नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विधि के स्रोत कोन-कोनसे है | विधिशास्त्रियों के अनुसार विधि के कितने स्त्रोत है तथा विधि के औपचारिक और भौतिक स्रोत क्या हैं? का उल्लेख किया गया है| इस आलेख में कानून के स्त्रोत क्या है को आसान शब्दों में बताया गया है|

विधि के स्रोत का अर्थ

विधि के स्रोत का तात्पर्य विधि की उत्पत्ति या प्रारम्भ से है। विधि के सम्बन्ध में इसके स्त्रोत की निश्चित व्याख्या करना कठिन है, क्योंकि स्त्रोत शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में किया जा सकता है एंव इसका निश्चित अर्थ निकालना भी आसान नहीं है|

यदि हम किसी न्यायाधीश से उसके द्वारा दिए निर्णय के स्त्रोत के बारें में जानेगे तो वह कानून या पूर्व निर्णय, कोई संविधि आदि के बारें में बतायगा जिनके आधार पर उसने अपना निर्णय दिया होगा| डेल वेक्हियों के अनुसार विधि के स्त्रोत का मूल आधार मानव स्वभाव में शामिल है|

Duguit ने विधि के स्रोतों के विषय में लिखा है कि विधि किसी एक निश्चित स्त्रोत से निर्मित नहीं होती है, उसका वास्तविक स्रोत तो लोक-मत ही होता है

भारतीय परिप्रेक्ष्य में विधि के स्रोत से आशय मानव कर्तव्य है जिसे सभी विधियों का मूल तत्व भी माना जाता है और जिसे प्रायः सभी धर्मग्रन्थों ने प्रधानता दी है। इसके विपरीत, आधुनिक विधिशास्त्र के अनुसार सभी विधियों का स्त्रोत राज्य का प्रभु सत्ताधारी है जिससे सभी विधियों का उद्भव होता है।

यह भी जाने – मुस्लिम विधि में विवाह विच्छेद के विभिन्न तरीके एंव सम्पूर्ण प्रक्रिया

विधि के संदर्भ में ‘स्रोत’ के अर्थ को न्यायालयों के निर्णय के लिये आवश्यक सामग्री जुटाने तक ही सीमित रखना उचित होगा। न्यायालयों का प्रमुख कार्य विधि की व्याख्या करना और उसे उचित रूप से लागू करना है| इसलिए सबसे पहले यह प्रश्न आता है कि, न्यायाधीश अपने निर्णय के सामग्री कहाँ से लेते है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमारे लिए विधि के स्त्रोत की विवेचना करना आवश्यक हो जाता है –

विधि के स्रोतों के प्रकार

विधिशास्त्र की विभिन्न विचारधाराओं के विचारकों ने विधि की उत्पत्ति को अपने विधिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में माना है।

उदाहरणस्वरूप प्राकृतिक विधि के विचारकों ने विधि को ईश्वरीय एवं मानवीय दोनों माना है, तो ऑस्टिन ने इसे संप्रभु के आदेश के रूप में संप्रभु से उत्पन्न माना है। समाजशास्त्रीय विचारक सैविनी ने विधि का स्रोत लोक चेतना को माना है, तो धर्मशास्त्रीय रूप में वेद, कुरान और बाइबिल को विधि का स्रोत माना गया है। विद्वानों के अनुसार विधि के स्त्रोत की विवेचना इस प्रकार से है –

A. सामंड के अनुसार विधि के स्रोत

सामंड ने विधि के स्त्रोत को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया है

यह भी जाने – समाजशास्त्रीय विचारधारा : अर्थ, उत्पत्ति एंव विकास में विधिशास्त्रियों का योगदान

औपचारिक स्त्रोत –

सामंड के अनुसार विधि के कुछ ऐसे स्त्रोत होते है जिनसे विधि अपनी शक्ति अथवा वैधता प्राप्त करती है, उन्हें औपचारिक स्त्रोत कहा जाता है| औपचारिक स्त्रोत का उद्देश्य राज्य की इच्छा एंव शक्ति से है, जो राज्य के न्यायालयों द्वारा निर्णयों के माध्यम से अभिव्यक्त की जाती है|

भौतिक स्त्रोत –

विधि के ऐसे स्त्रोत जिससे विधि विषयक सामग्री प्राप्त होती है, विधि के भौतिक स्त्रोत कहलाते है| सामंड ने भौतिक स्त्रोतों को दो भागों में विभाजित किया है –

