हेलो दोस्तों, इस आलेख में प्रत्याभूति की संविदा किसे कहते है | Contract of Guarantee | इसकी परिभाषा तथा प्रत्याभूति की संविदा के आवश्यक तत्व के बारे मे आसान शब्दों में बताया गया है| यह आलेख विधि के छात्रो के साथ साथ आमजन के लिए भी उपयोगी है।

परिचय – प्रत्याभूति की संविदा

क्षतिपूर्ति की संविदा की भाँति प्रत्याभूति संविदा भी एक विशिष्ट प्रकार की संविदा है। इस संविदा में किसी व्यक्ति द्वारा संविदा का पालन नहीं किये जाने पर उसके पालन का दायित्व अन्य व्यक्ति द्वारा अपने ऊपर लिया जाता है।

प्रत्याभूति संविदा की परिभाषा

भारतीय संविदा अधिनिमय 1872 की धारा 126 में प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार – प्रत्याभूति की संविदा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उसके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा।

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सरल शब्दों में जब कोई व्यक्ति अपने बचाव का पालन न करें, तब उसकी ओर से पालन करने का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपने ऊपर लिया जाना ही प्रत्याभूति की संविदा है|

उदाहरणार्थ , से 5000/- रुपये का ऋण लेता है यह करार करता है या वचन देता है कि यदि ऋण का संदाय करने में असफल रहता है तो वह स्वयं (ग) उस ऋण की राशि का संदाय करेगा। यह प्रत्याभूति की संविदा है।

प्रचलित भाषा में ऐसी संविदाओं को जमानत अथवा गारन्टी की संविदा भी कहा जाता है क्योंकि इनमें पर-व्यक्ति अथवा अन्य व्यक्ति द्वारा वचन पालन की जमानत अथवा गारन्टी दी जाती है।

भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड बनाम इलेक्ट्रिसिटी जेनरेशन इन्कोरपोरेशन (ए.आई.आर. 2018 दिल्ली 38) के मामले में बैंक गारंटी (प्रत्याभूति) को एक स्वतंत्र संविदा माना गया है।

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प्रत्याभूति की संविदा के आवश्यक तत्व

प्रत्याभूति की संविदा में निम्नलिखित प्रमुख तत्वों का होना जरुरी है अन्यथा प्रत्याभूति की संविदा मान्य नहीं होगी

तीन पक्षकारों का होना

प्रत्याभूति संविदा में तीन पक्षकार होते है (क) लेनदार (Creditor); (ख) मूल ऋणी (Principal debtor); एवं (ग) प्रतिभू (Surety)।

वह व्यक्ति जो प्रत्याभूति देता है; प्रतिभू कहलाता है; वह व्यक्ति जिसे प्रत्याभूति दी जाती है लेनदार अथवा ऋणदाता कहलाता है तथा जिस व्यक्ति के लिए प्रत्याभूति दी जाती है वह मूल ऋणी कहलाता है।

केस – एच. मोहम्मद खान बनाम आंध्र बैंक लि. (ए.आई.आर. 1988 कर्नाटक 73)

इस मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्याभूति की संविदा में लेनदार, मूल ऋणी व प्रतिभू का अभिव्यक्त रूप से भाग लिया जाना अथवा विवक्षित सम्मति होना आवश्यक है।

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संविदा लिखित या मौखिक होना

प्रत्याभूति संविदा लिखित या मौखिक कैसी भी हो सकती है। मौखिक प्रत्याभूति का भी वही प्रभाव होता है जो लिखित प्रत्याभूति का होता है यह विवक्षित (implied) भी हो सकती है।

प्रतिफल का होना

प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिफल (Consideration) का होना आवश्यक है यदि प्रतिफल के बिना संविदा की गई है तो यह संविदा शून्य होगी।

मुल्ला ने अपनी कृति इण्डियन कान्ट्रेक्ट एक्ट (नवां संस्करण, पृष्ठ 126) में कहा है कि – A contract of guarantee without consideration is void.

दायित्व का होना

प्रत्याभूति की संविदा के लिए विधि द्वारा प्रवर्तनीय दायित्व का होना आवश्यक है। विधि द्वारा प्रवर्तनीय दायित्व के अभाव में प्रत्याभूति की संविदा का गठन नहीं हो सकता।

केस – मंजू महादेव बनाम शिवप्पा [(1918) 42 बम्बई 444]

इस मामले में यह कहा गया है कि प्रतिभू अवधि-बाधित ऋण का संदाय करने के लिए आबद्ध नहीं है। क्योंकि ऐसा ऋण अथवा दायित्व विधि द्वार प्रवर्तनीय नहीं है।

संविदा का स्वरूप

प्रत्याभूति की संविदा का स्वरुप तीन प्रकार का होता है –

(क) मूल ऋणी व लेनदार के बीच सामान्य संविदा

(ख) लेनदार व प्रतिभू के बीच प्रत्याभूति की संविदा तथा

(ग) प्रतिभू व मूल ऋणी के बीच क्षतिपूर्ति की संविदा।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूल ऋणी के ऋण का संदाय करने में असफल रहने पर जब प्रतिभू द्वारा लेनदार को ऋण का संदाय कर दिया जाता है अथवा संदाय का वचनपत्र निष्पादित कर दिया जाता है तब प्रतिभू लेनदार का स्थान ले लेता है।

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