इस आलेख में बार और बेंच संबंध क्या है? और बेंच और बार के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के तरीके क्या हैं? तथा न्यायालय में अधिवक्ता एंव नयायाधीश को आपस में कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि को आसान शब्दों में बताया गया है

बार और बेंच संबंध क्या है?

बार और बेंच दोनों अलग अलग तत्व है लेकिन इन दोनों का उद्देश्य समाज में न्याय प्रदान करना है| न्याय प्रशासन के सुचारू संचालन में बार और बेंच का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है इसलिए बार और बेंच को न्याय प्रशाशन के मुख्य अंग कहा जाता है| बार और बेंच को एक सिक्के के दो पहलू भी कहा जाता है|

आम भाषा में बार और बेंच को चोलीदामन का साथ भी कहा जाता है। बेंच यदि न्याय प्रदान करने का कार्य करती है तो बार उसमें सहायक बनती है। इसी कारण इन दोनों के मध्य अच्छे एंव मधुर सम्बन्धों की अपेक्षा की जाती है।

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बार से तात्पर्य –

अधिवक्ताओं का समूह है अर्थात् अधिवक्ताओं के समूह को बार कहा जाता है। अधिवक्ताओं के समूह को अभिभावक या अभिभाषक परिषद् के नाम से भी जाना जाता है।

एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार – बार के सन्दर्भ में न्यायालय कक्ष दो भागों में बिभाजित होता है जिनमे एक कक्ष न्यायालय के अधिकारियों एवं अधिवक्ताओं के उपयोग के लिए और दूसरा कक्ष जन साधारण के लिए होता है।

कोरपस ज्यूरिस सेकण्डम के अनुसार – बार से तात्पर्य न्यायालय कक्ष के उस स्थान से है, जहाँ अधिवक्ता एवं विधि सलाहकार बैठते हैं। यानि बार से अभिप्राय, अधिवक्ताओं के बैठने के स्थान से है, जहाँ अधिवक्ता बैठकर अपना सामान्य कामकाज करते हैं।

इसी तरह बीविरूर्य लॉ डिक्शनरी के अनुसार – बार से तात्पर्य न्यायालय कक्ष के उस विनिर्दिष्ट स्थल से है जहाँ वकील बैठते हैं।

एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना के अनुसार – बार से न्यायालय कक्ष के उस स्थान से है जो अधिवक्ताओं, विधि सलाहकारों, जूरी सदस्यों आदि के लिए आरक्षित या सुरक्षित रहता है।

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बेंच से तात्पर्य –

बार की तरह बेंच (Bench) से तात्पर्य उस स्थान से है, जहाँ न्यायाधीश बैठकर न्याय प्रशासन का कार्य करते हैं। यानि न्यायाधीशों का सामूहिक नाम ही बेंच है। बेंच उन व्यक्तियों की ओर इंगित करती है जो न्याय प्रदान करने का कार्य करते हैं।

इस प्रकार न्यायाधीशों के समूह या वर्ग ही बेंच कहलाती है, इसे हम न्यायपीठ भी कह सकते है।

अधीनस्थ न्यायालयों में एकल न्यायाधीश बैठता है जबकि उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों में एकल न्यायपीठ (Single Bench), खण्ड न्यायपीठ (Division Bench), विशेष न्यायपीठ (Special Bench), संवैधानिक न्यायपीठ (Constitutional Bench), पूर्ण न्यायपीठ (Full Bench) आदि न्याय प्रशासन का कार्य करती है।

बार और बेंच के मध्य सम्बन्धों का महत्त्व

जैसा कि हम जानते हैं की बार एवं बेंच में चोली-दामन का साथ होता है। यह दोनों न्याय प्रशासन के अहम् अंग हैं। इनमें से किसी के भी अभाव में न्याय की परिकल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन दोनों के मध्य मधुर सम्बन्धों का रहना बहुत ही जरुरी है।

अधिवक्ता को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है और न्याय प्रशासन में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अधिवक्ता का मुख्य कार्य न्याय प्रदान करने में न्यायालय की सहायता करना है।

अधिवक्ता, न्याय प्रशासन में न्यायाधीशों के समान ही भागीदार होते हैं तथा उनका न्यायालय में सही तौर पर कार्य नहीं करना लोकतंत्र के लिए संकट उत्पन्न कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने प्रेम सुराणा बनाम एडिशनल मुंसिफ एण्ड ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट (ए.आई.आर. 2002 एस. सी. 2956) के मामले में कहा है कि, बार और बेंच के बीच गहन सामंजस्य होना चाहिए और दोनों के बीच मधुर सम्बन्धों से ही संविधान के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