(i) ऐतिहासिक स्त्रोत –

ऐसे स्त्रोत जिनसे विधि का विकास प्रभावित होता है तथा जो विधि निर्माण के लिए सामग्री जुटाते है, विधि के ऐतिहासिक स्त्रोत कहलाते है| इन स्त्रोतों का सम्बन्ध विधिक इतिहास से होता है तथा इनके पीछे विधिक मान्यता नहीं होती है| ये स्त्रोत प्रत्यक्षत विधि के रूप में कार्य करते है| जैसे – विधि लेखको की रचनाए, विधि पत्रिकाओ में प्रकाशित लेख आदि इसके उदाहरण है|

(i i) वैधानिक स्रोत –

ऐसे स्त्रोत जिन्हें विधि द्वारा मान्यता दी जाती है, वैधानिक स्रोत कहलाते है| सामंड के अनुसार ये स्त्रोत “ऐसे द्वार है जिनके माध्यम से नये सिद्वांत विधि में प्रवेश करके कानून का रूप धारण कर लेते हैं।”

यह भी जाने – राज्य की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत कौन-कौन से हैं? Theory Of Origin Of The State 

वैधानिक स्रोत चार प्रकार के होते हैं –

(क) विधायन या अधिनियमित विधि –

विधायन विधि राज्य की विधायनी शक्ति द्वारा निर्मित की जाती है, जिसे ‘कानून’ के रूप में राज्य के सभी न्यायालयों द्वारा मान्य किया जाता है। उदाहरण के लिए, सम्पत्ति अंतरण अधिनियम, भारतीय संविदा अधिनियम, आयकर अधिनियम आदि।

(ख) पूर्व-निर्णय या नजीरें –

न्यायालयों द्वारा दिये गये पूर्व निर्णयों को भविष्य में उसी प्रकार के तत्सम वादों में पूर्वोदाहरण के रूप में लागू किया जाता है तथा पूर्व निर्णय को न्यायालय द्वारा विधि के रूप में स्वीकार किया गया है।

सभी अधीनस्थ न्यायालय अपने वरिष्ठ न्यायालय द्वारा दिये गये विनिश्चयों के अनुसार निर्णय देने के लिए बाध्यकर होते हैं। लेकिन किसी एक राज्य का उच्च न्यायालय अन्य राज्य के उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है जबकि उच्चतम न्यायालय युक्तियुक्त आधार पर अपने स्वयं के पूर्व-निर्णय को पलटने के लिए स्वतन्त्र है।

(ग) रूढ़िगत या प्रथागत विधि –

यह विधियाँ उन प्रथाओं से उत्पन होती हैं जिनको विधि द्वारा व्यावहारिक नियमों के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र की कुछ आदिम जातियों में यह प्रथा प्रचलित है कि केवल फूल माला डालकर विवाह की रस्म पूरी कर ली जाती है। इसलिए वहां पर ऐसे विवाह को वैध विवाह माना जाता है।

(घ) अभिसामयिक विधि –

इस प्रकार की विधियाँ लोगों द्वारा आपसी समझौते के आधार पर निर्मित की जाती हैं और यह विधि केवल उन व्यक्तियों के प्रति बन्धनकारी होती है जो इस विधि के निर्माण के लिए सहमति व्यक्त करते हैं।

सामण्ड के अनुसार, केवल उपर्युक्त वैधानिक स्रोतों से उत्पन्न चार प्रकार की विधियाँ ही विधि का प्रमुख स्त्रोत हैं। इनके अलावा विधियों के कुछ अन्य स्रोत भी हैं परन्तु उन्हें न्यायालयों की मान्यता प्राप्त नहीं होती है|

यह भी जाने – अपकृत्य क्या है | अपकृत्य का अर्थ, परिभाषा एंव विशेषताएं | What Is Tort In Hindi

B. ऑस्टिन के अनुसार विधि के स्रोत

जॉन ऑस्टिन (John Austin) के अनुसार, ‘विधि के स्रोत’ से तीन अर्थ निकलते हैं। प्रथम अर्थ में, विधि के वास्तविक निर्माता को विधि का स्रोत माना जा सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्षतः विधियों का सृजन करता है,

द्वितीय अर्थ में, ऐतिहासिक प्रलेखों (Historical Documents) को भी ऑस्टिन ने विधि के स्रोत के रूप में मान्य किया है तथा

