बार एवं बेंच न्याय प्रशासन के दो महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन दोनों को एक सिक्के के दो पहलू कहा जा सकता है या यों कहा जा सकता है कि इन दोनों में चोलीदामन का साथ है। बेंच यदि न्याय प्रदान करने का कार्य करती है तो बार उसमें सहायक बनती है। यही कारण है कि इन दोनों के बीच मधुर सम्बन्धों की अपेक्षा की जाती है।
बार एवं बेंच
बार से अभिप्राय – बार (Bar) का सामान्य अर्थ है, अधिवक्ताओं का समूह अर्थात् अधिवक्ताओं के समूह को बार कहा जाता है। इसे अभिभावक परिषद् के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।
एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार “बार के सन्दर्भ में न्यायालय कक्ष दो भागों में बँटा होता है, एक न्यायालय के अधिकारियों एवं अधिवक्ताओं के उपयोग के लिए और दूसरा जन साधारण के लिए। अतः बार से अभिप्राय है अधिवक्ताओं के बैठने का स्थान।”
कोरपस ज्यूरिस सेकण्डम के अनुसार “बार से अभिप्राय न्यायालय कक्ष के उस स्थान से है जहाँ अधिवक्ता एवं विधि सलाहकार बैठते हैं।”
बीविरूप लॉ डिक्शनरी के अनुसार “बार से अभिप्राय न्यायालय कक्ष के उस विनिर्दिष्ट स्थल से है जहाँ वकील बैठते हैं।”
एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना के अनुसार “बार से न्यायालय कक्ष के उस स्थान से है जो अधिवक्ताओं, विधि सलाहकारों, जूरी सदस्यों आदि के लिए आरक्षित या सुरक्षित रहता है।”
इस प्रकार बार (Bar) से अभिप्राय ऐसे स्थान से है, जहाँ अधिवक्ता बैठकर अपना सामान्य कामकाज निपटाते हैं।
बेंच से अभिप्राय-बार की तरह बेंच (Bench) से अभिप्रायं उस स्थान से है, जहाँ न्यायाधीश न्याय प्रशासन का कार्य करते हैं। वस्तुतः न्यायाधीशों का सामूहिक नाम ही बेंच है। बेंच उन व्यक्तियों की ओर इंगित करती है जो न्याय प्रदान करने का कार्य करते हैं।
इस प्रकार न्यायाधीशों का समूह या वर्ग ही बेंच कहलाती है। इसे न्यायपीठ भी कहा जाता है।
अधीनस्थ न्यायालयों में एकल न्यायाधीश बैठता है जबकि उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों में एकल न्यायपीठ (Single Bench), खण्ड न्यायपीठ (Division Bench), विशेष न्यायपीठ (Special Bench), संवैधानिक न्यायपीठ (Constitutional Bench), पूर्ण न्यायपीठ (Full Bench) आदि न्याय प्रशासन का कार्य करती है।
बार एवं बेंच के बीच सम्बन्धों का महत्त्व
जैसा कि हम जानते हैं कि, बार एवं बेंच का चोली-दामन का साथ है तथा दोनों ही न्याय प्रशासन के अहम् अंग हैं। इनमें से किसी के भी अभाव में न्याय की परिकल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन दोनों के मध्य मधुर सम्बन्धों का होना बहुत ही आवश्यक है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘इन रि रामेश्वर प्रसाद गोयल’ (ए.आई.आर. 2014 एस.सी. 850) के मामले में यह कहा गया कि, अधिवक्ता को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है। न्याय प्रशासन में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह व्यवसाय अपने आप में उच्च नैतिक मूल्यों की अपेक्षा करता है।
उसका मुख्य कार्य न्याय प्रदान करने में न्यायालय की सहायता करना है। वे न्याय प्रशासन में न्यायाधीशों के समान भागीदार होते हैं। अधिवक्ताओं का सही तौर पर कार्य नहीं करना लोकतंत्र के लिए संकटापन्न हो सकता है।
‘प्रेम सुराणा बनाम एडिशनल मुंसिफ एण्ड ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट’ (ए.आई.आर. 2002 एस. सी. 2956) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि “बार एवं बेंच के बीच गहन सामंजस्य होना अपेक्षित है। दोनों के बीच मधुर सम्बन्धों से ही संविधान के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।”
बार एवं बेंच के मध्य मधुर सम्बन्धों के लिए आवश्यक बातें
(1) सौम्य एवं शालीन व्यवहार –
बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए एक-दूसरे के प्रति सौम्य एवं शालीन व्यवहार बनाए रखना आवश्यक है। अपने आचरण एवं व्यवहार में अभद्रता, उद्दण्डता एवं अश्लीलता को स्थान नहीं दिया जाए। सौम्य एवं शालीन व्यवहार से कई बार कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाते हैं। न्यायालय में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। ऐसे वातावरण में यदि सौम्य एवं शालीन व्यवहार का परिचय दिया जाए तो वह मधुरता में परिवर्तित हो सकता है।
(2) भाषा में मधुरता –
सौम्य एवं शालीन व्यवहार से जुड़ा एक गुण है, भाषा अर्थात् वाणी में मधुरता। अधिवक्ता एवं न्यायाधीश ऐसी भाषा का प्रयोग न करें जिससे सम्बन्धों में कटुता आ जाए। भाषा मधुर, सन्तुलित एवं संसदीय होनी अपेक्षित है। भाषा से अनेक बार बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं और बिगड़े हुए काम बन जाते हैं। केवल न्यायालय में ही नहीं, न्यायालय से बाहर भी भाषा की मधुरता को बनाए रखना आवश्यक है।
(3) परस्पर सम्मान –
बार एवं बेंच दोनों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे परस्पर एक दूसरे का सम्मान करें। कोई भी अपने मन में अहम् को स्थान न दें और न एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करें। दोनों के बीच पारस्परिक सम्मान के भाव से ही न्याय की परिकल्पना सार्थक हो सकती है।
(4) निन्दा से बचें –
निन्दा एक घृणित कार्य है। इससे कटुता का जन्म होता है। अतः बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि वे एक-दूसरे की निन्दा करने से बचें। एक-दूसरे के न तो अवगुण देखे और न उनका सार्वजनिक रूप से उल्लेख करें। निन्दा से बार एवं बेंच के बीच दूरियाँ बढ़ने की आशंका प्रबल हो जाती है। आलोचना एवं टीका-टिप्पणी भी निन्दा के ही अंग हैं।
(5) आलोचना न करें –
अधिवक्ताओं द्वारा न्यायाधीशों की एवं न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं की अनावश्यक आलोचना से सम्बन्धों में विष व्याप्त हो जाता है। अतः अधिवक्ता न्यायाधीशों के न्यायायिक कार्यों, आचरण एवं व्यवहार की आलोचना से बचें। यही प्रवृत्ति न्यायाधीशों की भी होनी चाहिए। वे भी अधिवक्ताओं की अनावश्यक आलोचना नहीं करें।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों के न्यायिक कार्यों की समालोचना की जा सकती है, आलोचना नहीं।
(6) टीका-टिप्पणी न करें-
सामान्यतः यह देखा जाता है कि अधिवक्ताओं द्वारा न्यायाधीशा के आदेशों, निर्णयों, डिक्रियों आदि पर टीका-टिप्पणी की जाती है जिससे न्यायाधीशों के मन में अधिवक्ताओं के प्रति कटुता का भाव पैदा हो जाता है। यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं है। अपने पक्ष में निर्णय या आदेश नहीं होने पर टीका- टिप्पणी की बजाय अपील, पुनरीक्षण, पुनरावलोकन आदि का विधिक मार्ग अंगीकृत किया जाना चाहिए।
(7) निजी जीवन से सरोकार न रखें-
अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों को एक-दूसरे के निजी जीवन (Personal life) में झाँकने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे आपसी सम्बन्धों में कटुता का भाव उत्पन्न हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी जीवनशैली होती है। दूसरों को इससे सरोकार नहीं होना चाहिए।
बार एवं बेंच को अपना ध्यान न्यायिक कार्यों तक ही सीमित रखना चाहिए। किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप तभी किया जाना चाहिए जब उनके आचरण से न्याय प्रतिकूलतया प्रभावित हो रहा हो।
(8) क्रोध एवं उत्तेजना से बचें –
क्रोध एवं उत्तेजना मधुर सम्बन्धों के बीच दरार डालने वाले कारक हैं। क्रोध एवं उत्तेजना से अनेक बार न्यायालय के माहौल में गर्माहट आ जाती है जो न्याय के लिए अहितकर होती है। अतः बार एवं बेंच दोनों को क्रोध एवं उत्तेजना से बचना चाहिए। गम्भीर से गम्भीर एवं विकट से विकट परिस्थिति में भी बार एवं बेंच को शान्ति, धैर्य एवं शालीनता का परिचय देना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है और विवेकहीन न्याय अन्याय के तुल्य होता है।
