इस आलेख में क्या अपराधी को मृत्यु दण्ड दिया जाना उचित है और भारतीय व्यवस्था के संदर्भ में निरोधात्मक दण्ड के रूप में क्या मृत्यु दण्ड उचित है आदि का संक्षेप में उल्लेख किया गया है –

मृत्यु दण्ड (Death sentence)

निरोधात्मक दण्ड के रूप में मृत्यु दण्ड (Death sentence) को सर्वाधिक कठोर दण्ड माना जाता है, क्योंकि इसके कारण समाज से अपराधी का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाता है। प्रायः सभी देशों में मृत्यु दण्ड का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है यानि मृत्यु दण्ड देने की व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है।

मनुस्मृति के अनुसार, प्रथम बार अपराध करने पर वाग्दण्ड, दूसरी बार अपराध करने पर दिग्दण्ड और तीसरी बार अपराध करने पर अर्थ दण्ड एवं इसके बाद अपराध करने पर वध/मृत्यु दण्ड देने का प्रावधान है।

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मृत्यु दण्ड के औचित्य के कारण

(i) मनुष्य स्वभावतः मृत्यु से भयभीत रहता है। कोई भी अपराधी फांसी की सजा अर्थात् मृत्यु दण्ड (capital punishement) नहीं चाहता। इस कारण, मृत्यु दण्ड अपराधों के निवारण में अत्यन्त प्रभावशाली एवं सहायक सिद्ध होता है।

(ii) मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास एवं अन्य दण्डों से बिल्कुल अलग है और यह इसकी गुणवत्ता का कारण है। मृत्यु दण्ड से अपराधी का समाज से हमेशा के लिए अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाता है।

(iii) कुख्यात अपराधियों को जीवन पर्यन्त कारागृह में रखना अत्यन्त खर्चीला एवं असुविधाजनक होता है, इस कारण भी उन्हें मृत्यु दण्ड दिया जा सकता है

भारत के विधि आयोग की 35वीं रिपोर्ट में यह कहा गया है कि न्यायाधीशों, सांसदों, विधायकों, विधिवेत्ताओं, अधिवक्ताओं एवं पुलिस प्रशासन की राय में मृत्यु दण्ड का पर्याप्त एवं संतोषप्रद प्रतिरोधात्मक प्रभाव रहा है।

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मृत्यु दण्ड के विपक्ष में तर्क

समाज में बहुत से व्यक्ति ऐसे है जो मृत्यु दण्ड को समाप्त किये जाने के पक्ष में हैं, उनके अनुसार –

(i) मृत्यु दण्ड अपरिवर्तनीय होता है। एक बार मृत्यु दण्ड दे दिये जाने पर अपराधी हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में भूलवश निर्दोष व्यक्ति को मृत्यु दण्ड दे दिये जाने पर वह अन्यायपूर्ण साबित हो सकता है।

(ii) मृत्यु दण्ड के प्रभाव के सम्बन्ध में भी काफी आशंकायें हैं। मृत्यु दण्ड के प्रचलन के बावजूद भी हत्या जैसे अपराध कम नहीं हुए है।

(iii) बदलते हुए परिवेश में अब दण्ड का मुख्य उद्देश्य अपराधी में सुधार एवं पुनर्वास माना जाने लगा है। ऐसी स्थिति में मृत्यु दण्ड का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।

(iv) मृत्यु दण्ड अत्यन्त क्रूर, अमानवीय एवं अपमानजनक दण्ड है चाहे उसके निष्पादन का कोई भी तरीका क्यों न हो।

इन सब तथ्यों के बावजूद भी वर्तमान में अनेक देशों में मृत्यु दण्ड (Death sentence) का प्रचलन है।

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भारत में मृत्यु दण्ड का औचित्य

भारत में मृत्यु दण्ड का प्रचलन आदिकाल से ही चला आ रहा है। गम्भीर प्रकृति के अपराधों में फांसी की सजा देने की परम्परा काफी पुरानी रही है। धर्मशास्त्रों में भी मृत्यु दण्ड का उल्लेख मिलता है। ‘जीवन के बदले जीवन (Life shall go for life…..)’ के दाण्डिक नियम से इस बात की पुष्टि होती है|

