नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में जॉन ऑस्टिन के विधि के आदेशात्मक सिद्धांत (Imperative theory) की विवेचना, इसके आवश्यक तत्व तथा आदेशात्मक सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या की गई है| अगर आपने इससे पहले विधिशास्त्र के बारे में नहीं पढ़ा है तब आप विधिशास्त्र केटेगरी से पढ़ सकते है|

आदेशात्मक सिद्धांत | Imperative theory

जॉन ऑस्टिन, बेन्थम के शिष्य थे और इनका जन्म सन 1790 में हुआ तथा मृत्यु सन 1859 में हुई। राज्य के संदर्भ में इनका नाम अग्रणी पंक्ति में माना जाता है तथा जॉन ऑस्टिन को english jurisprudence का जनक अथवा पिता भी माना जाता है|

जॉन ऑस्टिन ने विधि का विश्लेषणात्मक (Analytical) दृष्टिकोण अपनाकर उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करने का सार्थक प्रयास किया है। उनके अनसार – “विधि ऐसे नियमों का संकलन है जो एक विद्वान व्यक्ति किसी अन्य ऐसे विद्वान व्यक्ति के मार्गदर्शन के लिए निर्मित करता है जिस पर उसकी सम्प्रभुता अर्थात सर्वोच्चता है।”

सुस्पष्ट विधि (Positive law) की परिभाषा देते हुए ऑस्टिन ने कहा है कि – “यह विधि ऐसे आदेशों का समूह है जो एक सम्प्रभु द्वारा किसी स्वतन्त्र राजनयिक समाज में जनता के व्यवहारों को निर्धारित करने के लिए निर्मित किये गये हो।” 

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विधि की परिभाषा

ऑस्टिन अनुसार “विधि सम्प्रभु का समादेश है।” (Law is the Command of sovereign)

ऑस्टिन की इस परिभाषा से यह स्पष्ट  है कि विधि, न्याय से अलग है। उनके अनुसार विधि उचित अनुचित पर आधारित न होकर सम्प्रभु के आदेशों पर आधारित है। विधि सम्प्रभु की शक्ति में शामिल है। इसी कारण ऑस्टिन के सिद्धान्त को ‘विधि का आदेशात्मक सिद्धांत’ कहा गया है।

आदेशात्मक सिद्धांत के तत्त्व

ऑस्टिन के विधि के आज्ञात्मक अर्थात् आदेशात्मक सिद्धांत के तीन मुख्य तत्त्व अथवा लक्षण है –

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(1) सम्प्रभु शक्ति

ऑस्टिन के अनुसार विधि सम्प्रभु का आदेश है। सम्प्रभु को हिन्दी में राजसत्ता या प्रभुसत्ता भी कहा जाता है जो लैटिन शब्द ‘सुप्रेनस’ (Suprenus) से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ सर्वोच्च शक्ति है। सम्प्रभुता से तात्पर्य राज्य की उस शक्ति से है, जिसके कारण राज्य अपनी सीमाओं के अंतर्गत कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है।

राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय राज्य के ऊपर नही है और बाहरी दृष्टि से इसका अर्थ है “राज्य किसी बाहरी सत्ता के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण से स्वतंत्र होता है। संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा शक्ति है जिसके अधीन राज्य के सभी व्यक्ति और संस्थाएं होती है।

सम्प्रभु शक्ति (Sovereign power) के दो लक्षण है

(i) यह सर्वोच्च होनी चाहिए अर्थात् उस पर किसी बाह्य शक्ति का प्रभुत्व नहीं होना चाहिए

(ii) यह इस स्वरूप की होनी चाहिए कि उसके आदेशों का जनता द्वारा स्वेच्छा से अनुपालन किया जावे। 

ऑस्टिन की सम्प्रभुता के दो स्वरूप हैं

(1) सकारात्मक स्वरूप में सम्प्रभु के आदेशों का पालन समाज, जनता या बहुसंख्यक वर्ग द्वारा हमेशा किया जाता है और

(2) नकारात्मक स्वरूप में सम्प्रभु स्वयं अपने समकक्ष किसी अन्य शक्ति के आदेशों का पालन करने का अभ्यस्त नहीं होता है। 

