नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में भारत में अपकृत्य कानून का विकास और उत्पत्ति केसे हुई | क्या भारत में अपकृत्य कानून आंग्ल विधि के देन है आदि के बारें में बताया गया है|
भारत में अपकृत्य कानून
भारत मै अपकृत्य कानून का विकास सन 1726 के चार्टर से जुड़ा हुआ है | सन 1726 के चार्टर के अंतर्गत ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास में मेयर्स कोर्ट स्थापित किये और उन्हें यह अधिकार दिये कि वे भारत में इंग्लैंड के कानून को उसी सीमा तक लागू करेंगे जहां तक वे भारतीयों के पक्ष में या अनुकूल हो। आगे चलकर इन न्यायालयों के स्थान पर पहले सुप्रीम कोर्ट और फिर हाईकोर्ट की स्थापना हुई।
सन 1726 के चार्टर के अनुसार, ये सभी न्यायालय ब्रिटिश संसदीय अधिनियम, भारतीय कानून तथा अंग्रेजी सामान्य विधि जहा तक कि वे भारत की स्थानीय परिस्थितियों के प्रतिकूल न हों से प्रशासित होते थे| चूँकि किसी विषय पर अधिनियमित विधि नहीं होने से न्यायाधीश साम्य, न्याय तथा शुद्ध अन्तःकरण (equity, justice and good conscious) के सिद्धान्तों का प्रयोग करते थे।
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भारतीय अपकृत्य कानून, कॉमन लॉ का एक अभिन्न अंग मानी गई है| भारत मै भी इस कानून को इस सोच के साथ लागु किया गया की यह भारतीय परिवेश मै या भारत की परिस्थ्तियों के अनुरूप लागु हो|
प्रचलित भारत मै अपकृत्य कानून किसी न किसी रूप में इंग्लैण्ड के कानून पर आधारित हैं।अंग्रेजों के समय में भारतीय न्यायालयों में इंग्लैंड की संसद तथा भारत सरकार द्वारा स्वीकृत विधि के द्वारा ही न्याय होता था। इन कानूनों को मानने में न्याय, साम्या तथा सद्विवेक का ध्यान रखा जाता था।
डॉ पी० एन० सेन ने अपनी पुस्तक “हिन्दु ज्यूरिस्प्रुडेस“ (Hindu Jurisprudence) मै यह प्रामाणिक रूप से बताया है कि प्राचीन हिन्दु विधि में अपकृत्य कानून का एक अलग स्थान था और इसमें ऐसे कार्यों एंव आचरणों/व्यवहार को रखा जाता था जिनसे दुसरे व्यक्ति को क्षति/नुकसान पहुंचता था और न्यायालय ऐसे वादों मै क्षतिपूर्ति दिलवाते थे| प्राय: आपराधिक एंव अपकृत्य के मामले साथ-साथ चलते थे।
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एक प्रमुख वाद सुरेन्द्रनाथ बनाम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, नादिया, ए.आई.आर. 1972 कलकत्ता 365 में न्यायाधीश मुखर्जी ने साफ कहा है कि अपकृत्य कानून के संबंध में कोई निश्चित विधि न होने से भारत में इंग्लैंड के सामान्य कानून को न्याय के अनुरूप होने के कारण ग्रहण किया गया। लेकिन जहां इंग्लैंड की सामान्य विधि भारत की स्थानीय अथवा धार्मिक परिस्थितियों. दशाओं एवं जातियों के लिए समुचित नहीं थी, उनको नहीं अपनाया गया।
इसी आशय की बात मुख्य न्यायाधीश स्टोन ने भी एक वाद के निर्णय में कही थी। “साम्य” तथा “शुद्ध अन्त:करण” के सम्बन्ध में प्रिवी काउन्सिल का मत था कि इन पदों के अन्तर्गत इंग्लैण्ड के कानून के वे नियम आते हैं जो भारतीय समाज एवं परिस्थितियों के अनुकूल हों तथा उन पर लागू किये जा सकें।
न्याय, साम्य तथा शुद्ध अन्त:करण के नियमों के लिए यह आवश्यक है कि वे न केवल आपस में एक-दूसरे से संगत हों, बल्कि कानून की विभिन्न शाखाओं के अनुरूप भी हों|
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संहिताबद्ध कानून
संहिताबद्ध कानून के अभाव में भारतीय न्यायालय आज भी न्याय तथा सद्भाव पर आधारित हैं। अपकृत्य विधि के संबंध में डॉ. विनफील्ड का मत है कि अपकृत्य विधि की अंतिम रूप से परिभाषा नहीं दी जा सकती है क्योंकि यह अभी तक विकासोन्मुख है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जो अपकृत्य-विधि ब्रिटिश शासन-काल में भारतीय न्यायालयों द्वारा लागू की जाती थी, वह व्यावहारिक रूप से इंग्लैण्ड के सामान्य कानून पर ही आधारित थी जिसे भारत की परिस्थितियों एवं दशाओं का विचार कर प्रयोग में लाया जाता था।
