हेल्लो दोस्तों, इस लेख में साक्ष्य अधिनियम के तहत ‘तथ्य’ का वर्णन किया गया है, जो साक्ष्य विधि का महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि तथ्य किसी मामले की आधारशीला होते है| साक्ष्य विधि में तथय क्या है, इसकी परिभाषा, सुसंगत तथ्य एंव विवाद्यक तथ्य एंव साक्ष्य एंव तथय में प्रमुख अन्तर क्या है को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –

परिचय – तथ्य क्या है

साक्ष्य विधि में तथय का अद्वितीय स्थान है, क्योंकि समस्त अधिकार एवं दायित्व तथ्यों पर ही निर्भर होते हैं तथा उन्हीं से उनका उद्‌भव होता है। तथ्य को सूचना या जानकारी का एक अंग माना जाता है जिसे सही या गलत के रूप में सत्यापित किया जा सकता है। इसको अदालत में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और उनका उपयोग शामिल पक्षों द्वारा किए गए तर्कों या दावों का समर्थन या खंडन करने के लिए किया जा सकता है।

पेटन के अनुसार – तथय कच्चा पदार्थ है, जिसके आधार पर विधि निश्चित अधिकारों एंव कर्त्तव्यों का सृजन करती है| इसे साक्ष्य या अवलोकन के द्वारा साबीत किया जा सकता है। तथय का सम्बन्ध किसी वर्तमान वस्तु, परिस्थिति या घटना से होता है, इसका क्षेत्र विस्तृत है इसमें केवल मूर्त या अमूर्त ही नहीं बल्कि किसी भी प्रकार की विषयवस्तु जिसका ज्ञान इन्द्रियों से किया जा सकता है शामिल है|

कानूनी संदर्भ में, यह एक विशेष घटना या परिस्थिति है जो कानूनी विवाद या कार्यवाही से सम्बंधित है।

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तथ्य की परिभाषा

सामान्यतया तथय से तात्पर्य ऐसी वस्तु से है जो अस्तित्व में होती है, यानि इसका अर्थ अस्तित्वाधीन वस्तु से है| यह मानव के मानसिक तथ्य को सम्मिलित नहीं करता है, किन्तु साक्ष्य विधि में इसे विस्तृत भाव में ग्रहण किया गया है। इसके अन्तर्गत ‘किसी वस्तु के अस्तित्व एवं मानसिक दशा, भावना, वैयक्तिक दृष्टिकोण’ दोनों को शामिल किया गया है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 में तथ्य की परिभाषा –

“तथ्य से अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत आती है –

(1) ऐसी कोई वस्तु, वस्तुओं की अवस्था या वस्तुओं का सम्बन्ध जो इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य हो,

(2) कोई मानसिक दशा जिसका भान किसी व्यक्ति को हो।”

दृष्टान्त :-

(क) यह कि अमुक स्थान में अमुक क्रम से अमुक पदार्थ व्यवस्थित है,

(ख) यह कि किसी मनुष्य ने कुछ देखा या सुना,

(ग) यह कि किसी मनुष्य ने अमुक शब्द कहें,

(घ) यह कि कोई अमुक मनुष्य राय रखता है, अमुक आशय रखता है, सद्भावपूर्वक या कपटपूर्वक कार्य करता है या किसी विशिष्ट शब्द को विशिष्ट भाव में प्रयोग करता है या उसे विशिष्ट संवेदना का मान है या किसी विनिर्दिष्ट समय में था,

(ङ) यह कि किसी मनुष्य की अमुक ख्याति है, ये सभी तथ्य है।

उपरोक्त परिभाषा के अनुसार – कथन, भावनाए, राय, मन: स्थिति उसी प्रकार तथय है जिस प्रकार किसी ऐसे तथय को हम छु कर, देख कर या किसी दूसरी घटना को आँखों के माध्यम से जान सकते है|

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तथ्यों का वर्गीकरण (classification of facts)

विख्यात विधिशास्त्री बेन्थम ने तथयों को दो भागों (भौतिक एंव मानसिक) में बांटा जिसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम में शामिल किया गया है और धारा 3 के अनुसार तथय के अधीन निम्न बाते आती है –

