हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में सीआरपीसी की धारा 300 के तहत दोहरे खतरे से संरक्षण (Double Jeopardy) का सिद्धान्त और इसके प्रमुख अपवाद, दोहरे दंड से क्या अभिप्राय है | Double Jeopardy in hindi का उल्लेख किया गया है उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –
दोहरे खतरे से संरक्षण (Double Jeopardy)
भारतीय दाण्डिक विधि का यह महत्वपूर्ण सिद्वान्त है कि, किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दुबारा जोखिम में नहीं डाला जा सकता। (A person can not be put into peril twice the same offence)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) में यह प्रावधान किया गया है कि – “किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा।” इसे ‘दोहरे दण्ड से संरक्षण’ अथवा ‘दोहरे खतरे से संरक्षण’ (Double Jeopardy) का सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है|
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 में उपबंधित यह सिद्वांत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) से लिया गया है, इस तरह अब यह एक सुस्थापित सिद्धान्त बन गया है कि, किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए केवल एक ही बार अभियोजित एवं दण्डित किया जा सकता है, एक से अधिक बार नहीं।
आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त कर दिये जाने पर उसे उसी अपराध के लिए दुबारा न तो अभियोजित किया जा सकता है और न ही दण्डित।
यह सिद्धान्त Nemo debet lis vexare procodem सूत्र पर आधारित है इसे दुसरे शब्दों में Nemo debet vis vexari भी कहा गया है यानि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार न तो अभियोजित किया जा सकता है और न ही दण्डित।
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दोहरे खतरे से संरक्षण धारा 300 में अन्तर्निहित सिद्धान्त –
संहिता की धारा 300 में कहा गया है कि – “एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किये गये व्यक्ति का उसी अपराध के लिए दुबारा विचारण नहीं किया जायेगा।”
संहिता की धारा 300 की उपधारा (1) का मूल सार यह है कि –
जिस व्यक्ति का किसी अपराध के लिए सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा एक बार विचारण किया जा चुका है और जो ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका है, वह जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त रहती है, तब तक न तो उसी अपराध के लिए विचारण का भागी होगा और न उन्हीं तथ्यों पर किसी ऐसे अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा जिसके लिए उसके विरुद्ध लगवाये गये आरोप से भिन्न आरोप धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाया जा सकता था और जिसके लिए वह उसकी उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था।
इस धारा से यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए केवल एक ही बार अभियोजित एवं दण्डित किया जा सकता है, उससे अधिक बार नहीं।
उदाहरण – ख के आपराधिक मानव वध के लिए क पर सेशन न्यायालय के समक्ष आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है। यहाँ ख की हत्या के लिए क का उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् विचारण नहीं किया जा सकता है।
इसी तरह एक अन्य उदाहरण जिसमे अ का विचारण सेवक की हैसियत से चोरी करने के आरोप पर किया जाता है और वह दोषमुक्त कर दिया जाता है। जब तक दोषमुक्ति प्रवृत्त रहे, उस पर सेवक के रूप में चोरी के लिए या उन्हीं तथ्यों पर केवल चोरी के लिए या आपराधिक न्यास भंग के लिए बाद में आरोप नहीं लगाया जा सकता है।
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दोहरे खतरे से संरक्षण की आवश्यक शर्तें –
संहिता की धारा 300 के प्रावधानों का लाभ लेने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना जरुरी है –
(1) अभियुक्त किसी अपराध के लिए विचारित किया जाकर एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका हो,
(2) उस अपराध के लिए जिसके लिए उसके विरुद्ध लगाये गये आरोप से भिन्न आरोप धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाया जा सकता था और जिसके लिए वह उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था, उसी अपराध के लिए नया विचारण आरम्भ किया गया हो; (गवर्नमेन्ट ऑफ बम्बई बनाम अब्दुल वहाब, ए. आई. आर. 1946 बम्बई 38 ) एंव
(3) प्रथम विचारण किसी सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया हो। (बी. एम. रतनवेलू बनाम के. एस. अय्यर, ए. आई. आर. 1933, मद्रास 765)
दोहरे खतरे से संरक्षण के अपवाद –
धारा 300 में प्रतिपादित सिद्धान्त निरपेक्ष सिद्धान्त नहीं है। इसके कुछ अपवाद भी हैं अर्थात् कतिपय परिस्थितियों में किसी व्यक्ति का उन्हीं तथ्यों पर दुबारा विचारण किया जा सकता है। यह अपवाद निम्नलिखित है –
राज्य सरकार की सहमति से पुनः विचार
उपधारा (2) में यह कहा गया है कि किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किये गये व्यक्ति का, उस भिन्न अपराध के लिए, जिस पर धारा 220 (1) के अन्तर्गत प्रथम विचारण के समय ही पृथक् आरोप लगाया जा सकता था, बाद में राज्य सरकार की सहमति से विचारण किया जा सकेगा।
