इस आलेख में दृष्टान्तानुसरण का सिद्धान्त | Doctrine of Stare decisis का परिचय एंव इसकी उपयोगिता तथा क्षेत्र | निर्णयाधार एवं प्रासंगिक विचार में प्रमुख अंतर क्या है? आदि के बारें में बताया गया है, यह आलेख विधि के छात्रो के लिए काफी उपयोगी है

दृष्टान्तानुसरण का सिद्धान्त –

इसे ‘निर्णयानुसरण’ या ‘निर्णीतानुसरण’ का सिद्धान्त (Doctrine of Stare decisis) भी कहा जाता है। यह आंग्ल विधि का मान्य सिद्धान्त है।

इस सिद्धान्त के अनुसार पूर्व-निर्णय प्राधिकार पूर्ण तथा बाध्यकारी (Authoriative and binding) होते हैं तथा इनका अनुसरण किया जाना न्यायालयों के लिए अपरिहार्य है।

जब अनेक निर्णयों द्वारा किसी वैधानिक प्रश्न को स्पष्ट रूप से सुनिश्चित कर दिया जाता है तो उसका अनुसरण करने तथा उसे न बदल सकने के सिद्धान्त को दृष्टान्तानुसरण का सिद्धान्त कहा जाता है।

डायसी (Dias) के अनुसार – दृष्टान्तानुसरण का बाध्यकारी बल है और इन्हें स्वतः विधि का स्वरूप प्राप्त हो जाता है। इंग्लैण्ड के न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णय समान तथ्यों वाले मामलों में वहाँ के न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं।

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दृष्टान्तानुसरण (निर्णयानुसरण) के लिए दो बातें आवश्यक हैं –

(i) निर्णयों का प्रकाशन, एवं (ii) श्रेणीबद्ध न्यायालयों की श्रृंखला।

(i) निर्णयों का प्रकाशन –

दृष्टान्तानुसरण या न्यायिक पूर्व-निर्णयों के अनुसरण के लिए इनका प्रकाशन (publication or reporting) अत्यन्त आवश्यक है। जब तक इनका प्रकाशन नहीं हो जाता, इनका सफलतापूर्वक प्रयोग सम्भव नहीं हो सकता।

इसी कारण डायसी (Dias) द्वारा यह कहा गया है कि “निर्णयानुसरण का इतिहास विधि निर्णय पत्रिकाओं एवं विधि प्रतिवेदनों का इतिहास है।”

इंग्लैण्ड में निर्णीतानुसरण यानि दृष्टान्तानुसरण सिद्धान्त को गति देने का श्रेय ‘वार्षिक विधि निर्णय पत्रिका’ को जाता है। कालान्तर में और भी अनेक विधि पत्र-पत्रिकाएँ एवं प्रतिवेदन प्रकाशित होने लगे। मूरे इण्डियन अपील्स आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं।

भारत में भी इन विधि पत्र-पत्रिकाओं एवं प्रतिवेदनों का प्रकाशन होने लगा है आई.एल.आर., ए.आई.आर., ए.एल.ले., एम.एल.ले., डब्ल्यू, एल.आर., आर.एल.डब्ल्यू. आर.एल.टी.., जजमेन्ट टूडे, एस.सी.सी., के.एल.टी.बी.एल.जे., एम.पी.एल.जे. आदि विधि पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से दृष्टान्तानुसरण के अनुसरण को व्यापक बल मिला है।

यह उचित भी है, क्योंकि जब तक पूर्व- न्यायिक निर्णय संहिताबद्ध रूप में उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक उनका अनुसरण किया जाना सम्भव नहीं होगा।

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(ii) श्रेणीबद्ध न्यायालयों की श्रृंखला –

निर्णयानुसरण के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए श्रेणीबद्ध न्यायालयों की श्रृंखला (Hierarchy of Courts) का होना अत्यावश्यक है; क्योंकि जब तक ऐसी श्रृंखला नहीं होगी तब तक अनुपालन करने वाले न्यायालयों की परिकल्पना नहीं की जा सकती है।

दृष्टान्तानुसरण के सिद्धान्त के अन्तर्गत उच्चतर न्यायालय के निर्णयों का अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा अनुपालन किया जाता है; अतः ऐसे न्यायालयों की एक श्रेणीबद्ध श्रृंखला का होना अपरिहार्य है। इंग्लैण्ड एवं अमेरिका में यह परम्परा शुरुआत से ही है।

भारत में भी न्यायालयों की एक श्रेणीबद्ध श्रृंखला है और उसी के अनुरूप निर्णयानुसरण के सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है।

इस सम्बन्ध में संविधान का अनुच्छेद 141 है, जिसके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को सभी न्यायालयों पर आबद्धकर माना गया है। सामान्यतः उच्चतम न्यायालय अपने ही पूर्व-निर्णय से आबद्ध नहीं होता है।

स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम बलवीर सिंह (ए.आई.आर. 2001 मध्यप्रदेश 268) –

