जैसे की हम जानते है कि, न्यायालय की अपनी गरिमा एंव शाख होती है तथा उसका वातावरण अत्यन्त शान्त एवं गम्भीर होता है। न्यायालय में उपस्थित होने वाले पक्षकारों एवं अधिवक्ताओं का यह कर्त्तव्य होता है कि वे ऐसा कोई कार्य या आचरण न करें जिससे न्यायालय की गरिमा को आघात पहुँचे या उसकी कार्यवाही में बाधा उत्पन्न हो।

यदि किसी व्यक्ति या अधिवक्ता द्वारा ऐसा कोई कार्य किया जाता है या उनके द्वारा न्यायालय के अधिकारों या उसके आदेशो का अनादर किया जाता है तो वह न्यायालय की अवमान (contempt of court) की परिधि में आएगा और इसके बारें में न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 तथा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में प्रावधान किया गया है।

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायालय की अवमानना के सम्बन्ध में कहा गया है कि, न्यायालय के अवमान की कार्यवाही का मुख्य उद्देश्य न्यायालयों की गरिमा एवं तेजस्विता की रक्षा करना है ना की न्यायिक अधिकारियों को आलोचना से बचाना है।

न्यायालय की अवमानना क्या है?

किसी न्यायालय या न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश या वचन की जानबूझकर अवहेलना करना या उसका निरादर करना न्यायालय की अवमानना कहलाता है तथा यह एक अपराध की श्रेणीं में आता है जिसके लिए दण्ड का भी प्रावधान है|

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2(क) के अनुसार – न्यायालय अवमान से सिविल अवमान अथवा आपराधिक अवमान अभिप्रेत है। यह परिभाषा न्यायालय अवमान की शाब्दिक परिभाषा नहीं होकर केवल उसके दो प्रकार बताती है।

इसी तरह भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 228 के अनुसार न्यायालय की अवमानना से तात्पर्य –

“जो कोई किसी लोक सेवक का उस समय, जबकि ऐसा लोक सेवक न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में बैठा हुआ हो, साशय कोई अपमान करेगा या उसके कार्य में विघ्न डालेगा, वह सादा कारावास से जिसकी अवधि छह माह तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो एक हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।”

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यानि धारा 228 में दो प्रकार के कार्यों को न्यायालय की अवमानना माना गया है –

(i) न्यायिक कार्यवाही में बैठे लोक सेवक का साशय अपमान करना, या

(ii) उसके कार्य में विघ्न या बाधा उत्पन्न करना।

न्यायालय की अवमानना एक ऐसा अस्त्र है जिसका प्रयोग न्यायालय की गरिमा को बनाए रखने तथा कार्यवाहियों के शान्तिपूर्ण संचालन में बाधा को रोकने के लिए न्यायालयों द्वारा अत्यन्त सावधानी एवं सतर्कता से किया जाता है।

उदाहरण – किसी व्यक्ति या अधिवक्ता द्वारा न्यायाधीश के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना या उनको प्रकाशित करना या न्यायालय में मिथ्या शपथ पत्र प्रस्तुत करना आदि कार्य न्यायालय की अवमानना है।

इन रि सूओ मोटो कन्टेम्प्ट (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 1375) के मामले में न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, ऐसी आलोचना जिससे न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचे, जनसाधारण की न्यायालय के प्रति आस्था में कमी आए अथवा न्यायालय के कार्य में बाधा उत्पन्न हो तो वह न्यायालय का अवमान है।

निम्नांकित कार्यों को भी न्यायालय की अवमानना माना गया है –

(i) न्यायालय से आदेश प्राप्त करने के लिए जानबूझकर असत्य प्रयास (false attempt) करना

(ii) न्यायालय के समक्ष तथ्यों को छिपाया जाना अथवा न्यायालय को धोखा देने के लिए झूठे बयान देना

(iii) न्यायालय में कथनों का मिथ्या सत्यापन करना, आदि।

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अवमान कितने प्रकार का होता है?

