हेल्लो दोस्तों, इस लेख में साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 के तहत स्वीकृति  (admissions) के बारें में बताया गया है जो साक्ष्य विधि का महत्वपूर्ण विषय है| इस लेख में स्वीकृति की परिभाषा, आवश्यक तत्व, इसके प्रकार तथा साक्ष्य के रूप में इसकी ग्राह्यता के कारणों का उल्लेख किया गया है,

साक्ष्य विधि में स्वीकृति क्या है?

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति (admission) का महत्वपूर्ण स्थान है| यह एक ऐसा कथन है जिसमे किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार किया जाता है जिससे उसके दायित्व का अनुमान लगता है यानि जब कोई भी व्यक्ति किसी तथ्य या किसी कार्य (अपराध) को स्वीकार कर लेता है, तब इसे स्वीकृति (admission) कहा जाता है|

धारा 17 में केवल Savikriti की परिभाषा दी गई है जबकि धारा 18 से 20 में यह कथन किन व्यक्तियों द्वारा तथा किन परिस्थितयों में किया जाए की स्वीकृति की श्रेणी में आ जाए का विस्तृत वर्णन किया गया है|

स्वीकृति की परिभाषा (definition of admission)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 17 में Savikriti को परिभाषित किया गया है| इसके अनुसार –  “स्वीकृति वह मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रोनिक रूप में अंतर्विष्ट कथन है, जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान एवं इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा और ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो एतस्मिन् पश्चात् वर्णित है।”

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साक्ष्य अधिनियम की यह परिभाषा अधिक कठोर है जिसे समझने में कठिनाई हो सकती है| आसान शब्दों में, यह एक ऐसा कथन है जिससे किसी भी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के होने के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। यह कमजोर प्रकार की साक्ष्य होती है और न्यायालय इन्हें अस्वीकार कर सकता है यदि अन्य परिस्थितियों से न्यायालय संतुष्ट हो कि वे असत्य है|

स्टीफेन के अनुसार – स्वीकृति किसी पक्षकार या उसकी ओर से अन्य व्यक्ति द्वारा किया गया ऐसा लिखित या मौखिक कथन है जो विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के सम्बन्ध में किसी धारणा को इंगित करता है।

उदाहरण –  द्वारा  के विरुद्ध ऋण वसूली का वाद लाया जाता है।  की लेखा-पुस्तकों में यह लिखा मिलता है कि उसने  से ऋण लिया था। यह उसके विरुद्ध दायित्व की Savikriti होगी। इसी प्रकार यदि  यह कथन करता है कि उसके द्वारा ऋण लिया गया है तो यह ऋण की स्वीकृति होगी, क्योंकि ऐसा कहकर वह अपने दायित्व को स्वीकार करता है। ऐसी स्वीकृति हो जाने के पश्चात् ऋण के तथ्यों  को साबित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

यदि कोई व्यक्ति केवल यह स्वीकार करता है कि उसने किसी कागज पर बिना यह देखें कि वह क्या है, हस्ताक्षर किये थे तो इसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसके द्वारा उस दस्तावेज को स्वीकार कर लिया गया है| (बृजमोहन बनाम अमरनाथ, ए.आई. आर. 1980 जम्मू एण्ड कश्मीर, 54), फिर जिस कथन से Savikriti का आभास होता हो, उसे सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिये, न कि केवल उस अंश को जिसमें स्वीकृति आ रही हो।

चीखम कोएश्वरा बनाम सुब्बाराव के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – स्वीकृति का स्पष्ट एवं अन्तिम होना आवश्यक है। इसमें शक या अनिश्चितता वाली कोई बात नहीं होनी चाहिये । (ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 1542)

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स्वीकृति के आवश्यक तत्व elements of acceptance 

किसी भी कथन को स्वीकृति बनने के लिए उसमे चार तत्वों का होना जरुरी है |

(i) ऐसा कथन मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रोनिक रूप में हो|

(ii) यह कथन ऐसा होना चाहिए जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के निष्कर्ष को इंगित करता हो|

(iii) ऐसा कथन धारा 18, 19 व 20 में वर्णित विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किया गया हो तथा

(iv) ऐसा कथन धारा 18, 19 व 20 में वर्णित विशिष्ट परिस्थियों में किया गया हो|

इस प्रकार धारा 17, 18, 19 व 20 को एक साथ लेने पर इनके अनुसार – मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रोनिक रूप में अंतर्विष्ट कथन जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में किसी अनुमान का सुझाव करते ही यह स्वीकृति हो जाती है|

