हेलो दोस्तों, इस आलेख में भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के तहत क्षतिपूर्ति की संविदा किसे कहते हैं, इसके आवश्यक तत्व | क्षतिपूर्तिधारी एवं क्षतिपूर्तिकर्ता के कौन कौन से अधिकार है तथा क्षतिपूर्ति की संविदा एवं प्रत्याभूति की संविदा में प्रमुख अन्तर क्या है आदि को आसान शब्दों में बताया गया है| यह आलेख विधि के छात्रो एंव आमजन के लिए काफी उपयोगी है|

परिचय – क्षतिपूर्ति की संविदा

क्षतिपूर्ति की संविदा (contract of indemnity) एक विशिष्ट प्रकार की संविदा है। इसमें एक-व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति को कारित क्षति की पूर्ति का दायित्व अपने ऊपर लेता है जबकि सामान्य प्रकृति की संविदाओं में क्षति की पूर्ति का दायित्व स्वयं पक्षकार पर होता है। जब किसी व्यक्ति को किसी वजह से कोइ हानि अथवा क्षति होती है और वह उस हानि से बचना चाहता है तब वह क्षतिपूर्ति संविदा लेता है।

परिभाषा

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 124 के अनुसार – “वह संविदा, जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उस दूसरे पक्षकार को हुई हानि से बचाने का वचन देता है, क्षतिपूर्ति की संविदा कहलाती है।”

सरल भाषा में कहा जा सकता है कि क्षतिपूर्ति की संविदा में एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उस दूसरे पक्षकार को हुई हानि से बचाने का वचन देता है।

यह भी जाने –  विधिक/ कानूनी अधिकारों का वर्गीकरण  | Classification of Legal Right in hindi – विधिशास्त्र

उदाहरणार्थ – ‘’ ऐसी कार्यवाहियों के परिणामों के लिए जो ‘’ 200 रुपये की अमुक राशि के सम्बन्ध में ‘’ के विरुद्ध चलाये, ‘’ की क्षतिपूर्ति करने की संविदा करता है। यह क्षतिपूर्ति की संविदा है। सामान्यतः बीमा की संविदायें, अग्नि बीमा की संविदायें इसी प्रकार की होती है

केस – स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम प्रेमदास (ए.आई.आर. 1998 दिल्ली 49)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, किसी व्यक्ति द्वारा अर्थात गारन्टर द्वारा किसी ऋण के संदाय बाबत गारन्टी देकर गारन्टी – विलेख पर हस्ताक्षर करना क्षतिपूर्ति की संविदा है।

न्यू इंडिया एश्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 517 गुजरात)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, जीवन एवं वैयक्तिक दुर्घटना बीमाओं की संविदाओं को छोड़कर शेष सभी प्रकार के बीमाओं की संविदाएँ क्षतिपूर्ति की संविदा हैं।

इनमें प्रतिवादी द्वारा क्षतिपूर्ति का वचन दिया जाना निरपेक्ष माना जाता है। ऐसे मामलों में वास्तविक क्षति नहीं होते हुए भी वचन का पालन करने में असफल रहने पर वाद लाया जा सकता है।

भारतीय विधि में आंग्ल विधि की अपेक्षा क्षतिपूर्ति की संविदा को अत्यन्त सीमित रूप में परिभाषित किया गया है। इस धारा में केवल एक ही प्रकार की क्षतिपूर्ति का उल्लेख किया गया है जो क्षतिपूरक द्वारा की गई इस प्रतिज्ञा से उत्पन्न होती है कि वह दूसरे पक्षकार की रक्षा स्वयं अपने आचरण का किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से हुई हानि से करेगा|

इसमें उन दशाओं का उल्लेख नहीं है, जिनमें हानि घटनाओं या दुर्घटनाओं द्वारा होती है जो क्षतिपूरक के आचरण या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण पर निर्भर नहीं होती या जो क्षतिपूरित द्वारा क्षतिपूरक के अनुरोध पर कुछ करने से उत्पन्न हुए उत्तरदायित्व से होती है।

यह भी जाने – महिला अपराध क्या है : महिला अपराधी के कारण एंव इसके रोकथाम के उपाय

चलत प्रत्याभूति क्या होती है

संविदा अधिनियम की धारा 129 के अनुसार ” वह प्रत्याभूति जिसका विस्तार संव्यवहारों की किसी आवली पर हो, चलत प्रत्याभूति कहलाती है|

उदाहरण  यदि कोई व्यक्ति मूल ऋणी के ऋण की वापसी तक के लिए प्रत्याभूति देता है, तो वह प्रत्याभूति चल प्रत्याभूति है और तब तक बनी रहती है जब तक कि मूल ऋणी द्वारा ऋण का संदाय नहीं कर दिया जाता|