तृतीय अर्थ में, ऐसे कारण जो विधि के निर्माण के लिए कारणीभूत होते हैं, जैसे-धर्म, प्रथाएँ, विधायन, न्यायिक निर्णय, नैतिक आचार इत्यादि को माना है।

ऑस्टिन द्वारा विधि के स्रोत का वर्गीकरण –

(i) प्रत्यक्ष या वास्तविक निर्माता –

ऑस्टिन का मत है कि विधि का प्रत्यक्ष या वास्तविक निर्माता वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह होता है जिसके द्वारा नियमों को उनके मौलिक रूप में बनाया जाता है और जो इन नियमों को विधि का बन्दनकारी प्रभाव प्रदान करता है। ऑस्टिन के अनुसार विधि प्रत्यक्षतः निम्नलिखित स्रोतों से निर्मित होती है –

(a) विधान-मण्डल या न्यायपालिका के रूप में कार्य कर रही शक्ति से,

(b) उस राजनीतिक अधीनस्य शक्ति से जो व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के रूप में कार्य का रही है,

(c) उन व्यक्तियों से जिनके व्यवहार ‘ रूढ़ि’ बन जाते हैं तथा

(d) करार द्वारा एक दूसरे के प्रति कार्य करने की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्तियों से।

ऑस्टिन का कथन है कि सभी विधियाँ प्रभुताधारी की शक्ति की देन होती है। उपर्युक सभी विधि के निर्माण का अधिकार प्रभुताधारी से ही प्रास करते हैं।

उपर्युक अर्थ में सर्वोच्च व्यवस्थापिका उन विधियों का स्रोत है जिन्हें वह प्रत्यक्षतः प्रकाशित करती है। अधीनस्थ व्यवस्थापिका या अन्य निगमित संस्थाएँ उन विधियों की स्रोत हैं जिन्हें वह प्रभुताधारी की शक्ति की सहमती से बनाती है और प्रकाशित करती है। इसके अलावा न्यायालय भी विधि का एक स्रोत होते है क्योंकि न्यायालय न्यायिक निर्णयों द्वारा विधि का सृजन करते है ।

यह भी जाने – संरक्षक की परिभाषा, प्रकार और उनकी नियुक्ति की सम्पूर्ण जानकारी | मुस्लिम विधि

(ii) ऐतिहासिक प्रलेख (Historical Documents) –

ये ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य होते हैं जिनसे विधि के अस्तित्व की पुष्टि हो सकती है। उदाहरण के लिए जस्टीनियन का डाइजेस्ट या ब्रेक्टन (Bracton) या कोक (Coke) की रचनायें आदि इसी श्रेणी में आती हैं।

सामंड ने इन्हें विधि के साहित्यिक स्रोत (Literary Sources of Law) के रूप में मान्य किया है क्योंकि इस साहित्य के माध्यम से विधि के सम्बन्ध में समुचित जानकारी प्राप्त होती है।

(iii) कारण (Causes) –

विधि के स्रोत के इस वर्ग के अन्तर्गत उन कारणों की विवेचना की गई है जिनके आधार पर विधियाँ स्थिर रहती है। इनमें निम्नलिखित का समावेश रहता है –

– विधायन (Legislation)

– न्याय-निर्णय (Adjudication)

– रूढ़ियाँ या प्रथा (Custom)

– साम्या आदि (Equity etc.)

C. कीटन के अनुसार विधि के स्रोत

कीटन (Keeton) विधि के औपचारिक स्रोतों को ‘विधि के स्रोत’ के रूप में स्वीकार नहीं करते है बल्कि उनका कहना है कि,  आधुनिक मानव समुदायों में विधि का औपचारिक स्रोत ‘राजा’ (State) है लेकिन रजा विधि को केवल लागू करता है इसलिए इसे विधि का वास्तविक स्रोत नहीं माना जा सकता है। सामण्ड के विधि-स्रोतों के वर्गीकरण की आलोचना करते हुए कीटन ने निम्नलिखित विधि के स्रोत बताये है –

(i) बन्धनकारी स्रोत (Binding Sources)

विधि के बन्धनकारी स्रोत से कीटन का आशय उन स्रोतों से है जो न्यायाधीशों के विवेक पर पूर्ण रोक लगा देते हैं और जिसके परिणामस्वरूप न्यायाधीश मनमाने निर्णय नहीं दे सकते और उन्हें विधि के आधार पर ही निर्णय देना आवश्यक होता है। कीटन ने बन्धनकारी स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया है –

