondence) से भी यह स्पष्ट होता है कि, पक्षकार किसी विवाद को माध्यस्थम् को सुपुर्द करने के लिए सहमत हुए हैं तो उसे भी माध्यस्थम् करार ही माना जाता है। (इन्द्रमोर प्रा.लि. बनाम उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम लि. ए.आई.आर. 1996 एस.सी.2375)
(3) वैध संविदा के सभी आवश्यक तत्त्वों का विद्यमान होना –
विधिमान्य माध्यस्थम् करार के लिए यह आवश्यक है कि उसमें वैध संविदा की सभी अनिवार्य तत्व शामिल होने चाहिए, जैसे –
(1) दो पक्षकार हो,
(ii) उनके बीच माध्यस्थम् करार हुआ हो,
(iii) पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति (Free Consent) रही हों,
(iv) विधिपूर्ण उद्देश्य हो, तथा
(v) पक्षकार संविदा करने के लिए सक्षम हो यानि पक्षकार वयस्क एवं स्वस्थचित्त हो।
यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम किशोरीलाल गुप्ता’ (ए.आई.आर. 1954′ एस.सी. 1362) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, यदि माध्यस्थम् करार के खण्ड वाली संविदा शून्य या अप्रवर्तनीय है तो ऐसा माध्यस्थम् करार भी अप्रवर्तनीय (Unenforceable) होगा।
माध्यस्थम् करार पर दोनों पक्षकारों की सहमति होना आवश्यक है। यह एक पक्षीय नहीं हो सकता अर्थात् केवल एक पक्ष को ही किसी मामले को माध्यस्थम् हेतु निर्देशित करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है।
(4) स्पष्ट एवं असंदिग्ध होना –
माध्यस्थम् करार की भाषा एवं उसके उपबन्ध स्पष्ट एवं असंदिग्ध होने चाहिए। इसकी भाषा से यह स्पष्ट होना चाहिये कि –
(i) पक्षकार अपने विवाद को माध्यस्थम् के लिए सुपुर्द करने हेतु सहमत हुए हैं,
(ii) माध्यस्थम् की विषय-वस्तु (Subject-matter) अमुक होगी,
(iii) माध्यस्थ (Arbitrator) अमुक व्यक्ति होगा, आदि।
भाषा में किसी भी प्रकर की अस्पष्टता एवं संदिग्धता से भ्रम उत्पन्न होने की सम्भावना बन जाती है, इसलिए माध्यस्थम् करार की भाषा स्पष्ट एवं असंदिग्ध होने चाहिए ताकि भविष्य में कोई पेचीदगी उत्पन्न ना हो ।
‘मै. शंकर सीलिंग सिस्टम प्रा.लि. बनाम मै. जैन मोटर ट्रेडिंग कम्पनी’, (ए. आई. आर. 2004 चेन्नई 127) के मामले में ऐसे माध्यस्थम् करार को इस अधिनियम के प्रयोजनार्थ माध्यस्थम् करार नहीं माना गया है जिसमें यह प्रावधान था कि – “सभी प्रकार के विवाद माध्यस्थम् के लिए निर्देशित किये जायेंगे।”
इस मामले में यह भी कहा गया कि, ऐसा माध्यस्थम् करार माध्यस्थम् करार नहीं माना जायेगा जिसमें यह व्यवस्था की गई हो कि विवाद निपटारे हेतु किसी तटस्थ व्यक्ति को सौंपा जायेगा। ऐसी भाषा अस्पष्ट एवं संदिग्ध है क्योंकि इससे यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि तटस्थ व्यक्ति कौन होगा और क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में पक्षकार सहमत होंगे और यदि सहमत होंगे तो कैसे?