यह भी जाने – अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) क्या है? यह कब और कैसे मिलती है | CrPC in Hindi

क्षतिपूर्ति की संविदा के आवश्यक तत्व

(i) क्षतिपूर्ति की संविदा में विधिमान्य संविदा के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान रहते हैं, यथा-

(क) दो पक्षकार

(ख) प्रस्ताव

(ग) स्वीकृति

(घ) स्वतन्त्र सम्मति

(ङ) वैध उद्देश्य

(च) वैध प्रतिफल, आदि।

(ii) इसमें एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को कुछ हानियों से बचाने का वचन दिया जाता है।

(iii) इसमें क्षतिपूर्तिधारी वास्तविक क्षति की पूर्ति कराने का हकदार होता है; न कि अनुबन्धित सम्पूर्ण राशि पाने का।

(iv) क्षतिपूर्ति की संविदायें लिखित, मौखिक अथवा आचरण द्वारा की जा सकती

(v) क्षतिपूर्ति की संविदा समाश्रित संविदायें (Contingent Contracts) होती है

(vi) ऐसी संविदायें सद्विश्वास पर आधारित होती हैं।

यह भी जाने – विधि का शासन की परिभाषा, डायसी के अनुसार विधि का शासन, भारत के संविधान में विधि शासन

क्षतिपूर्ति की संविदा मै अधिकार

क्षतिपूर्ति की संविदा में दो पक्षकार होते है, क्षतिपूर्तिकर्ता (Indemnifier) तथा क्षतिपूर्तिधारी (Indemnity holder)। हानि की पूर्ति का वचन देने वाला व्यक्ति को क्षतिपूर्तिकर्ता कहा जाता है तथा जिसे वचन दिया जाता है उसे क्षतिपूर्तिधारी कहा जाता है। क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूर्तिधारी एंव क्षतिपूर्तिकर्ता को निम्न अधिकार प्राप्त होते है –

क्षतिपूर्तिधारी के अधिकार

क्षतिपूर्तिधारी के अधिकारों को क्षतिपूर्तिकर्ता के दायित्व भी कह सकते है। संविदा अधिनियम की धारा 125 में क्षतिपूर्तिधारी के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार क्षतिपूर्तिधारी, क्षतिपूर्तिकर्ता से निम्नांकित राशि वसूल करने का हकदार होता है

(i) वह सब नुकसानी जिसके संदाय के लिए वह ऐसे किसी वाद में विवश किया जायें;

(ii) वे सब खर्चे जिनको देने के लिए वह ऐसे किसी वाद में विवश किया जायें;

(iii) वे सब धनराशियाँ जो उसने ऐसे किसी वाद में समझौते के निबन्धनों के अधीन दी हो।

सम्पति के विक्रय के मामले में जहाँ सम्पति में विक्रेता का त्रुटिपूर्ण स्वत्व रहा हो और इसी आधार पर क्रेता को सम्पति से बेकब्जा कर दिया गया हो, वहाँ क्रेता, विक्रेता से बेकब्जा किये जाने की तारीख को सम्पति के बाजार मूल्य के अनुरूप क्षतिपूर्ति (Damages) पाने का हक़दार होगा; न कि विक्रय-विलेख के निष्पादन की तिथि से। (के.पी.एस. हुसैन साहेब बनाम जी.राज शेखर गौवड़ा, ए.आई.आर. 2006 एन.ओ.सी. 511 आंध्रप्रदेश)।

क्षतिपूर्तिकर्ता के अधिकार

क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूर्तिकर्ता द्वारा क्षतिपूर्तिधारी की क्षतिपूर्ति करनी होती है। ऐसी क्षतिपूर्ति कर दिये जाने पर क्षतिपूर्तिकर्ता के क्या अधिकार होंगे, इस सम्बन्ध में संविदा अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं किया गया है, लेकिन समय समय पर न्यायालयों द्वारा किये गये निर्णयों के अनुसार क्षतिपूर्तिकर्ता के निम्न अधिकार परिलक्षित होते हैं

(i) जब क्षतिपूर्ति की संविदा के अधीन क्षतिपूर्तिधारी को क्षतिपूर्ति कर दी जाती है तब क्षतिपूर्तिकर्ता को वे सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो क्षतिपूर्तिधारी को प्राप्त थे।

(ii) क्षतिपूर्तिकर्ता द्वारा जिस सीमा तक क्षतिपूर्तिधारी की क्षतिपूर्ति की गई है उस सीमा तक वह तीसरे पक्षकार के विरुद्ध क्षतिपूर्तिधारी के नाम से वाद ला सकता है।

