नमस्कार दोस्तों, इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत प्राङ्न्याय का सिद्धान्त क्या है, प्राङ्न्याय के आवश्यक तत्त्वों एंव क्या प्राङ्न्याय का सिद्धान्त मध्यस्थ कार्यवाहियों एवं समझौता डिक्रियों पर लागू होता है के बारे में बताया गया है, अगर आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा की  तैयारी कर रहे है, तो ऐसे में आपको ‘प्राङ्न्याय का सिद्धान्त (doctrine of res judicata) के बारे में जानना जरुरी है – 

प्राङ्न्याय का सिद्धान्त (doctrine of res judicata)

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 11 में प्राङ्न्याय (रेस ज्युडिकेटा) से सम्बंधित प्रावधान किये गए है| इस आलेख में प्राङ्न्याय के सिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किये गए है। संहिता की धारा 11 के अनुसार न्यायालय किसी ऐसे वाद या वाद बिन्दु का विचारण नहीं करेगा और ना ही उसी वाद बिन्दु पर दुबारा वाद स्वीकार किया जायेगा जहाँ कोई वाद बिन्दु उन्हीं पक्षकारों के बीच सक्षम न्यायालय द्वारा पूर्व में अन्तिम रूप से निर्णीत हो चुका हो।

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त का विधि एवं न्याय के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे ‘पूर्व न्याय का सिद्धान्त’ भी कहा जाता है। यह अत्यन्त प्राचीन सिद्धान्त है इसका मिताक्षरा में भी उल्लेख मिलता है।
मैकनॉटन एवं कोलबुक्स ने भी इस सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए कहा है कि – एक विवाद के लिए एक वाद और एक विनिश्चय पर्याप्त है। (One suit and one decision is enough for any single dispute.) वस्तुतः यही प्राङ्न्याय का सिद्धान्त है।

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प्राङ्न्याय क्या है ?

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 प्राङ्न्याय के बारे में प्रावधान करती है, इसके अनुसार – “कोई न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिन्दु का विचारण नहीं करेगा जिसके वाद पद में वह विषय, उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा उन पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन वे अथवा उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत मुकदमे बाजी करने का दावा एक ऐसे न्यायालय में करता है, जो कि ऐसे परवर्ती वाद अथवा ऐसे वाद जिसमें ऐसा वाद बिन्दु बाद में उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, किसी पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्ष एवं सारवान् रूप से रहा हो और सुना जा चुका हो तथा अन्तिम रूप से ऐसे न्यायालय द्वारा निर्णीत हो चुका हो।”

आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – जहाँ कोई बाद बिन्दु उन्हीं पक्षकारों के बीच सक्षम न्यायालय द्वारा पूर्व में अन्तिम रूप से निर्णीत हो चुका हो, वहाँ उसी वाद बिन्दु पर न तो दुबारा वाद लाया जा सकेगा और न उसका विचारण किया जा सकेगा।

प्राङ्न्याय का सिद्धान्त का उद्देश्य

यह सिद्धान्त एक विषय पर एक ही निर्णय को महत्त्व प्रदान करता है तथा दूसरे का अपवर्जन करता है। जिसका मुख्य उद्देश्य वादों की बाहुल्यता (Multiplicity of suits) को रोकना है। यदि यह सिद्धान्त नहीं होता तो वादों का कभी अन्त नहीं होता और निर्णय कभी अन्तिम नहीं होता। एक व्यक्ति एक ही वाद बिन्दु पर अनेकों बार वाद दायर कर देता।

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प्रमुख रूप से इस सिद्धान्त के तीन उद्देश्य माने जा सकते है –

(क) मुकदमे बाजी को समाप्त करना,

(ख) दोहरे वाद से सुरक्षा प्रदान करना, तथा

(ग) न्यायालय के निर्णय को अन्तिम रूप प्रदान करना। (गुलाम अब्बास बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश, ए. आई. आर. 1981 एस. सी. 2198)

केस – सत्याचरण बनाम देवराजन (ए. आई. आर. 1962 एस. सी. 941)

इस प्रकरण में माननीय न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – “प्राङ्न्याय की सिद्धान्त न्यायिक निर्णयों को अन्तिम स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता पर आधारित है इसके अनुसार किसी न्यायालय द्वारा एक बार विनिश्चत की गई बात पर पुनः निर्णय नहीं किया जा सकता।”

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है –  के विरुद्ध संविदा के आधार पर मालिक की हैसियत से  वाद लाता है जो खारिज कर दिया जाता है। उसके पश्चात्  पुनः  के विरुद्ध उसी संविदा के आधार पर अभिकर्ता (agent) की हैसियत से वाद लाता है, उस स्थिति में यह वाद प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित माना गया।