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बार और बेंच में मधुर सम्बन्धों के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक है –

(1) सौम्य एवं शालीन व्यवहार –

बार और बेंच के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए उनके लिए एक दूसरे के प्रति सौम्य एवं शालीन व्यवहार बनाए रखना आवश्यक है। अपने आचरण एवं व्यवहार में अभद्रता, उद्दण्डता एवं अश्लीलता को स्थान नहीं दिया जाना चाहिए। सौम्य एवं शालीन व्यवहार से कई बार कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाते हैं।

न्यायालय में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो बाती हैं जिससे वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। ऐसे वातावरण में यदि सौम्य एवं शालीन व्यवहार का परिचय दिया जाए तो वह वातावरण मधुरता में परिवर्तित हो सकता है।

(2) भाषा में मधुरता –

सौम्य एवं शालीन व्यवहार से जुड़ा एक गुण है – भाषा अर्थात् वाणी में मधुरता। अधिवक्ता एवं न्यायाधीश को ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे सम्बन्धों में कटुता आ जाए। भाषा मधुर, सन्तुलित एवं संसदीय होनी अपेक्षित है।

भाषा से अनेक बार बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं और बिगड़े हुए काम बन जाते हैं। केवल न्यायालय में ही नहीं, न्यायालय से बाहर भी भाषा की मधुरता को बनाए रखना जरुरी है।

बेंच के प्रति अभद्र शब्दों का प्रयोग करना तथा पत्र-पत्रिकाओं में अपमानजनक कथन प्रकाशित करना न्यायालय का ना केवल अवमान वरन ऐसा करना न्यायालय की गरिमा के खिलाफ भी है। ऐसे कार्यों से बार और बेंच के सम्बन्धों में मधुरता भी समाप्त हो जाती है इसलिए ऐसे कार्यों से बचना चाहिए।

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(3) परस्पर सम्मान –

बार और बेंच दोनों से यह आशा की जाती है कि वे परस्पर एक दूसरे का सम्मान करें। कोई भी अपने मन में अहम्, घमंड को स्थान ना दें और ना ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करें। दोनों के मध्य पारस्परिक सम्मान के भाव से ही न्याय की परिकल्पना सार्थक हो सकती है।

(4) निन्दा से बचें –

निन्दा एक घृणित कार्य है, इससे कटुता का जन्म होता है इसलिए बार और बेंच के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि वे एक-दूसरे की निन्दा करने से बचें। एक-दूसरे के ना तो अवगुण देखे और ना ही उनका सार्वजनिक रूप से उल्लेख करें।

निन्दा से बार और बेंच के मध्य दूरियाँ बढ़ने की आशंका बढ़ जाती है। आलोचना एवं टीका टिप्पणी भी निन्दा के ही अंग माने गए हैं।

(5) आलोचना न करें –

अधिवक्ताओं द्वारा न्यायाधीशों की एवं न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं की अनावश्यक आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे आपसी सम्बन्धों में विष व्याप्त हो जाता है।

इस कारण अधिवक्ता को न्यायाधीशों के न्यायायिक कार्यों, आचरण एवं व्यवहार की आलोचना करने से बचना चाहिए और यही प्रवृत्ति न्यायाधीशों को भी अपनानी चाहिए ताकि वे भी अधिवक्ताओं की अनावश्यक आलोचना करने से बचे।

यहाँ यह महत्वपूर्ण बिन्दु है कि, न्यायाधीशों के न्यायिक कार्यों की समालोचना की जा सकती है लेकिन आलोचना नहीं।

(6) टीका-टिप्पणी नहीं करना –

आम-तौर यह पाया जाता है कि, अधिवक्ताओं द्वारा न्यायाधीशा के आदेशों, निर्णयों, डिक्रियों आदि पर टीका टिप्पणी की जाती है जिससे न्यायाधीशों के मन में अधिवक्ताओं के प्रति कटुता का भाव पैदा हो जाता है।

चूँकि इस तरह की टिका टिपण्णी की प्रवृत्ति अच्छी नहीं है इसलिए अधिवक्ता को चाहिए की वह अपने पक्ष में निर्णय या आदेश नहीं होने पर टीका-टिप्पणी की बजाए अपने मुवक्किल को अपील, पुनरीक्षण, पुनरावलोकन आदि का विधिक मार्ग अपनाने की सलाह देवें।

(7) निजी जीवन से सरोकार नहीं रखें –

अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों को एक-दूसरे के निजी जीवन में झाँकने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे आपसी सम्बन्धों में कटुता का भाव उत्पन्न हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी जीवनशैली होती है। दूसरों को इससे सरोकार नहीं होना चाहिए।