न्यायालय अवमान अधिनियम में न्यायालय की अवमानना को दो भागों में बांटा गया है, जो निम्न है-

(1) सिविल अवमान, एवं

(2) आपराधिक अवमान ।

(1) सिविल अवमान (Civil Contempt) –

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2(ख) के अनुसार – सिविल अवमान से तात्पर्य न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निदेश, रिट या अन्य आदेशिका की जानबूझकर अवहेलना करना या न्यायालय से किए गए किसी वचनबंध को जानबूझकर भंग करना है।

यानि सिविल अवमान में दो प्रकार की बातें आती है –

(i) न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निदेश, रिट या आदेश की जानबूझकर अवज्ञा (Disobedience) करना, या

(ii) न्यायालय से किए गए किसी वचनबंध को जानबूझकर भंग करना।

उदाहरण के लिए जहाँ किसी मामले में न्यायालय ने विद्युत-सम्बन्ध को जारी रखने का आदेश दिया हो वहां किसी व्यक्ति द्वारा इस आदेश की जान-बूझकर अवहेलना करते हुए विद्युत-सम्बन्ध को विच्छेद कर दिया जाता है तो यह न्यायालय का सिविल अवमान है।

राम नारंग बनाम रमेश नारंग (ए, आई. आर. 2007 एस.सी. 2029)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, न्यायालय को दिये गये परिवचन को जानबूझकर भंग किया जाना, न्यायालय का सिविल अवमान है। इस मामले में अवमानकर्ता को दो माह के साधारण कारावास एवं 2000/- रुपये के जुर्माने से दण्डित किया गया।

न्यायालय की अवमानना के सम्बन्ध में न्यायालय के आदेश की अवज्ञा करना ही न्यायालय का सिविल अवमान नहीं है बल्कि ऐसी अवज्ञा का जानबूझकर किया जाना आवश्यक है।

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(2) आपराधिक अवमान (Criminal Contempt)

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2(ग) के अनुसार – आपराधिक अवमान से तात्पर्य, किसी भी ऐसी बात का (चाहे वह बोले गए या वह लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपेण द्वारा) प्रकाशन अथवा किसी अन्य ऐसे कार्य को करना है।

(i) जो किसी न्यायालय को कलंकित करता है अथवा जिसकी प्रवृति उसे कलंकित करने की है अथवा जो उसके प्राधिकार को अवनत करता है अथवा जिसकी प्रवृति उसे अवनत करने की है, अथवा

(ii) जो किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक् अनुक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है या उसमें हस्तक्षेप करता है या जिसकी प्रवृति उसमें हस्तक्षेप करने को है, अथवा

(iii) जो न्याय प्रशासन में किसी अन्य रीति से हस्तक्षेप करता है या जिसकी प्रवृत्ति उसमें हस्तक्षेप करने की है अथवा जो उसमें बाधा डालता है या जिसकी प्रवृत्ति उसमें बाधा डालने की है।

इस प्रकार आपराधिक अवमान से तात्पर्य, ऐसा कोई कार्य करना अथवा प्रकाशित करना जो न्यायालय की निन्दा करने वाला हो या उसके प्राधिकार को कम करने वाला हो या न्यायालय की कार्यवाहियों में हस्तक्षेप करने वाला या बाधा उत्पन्न करने वाला हो है।

न्यायिक कार्यवाही के दौरान अधिवक्ता या अन्य किसी के द्वारा मजिस्ट्रेट/न्यायाधीश के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करना एंव उसके थप्पड़ मार देना, अधिवक्ता द्वारा न्यायालय में चीखकर नारे लगाना, न्यायाधीश पर जूता फेंकना या स्याही फेंकना, न्यायाधीश पर दुर्भावना का आरोप लगाना अथवा न्यायाधीश को गालियाँ देना, आदि ऐसे सभी कार्य जिससे न्यायालय कलंकित होता है को उच्चतम न्यायालय ने गम्भीर आपराधिक अवमान का मामला माना है।