इस मामले में यह कहा गया है कि, एक ही विषय पर उच्चतम न्यायालय की दो सम बैंचों (coequal benches) के भिन्न-भिन्न निर्णय होने पर उनमें से ऐसे निर्णय का अनुसरण किया जाना चाहिये जो युक्ति-युक्त एवं अधिनियम की स्कीम के अधिक अनुरूप हो।

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न्यू इण्डिया एश्योरेन्स कं. लि. बनाम श्रीमती तारा सुन्दरी फौजदार (ए, आई. आर. 2004 कलकत्ता 1)

इसमें कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ किसी विषय पर उच्चतम न्यायालय की दो सम बैंचों के भिन्न-भिन्न निर्णय हो, वहाँ उच्च न्यायालय द्वारा ऐसे निर्णय का अनुसरण किया जाना चाहिये जो विधि की सही एवं स्पष्ट व्याख्या करने वाला हो अर्थात् जो विधि के अधिक अनुरूप हो।

पाण्डुरंग कालू पाटिल बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 733) –

इस मामले में यह प्रश्न उठा था कि क्या प्रिवी कौंसिल का निर्णय उच्च न्यायालयों पर बाध्यकारी है? उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वह बाध्यकारी है बशर्ते कि उसे उच्चतम न्यायालय द्वारा उलट (overrule) नहीं दिया गया हो। इसका आशय यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं; लेकिन

(i) एक उच्च न्यायालय के निर्णय अन्य उच्च न्यायालयों पर आबद्धकर नहीं होते, अपितु अनुनयी (Persuasive) होते हैं, तथा

(ii) एक ही विषय पर भिन्न-भिन्न बैंचों के भिन्न-भिन्न निर्णय होने पर उनमें से अधिक युक्तियुक्त, तर्क संगत एवं विधि के अनुरूप अनुसरणीय होते हैं।

सिद्धप्पा बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक (ए.आई.आर. 2014 कर्नाटक 100)

इस मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह विनिर्धारित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि उच्च न्यायालयों के लिए आबद्धकर है।

बिहार स्टेट गवर्नमेन्ट सैकेण्डरी स्कूल टीचर्स एसोसियेशन बनाम विहार एज्यूकेशन सर्विस एसोसियेशन (ए.आई. आर. 2013 एस.सी. 487)

इस मामले में यह कहा गया है कि उच्च न्यायालयों को उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को मानना चाहिए अर्थात् अनुसरण करना चाहिए।

अवांछनीय निर्णयों (unwelcome authorities) को न्यायालयों द्वारा आसानी से टाला जा सकता है। न्यायालय ऐसे निर्णयों को मानने के लिए आबद्धकर नहीं होते हैं जो बिना सुनकर अर्थात् मौन रहते हुए (sub-silentio) निर्णीत किये गये हैं।

इस सम्बन्ध में ‘सन एण्ड सेन्ड होटल लि. बनाम मै. वी.वी. कामल’ (ए.आई.आर. 2003 बम्बई 168) का एक अच्छा मामला है जिसमें बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है कि “बिना सुने दिये गये निर्णय (judgement sub-silentio) स्वीकार्य नहीं हैं।”

दृष्टान्तानुसरण के सिद्धान्त की अवांछनीय बाध्यता से बचने के आधार –

(i) जब किसी पूर्व निर्णय को विधायी अधिनियम द्वारा निराकृत कर दिया गया हो,

(ii) जब निर्णय निचले न्यायालय के निर्णय के आधार पर नहीं दिया जाकर दूसरे आधारों पर दिया गया हो,

(iii) जब निर्णय संविधि की अनभिज्ञता के कारण दिया गया हो,

(iv) जब निर्णय पूर्ववर्ती निर्णयों से असंगत हो,

(v) जब निर्णय बिना बहस के अथवा मौन रहते हुए (sub-silentio) दिया गया हो,

(vi) जब निर्णय त्रुटिपूर्ण हो, अथवा

(vii) जब निर्णय त्रुटिपूर्ण रिर्पोटिंग के आधार पर दिया गया हो।

निर्णयाधार पूर्व निर्णय को प्राधिकारिक बनाने वाले ऐसे न्यायिक सिद्धान्तों को निर्णयाधार या विनिश्चय आधार (Ration decidendi) कहा जाता है जिन्हें न्यायाधीशों द्वारा भविष्य में अपने समक्ष आने वाले समान मामलों में लागू किया जाता है।

निर्णयाधार अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं। कोई भी न्यायालय इनको मानने से इन्कार नहीं कर सकता, चाहे वह उससे सहमत हो या नहीं।

‘डायरेक्टर ऑफ सेटलमेन्ट, आन्ध्रप्रदेश बनाम एम.आर. अप्पा राव’ (ए.आई. आर. 2002 एस.सी. 1598)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा इसकी सुन्दर व्याख्या की गई है। उच्चतम न्यायालय, द्वारा यह कहा गया है कि ‘निर्णयाधार का बाध्यकारी प्रभाव होता है अर्थात् इसमें बाध्यकारी शक्ति निहित होती है।

