नमस्कार दोस्तों, भारतीय संविधान भारत की सर्वोच्च विधि है। हमारा उद्देश्य भारतीय संविधान पर कुछ ऐसे आलेख प्रकाशित करना है जिनसे छोटे रूप व कम समय में संविधान की विशेषताओं का अध्ययन हो सके। इस आलेख का उद्देश्य भारतीय संविधान की विशेषता को इस प्रकार प्रस्तुत करना है जिससे संविधान की मूल बातों का भी सरलता के साथ अध्ययन हो सके।

भारतीय संविधान (Indian Constitution)

भारतीय संविधान एक पवित्र दस्तावेज है। इसमें विश्व के प्रमुख संविधानों की विशेषतायें समाहित है। भारतीय संविधान सभा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर थे उनकी अध्यक्षता मै कमेटी द्वारा कुल 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन के सतत् प्रयत्न, अध्ययन, विचार-विमर्श, चिन्तन एवं परिश्रम कर भारतीय संविधान भारत की जनता के सामने लाए। भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को सम्पूर्ण भारत पर लागू किया गया।

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भारतीय संविधान की विशेषता

हमारा संविधान विश्व का विशालतम संविधान है जो अपने अन्दर अनेक प्रकार की विशेषता समाहित किये हुए है, उनमे से कुछ विशेषता निम्नलिखित है –

विशालत्तम संविधान

सामान्य संविधान का आकार छोटा होता है। संविधान में मोटी-मोटी बातों का तो उल्लेख कर दिया जाता है और अन्य बातें अर्थान्वयन के लिए छोड़ दी जाती है। लेकिन भारत का संविधान इसके विपरीत है। भारत के संविधान का आकार न तो अधिक छोटा है और न ही अधिक बड़ा। संविधान सभा समिति ने सभी आवश्यक बातें समाहित करते हुए संतुलित आकार का रखा गया है।

भारतीय संविधान के मूल प्रारूप में 22 भाग 395 अनुच्छेद तथा 9 अनुसूचियां थी। इसमें संशोधनों के साथ-साथ अभिवृद्धि होती गई। सर आइवर जेनिंग्स के शब्दों में भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है। आलोचक इसे वकीलों का स्वर्ग कहकर सम्बोधित करते थे|

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सर्वप्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य

भारतीय संविधान का प्रमुख लक्षण सर्वप्रभुत्व लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना (Sovereign Democratic Republic) है। इसे सर्वप्रभुत्व सम्पन्न इसलिए कहा गया है क्योंकि इसकी सम्प्रभुता किसी विदेशी सत्ता में निहित नहीं होकर भारत की जनता में निहित है। यह बाहरी नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त है। अपनी आन्तरिक एवं बाहरी नीतियों का निर्धारण एवं नियंत्रण स्वयं भारत ही करता है। इसका मुख्य इसका मुख्य उदेश लोक कल्याण है।

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समाजवाद एवं धर्म निरपेक्षता

भारत का संविधान समाजवाद (Socialism) एवं धर्म निरपेक्षता (Secularism) का पोषक है। यह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समाजवादी समाज की संरचना के सपने को साकार करता है। इसकी प्रस्तावना में ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय (Social Economic and Political justice) का अवगाहन किया गया है।

संविधान का प्रमुख उद्देश्य सभी प्रकार के विभेदों को समाप्त कर समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना है। इसमें सभी धर्मो को समान मान्यता प्रदान की गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है। यह किसी भी व्यक्ति पर राजधर्म नहीं थोपता है।

उल्लेखनीय है कि अभिव्यक्ति समाजवाद एवं धर्म निरपेक्षता संविधान के मूल प्रारूप में समाहित नहीं थी। इसे संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय (Social Economic and Political justice) का वचन दिया है। (नंदिनी सुन्दर बनाम स्टेट आफ छत्तीसगढ ए.आइ.आई. 2011 एस.सी. 2839)।

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संसदीय शासन पद्धति

भारत राज्यों का एक संघ है और भारत का संविधान संघात्मक है। संघात्मक संविधान भी दो प्रकार का अध्यक्षात्मक एवं संसदीय है। अध्यक्षात्मक शासन पद्धति में राष्ट्रपति सर्वेसर्वा होता है और संसदीय शासन पद्धति में शासन की बागडोर जनता में निहित होती है। सरकार जनता की, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाई जाती है। जनप्रतिनिधि मंत्रिपरिषद के रूप में शासन का संचालन करते है। देश का राष्ट्रपति मुखिया अवश्य होता है लेकिन नाम मात्र का। यह मंत्रिमरिषद की सलाह से ही सारे कार्य करता है।

मूल अधिकार

भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता एवं उपलब्धि इसमें मूल अधिकारों (Fundamental Rights) का समाहित होना है। वर्षों से दासता के अधीन रहे भारतवासियों के लिए मूल अधिकार एक वरदान अथवा उपहारस्वरूप है। इनका मुख्य उद्देश्य भारत के नागरिकों के लिए विकास के अवसर उपलब्ध कराना है। संविधान के भाग तीन में नागरिकों के निम्न मूल अधिकार है