(i) भौतिक अथवा शारीरिक तथ्य – ऐसी कोई वस्तु या वस्तुओं की दशा, या वस्तुओं का सम्बन्ध जिनका बोध मनुष्य अपनी इन्द्रियों द्वारा कर सकता है, अर्थात जिनका बोध देखने से, सूँघने से, स्पर्श करने से, सुनने से या स्वाद से किया जा सकता है, इसे बाह्रा तथयों की संज्ञा भी दी जाती है|

उदाहरण –  व्यक्ति के खून निकल रहा था, चेहरा पीला था, उसका शरीर काला था, उसे उलटी हो रही थी आदि ये सभी तथय भौतिक तथ्य है जिन्हें किसी व्यक्ति के मौखिक साक्ष्य या परिस्थिति साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकता है | ऊपर वर्णित परिभाषा के दृष्टान्त (क), (ख) व (ग) भौतिक तथयों से सम्बंधित है|

(ii) मानसिक अथवा आन्तरिक तथ्य – सामान्यता मानसिक स्थिति को तथय नहीं कहा जाता है लेकिन साक्ष्य विधि की परिभाषा के दृष्टान्त (घ) व (ङ)  मानसिक अथवा आन्तरिक तथय से सम्बन्ध रखते है| ऐसे तथय व्यक्ति के मन के अन्दर रहते है इस कारण उनका आँखों द्वारा बोध नहीं किया जा सकता है|

आसान शब्दों में ऐसे तथय जिनका कि मनुष्य को भान होता है, जैसे – कि कोई आशय, ज्ञान, सद्भाव, घृणा, राय आदि मानसिक तथय के अच्छे उदाहरण है| इन तथयों का साबित किया जाना संस्वीकृति या परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर करता है।

उदाहरणार्थ –  तलवार अथवा डंडे से  पर प्रहार करता है। तलवार अथवा डंडे से प्रहार किया जाना एक शारीरिक अथवा बाध्य तथ्य है, जो व्यक्ति के साक्ष्य द्वारा जिसने  को  पर प्रहार करते देखा है, साबित किया जा सकता है। लेकिन जहाँ तक  के आशय का प्रश्न है, यह एक मानसिक तथ्य है जिसे उसकी संस्वीकृति या परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा ही साबित किया जा सकता है।

तथ्य से अभिप्राय केवल घटना विशेष से ही नहीं होता है, अपितु एक निरन्तर चलने वाली दशा अथवा तथ्य भी इसमें सम्मिलित होता है, जैसे – कब्जा (ए.आई.आर. 1915 मद्रास 249)। इसी तरह पेड़ का गिरना एक घटना है व पेड़ का अस्तित्व, वस्तु की अवस्था है, यहाँ घटना व अवस्था दोनों ही समान रूप से तथय है|

ए.आई.आर. 1916 लाहौर 414 में कहा गया है कि, किसी व्यक्ति के आशय के सम्बन्ध में मिथ्या व्यपदेशन एक तथ्य का मिथ्या व्यपदेशन है।

तथ्य में वे सभी भौतिक अवस्थाए शामिल की जाती है जो मनुष्य को पांचो इन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा) द्वारा जानकारी में आती है, जैसे – कुछ वस्तुए एक निश्चित क्रम में राखी हुई है, एक व्यक्ति ने कुछ देखा, सुना या कहा या सूंघ कर कुछ अनुभव करता है, ये सभी तथय होते है|

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तथ्य के प्रकार (type of fact)

अध्ययन की दृष्टि से तथय को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – (i) सुसंगत तथय, एंव (ii) विवाद्यक तथय

(i) सुसंगत तथ्य

वे सभी तथ्य सुसंगत (Relevant) है, जो विवादग्रस्त विषय के बारे में कोई युक्तियुक्त उपधारणा प्रदान करने में सक्षम होते है| इस प्रकार सुसंगत तथय का अर्थ वह ‘तथय’ है, जिसके पास कुछ स्तर तक अधिसंभाव्यता का बल हो| किसी तथय को सुसंगत तभी कहा जा सकता है जब वह धारा 6 से 55 तक के नियमों के तहत विवाद्यक तथ्य से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध रखता हो|

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में शब्द “सुसंगत” की शाब्दिक परिभाषा नहीं दी गई है अपितु धारा 3 में केवल सुसंगत तथ्यों का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार- “एक तथय का दूसरे तथ्य से सम्बंध होना चाहिए और वह सम्बन्ध ऐसा होना चाहिए कि, एक तथय का होना या नहीं होना दुसरे तथ्य पर निर्भर हो”|