(9) भेदभाव न करें-
न्यायाधीश अधिवक्ताओं के प्रति समानता का व्यवहार करें, उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करें, किसी के प्रति विशेष प्रीति और किसी के साथ अप्रीति का प्रदर्शन न करें, यह मधुर सम्बन्धों के अस्तित्व के लिए आंवश्यक है। जब न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो न्यायाधीशों के सम्मान में कमी आने लगती है और अधिवक्ता उन्हें हेय दृष्टि से देखने लगते हैं।
(10) अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय न दें –
बार एवं बेंच के सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय न दें अर्थात् दूसरे को अज्ञानी या मूर्ख नहीं समझें। इससे सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। अनावश्यक पाण्डित्य प्रदर्शन से ईर्ष्या का भाव भी पैदा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना पक्ष अत्यन्त शालीनता एवं विनम्रता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।
(11) न्यायालय को भ्रमित न करें –
धिवक्ता के अधिकारी एवं न्याय-प्रशासन में सहभागी माने जाते हैं। अतः बार से अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायालय के समक्ष सदैव सही तथ्य रखे। न्यायालय के समक्ष गलत तथ्य रखकर उसे भ्रमित न करें। इससे न्यायाधीशों के मन में अधिवक्ताओं के प्रति अविश्वास पैदा होने लगता है जो न्याय के लिए घातक हो सकता है।
(12) सुख-दुःख में सहभागी बनें –
बार एवं बेंच के सदस्यों को एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनना चाहिए। विवाह, मृत्यु, जन्मोत्सव आदि विशेष अवसरों पर एक-दूसरे के यहाँ आते जाते रहना चाहिए इससे सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है तथा एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति का भाव उपजता है।
(13) अनुचित कार्य न करें-
बार एवं बेंच को ऐसा कोई कार्य नहीं करना हिए जिससे मम्बन्धों में कड़वाहट पैदा हो। एक-दूसरे की गरिमा का ध्यान रखें। बात-बात में हड़ताल, बहिष्कार, नारेबाजी आदि का सहारा न लें। इन कार्यों से न केवल सम्बन्धों में कटुता आती है अपितु कभी-कभी ये अपराध अथवा कदाचार (Misconduct) का रूप भी धारण कर लेते हैं।
‘हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि अधिवक्ताओं को हड़ताल पर जाने या न्यायालयों का बहिष्कार करने का अधिकार नहीं है। इन आधारों पर सुनवाई स्थगित नहीं की जा सकती। ऐसे अधिवक्ताओं से खर्चों को पूर्ति कराई जा सकती है। (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 739)
आर. करुप्पन बनाम पेटून, चिन्नेई राईफल्स के मामले में चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- बेंच के प्रति अभद्र शब्दों का प्रयोग करना तथा पत्र-पत्रिकाओं में अपमानजनक कथन प्रकाशित करना न्यायालय का अवमान ही नहीं, अपितु न्यायालय की गरिमा के विरुद्ध भी है। ऐसे कार्यों से बार-बेंच के सम्बन्धों में मधुरता भी समाप्त हो जाती है। अतः ऐसे कार्यों से बचा जाना अपेक्षित है। (ए.आई.आर. 2004 चेन्नई 167)
इन रि विनयचन्द्र के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि- न्यायालय अधिवक्ताओं का सम्मान करता है तथा उनकी बात को ध्यान से सुनता है। अतः अधिवक्ता का भी यह कर्तव्य है कि वह न्यायालय का सम्मान करें। न्यायालय के प्रश्नों का शान्ति से उत्तर दें। न्यायालय की गरिमा को बनाए रखें। यदि अधिवक्ता ही न्यायालय की गरिमा को आघात पहुँचाए तो यह दुर्भाग्रूपूर्ण है। (ए.आई.आर. 1995 एस. सी. 2348)
इस प्रकार बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए उपरोक्त सभी बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
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