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प्राङ्न्याय का सिद्धान्त के आवश्यक तत्त्व

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त के मुख्यत पाँच तत्त्व है या यह कहा जा सकता है कि, प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए पाँच शर्तों का पूरा होना आवश्यक है। यह पाँचों तत्त्व अथवा शर्तें निम्न है –

(क) वादग्रस्त विषय –

परवर्ती वाद या वाद पद में प्रत्यक्षतः और सारतः (directly or substantially) वाद पदग्रस्त विषय वही होना चाहिए जो या तो वास्तविक रूप में था अन्वयाश्रित रूप में (actually and constructively) पूर्ववर्ती वाद में वादग्रस्त था।आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए पश्चात्वर्ती वाद में के वाद पदग्रस्त विषय का पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारतः वादपदग्रस्त विषय रहा होना चाहिए।

केस – आर. पी. गुप्ता बनाम श्रीकृष्ण पोद्दार (ए. आई. आर. 1965 एस. सी. (316) –

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि यदि पश्चात्वर्ती बाद में वह विषय वादग्रस्त नहीं हो जो कि पूर्ववर्ती बाद में वादग्रस्त था, तो वहाँ प्राङ्न्याय का सिद्धान्त, लागू नहीं होगा।

उदाहरण – क द्वारा  के विरुद्ध पट्टे के आधार पर निष्कासन का वाद लाया गया जो डिक्री किया गया लेकिन डिक्री का निर्धारित समयावधि में निष्पादन नहीं हो पाया। तत्पश्चात्  द्वारा  के विरुद्ध स्वत्व के आधार पर निष्कासन का वाद संस्थित किया जाता है।उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में इसे प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित नहीं माना है, इसके अलावा जहाँ किसी वाद में वाद हेतुक पूर्णतः भिन्न हो, वहाँ प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

केस – सरदार बाई बनाम मथरी बाई (ए.आई.आर. 2005 एन.ओ.सी. 251 मध्यप्रदेश) –

इस प्रकरण में एक ही पक्षकारों के बीच पूर्ववर्ती वाद में प्रतिकूल कब्जे द्वारा स्वत्व की पूर्णता का प्रश्न प्रत्यक्ष एवं सारवान रूप से अन्तर्ग्रस्त था। पुनः स्वत्व की घोषणा बाबत वाद लाया गया। न्यायालय द्वारा इसे प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित माना गया।

इसी प्रकार भूपसिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में पूर्ववर्ती वाद सरकार को भूमि को नीलाम करने तथा वादी को बेकब्जा करने से रोकने हेतु शाश्वत व्यादेश के लिए लाया गया था। बाद वाला वाद आज्ञापक व्यादेश के लिए लाया गया। इसमें पूर्व वाद का निर्णय पश्चात्वर्ती वाद पर प्राङ्न्याय का प्रभाव रखने वाला माना गया। (ए.आई.आर. 2009 एन.ओ.सह. 96 पंजाब एण्ड हरियाणा)

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(ख) वाद के पक्षकार –

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की दूसरी शर्त पश्चात्वर्ती वाद में के पक्षकारों का वे ही पक्षकार या ऐसे पक्षकार जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हों, होना आवश्यक है जो पूर्ववर्ती वाद में थे। यदि पश्चात्वर्ती वाद में के पक्षकार पूर्ववर्ती वाद में के पक्षकारों से भिन्न है तो प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

उदाहरण –  द्वारा  के विरुद्ध किराये के लिए बाद संस्थित किया जाता है यहां  यह तर्क प्रस्तुत करता है कि परिसर का मालिक  नहीं होकर  है।  वाद में अपना स्वत्व साबित करने में असफल रहता है। तत्पश्चात्  तथा  दोनों के विरुद्ध परिसर के सम्बन्ध में अपने स्वत्व की घोषणा के लिए वाद संस्थित करता है। इसे प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित नहीं माना गया, क्योंकि दोनों वादों में पक्षकार भिन्न-भिन्न थे।

(ग) वाद कारण –

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की तीसरी शर्त पश्चात्वर्ती एवं पूर्ववर्ती वाद के पक्षकारों का एक ही हक़ अर्थात् हैसियत (title) के अन्तर्गत दावा किया जाना है। यदि कोई व्यक्ति पूर्ववर्ती वाद एवं पश्चात्वर्ती वाद में अलग-अलग हैसियत से पक्षकार रहा हो तो प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