महत्वपूर्ण केस –

इन रि पीटर रमेश कुमार (ए.आई.आर. 2014 मद्रास 80) के मामले में वकीलों के एक समूह ने न्यायालय कक्ष में प्रवेश कर नारेबाजी की, न्यायालय का बहिष्कार करने की घोषणा की तथा पैरवी कर रहे वकील को खींचकर बाहर ले आये को न्यायालय ने गम्भीर अवमान माना है।

विजय कुमार मोहन्ती बनाम जदू उर्फ रामचन्द्र (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 657) के मामले में न्यायालय के आदेश की अवहेलना करते हुए पुलिस अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किये जाने को आपराधिक अवमान माना गया है।

एम.बी. सांघी बनाम पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय (1991)2 एस.सी.जे. 611) के मामले में अधिवक्ता द्वारा खुले न्यायालय में पीठासीन अधिकारी पर अनेक आपत्तिजनक लांछन लगाए जाने को न्यायालय का अवमान माना गया है।

अवमानना अधिनियम की आवश्यकता

(i) न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 का मुख्य उद्देश्य न्यायालय की गरिमा और महत्व को बनाए रखना है तथा

(ii) अवमान से जुडी शक्तियां न्यायाधीशों को भय, पक्षपात एंव भावना के बिना कर्तव्यों का निर्वहन करने में सहायता प्रदान करती है|

न्यायालय अवमान के अपवाद

न्यायालय की अवमानना के कुछ अपवाद भी हैं यानि उन कार्यों को करना अथवा उनका प्रकाशन करने को न्यायालय का अवमान नहीं माना गया है, जो निम्नलिखित है –

(i) सद्भावपूर्वक प्रकाशन,

(ii) न्यायिक कार्यवाहियों की रिपोर्ट का सही एवं उचित प्रकाशन,

(iii) न्यायिक कार्यों की उचित एवं सद्भावपूर्वक समालोचना,

(iv) अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध की गई स‌द्भावपूर्ण शिकायत आदि।

उच्चतम न्यायालय द्वारा पदमासिनी उर्फ पद्मप्रिया बनाम सी. आर. श्रीनिवास के मामले में कहा गया है कि, न्याय पालिका की समुचित एवं सद्भावपूर्वक आलोचना करना न्यायालय की अवमानना नहीं है लेकिन दुर्भावनापूर्वक किसी न्यायाधीश को कलंकित किया जाना न्यायालय का अवमान हो सकता है।

यदि किसी मामले में न्यायाधीश का विपक्षी पक्षकार के साथ सम्बन्ध है और इस आधार पर मामले को किसी अन्य न्यायालय में अन्तरित करने की प्रार्थना पेश की जाती है तो इसे न्यायालय का अवमान नहीं माना जाएगा।

इसी तरह जहाँ किसी मामले के बिन्दु पर न्यायालय के भिन्न-भिन्न आदेश हों और जिस कारण उनकी पालना करने में व्यावहारिक कठिनाईयाँ आ रही हों, वहाँ ऐसी अवहेलना को न्यायालय की अवमानना नहीं माना जाएगा।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जानबूझकर न्यायालय के आदेश की अवज्ञा करना अथवा न्यायाधीशों को कलंकित करना या न्यायालय की कार्यवाहियों में बाधा उत्पन्न करना आदि न्यायालय की अवमानना है और इस तरह के कार्यों में न्यायालय के अवमान के लिए अवमान करने का आशय होना जरुरी है।

न्यायाधीश द्वारा स्वयं के न्यायालय की अवमानना –

यह एक अहम् प्रश्न है कि क्या किसी न्यायाधीश अथवा मजिस्ट्रेट द्वारा भी अपने ही न्यायालय की अवमानना की जा सकती है? इस सम्बन्ध में न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 16 में प्रावधान किया गया है।

इसके अनुसार न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या न्यायिक रूप से कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति भी अपने स्वयं के न्यायालय की या किसी अन्य न्यायालय की अवमानना के लिए उसी तरह दायी होता है जिस प्रकार कोई अन्य व्यक्ति दायी होता है और उस पर इस अधिनियम के प्रावधान यथाशक्य लागू होते हैं।