स्टीफेन के अनुसार – जब कोई दो तथय, जिनको वह लागू होता है, इस प्रकार एक दूसरे से सम्बन्धित हैं कि, घटनाओं के सामान्य क्रम के अनुसार या तो अकेले या दुसरे तथयों के साथ मिलकर, दूसरे के भूत, वर्तमान या भविष्य के अस्तित्व या अनस्तित्व को साबित करता है या सम्भाव्य बनाता है, सुसंगत तथय कहलाता है।

बेस्ट के अनुसार – साक्ष्य के नियमों में सबसे व्यापक और स्पष्ट नियम यह है कि – प्रस्तुत किया गया साक्ष्य उन विषयों के प्रति निर्दिष्ट होना चाहिये और उन्हीं तक सीमित होना चाहिये जो विवाद के विषय हो या फिर अनुसन्धान के विषय ।

विधि की दृष्टि से सुसंगत तथ्य वे तथय है, जो स्वयं वादग्रस्त तथय नहीं होते है अपितु वादग्रस्त तथ्यों से इस प्रकार सम्बन्धित होते हैं कि उनसे वादग्रस्त तथयसम्भावित तथा असम्भावित हो जाते हैं। कोई तथय अकेला सुसंगत नहीं होता है यह आपस में दो तथयों के सम्बन्धों पर निर्भर करता है|

किसी मध्यस्थता करार के अस्तित्व अथवा उसकी विधि मान्यता को चुनौती देने वाला वादी उस तथय को सुसंगत तथ्यों द्वारा साबित कर सकता है (ए.आई.आर. 1968, मध्य प्रदेश 33)। इसी प्रकार ‘हेतु’ एक सुसंगत तथय हो सकता है।

असंगत तथा अग्राह्य तथ्य –

ऐसी किसी बात को, जो उन विषयों से प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः सुसंगत नहीं हो, साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जाता है। सामान्यतः जिन कारणों से किसी साक्ष्य को विसंगत या असंगत या आपस में विरोधी मानते हुए ग्राह्य किये जाने से इन्कार किया जा सकता है, वे तीन है –

(क) कि मुख्य तथा साक्ष्यिक तथ्यों के बीच जो सम्बन्ध है; वह अत्यन्त दूरस्थ एवं कल्पित है,

(ख) कि अभिवचनों को देखते हुए साक्ष्य देना आवश्यक हो गया है,

(ग) कि विरोधी पक्ष की स्वीकृति के कारण साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं रह गई है ।

‘दलवीरसिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – साक्ष्य का मूल्यांकन एक तथय का प्रश्न है जिसका विनिश्चय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।(ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1328)

‘सुखदेवसिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ के प्रकरण में न्यायालय द्वारा कहा गया है कि – किसी भी व्यक्ति के साक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर अविश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिये कि वह मृतक का निकटतम रिश्तेदार है। (ए.आई. आर. 1991 एस. सी. 318)

(ii) विवाद्यक तथ्य

विवाद्यक तथय किसी मामले की आधारशीला होते है, इसे विवादग्रस्त तथय भी कहा जाता है| विवाद्यक तथ्य से अभिप्राय ऐसे तथ्यों से है जिनको किसी वाद में एक पक्षकार प्रतिपादित करता है तथा दूसरा पक्षकार उसे स्वीकार या अस्वीकार करता है| सरल भाषा में वे विषय जो पक्षकारों के बीच विवादग्रस्त होते हैं, विवाद्यक तथय कहलाते है|

विवाद्यक तथय न्यायिक प्रक्रिया को गति प्रदान करते है, इनके अभाव में न तो मामले की सुनवाई की आवश्यकता होती है और न ही साक्ष्य की। अधिनियम की धारा 3 के अनुसार –

“विवाद्यक तथ्य से अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत आता है –

ऐसा कोई भी तथ्य जिस अकेले ही या अन्य तथयों के ससंग में किसी ऐसे अधिकार, दायित्व या निर्योग्यता के, जिसका किसी वाद या कार्यवाही में प्राख्यान या प्रत्याख्यान किया गया है, अस्तित्व, अनस्तित्व, प्रकृति या विस्तार की उपपति अवश्यमेव होती है।”