उदाहरण –  के विरुद्ध एक मृतक महन्त के वारिस की हैसियत से  दावा करते हुए एक मठ की सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए वाद लाता है। वाद खारिज हो जाता है क्योंकि  द्वारा अपने आपको  का वारिस साबित नहीं किया जा सका। अब  के विरुद्ध मठ की सम्पत्ति के लिए मठ की ओर से मठ के व्यवस्थापक की हैसियत से दूसरा वाद लाता है, इसे प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित नहीं माना गया क्योंकि  की दोनों वादों में भिन्न-भिन्न हैसियत रही है।

(घ) सक्षम न्यायालय –

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की चौथी शर्त पूर्ववर्ती वाद का विचारण करने वाले न्यायालय का पश्चातवर्ती वाद का विचारण करने के लिए सक्षम (competent) होना आवश्यक है।

उदाहरण – परिसर को खाली कराने तथा बकाया किराये की वसूली के लिए एक वाद मुसिफ न्यायालय में लाया गया। बाद में स्वत्व की घोषणा का एक अन्य वाद अन्य न्यायालय में संस्थित किया गया जिसकी सुनवाई करने की अधिकारिता मुसिफ न्यायालय को नहीं थी। इसे प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित नहीं माना गया।प्राङ्न्याय का सिद्धान्त ऐसे मामलों में लागू नहीं होगा जिनमें किसी न्यायालय द्वारा अधिकारिता के अभाव में (Without jurisdiction) निर्णय दिया गया हो।

केस – बेगराज सिंह बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ कन्सोलीडेशन मेरठ (ए.आई.आर. 2009 एन.ओ.सी. 54 इलाहाबाद) –

इस मामले में पूर्ववर्ती बाद न्यायालय की अधिकारिता के अभाव में खारिज किया गया था। पश्चात्वर्ती वाद प्राङ्न्याय के आधार पर वर्जित नहीं माना गया।

(ड) अन्तिम निर्णय होना –

प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की अन्तिम एंव महत्त्वपूर्ण शर्त पूर्ववर्ती बाद में के वादग्रस्त विषय की सुनवाई की जाकर उसकी अन्तिम रूप से विनिश्चित किया जाना है। यदि अन्य शर्ते पूरी हो जाती है और यह शर्त पूरी नहीं होती है तब प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

यदि कोई वाद आदेश 9 नियम 8 के अन्तर्गत व्यतिक्रम के आधार पर खारिज किया जाता है तो उस पर प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा क्योंकि यह मामले का गुणागुण पर निस्तारण नहीं है।

केस – बदामीलाल बनाम हर्षवर्द्धन (ए.आई.आर. 1994 राजस्थान 9) –

इस मामले में माननीय न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पूर्ववर्ती वाद का विनिश्चय दोनों पक्षकारों को सुनवाई का अवसर प्रदान कर किया जाना प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए आवश्यक है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती वाद में वादग्रस्त बिन्दु का गुणागुण पर (orn merits) निस्तारण किया जाना आवश्यक है।

केस – स्टेट ऑफ बिहार बनाम एस. आर. सैदूर रहमान (ए.आई.आर, 2009 एन.ओ.सी. 363 पटना) –

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ पूर्ववर्ती वाद सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन नोटिस नहीं दिये जाने के तकनीकी आधार पर खारिज किया गया हो, न कि गुणागुण (On merits) पर, वहाँ प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

केस – स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम मै. नेशनल कन्स्ट्रक्शन कम्पनी (ए.आई.आर. 1996 एम. सी. 2367) –

इस प्रकरण अनुसार किसी मामले में प्राङ्न्याय का सिद्धान्त तभी लागू होगा जब –

(i) पूर्ववर्ती बाद में पश्चातवर्ती बाद में के वादग्रस्त सारवान् रूप से अन्तर्ग्रस्त रहे हो, विषय प्रत्यक्षतः एवं

(ii) ऐसे वादग्रस्त विषयों का अन्तिम रूप से विनिश्चय किया गया हो,

(iii) ऐसा विनिश्चय सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया हो, तथा

(iv) विनिश्चय से पूर्व पक्षकारों को सुनवाई का अवसर प्रदान किया गया हो।

इस प्रकार प्राङ्न्याय के सिद्धान्त के लागू होने के लिए उपरोक्त सभी शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।

प्राङ्न्याय का सिद्धान्त की प्रयोज्यता

कई बार हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि, क्या प्राङ्न्याय का सिद्धान्त मध्यस्थ कार्यवाहियों एवं समझौता डिक्रियों पर भी लागू होता है| इस सम्बन्ध में संहिता एंव माननीय न्यायालयों की निर्णय में निम्नलिखित प्रावधान मिलते है –