भारत में अंग्रेजी विधि के ऐसे नियमों को लागू नहीं किया जाता था जो भारतीय जीवन एवं रीति-रिवाजों से मेल न खाते हों। उच्चतम न्यायालय ने अपने कुछ नवीनतम निर्णयों में अंग्रेजी विधि के अपकृत्य के कुछ सिद्धान्तों को वर्तमान परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं माना।
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उदाहरण – एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के वाद में उच्चतम न्यायालय ने रायलैण्ड बनाम फ्लैचर नामक महत्वपूर्ण अंग्रेजी वाद के कठार दायित्व के सिद्धान्त को भारतीय परिस्थिति में अमान्य घोषित किया और इस संदर्भ में कठोर दायित्व का एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
मुख्य न्यायाधिपति श्री पी० एन० भगवती ने कहा कि हम किस देश में प्रचलित विधि या विधिक व्यवस्था से अपने न्यायिक विचार को सीमित नहीं कर सकते।
जब अपकृत्य कानून की उत्पत्ति हुई थी उस समय इसका सिद्धांत था “जहां उपचार है वहा अधिकार” भी है परंतु कांसटेनटाइन बनाम इसपीरियल लंदन होटल के वाद मे इस सिद्धांत को बदलकर “जहां अधिकार है वहां उपचार है” कर दिया गया इस तरीके से वर्तमान में भी कार्य किया जा रहा है भारत में भी यही विधि चल रही है|
अपकृत्य का उपयोग कानून में ऐसे कार्य के लिए किया जाता है जिससे कोई क्षति या अपकार हुआ हो। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि उसका प्रतिकार क्षतिपूर्ति के द्वारा संभव है। अपकृत्य, संविध के उल्लंघन से संबंधित नहीं है और साथ ही में वह अपराधिक भी नहीं होता।
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क्या भारत में अपकृत्य कानून आंग्ल विधि की देन
भारत मै अपकृत्य कानून, आंग्ल विधि की देन है| सन 1726 से वर्तमान तक भारतीय न्यायालयों मै अपकृत्य विधि लागु रही है लेकिन विकास की गति धीमी है इसके कई कारण है –
(i) विधि का संहिताबद्ध (codified) नहीं होना,
(ii) अनभिज्ञता, निर्धनता,
(iii) राजनैतिक शक्ति का अभाव आदि
अपकृत्य एक सिविल दोष है जिसका उपचार अपरिनिर्धारित नुकसानी के लिए कॉमन लॉ अनुयोजन है और यह संविदा भंग या कानून भंग या अन्य सामयिक बाधाओं का भंगीकरण नहीं है|
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद कानूनों में भारी फेर बदल हुआ है तथा विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों कानून पास किये गये हैं एवं वर्तमान में हो भी रहे हैं। किन्तु भारत में इस विधि का विकास तथा संहिताबद्ध न होने का प्रमुख कारण है|
भारतीय न्यायालयों में अपकृत्य संबंधी वाद बहुत कम संख्या में दायर किये जाते हैं, पर यह सत्य है कि इंग्लैंड की भांति भारत में इस विधि का पूर्ण संहिताकरण नहीं हुआ है वरन् उसकी उपेक्षा भी नहीं की गई है। भारतीय संसद ने समय-समय पर कई क्षेत्रों में अधिनियम पारित किये हैं।
भारत में अपकृत्य विधि के कुछ अंशों को निम्नलिखित रूप में अधिनियमित कर दिया गया है –
(1) घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 (The Fatal Accidents Act, 1855)
(2) वाहक अधिनियम, 1865 (The Carriers Act, 1865)
(3) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (The Specific Relief Act, 1963)
(4) सुखाचार अधिनियम, 1882 (The Easements Act, 1882)
(5) कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923 (The Workmen Compensation Act, 1923)
(6) पेटेन्ट्स ऐण्ड डिजाइन्स ऐक्ट, 1911 (The Patent and Designs Act, 1911)
(7) माल विक्रय अधिनियम, 1930 (The Sale of Goods Act, 1930)
(8) मोटर यान अधिनियम, 1988 (The Motor Vehicle Act, 1988)
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