इस प्रकार ऑस्टिन की सम्प्रभुता एक ऐसी सम्प्रभुता है जो सर्व शक्तिमान है, उससे ऊपर कोई शक्ति नहीं है और जिसके आदेशों का अनुपालन जनसाधारण द्वारा हमेशा किया जाता है। 

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(2) समादेश

ऑस्टिन ने विधि को सम्प्रभु अर्थात सर्वोच्च ईच्छा शक्ति का ‘समादेश’ (Command) माना है। समादेश राज्य की उस इच्छा की अभिव्यक्ति है जो जनता से किसी कार्य को करने या आज्ञा के अनुपालन की अपेक्षा करती है। ऐसी इच्छा की अभिव्यक्ति प्रार्थना के तौर पर नहीं होकर आदेश के तौर पर होती है।

समादेश दो प्रकार का हो सकता है –

(i) सामान्य समादेश – सामान्य समादेश से अभिप्राय ऐसे समादेश से है जो सभी व्यक्तियों, समुदायों या वर्गों के लिए प्रत्येक समय समान रूप से जारी किया जाता है और वह तब तक प्रभावशील रहता है जब तक कि उसे समाप्त या निरस्त ना कर दिया जाये। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामान्य समादेश सभी समुदायों या वर्गों को कुछ करने या न करने के लिए बाध्य करता है। 

उदाहरणार्थ – यदि सम्प्रभु द्वारा अपने आदेश से किसी वस्तु विशेष का आयात निर्यात प्रतिबंधित किया जाता है तो यह आदेश विधि का प्रभाव रखेगा तथा तब तक प्रभाव में रहेगा जब तक कि उसे वापस नहीं ले लिया जाता।

(ii) विशिष्ट समादेश – विशिष्ट समादेश से तात्पर्य ऐसे समादेश से है जो कुछ विशिष्ट व्यक्तियों, वर्गों या समुदायों के प्रति प्रत्येक समय के लिए या सभी व्यक्तियों, वर्गों या समुदायों के प्रति कुछ समय के लिए जारी किया जाता है। जिस कारण इसे आकस्मिक समादेश (Occassional Command) भी कहा जाता है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विशिष्ट समादेश वह समादेश है जो किसी विशिष्ट कार्य को करने या नाकरने की अपेक्षा करता है या किसी विशिष्ट व्यक्ति, समुदाय या वर्ग से किसी कार्य को करने या ना करने की अपेक्षा करता है। इस प्रकार विशिष्टता या तो किसी कार्य से सम्बन्धित हो सकती है या फिर किसी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय विशेष से होती है।

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(3) शास्ति

ऑस्टिन के आदेशात्मक सिद्धांत का तीसरा प्रमुख तत्त्व ‘शास्ति’ (Sanction) है। ऑस्टिन के मतानुसार सम्प्रभु का आदेश केवल मात्र विधि का रूप धारण नहीं कर लेता है वरन इसके लिए आवश्यक है कि उसके पीछे कोई शास्ति अर्थात् शास्ति का भय हो।

जब तक आदेश का पालन नहीं करने वालों के लिए दण्ड का प्रावधान नहीं हो तब तक वह आदेश विधि का स्थान नहीं ले सकता। आदेश और शास्ति से ही निश्चयात्मक विधि (Positive law) का अभ्युदय होता है।

उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति द्वारा राज्य के आदेश का उल्लंगन किया जाता है और उसे शास्ति का भय ना हो तो वह हमेशा राज्य के आदेशों का उल्लंगन करता रहेगा| इस प्रकार ऑस्टिन के आदेशात्मक सिद्धांत के अनुसार शास्ति (Sanction) का भय होना जरुरी है।

इस प्रकार सम्प्रभु (Sovereign), समादेश (Command) एवं शास्ति (Sanction) का एक साथ मिलकर ही ऑस्टिन का आज्ञात्मक अथवा आदेशात्मकसिद्धांत बनता है और यही इस बात की पुष्टि करता है कि “विधि सम्प्रभु का समादेश है।” (Law of the command of Sovereign)।