समझौता डिक्री पर प्रयोज्यता –

समझौता डिक्री पर प्राङ्न्याय का सिद्धान्त अनन्य रूप से लागू नहीं होता है क्योंकि उसमें पक्षकारों के अधिकारों का न्याय निर्णयन (adjudication) नहीं होता है। (मै. ए.ए. एसोसियेट्स बनाम प्रेम गोयल, ए. आई. आर. 2002 दिल्ली 142)

इसी प्रकार उपहरास लेथासम बनाम एसिबेल लिंगडोल के प्रकरण में न्यायालय द्वारा कहा गया है कि प्राङ्न्याय का सिद्धान्त समझौता डिक्री अथवा आदेशों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि समझौता पक्षकारों के बीच किया गया एक करार मात्र होता है, न्यायालय द्वारा उसमें कुछ भी विनिश्चत नहीं किया जाता है। (ए. आई. आर. 1986 गुवाहाटी 55)

मध्यस्थ कार्यवाहियों पर प्रयोज्यता –

किसी पंचाट (award) पर आधारित डिक्रियों एवं निर्णयों पर प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू होता है बशर्ते कि –

(क) कार्यवाही दोनों पक्षकारों को सुनवाई का अवसर प्रदान करते हुए,

(ख) गुणावगुण पर (on merits),

(ग) अन्तिम रूप से विनिश्चत की गई हो।

निष्पादन कार्यवाहियों पर प्रयोज्यता –

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के सातवें स्पष्टीकरण के अनुसार प्राङ्न्याय का सिद्धान्त निष्पादन कार्यवाहियों (execution proceedings) पर लागू होता है।

केस – बी. एथिराज बनाम ए. श्रीदेवी (ए.आई. आर. 2014 कर्नाटक 58)

इस प्रकरण अनुसार, ऐसे मामलों में प्राङन्याय का सिद्धान्त लागू होगा, जहाँ –

(i) प्रतिवादी ने विचारण न्यायालय के निर्णय को स्वीकार कर लिया हो, तथा

(ii) उसके द्वारा ऐसे निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं की गई हो।

अन्तरण प्रार्थनापत्रों पर प्रयोज्यता मामलों के अन्तरण के प्रार्थनापत्रों पर प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लागू नहीं होता है, क्योंकि इससे पक्षकारों के अधिकारों का न्यायनिर्णयन नहीं होता है

प्राङ्न्याय एवं विबन्ध में अन्तर (रेस ज्यूडिकाटा और एस्टोपेल में अंतर)

प्राङ्न्याय एवं विबन्ध के बीच निम्नांकित अन्तर पाया जाता है –

(1) प्राङ्न्याय न्यायालय के निर्णय या विनिश्चिय की परिणाम है, जबकि विबन्ध (estoppel) पक्षकारों के कार्यों का परिणाम है।

(2) प्राङ्न्याय किसी व्यक्ति को एक ही वादग्रस्त विषय के लिए दुबारा वाद संस्थित करने से रोकता है, जबकि विबन्ध एक व्यक्ति को एक समय में एक बात कहने तथा दूसरे समय उससे विपरीत बात कहने से रोकता है।

(3) प्राङ्न्याय का मुख्य उद्देश्य वादों की बाहुल्यता को रोकना तथा न्यायालय के निर्णय को अन्तिम रूप प्रदान करना है, जबकि विबन्ध का मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति को प्रतिकूल आचरण करने से रोकना है।

(4) प्राङ्न्याय दोनों पक्षकारों पर आबद्धकार होता है जबकि विबन्ध केवल कथन करने वाले पक्षकार पर लागू होता है।

(5) प्राङ्न्याय पश्चात्वर्ती न्यायालय की अधिकारिता को अपवर्जित करता है, जबकि विबन्ध प्रथम पक्षकार को विपरीत बात कहने से निवारित करता है।

(6) प्राङ्न्याय का सिद्धान्त लोकनीति पर आधारित होकर राज्य हित में है, जबकि विबन्ध का सिद्धान्त पीड़ित पक्षकार के हितों की रक्षा करता है।

(7) प्राङ्न्याय का सिद्धान्त न्यायालय के निर्णयों की सत्यता में विश्वास करने को प्रेरित करता है, जबकि विबन्ध का सिद्धान्त किसी पक्षकार को पश्चातवर्ती सत्य बात कहने से रोकता है।

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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)