बार और बेंच को अपना ध्यान न्यायिक कार्यों तक ही सीमित रखना चाहिए। किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप तभी किया जाना चाहिए जब उनके आचरण से न्याय प्रतिकूलतया प्रभावित हो रहा हो।

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(8) क्रोध एवं उत्तेजना से बचें –

क्रोध एवं उत्तेजना मधुर सम्बन्धों के बीच दरार डालने वाला तत्व हैं। क्रोध एवं उत्तेजना से अनेक बार न्यायालय के वातावरण में गर्माहट आ जाती है जो न्याय प्रशासन के संचालन के लिए अच्छी बात नहीं है। इस कारण बार और बेंच दोनों को क्रोध एवं उत्तेजना से बचना चाहिए।

गम्भीर से गम्भीर एवं विकट से विकट परिस्थिति में भी बार और बेंच को शान्ति, धैर्य एवं शालीनता का परिचय देना चाहिए, ऐसा माना जाता है कि क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है और विवेकहीन न्याय, अन्याय के तुल्य होता है।

(9) भेदभाव नहीं करें –

न्यायाधीश, अधिवक्ताओं के प्रति समानता का व्यवहार करें, उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करें, किसी के प्रति विशेष प्रीति और किसी के साथ अप्रीति का प्रदर्शन न करें, यह मधुर सम्बन्धों के अस्तित्व के लिए आंवश्यक है।

जब न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो न्यायाधीशों के सम्मान में कमी आने लगती है और अधिवक्ता उन्हें हेय दृष्टि से देखने लगते हैं।

(10) अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय नहीं देवें –

बार और बेंच के सदस्यों से यह आशा की जाती है कि, वे अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय न दें अर्थात् दूसरे को अज्ञानी या मूर्ख नहीं समझें क्योंकि इससे सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है।

अनावश्यक पाण्डित्य प्रदर्शन से ईर्ष्या का भाव भी पैदा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना पक्ष अत्यन्त शालीनता एवं विनम्रता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।

(11) न्यायालय को भ्रमित न करें –

अधिवक्ताओं को न्यायालय के अधिकारी एवं न्याय प्रशासन में सहभागी माने जाते हैं। इसलिए बार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायालय के समक्ष सदैव सही तथ्य रखे।

न्यायालय के समक्ष गलत तथ्य रखकर उसे भ्रमित नहीं करें। इससे न्यायाधीशों के मन में अधिवक्ताओं के प्रति अविश्वास पैदा होने लगता है जो न्याय के लिए घातक साबित हो सकता है।

(12) सुख-दुःख में सहयोगी बनें –

बार और बेंच के सदस्यों को एक दूसरे के सुख एंव दुख में सहयोगी बनना चाहिए। विवाह, मृत्यु, जन्मोत्सव आदि विशेष अवसरों पर एक-दूसरे के यहाँ आते जाते रहना चाहिए इससे सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है तथा एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति का भाव पैदा होता है।

(13) अनुचित कार्य नहीं करें –

बार और बेंच को ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे आपसी सम्बन्धों में कड़वाहट पैदा हो जाए, बार और बेंच को एक-दूसरे की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए तथा बात-बात में हड़‌ताल, बहिष्कार, नारेबाजी आदि का सहारा नहीं लेना चाहिए।

इन कार्यों से ना केवल सम्बन्धों में कटुता आती है वरन कभी-कभी ये अपराध अथवा कदाचार (Misconduct) का रूप भी धारण कर लेते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के मामले में कहा है कि, अधिवक्ताओं को हड़ताल पर जाने या न्यायालयों का बहिष्कार करने का अधिकार नहीं है और इन आधारों पर सुनवाई स्थगित नहीं की जा सकती। ऐसे अधिवक्ताओं से खचों की पूर्ति कराई जा सकती है। (ए.आई. आर. 2003 एस. सी. 739)

माननीय न्यायालय द्वारा इन रि विनयचन्द्र के मामले में कहा गया है कि, न्यायालय अधिवक्ताओं का सम्मान करता है तथा उनकी बात को ध्यान से सुनता है। अतः अधिवक्ता का भी यह कर्त्तव्य है कि वह न्यायालय का सम्मान करें।

न्यायालय के प्रश्नों का शान्ति से उत्तर दें, उसकी गरिमा को बनाए रखें। यदि अधिवक्ता ही न्यायालय की गरिमा को आघात पहुँचाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। (ए.आई.आर. 1995 एस. सी. 2348)

इस प्रकार बार और बेंच के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के लिए उपरोक्त सभी बातों पर ध्यान दिया जाना तथा उनका पालन करना दोनों के लिए आवश्यक है।

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