(a) रूढ़िगत विधि (Customary Law)

(b) विधायन (Legislation)

(c) न्यायिक पूर्वीकियाँ (Judicial Precedents)

(ii) अनुनयी स्रोत (Persuasive Source)

बन्धनकारी स्रोत के विपरीत, विधि के अनुनयी स्रोत नैतिक आचार या परिस्थितियों की विशिष्टता पर आधारित होते हैं। ऐसे विधि-स्रोत को न्यायालय द्वारा उसी दशा में मान्यता दी जाती है जब इस सम्बन्ध में कोई विपरीत बन्धनकारी व्यवस्था न हो। कीटन ने अनुनयी स्त्रोत को भी दो भागों में विभाजित किया है –

(a) नैतिक या साम्यिक सिद्धान्त (Principles of morality or equity)

(b) वृत्तिक परामर्श (Professional opinions)

D. हालैण्ड के विचार में विधि के स्रोत

टी० ई० हालैण्ड के अनुसार विधि के स्रोत के बारे में संदिग्धता का कारण यह है कि इसमें विधि की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी विषयों का समावेश है। हालैण्ड के अनुसार ‘विधि के स्रोत’ का अर्थ विधि के निम्नलिखित क्षेत्रों तक ही सीमित रखा जाना उचित होगा –

(i) ऐसी सामग्री जिससे विधि के विषय में जानकारी उपलब्ध हो सकती है या विधि सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार की सामग्री को विधि का साहित्यिक स्रोत कहा जा सकता है तथा इसमें विधि सम्बन्धी ग्रन्य, टीकायें तथा लॉ रिपोर्ट्स आदि का समावेश किया जा सकता है।

(ii) विधि को बन्धनकारी प्रभाव दिलाने वाली शक्ति को विधि के औपचारिक स्रोत के रूप में स्वीकार किया गया है। यह वह शक्ति है जो किसी नियम को कानून का रूप प्रदान करती है। विधि को राज्य की कि द्वारा वैधता प्राप्त होती है, इसलिए राज्य को विधि का औपचारिक स्रोत माना गया है।

(iii) विधि के स्रोत के रूप में उन कारणों का समावेश भी है जिनके परिणामस्वरूप विधि के नियम अस्तित्व में आते हैं और जो आगे चलकर ‘कानून’ का रूप धारण कर लेते हैं। जैसे – रूढ़ि, प्रथायें तथा धर्म आदि ऐसे विधि के स्रोत हैं।

(iv) विधि के स्रोत के रूप में उन संस्थाओं या राज्य के अंगों का समावेश है जिनके द्वारा या तो राज्य पूर्व-प्रचलित अप्राधिकृत नियमों को मान्यता प्रदान करता है या स्वयं नई विधियों का निर्माण करता है; जैसे- न्यायिक निर्णय, साम्या तथा विधायन आदि।

E. विधि के अन्य स्रोत

विधि के उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त अन्य विधिशास्त्रियों ने भी अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विधि के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख किया है। विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के समर्थकों ने विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ियों तथा प्रथाओं को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है क्योंकि उनके अनुसार विभिन्न विधियों की उत्पत्ति प्रथाओं से हुई है।

विधि के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि की उत्पत्ति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तत्वों के परिणामस्वरूप हुई। इसलिए वे इन विभिन्न तत्वों को हो विधि के प्रमुख स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं।

इसके अलावा दार्शनिक विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि का प्रमुख स्रोत मानव की तर्क-बुद्धि है। परन्तु वर्तमान विधि के सन्दर्भ में इन धारणाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे संकीर्ण दृष्टिकोण पर आधारित हैं।

महत्वपूर्ण आलेख –

विधि का शासन की परिभाषा, डायसी के अनुसार विधि का शासन, भारत के संविधान में विधि शासन

बम्बई में न्याय प्रशासन का विकास | Administration Of Justice In Bombay

साक्ष्य क्या है, परिभाषा एंव साक्ष्य के प्रकार | Definition of evidence in Hindi

परिवाद पत्र पर मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया | CrPC 1973, Sec. 200 to 203

सोर्स – बुक (विधि शास्त्र एंव विधि के सिद्वांत)

Disclaimer :- This notes is intended to provide information only. If you are seeking advice on any matters relating to information on this website, you should – where appropriate – contact us directly with your specific query. However, we may have made mistakes and we will not be responsible for any loss or damage of any kind arising because of the usage of this information.