लेकिन अपील या पुनरीक्षण में अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा किसी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश के निर्णयों व आदेशों पर कोई कथन, प्रेक्षण या अध्युक्ति किया जाना न्यायालय का अवमान नहीं है।

न्यायालय में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा अधिवक्ता को हुल्लड़बाज, जुआरी, शरारती तत्त्व आदि बताना इस परिधि में आता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा भी अपने ही न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय का अवमान किया जा सकता है।

यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसा कोई कार्य किया जाता है जिससे न्यायालय की गरिमा को आँच आए या न्यायालय की कार्यवाहियों में विघ्न/बाधा उत्पन्न हो या न्यायालय का आदेश या डिक्री की पालना न हो पाए, तब वह उसी प्रकार न्यायालय के अवमान के लिए उत्तरदायी होगा जिस प्रकार अन्य व्यक्ति होता है।

विचारण की अधिकारिता –

न्यायालय की अवमानना से सम्बन्धित मामलों के विचारण की अधिकारिता के बारे में भारतीय संविधान में मुख्य रूप से निम्नांकित व्यवस्थाएँ की गई हैं –

(i) संविधान के अनुच्छेद 129 एवं 215 के अन्तर्गत क्रमशः उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय (Court of Record) घोषित किया गया है और अपने अवमान के लिए दण्ड देने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय को अपने अवमान के लिए मामलों का विचारण करने एवं दण्ड देने की अधिकारिता है|

(ii) संविधान का अनुच्छेद 142 (2) अवमानना के आरोप में किसी भी व्यक्ति की जाँच एंव दण्डित करने के लिए उच्चतम न्यायालय को सक्षम बनाता है|

(iii) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 228 के अन्तर्गत न्यायिक कार्यवाही में बैठे लोक सेवकों को अपने अवमान के लिए दोषी व्यक्ति को दण्डित करने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। धारा 228 का मूल पाठ इस प्रकार है –

“जो कोई किसी लोक सेवक का उस समय जबकि लोक सेवक न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में बैठा हुआ हो, साशय कोई अवमान करेगा या उसके कार्य में विघ्न डालेगा, वह सादा कारावास से जिसकी अवधि छः माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो एक हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।”

यदि ऐसा अवमान न्यायालय की उपस्थिति या दृष्टि गोचरता में किया जाता है तो न्यायालय उसी समय संज्ञान लेकर दोषी व्यक्ति को 200/- रुपए तक के जुर्माने से दण्डित कर सकता है। (दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 345)

(iv) न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 10 के अन्तर्गत अधीनस्थ न्यायालयों के अवमान के लिए उच्च न्यायालय को दोषी व्यक्तियों को दण्डित किए जाने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं तथा धारा 14 एवं 15 में अवमानना की कार्यवाही की प्रक्रिया या उल्लेख किया गया है।

अवमानना के लिए दण्ड

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 12 में अवमान के लिए छ. माह तक की अवधि के करावास अथवा 2000 रुपये तक के जुर्माने अथवा दोनों के दण्ड की व्यवस्था की गई है। दण्ड की यह व्यवस्था केवल उच्च न्यायालय पर बन्धनकारी है, उच्चतम न्यायालय पर नहीं।

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जाहिरा हबीबुल्ला शेख बनाम स्टेट ऑफ गुजरात के मामले में अवमानकर्ता को एक वर्ष के कारावास एवं 50,000 रुपये के जुर्माने से दण्डित किया गया।

माननीय उच्चत्तम न्यायालय के अनुसार, न्यायालय की अवमान के लिए दण्ड केवल कारावास एवं जुर्माना ही हो सकता है, अन्य किसी प्रकार का दण्ड नहीं।

इसी तरह कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है कि अवमान अधिकारिता के प्रयोग के दौरान न्यायालय, जिस आदेश का उल्लंघन हुआ है उस आदेश के विस्तार में वृद्धि नहीं कर सकता है।

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