बी.के.बी. ट्रांसपोर्ट प्रा. लि. बोकारो बनाम सेन्ट्रल कोल फील्ड्स लि. (ए.आई.आर. 2018 झारखण्ड 55) –
इस मामले में एक संकर्म संविदा (Work Contract) में यह प्रावधान किया गया था कि उक्त संविदा के अन्तर्गत व्युत्पन्न होने वाले सभी विवाद विनिश्चय हेतु प्रत्यर्थी कम्पनी के निदेशक को निर्देशित किए जायेंगे। ऐसे निर्देश से संकर्म निष्पादन प्रभावित नहीं होगा। इसे माध्यस्थम् करार नहीं माना गया। यह मात्र एक ‘विशेषज्ञ विनिश्चय युक्ति’ (Expert Determination mechanism) थी।
इसी प्रकार ‘आई.टी.सी. क्लासिक फाइनेन्स लि. वनाम ग्रेपको माइनिंग एण्ड क.लि.’ (ए.आई.आर. 1977 कोलकाता 397) के मामले में ऐसे माध्यस्थम् करार को प्रवर्तनीय नहीं माना गया, जिसमें यह प्रावधान था कि विवादों के निपटारे के लिए कम्पनी के प्रवन्धक (Manager) को माध्यस्थ (Arbitrator) नियुक्त किया जायेगा जाबकी उस कम्पनी के कई प्रबन्धक थे। अतः यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता था कि किस प्रबन्धक को माध्यस्थ नियुक्त किया जाना है। करार की भाषा अस्पष्ट एवं संदिग्ध थी।
(5) हस्ताक्षरित या लिखित स्वीकृति का होना –
यह विधिमान्य माध्यस्थम् करार की अन्तिम अनिवार्य शर्त है, इसके अनुसार माध्यस्थम् करार पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित अथवा उनकी लिखित स्वीकृति का होना चाहिए है, यानि पक्षकारों की स्वीकृति निम्नांकित रूप में हो सकती –
(i) दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षरों द्वारा,
(ii) एक पक्षकार के हस्ताक्षर एवं दूसरे पक्षकार की लिखित या मौखिक स्वीकृति द्वारा, तथा
(iii) माध्यस्थम् करार के लिखित होने पर पक्षकारों की मौखिक स्वीकृति द्वारा।
‘बिहार राज्य खनिज विकास निगम बनाम एनकॉन बिल्डर्स लिमिटेड’ (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 3688। के मामले में न्यायालय ने माध्यस्थम् करार के निम्नलिखित आवश्यक तत्व बताये हैं –
(i) किसी विचारित मामले के सम्बन्ध में कोई विद्यमान् भावी विवाद या मतभेद हो,
(ii) ऐसे विवाद या मतभेद को किसी माध्यस्थम् अधिकरण के माध्यम से निपटाने का पक्षकारों का आशय हो,
(iii) पक्षकारों ने माध्यस्थम् अधिकरण के मध्यस्थ द्वारा दिये जाने वाले पंचाट को मानने के लिए लिखित स्वीकृति दी हो, तथा
(iv) पक्षकारों की पारस्परिक सहमति से ही माध्यस्थम् का गठन किया जाना हो।
माध्यस्थम् करार की विषय-वस्तु
माध्यस्थम् करार की विषय-वस्तु (Subject-Matter) से तात्पर्य ऐसे मामलों से है, जिन्हें (i) माध्यस्थम् को सौंपा जा सकता हैं, और इसके अलावा कुछ मामले ऐसे है (ii) जो, माध्यस्थम् को नहीं सौंपे जा सकते हैं।
(1) वे मामले जो माध्यस्थम् को सौंपे जा सकते हैं – सभी प्रकार के सिविल मामले निपटारे के लिए माध्यस्थम् को निर्देशित किये जा सकते हैं और ऐसे मामलों के लिए माध्यस्थम् करार किया जा सकता है। लेकिन इसमें शर्त यह है कि –
(i) माध्यस्थम् को सौंपे जाने वाले मामले ऐसे हो जिनका निपटारा माध्यस्थम् द्वारा किया जाना सम्भव हो,
(ii) ऐसे मामले विधि द्वारा वर्जित न हो, तथा
(iii) वे लोक नीति के विरुद्ध न हो।
(2) वे मामले जो माध्यस्थम् को नहीं सौंपे जा सकते – ऐसे मामले जिनका विनिर्दिष्ट पालन (Specific performance) किया जाना सम्भव नहीं हो, उन मामलों को माध्यस्थम् को नहीं सौंपे जा सकता है।
सामान्यतः ऐसे मामले वैयक्तिक सेवाओं से जुड़े मामले होते हैं, जैसे-पुस्तक लिखने का करार, नृत्य एवं गायन का करार, चित्र बनाने का करार, वैवाहिक सम्बन्धों की पुर्नस्थापना के करार, आदि।
निष्कर्ष :-
माध्यस्थम् करार विवादों को निपटाने का एक बहुमुखी और प्रभावी तरीका है। यह कई प्रकार के विवादों के लिए उपयुक्त होता है और यह दोनों पक्षों को एक सौहार्दपूर्ण तरीके से विवाद को सुलझाने का अवसर प्रदान करता है।
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