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स्वीकृति कौन कर सकता है –

अधिनियम की धारा 18, 19 व 20 में 7 प्रकार के व्यक्तियों का वर्णन किया गया है जो स्वीकृति कर सकते है|

(i) किसी कार्यवाही के पक्षकार द्वारा,

(ii) ऐसे पक्षकार के प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा,

(iii)ऐसे पक्षकार जो  प्रतिनिधि की हैसियत से वाद ला रहा हो या जिन पर उसी हैसियत से वाद लाया जा रहा हो, जब वह ऐसी हैसियत धारण करता हो, जैसे – न्यासी, सरंक्षक प्रशासक, निष्पादक आदि|

(iv) ऐसा पक्षकार जिसका उस कार्यवाही की विषय-वस्तु में हित हो,

(v) पूर्ववर्ती हक़ वाला व्यक्ति – ऐसा व्यक्ति जिससे वाद के पक्षकारों का वाद की विषय वस्तु में अपना हित व्युत्पन्न हुआ हो,

(vi) परव्यक्तियों के कथन या स्वीकृतियां भी इन धाराओं में ग्राह्य होती है,

(vii) मध्यस्थ की स्वीकृति धारा 20 के तहत निर्दिष्टकर्ता पक्षकार के विरुद्ध ग्राह्य होती है|

Savikriti के लिए यह जरुरी है की वह स्पष्ट हो और उसी व्यक्ति के शब्दों में उसके लिए ठीक ठीक विशिष्ट कथन के रूप में हो| किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निकाला गया निष्कर्ष स्वीकृति नहीं हो सकता है|

राम सहाय बनाम जय प्रकाश के प्रकरण में – एक किरायेदार द्वारा अपने विरुद्ध चल रही परिसर निष्कासन की कार्यवाही में एक अन्य व्यक्ति को उसकी देखरेख के लिए पॉवर ऑफ एटार्नी दिया। उस एटार्नी द्वारा किराया बकाया होने के तथ्य को स्वीकार किया गया । यह स्वीकृति किरायेदार पर आबद्धकर मानी गई। (ए.आई.आर. 1993 मध्यप्रदेश 147)

स्वीकृति  के प्रकार types of acceptance 

यहाँ Savikriti के मुख्यतया तीन प्रकार बताये गए है, जो निम्न है –

(i) न्यायिक स्वीकृति (Judicial Admission)

इसे प्ररूपिक या औपचारिक स्वीकृति भी कहा जाता है। यह किसी मामले की कार्यवाही के दौरान न्यायालय के समक्ष की जाती है, जिस्सेकी वह न्यायालय की फाइल में अभिलिखित की जा सके| औपचारिक स्वीकृतियां विचारण के प्रयोजनों के लिए की जाती है तथा यह कई प्रकार की होती है जिनका वर्णन अधिनियम की धारा 58 में किया गया है|

न्यायिक स्वीकृति कई तरह से की जा सकती है, जैसे – किसी कार्यवाही के दौरान या पूछताछ के उत्तर में, विनिर्दिष्ट तथ्यों को स्वीकार करने के नोटिस के उत्तर में, दस्तावेज प्रस्तुत करने या स्वीकार करने के नोटिस के उत्तर में या पक्षकार के सालिसिटर या अधिवक्ता द्वारा उस विवाद के दौरान कथन द्वारा और न्यायालय के समक्ष विवादी द्वारा स्वयं या उसके अधिवक्ता द्वारा|

माननीय न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि, कोई व्यक्ति अपने अभिवचनो में जो कथन करता है या न्यायालय के समक्ष जो कथन देता है, वे कथन स्वीकृति का प्रभाव रखते है तथा सुसंगत होते है| औपचारिक / न्यायिक स्वीकृतियों को न्यायालय में साबित करने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह न्यायालय के समक्ष की जाती है|

न्यायाधीश कृष्ण अय्यर के मतानुसार – स्वीकृतियां हमेशा स्वीकारकर्ता के विरुद्ध प्रभाव रखती है, जब तक उनके बारें में कोई अन्य युक्तियुक्त स्पष्टीकरण ना हो|