(1) समता का अधिकार

(2) स्वातंत्र अर्थात स्वतंत्रता का अधिकार

(3) प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का सरंक्षण

(4) गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण

(5) शोषण के विरूद्ध अधिकार

(6) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

(7) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा न्याय

(8) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

उल्लेखनीय है कि सम्पति का अधिकार पहले एक मूल अधिकार था, लेकिन कालान्तर में संशोधन द्वारा इसे एक संवैधानिक अधिकार मात्र बना दिया गया है।

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मूल कर्त्तव्य

संविधान में मूल अधिकार तो जोड़ दिये गये लेकिन मूल कर्त्तव्य रह गये। कालान्तर में संविधान में मूल कर्त्तव्यों को जोड़ने की आवश्यकता महसूस की गई। इसी का परिणाम है कि संविधान के 42वें संशोधन द्वारा एक नया भाग 4क अन्तः स्थापित कर अनुच्छेद 51क में निम्नांकित मूल कर्त्तव्य समाहित किये गये| मूल कर्त्तव्य निम्न है –

(क) संविधान का पालन करे और उनके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें,

(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का प्ररित करने वाले आदेशों को हृदय में संजोये रखे और उनका पालन करे,

(ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण रखें।

(घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे।

(ड) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के समान के विरूद्ध है,

(च) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे,

(छ) प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव है उनका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे,

(ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे,

(झ) सार्वजनिक सम्पति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे,

(ज) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरन्तर बढते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊचाइयों को छू लें।

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राज्य की नीति के निदेशक तत्व

भारतीय संविधान को इस तरह से बनाया गया है जो मानव जाती के लिए कल्याणकारी हो।

उनके अनुसार राज्य अपनी नीतियों का निर्धारण इस प्रकार करे कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर ऊँचा उठे, बालकों को निःशुल्क शिक्षा मिले, अर्थाभाव के कारण कोई भी व्यक्ति जीवन न्याय से वंचित न रहे, समान कार्य के लिए सभी को समान वेतन मिले, वृद्धावस्था एवं रूग्णावस्था में आर्थिक सम्बल दिया जाये, सत्ता का अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण हो आदि और इन कल्याणकारी उपलब्धों को लागु करना या नहीं करना राज्यों के आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता पर छोड दिया गया।

इस कारण इन्हें राज्य की नीति के निदेशक तत्वों (Directive Principles of state policy) के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

संविधान के भाग में इन नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है यद्यपि इन नीति निदेशक तत्वों को लागू करना राज्य के लिए आबद्धकर नहीं है, लेकिन एक कल्याणकारी राज्य के नाते राज्यों का यह नैतिक दायित्व बन जाता है कि वे इन्हें अधिकाधिक लागू करे।

वर्तमान मै न्यायपालिका के ऐसे कई विनिर्णय आ गये है जो इन नीति निदेशक तत्वों को भी मूल अधिकारों का दर्जा देते है।

कठोर एवं लचीलापन

भारतीय संविधान संशोधन की दृष्टि से न तो अधिक कठोर है और न ही अधिक लचीला। संविधान में संशोधन की ऐसी प्रक्रिया को अंगीकृत किया गया है जिसमे देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप इसमें संशोधन किया जा सके। यह इस बात का प्रमाण है कि सन् 2001 तक इसमें केवल 85 संशोधन हुए है।

वयस्क मताधिकार

भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अंगीकृत किया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में सत्ता जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में सुरक्षित रहती है। जनता द्वारा ही जन प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया जाता है। संविधान के अन्तर्गत निर्वाचन का यह अधिकार ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किया गया है जो वयस्क है अर्थात जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है।

संविधान के अनुच्छेद 326 के अन्तर्गत वयस्क मताधिकार (Adult suffrage) की संज्ञा दी गई है। एक वयस्क मताधिकार के सम्बन्ध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग आदि के आधार पर कोई विभेद नहीं किया गया है। यह भारत के संविधान की एक अनूठी विशेषता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता

न्यायपालिका लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। यह नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करती है। संविधान की रक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका पर ही है। इस कारण न्यायपालिका का स्वतंत्र होना अनिवार्य है। यह सुख का विषय है कि संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि न्यायपालिका की स्वत्रंतता को संविधान का आधारभूत ढांचा माना गया है जिसके साथ किसी प्रकार की छेडछाड़ नहीं की जा सकती है।

एकल नागरिकता

संविधान की एक और अनुपम विशेषता इसमें एकल नागरिकता का प्रावधान है। यहाँ का प्रत्येक नागरिक भारत का नागरिक (Citizen of India) कहलाता है। वह दोहरी नागरिकता का दावा नहीं कर सकता।

सत्ता का विकेन्द्रीकरण

भारतीय संविधान सत्ता के विकेन्द्रीयकरण (Decentralization of powers) में विश्वास रखता है। यह सत्ता किसी एक व्यक्ति के हाथों में केन्द्रीकृत न होकर जनता के हाथों में सन्निहित है। पंचायती राज्य व्यवस्था इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा इसे और अधिक सुदृढ़ बनाया गया है।

आरक्षण

भारतीय संविधान में सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान (103वाँ संशोधन) अधिनियम 2019 द्वारा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार भारत का संविधान एक अनूठा एवं विलक्षण संविधान है। इसे विश्व के आदर्श संविधानों में से एक की संज्ञा दी जा सकती है।

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