आदेशात्मक सिद्धांत की आलोचना

ऑस्टिन के आदेशात्मक सिद्धांत की ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थकों द्वारा कटु आलोचना की गई है। इनमें सर हेनरी मेन तथा सैविनी के नाम प्रमुख रूप से हैं। हैनरी मेन के अनुसार आज्ञात्मक विधि का सिद्धान्त आदिम समुदायों पर लागू नहीं होती है, क्योंकि विधि सदैव सम्प्रभुता से सम्बद्ध नहीं रखती है।

इसी प्रकार सैविनी ने भी ऑस्टिन के सम्प्रभु शक्ति की अवधारणा को निराधार बताया है। सैविनी के अनुसार विधि मानव के कार्यों एवं व्यवहारों का नियम है जिन्हें राष्ट्रीय प्रथाओं द्वारा मान्यता प्राप्त होती है।

ब्राइस (Bryes) ने भी ऑस्टिन के विधि के आदेशात्मक सिद्धांत की यह कहते हुए आलोचना की है कि विधि को सम्प्रभु का समादेश मानने का अर्थ यह हुआ कि सम्प्रभु के बिना विधि का अस्तित्त्व ही नहीं है। ब्राइस का विचार था कि विधि का समाज अथवा समुदाय से भी उस समय अस्तित्त्व रहा जब सम्प्रभु (राज्य) का उदय ही नहीं हुआ था।

इस प्रकार अनेक आलोचकों द्वारा ऑस्टिन के आदेशात्मक सिद्धांत (Imperative theory) की अपने-अपने ढंग से आलोचना की गई है|

जो निम्न हैं

(i) ऑस्टिन की विधि की परिभाषा ‘विधि सम्प्रभु का समादेश’ में रूढ़ियों एवं प्रथाओं की उपेक्षा की गई है।

(ii) ऑस्टिन के विधि के आदेशात्मक सिद्धांत (Imperative theory)  में न्यायाधीश द्वारा निर्मित विधि (Judge made law) के लिए कोई स्थान नहीं है।

(iii) ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को केवल नैतिक विधि मानने में भूल की है।

(iv) ऑस्टिन का यह सोच गलत है कि विधि के पालन के लिए शास्ति का होना आवश्यक है। कई बार शास्ति का काम ‘लोकमत’ द्वारा किया जाता है।

(v) ऑस्टिन की सम्प्रभु की अवधारणा लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में खरी नहीं उतरती है।

(vi) ऑस्टिन का यह विचार मानने योग्य नहीं है कि विधि का नैतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः अधिकार, कर्त्तव्य, दायित्व, अपकृत्य आदि विधिक संकल्पनायें नैतिकता पर ही आधारित है।

(vii) ऑस्टिन का यह सोच भी निराधार है कि विधि एवं न्याय के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।

इन सभी कारणों के बावजूद भी ऑस्टिन के आदेशात्मकसिद्धांत के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। पैटन (Paton) का कहना है कि ऑस्टिन द्वारा विधि को सम्प्रभु से सम्बद्ध किए जाने का एक लाभ यह हुआ है कि इसने सम्प्रभु अर्थात् राज्य तथा चर्च के बीच संघर्ष की स्थिति को टाल दिया है।

जिससे स्पष्ट हो गया है कि विधि निर्माण का अधिकार केवल सम्प्रभु को है, चर्च को नहीं। चर्च के केवल वहीं अधिकार होंगे जो राज्य द्वारा परिदत्त किये जायेंगे। पैटन ने इस बात का भी समर्थन किया है कि राज्य की सम्प्रभुता ही विधि की वैधता का आधार है। 

ऑस्टिन का आदेशात्मक सिद्धांत आगे आने वाले विधिशास्त्रियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है। विधिशास्त्र की प्रमाणवादी विचारधारा के समर्थकों में ऑस्टिन का नाम सदैव लिया जाता रहेगा। निःसन्देह ऑस्टिन की विधि सम्बन्धी विश्लेषणात्मक (Analytical) विचारधारा से विधिशास्त्र में एक नये अध्याय का श्रीगणेश हुआ है। 

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Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)