के. के. चारी बनाम आर. एम. शेषधारी के वाद में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि-  अभिवचनों में की गई स्वीकृति, न्यायिक स्वीकृति कहलाती है और यदि यह सही एवं स्पष्ट है तो उसे तथ्यों का सर्वोत्तम सबूत माना जाता है। [(1973) 1 एस.सी.सी. 761]

(ii) न्यायेत्तर स्वीकृति

इसे अनौपचारिक या आकस्मिक स्वीकृति (Informal or Casual Admission) भी कहा जाता है। ऐसी स्वीकृतियाँ जीवन के मामूली अनुक्रम में या कारोबार के मामूली अनुक्रम में या सामान्यतः वार्तालाप के क्रम में हो सकती है और ये न्यायालय के अभिलेख पर नहीं होती।

यह लिखित या मौखिक या इलेक्ट्रोनिक रूप में अंतर्विष्ट हो सकती है तथा लिखित Savikriti पत्र-व्यवहार में, कारोबार की पुस्तकों में, पास बुक आदि में हो सकती है|

एक व्यक्ति पारिवारिक समझौते पर हस्ताक्षर करता है। यह उसके विरुद्ध Savikriti का साक्ष्य है, चाहे उस पर अन्य व्यक्तियों के हस्ताक्षर न हों। (हेमचन्द्र बनाम ओम प्रकाश, ए.आई. आर. 1987 कलकत्ता 69)

अनौपचारिक स्वीकृतियाँ वे स्वीकृतियाँ है जो विवाद को न्यायालय के समक्ष लाने के पूर्व की जाती है, ये स्वीकृतियाँ न्यायिक कार्यवाही के अनुक्रम में नहीं की जाती हैं। अनौपचारिक / न्यायेत्तर स्वीकृतियों को अन्य तथ्यों की तरह साबित किया जाना अपेक्षित है क्योंकि यह किसी विवाद को न्यायालय के समक्ष लाने से पूर्व की जाती है|

(iii) आचरण द्वारा स्वीकृति

कुछ परिस्थितियों में पक्षकारों का आचरण (Conduct) भी Admission का साक्ष्य  बन जाता है और यह शाब्दिक स्वीकृति से अधिक प्रबल होती है।

कई बार किसी व्यक्ति का मौन रहना भी ऐसी स्वीकृति हो सकती है कि, जब एक व्यक्ति कोई बात कहता है और दूसरा उसका जवाब नहीं देकर शांत रहता है तब यह आचरण द्वारा स्वीकृति कहलाती है। जिसका एक उदाहरण हमें अधिनियम की धारा 8 के दृष्टान्त (छ) में देखने को मिलता है|

इस सम्बन्ध में मेन बनाम मेन का एक अच्छा प्रकरण है, जिसमे  एक महिला द्वारा अपने बच्चे के जन्म का पंजीयन कराया गया, लेकिन उसमें बच्चे के पिता का नाम एवं व्यवसाय नहीं बताया गया। न्यायालय ने इससे यह अनुमान लगाया कि या तो वह यह नहीं जानती है कि बच्चे का पिता कौन है या वह इस बात को स्वीकार करती है कि बच्चा अधर्मज है। एक तरह से यह जारकर्म की स्वीकृति थी और जारकर्म का सुसंगत साक्ष्य था । (1949 एडवर्डस् केसेज ऑन एवीडेन्स 172)

स्वीकृति की ग्राह्यता के कारण

फिफ्सन ने अपनी साक्ष्य विधि में Savikriti को सुसंगत साक्ष्य के रूप में साक्ष्य में ग्रहण करने के लिए चार कारण बताये है, जो निम्न है –

(i) सबूत के अधित्यजन के रूप में

यदि किसी पक्ष ने कोई तथ्य (बात) स्वीकार कर लिया है तो उस तथ्य को उसके विरुद्ध वाद में प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। स्वीकृति इसलिए सुसंगत होती है कि इससे स्वीकार किये गये तथ्यों का संवृत आवश्यक नहीं रह जाता है। वह ‘सबूत के अधित्यजन’ के रूप में लागू होता है| यह सिद्धान्त साक्ष्य अधिनियम की धारा 58 में समाविष्ट किया गया है|