(iii) क्षतिपूर्तिकर्ता द्वारा जिस सीमा तक क्षतिपूर्तिधारी की क्षतिपूर्ति की गई है उस सीमा तक क्षतिपूर्तिकर्ता तीसरे पक्षकार से क्षतिपूर्ति की राशि प्राप्त करने का हकदार है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि क्षतिपूर्तिकर्ता को ऐसी क्षतिपूर्ति के लिए क्षतिपूर्तिधारी को इन्कार करने का अधिकार है जो क्षतिपूर्ति की संविदा से बाहर कारित क्षति से उत्पन्न होती है।

क्षतिपूर्ति की संविदा एवं प्रत्याभूति की संविदा में अन्तर

(i) धारा  क्षतिपूर्ति को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 124 में परिभाषित किया गया है जबकि प्रत्याभूति को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 126 में परिभाषित किया गया है।

(ii) पक्षकार  क्षतिपूर्ति की संविदा में केवल दो पक्षकार होते है – क्षतिपूर्तिकर्ता व क्षतिपूर्तिधारी तथा प्रत्याभूति की संविदा में तीन पक्षकार होते है मूल ऋणी, लेनदार, प्रतिभू

(iii) उद्देश्य – क्षतिपूर्ति की संविदा का उद्देश्य हानि की प्रतिपूर्ति कराना होता है तथा प्रत्याभूति की संविदा का उद्देश्य वचनदाता द्वारा वचन का पालन नहीं करने पर प्रतिभू द्वारा उसके पालन का दायित्व अपने ऊपर लिया जाता है।

(iv) सृजन  क्षतिपूर्ति की संविदा का सृजन किसी अन्य व्यक्ति के अनुरोध के बिना होता है तथा प्रत्याभूति की संविदा का सृजन किसी अन्य व्यक्ति के अनुरोध पर होता है।

(v) संविदा – क्षतिपूर्ति की संविदा केवल क्षतिपूर्तिकर्ता एवं क्षतिपूर्तिधारी के बीच की संविदा होती है तथा प्रत्याभूति की संविदा में तीन प्रकार की संविदा होती है – मूलऋणी एवं लेनदार के बीच संविदा, लेनदार एवं प्रतिभू के बीच संविदा तथा मूलऋणी एवं प्रतिभू के बीच संविदा।

(vi) प्रत्यक्ष व्यवहार  क्षतिपूर्ति की संविदा का एक मूल एवं प्रत्यक्ष व्यवहार होती है तथा तीसरे पक्षकार के बिना स्वतन्त्र रूप से की जा सकती है लेकिन प्रत्याभूति की संविदा मूल ऋणी की पूर्व धारणी करती है। (Mulla’s Indian Contract Act. 9th Ed. Page 126)

(vii) वाद संस्थित  क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूरक अपने नाम से तीसरे पक्षकार के विरुद्ध तब तक वाद नहीं ला सकता जब तक कि अभिहस्तांकन न हो, किन्तु उसके लिए क्षतिपूरित के नाम से वाद संस्थित किया जाना आवश्यक है लेकिन प्रत्याभूति की संविदा में जहाँ प्रतिभू मूल ऋणी द्वारा लेनदार को देय ऋण का उन्मोचन कर देता है, वहाँ वह ऐसे संदाय या उन्मोचन पर विधि की दृष्टि में मूल ऋणी के विरुद्ध अपने अधिकार से कार्यवाही करने का हकदार हो जाता है।

(viii) प्राथमिक देयता  क्षतिपूर्ति के अनुबंध में क्षतिपूर्ति की देयता प्राथमिक है, जबकि गारंटी की देयता मै यह गौण है क्योंकि प्राथमिक देयता देनदार की होती है।

केस नागरिक सहकारी बैंक बनाम यूनियम ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1981 आन्ध्रप्रदेश 153) के मामले में भी क्षतिपूर्ति की संविदा एवं प्रत्याभूति की संविदा के बीच अन्तर को स्पष्ट किया गया है।

महत्वपूर्ण आलेख –

भूमि अतिचार कैसे किया जाता है? परिभाषा, इसके प्रकार तथा बचाव के उपाय

उपताप क्या है : इसके प्रकार तथा लोक उपताप एंव व्यक्तिगत उपताप में अन्तर – अपकृत्य विधि

मुशा क्या है? सिद्धांत, प्रकार एंव इसके अपवाद | क्या मुस्लिम विधि में मुशा का हिबा किया जा सकता है?