उदाहरण – ए के शरीर से सम्पत्ति की चोरी करने के लिए बी पर द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है। उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् बी पर लूट का आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा।
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भिन्न परिणाम पैदा होने पर विचारण
उपधारा (3) में यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसा कोई अपराध करता है जो कि अनेक कार्यों से निर्मित हुआ है और उसको किसी एक कार्य के लिए दोषसिद्ध या दोषा त किया जा चुका है, तो बाद में यदि उस कार्य के परिणाम से कोई भिन्न अपराध गठित होता है तो उस भिन्न अपराध के लिए उसका विचारण किया जा सकेगा।
उदाहरण – ए व्यक्ति बी व्यक्ति को घोर उपहति कारित करता है और घोर उपहति के लिए उसका विचारण किया जाकर उसे दोषसिद्ध किया जाता है। बाद में बी की घोर उपहति के परिणामस्वरूप मृत्यु हो जाती है। इस स्थिति में ए का आपराधिक मानव वध के लिए पुनः विचारण किया जा सकता है।
पूर्व न्यायालय के सक्षम नहीं होने पर विचारण
उपधारा (4) में यह उपबंधित किया गया है कि-यदि किसी व्यक्ति को किन्हीं कार्यों से गठित किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया गया है, फिर भी उस पर उन्हीं कार्यों से गठित किसी अन्य अपराध के लिए आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा, बशर्ते कि वह न्यायालय जिसके द्वारा प्रथम विचारण किया गया था, बाद वाले आरोप को सुनने के लिए सक्षम नहीं रहा हो।
स्टेट ऑफ झारखण्ड बनाम लालू प्रसाद यादव के मामले अनुसार – जहाँ निरन्तर आपराधिक षड्यन्त्र से कई सुभिन्न अपराधों का गठन होता हो, वहाँ दोहरे खतरे से सुरक्षा’ का सिद्धान्त लागू नहीं होगा। (ए.आई.आर. 2017 एस.सी. 3389)
दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 300 के सम्बन्ध में मोहिन्दर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब का एक महत्वपूर्ण प्रकरण है, इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार न तो अभियोजित किया जा सकता है और न ही दण्डित। लेकिन यदि किसी अपराध का पूर्व में विचारण ही नहीं हुआ है तो उस पर धारा 300 के उपबंध लागू नहीं होंगे।
इस प्रकरण में अपीलार्थी का विचारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 399 और धारा 402 के अधीन डकैती के प्रयास के अपराध के लिए तथा टाडा अधिनियम की धारा 3 के अधीन किया गया था। अपीलार्थी का विचारण स्टेनगन और 12 जीवित कारतूस अवैध रूप से कब्जे में रखने के लिए नहीं किया गया था।
अपीलार्थी के वकील द्वारा दलील दी गई कि अपीलार्थी का उसी आग्नेय अस्त्र को कब्जे में रखने के लिए दोबारा विचारण नहीं हो सकता क्योंकि डकैती के प्रयास वाले मामले में सत्र न्यायालय ने अन्य अभियुक्तों के साथ अभियुक्त के मामले पर भी स्टेनगन के कब्जे में रखने के प्रश्न पर विचार किया था और उस सम्बन्ध में अभियोजन साक्षियों पर विश्वास नहीं किया गया था।
इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सत्र-न्यायालय के विचारण में अपीलार्थी का अन्य अभियुक्तों के साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 399 और 402 तथा टाडा अधिनियम की धारा 3 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए विकरण हुआ था उस मामले में अपीलार्थी का विचारण वैध अनुज्ञप्ति के बिना आग्नेय अस्त्र रखने के लिए नहीं किया गया था।
उसका टाडा अधिनियम की धारा 5 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए भी विचार नहीं किया गया था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलार्थी का एक ही अपराध के लिए विचारण किया जा चुका है इसलिए उसका पुनः विचारण नहीं होना चाहिए।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 399 व धारा 402 तथा टाडा अधिनियम की धारा 3 के अधीन दण्डनीय अपराधों के विचारण में विचारण न्यायालय द्वारा जिस बात पर अविश्वास किया गया था वह यह थी कि – अभियुक्त ने उसे कोटा से डकैती डालने के लिए लिया था और अपना लक्ष्य पूरा कर पाते इससे पहले ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
अपीलार्थी पर आयुद्ध अधिनियम की धारा 25 तथा टाडा एक्ट की धारा 5 का भी आरोप था लेकिन इनके लिए पूर्व में अभियोजित नहीं किया गया था। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त को आयुध अधिनियम की धारा 25 एवं टाडा एक्ट की धारा 5 के लिए अभियोजित किया जा सकता है। (ए. आई. आर. 1999, एस. सी. 211)
यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि – आपराधिक मामलों में अभियोजन के साथ प्रतिकर हेतु सिविल कार्यवाही किया जाना दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 की परिधि में नहीं आता है। सिविल क्षतिपूर्ति की कार्यवाही अभियोजन नहीं है और प्रतिकर की डिक्री दण्ड नहीं है।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि आपराधिक मामलों में अभियोजन एवं सिविल प्रतिकर की कार्यवाही साथ-साथ चलने पर दोहरे खतरे का सिद्धान्त (Doctrine of Double jeopardy) लागू नहीं होता है। (सूबा सिंह बनाम दविन्दर कौर, ए.आई. आर. 2011 एस.सी. 3163)।
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संदर्भ :- बाबेल लॉ सीरीज (बसन्ती लाल बाबेल)
बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)