(ii) अपने हित के विरुद्ध बयान के रूप में 

स्वीकृति ऐसा कथन है जो कथनकर्ता के हित के विरुद्ध होता है और इसलिए इसे सत्य माना जाता है, क्योंकि यह बहुत ही अनधिसम्भाव्य है कि कोई व्यक्ति अपने हित के विपरीत असत्य बात कहेगा। धारा 17 यह नहीं कहती है कि स्वीकृति का कथन कथनकर्त्ता के विरुद्ध ही हो या स्वयं को ही हानि पहुँचाने वाला हो। केवल इतना आवश्यक है कि कथन से किसी भी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में अनुमान लगता है कि चाहे यह अनुमान कथनकर्त्ता के विपरीत हो या अनुकूल|

(iii) विरोधात्मक कथनों के साक्ष्य के रूप में 

एक अन्य कारण जो स्वीकृति की सुसंगति को कुछ सीमा तक स्पष्ट करता है वह यह है कि ऐसा साक्ष्य पक्षकार के कथन तथा उनके मामलों में भेद पैदा करता है और इससे उसके मामले को क्षति पहुँचती है।

उदाहरण के लिए –  ऋण वसूल करने के लिए  पर वाद लाता है और  के लेखा-खाते यह दर्शाते हैं कि उसने ऋण लिया था और उसके बाद में  यह कहता है कि उसने ऋण नहीं लिया था। तब  की ऐसी स्वीकृति उसके बचाव को काटती या खण्डित करती (Contradicts) है। इस तरह प्रत्येक पक्षकार के कथन उसके विरुद्ध भी साबित किये जा सकते हैं, यद्यपि वह उसके द्वारा मामले में की गई बातों के खिलाफ हों या नहीं हों।

(iv) सत्य के साक्ष्य के रूप में 

यह अन्तिम तथा सबसे महत्वपूर्ण आधार है कि जो भी बातें कोई पक्षकार मामले के तथ्यों के बारे में कहता है और वे चाहे उसके हित के अनुकूल हों या विपरीत हो, उन्हें सुसंगत मान लेना चाहिए, क्योंकि वे सत्य दर्शाती हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर यह सिद्वांत फौजदारी तथा दीवानी कार्यवाही दोनों पर समान रूप से लागु होता है|

स्लेटलेरी बनाम पूले के प्रकरण में बैरन पार्क (Barren Park) ने कहा, “जो कुछ भी पक्षकार कहता है, वह उसके विरुद्ध साक्ष्य होता है और जो कुछ भी कोई पक्षकार स्वयं सत्य बताता है तब उसके सत्य होने की उपधारणा की जा सकती है।

स्वीकृति का प्रभाव (effect of admission) एवं परिस्थिति

इसका प्रभाव यह होता है कि यह, स्वीकृति को गलत या झूठ साबित करने का भार स्वीकृति करने वाले पर डाल देती है क्योंकि जो कुछ स्वीकृति करने वाला स्वीकार करता है, उसके सही होने की उपधारणा की जाती है। जब एक पक्षकार सत्य होना स्वीकार कर लेता है उसे तब तक सत्य उपधारित किया जाना चाहिए जब तक कि स्वीकृति करने वाला उसके विपरीत नहीं साबित करता है, लेकिन यह स्वीकृतिकर्त्ता के विरुद्ध निश्चायक नहीं होती है।

स्वीकृतिकर्त्ता यह साबित कर सकता है कि उससे भूल हो गई या उसने सत्य नहीं कहा। वह अपनी स्वीकृति के मूल्य को कम कर सकता है तथा उसे उसका खण्डन करने से नहीं रोका जा सकता है।

किसी तथ्य या बात की स्वीकृति में स्वीकृतिकर्त्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह स्वीकृति का स्पष्टीकरण दे या उसका खण्डन करे और जब तक उसे संतोषजनक रूप से नहीं किया जाता है, तब तक स्वीकृत तथ्यों को साबित हुआ समझा जाएगा।

स्पष्ट रूप से यह भार स्वीकृतिकर्त्ता पर होता है कि वह साक्षी कक्ष में आकर यह स्पष्टीकरण दे कि क्यों उसने स्वीकृति किया? ऐसे स्पष्टीकरण के अभाव में यह होता है कि जब कोई स्वीकृति स्वीकृतिकर्त्ता के विरुद्ध साबित कर दी जाती है तो यह उपधारणा होती है कि जिस विषय में स्वीकृति है, वह सत्य है तथा यह साबित करने का भार कि वह सत्य नहीं है उस व्यक्ति पर चला जाता है, जिसने स्वीकृति किया है।

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संदर्भ :- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 17वां संस्करण (राजाराम यादव)