निर्णयाधार से तात्पर्य ऐसे सिद्धान्त से है जो न्यायालय के समक्ष विवादित विषय में दिये गये निर्णय को पढ़कर तलाशा जाता है. या प्राप्त किया जाता है।’

ओरिएन्टल इन्श्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम श्रीमती राजकुमारी (ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 403)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वह सिद्धान्त जिस पर न्यायालय द्वारा प्रश्नास्पद विषय का विनिश्चय किया जाता है, पूर्व-निर्णय (Precedent) कहलाता है। किसी भी विनिश्चय का सार उसका निर्णयाधार (Ratio) है, न कि प्रत्येक विचार (Observation)।

वेस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड बनाम मै. बी.डी. शर्मा’ (ए.आई.आर.2008 एन.ओ.सी. 39 मध्यप्रदेश)

इस मामले में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि किसी भी विनिश्चय को पूर्व-निर्णय के रूप में केवल तभी माना जा सकता है जब वह विधि के किसी प्रश्न को तय करता हो।

सॉमण्ड के अनुसार – “पूर्व निर्णय में अन्तर्निहित उस विधिक सिद्धान्त को निर्णयाधार कहा जाता है जो उस निर्णय को प्राधिकार शक्ति प्रदान करता है।” कीटन के अनुसार “निर्णयाधार वस्तुतः विधि का ऐसा सिद्धान्त है जो किसी मामले में निर्णय देने के लिए आधार बनता है।”

पेटन के अनुसार – “निर्णयाधार न्यायाधीश द्वारा अपने निर्णय के आधार रूप में प्रतिपादित सिद्धान्त है।”

रूपर्ट क्रास के शब्दों में “निर्णयाधार न्यायाधीश द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अभिव्यक्त या विवक्षित रूप में आवश्यक सोपान के रूप में मान्य विधि का नियम है।”

गुडहर्ट (Goodhart) के अनुसार “न्यायाधीशों द्वारा किसी मामले में उसके तथ्यों के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष को ही निर्णयाधार कहा जाता है।” इस प्रकार निर्णयाधार (Ratio decidendi) –

(i) एक ऐसा न्यायिक सिद्धान्त है जो पूर्व निर्णय को प्राधिकारिक बनाता है,

(ii) सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी (binding) होता है,

(iii) भविष्य में आने वाले समान मामलों में लागू किया जाता है, एवं

(iv) न्यायालय को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में मदद करता है।

प्रासंगिक विचार –

प्रासंगिक विचार जिसे ‘इतरोक्ति’ (obiter dicta) भी कहते हैं, निर्णयाधार से भिन्न है। निर्णयाधार का भाग नहीं होने वाली विधि की घोषणायें प्रासंगिक विचार कहलाती हैं।

इसका बाध्यकारी प्रभाव नहीं होता है अर्थात् न्यायालय इनको मानने के लिए आबद्ध नहीं होते हैं। इसका प्रभाव अनुनयी (persuasive) होता है।

पैटन के अनुसार “प्रासंगिक विचार न्यायाधीश द्वारा अपने निर्णय में विधि के बारे में व्यक्त ऐसे विचार हैं जो निर्णय से उत्पन्न प्रश्नों के हल के लिए आवश्यक नहीं हैं।”

ब्लैक के अनुसार “प्रासंगिक विचार न्यायालय द्वारा व्यक्त विधि का ऐसा तर्कवाक्य या कथन है जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अनावश्यक है।”

डायरेक्टर ऑफ सेटलमेन्ट, आन्ध्रप्रदेश बनाम एम.आर. अप्पाराव (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 1598)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि प्रासंगिक विचार बाध्यकारी नहीं होता है। इस पर विचार अवश्य किया जा सकता है।

अरुण कुमार अग्रवाल बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश (ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3056)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि- प्रासंगिक विचार/इतरोक्ति न्यायालय की एक टिप्पणी अथवा विचार/सम्प्रेषण मात्र है।

निर्णयाधार एवं प्रासंगिक विचार में अन्तर

(i) निर्णयाधार किसी मामले में निर्णय देने के लिए आवश्यक होता है जबकि प्रासंगिक विचार (इतरोक्ति) निर्णय के लिए आवश्यक नहीं है।

(ii) निर्णयाधार मामले में सुसंगत तथ्यों के सन्दर्भ में अभिकथित सुविचारित कथन होता है जबकि प्रासंगिक विचार अतात्विक तथ्य के बारे में कहा गया कथन होता है।

(iii) निर्णयाधार न्यायिक पूर्वोक्त के सिद्धान्त को जन्म देता है। जबकि प्रासंगिक विचार पूर्व-निर्णय के सिद्धान्त का भाग नहीं बनता है।

(iv) निर्णयाधार का प्रभाव बाध्यकारी होता है जबकि प्रासंगिक विचार का प्रभाव अनुनयी होता है।

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