इस प्रकार विवाद्यक तथय से तात्पर्य उन तथयों से है, जिनका अस्तित्व अथवा अनस्तित्व साबित हो जाने पर पक्षकारों के मध्य अधिकार अथवा दायित्व उत्पन्न हो जाते है और यह अन्वेषण की विषय वस्तु भी हो सकते हैं। स्वीकृत तथय स्वत: सिद्ध समझे जाते है|

उदाहरण –  पर  के मकान में चोरी करने का आरोप है।  इससे इन्कार करता है। यहाँ पर विवाद्यक तथय यह है कि क्या  ने  के मकान में चोरी की है।

किसी भी तथय को विवाद्यक तथ्य तभी माना जाता है जब वह दो शर्ते पूरी करता है –

(i) उस तथय के बारें में पक्षकारों के मध्य मतभेद हो, या

(ii) वह तथय इतना महत्वपूर्ण है कि, उसी पर पक्षकारों के अधिकार एंव दायित्व निर्भर करते है|

किसी वाद विशेष में कौन से तथय विवाद्यक हैं, यह मौलिक अथवा सारभूत विधि या प्रक्रिया विधि द्वारा निश्चित किये जाते हैं। सिविल मामलों में ये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अधीन निर्धारित प्रक्रिया द्वारा निर्धारित किये जाते हैं, जबकि दाण्डिक मामलों में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 17 के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध लगाया गया आरोप ही विवाद्यक तथय होता है।

निष्कर्ष यह है कि, विवाद्यक तथय विवाद की विषय वस्तु से सम्बन्ध रखने वाली विधि की आवश्यकताओं तथा पक्षकारों के अभिवचन पर निर्भर करते है| किसी भी प्रकरण में जो भी विवाद्यक तथय हो उन्हें पक्षकारों द्वारा न्यायालयके समक्ष साबित करना होता है ताकि उनके आधार पर निर्णय माँगा जा सके और न्यायालय उसके अस्तित्व पर यकीन कर सके क्योंकि विवाद्यक तथ्य विवाद पर आधारित होते है एंव वाद में इन पर ही निर्णय दिया जाता है|

सुसंगत तथ्य एवं विवाद्यक तथ्य में अन्तर

(i) सुसंगत तथ्य साक्ष्य तथय कहलाते है यानि यह विवाद्यक तथ्यों को साबित करने के साधन होते है, जबकि विवाद्यक तथ्य प्रमुख अथवा प्रधान तथ्य कहलाते है तथा यह मामले की आधारशिला होते है।

(ii) सुसंगत तथय किसी अधिकार या दायित्व के आवश्यक तत्व नहीं होते है, जबकि विवाद्यक तथ्य किसी अधिकार या दायित्व का आवश्यक तत्व होते है।

(iii) सुसंगत तथ्य स्वयं विवादग्रस्त तथय नहीं होते हैं ये ऐसे तथय होते हैं जिनके आधार पर विवाद्यक तथयों के अस्तित्व या अनस्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है, जबकि विवाद्यक तथय ऐसे तथय होते है जिन पर विवाद होता है और जिनके आधार पर ही वाद का निर्णय आधरित होता है।

साक्ष्य तथा तथ्य में अन्तर

(i) साक्ष्य (साक्षी व दस्तावेज) वह साधन है जिसके द्वारा सुसंगत तथ्यों को न्यायालय के समक्ष लाया जाता है, जबकि तथय वह है जिसका कि अस्तित्व है अथवा जिसका मनुष्य को जानकारी है|

(ii) साक्ष्य दो प्रकार का (मौखिक व दस्तावेजी) होता है, जबकि तथ्य सकारात्मक एव नकारात्मक हो सकता है|

(iii) साक्ष्य अभिव्यक्त तथय के रूप में होना आवश्यक है, जबकि तथ्य भौतिक एंव मानसिक प्रकार के हो सकते है|

(iv) जो भी साक्ष्य हो उसमे तथय का होना आवश्यक है, लेकिन यह जरुरी नहीं है कि, सभी तथय आवश्यक रूप से साक्ष्य हो, जब तक की उन्हें किसी विधिक कार्यवाही में न्यायालय अपने समक्ष पेश करने की अनुमति ना प्रदान करे|

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