बदलते परिवेश में  में अपराधी को मृत्यु दण्ड देने के तरीके अलग-अलग रहे हैं, जैसे – फांसी पर लटकाना, दीवारों में चुन देना, शरीर पर खौलता हुआ पानी या तेल छिड़कना, पहाड़ी से गिरा देना, खतरनाक जानवरों के सामने डाल देना, चमड़ी उतार लेना, कौड़े एवं पत्थर मारना आदि। फिर भी इन तरीकों को क्रूर, बर्बर एवं अमानवीय माना जाता रहा है।

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक जैसे-जैसे मनुष्य सभ्यता की ओर आगे बढ़ता गया है, वैसे-वैसे कल्याणकारी राज्यों की स्थापना होने लगी और मृत्युदण्ड के विरोध में समाज बोलने लगा तथा विधिवेत्ता एवं प्रबुद्ध वर्ग के लोगों द्वारा मृत्युदण्ड समाप्त किये जाने की माँग की जाने लगी।

उनके अनुसार मृत्युदण्ड अपराधों की रोकथाम करने का एक मात्र उपाय नहीं है जबकि उनके द्वारा अपराधियों के सुधार एवं पुनर्वास की दलीलें दी जाने लगीं। अधिकांश विधिवेत्ताओं का मानना है कि अपराधों का प्रभावी ढंग से निवारण हृदय परिवर्तन द्वारा ही हो सकता है ना की दण्ड के भय से।

मृत्यु दण्ड का विरोध संविधान के अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 के आधार पर भी किया जाता है। विधिवेत्ताओं का कहना है कि मृत्युदण्ड संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रत्याभूत प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन करता है।

मामला – मिटूसिंह बनाम स्टेट [(1983) 2 एस.सी.सी. 277]

इस सम्बन्ध में यह मामला प्रमुख है, इसमें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 303 में प्राविधित मृत्युदण्ड की संज्ञा को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई।

जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार करते हुए धारा 303 के उपबन्ध को असंवैधानिक करार दे दिया और कहा कि अपराध की परिस्थितियों एवं प्रकृति पर ध्यान दिये बिना आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदी को एक वर्ग मानकर उसे मृत्यु दण्डदिया जाना संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का अतिक्रमण है।

इन सबके बावजूद भारतीय दण्ड संहिता एवं अन्य दाण्डिक विधियों में भी ‘मृत्युदण्ड’ की व्यवस्था विद्यमान है। लेकिन समाज की धारणा में परिवर्तन जरुर हुआ है। अब यह सोच बनने लगी है कि, मृत्यु दण्ड अत्यन्त विलक्षण प्रकृति (rarest of rare) के मामलों में ही दिया जाना चाहिए।

एक समय था जब मृत्युदण्ड एक सामान्य नियम था और आजीवन कारावास अपवाद, लेकिन अब आजीवन कारावास एक सामान्य नियम बन गया है और मृत्यु दण्ड अपवाद। इस सम्बन्ध में पांडुरंग बनाम स्टेट ऑफ हैदराबाद (ए.आई.आर. 1955 एस.सी. 216) का मामला मुख्य है, जिसमे कहा गया है कि, मृत्युदण्ड केवल अनिवार्य एवं आपवादिक परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए।

इसी तरह और भी बहुत सारे मामले में जिसमे आजीवन कारावास को एक सामान्य नियम और मृत्युदण्ड को अपवाद माना गया है, जैसे –

सुभाष रामकुमार बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 269) –

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि – मृत्युदण्ड अत्यन्त विलक्षण प्रकृति अर्थात् बिरले से बिरले मामलों में ही दिया जाना चाहिए|

स्वामी श्रद्धानन्द उर्फ मुरली मनोहर मिश्रा बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक (ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2531) –

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, मृत्युदण्ड को न्यायिक निर्णयों द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाना आवश्यक है। मृत्यु दण्ड का अस्तित्त्व संविधान तथा दाण्डिक विधि के कारण है।

राजेन्द्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश (ए.आई.आर. 1979 एस.सी. 916) –

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अभियुक्त के मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदलते हुए यह कहा गया है कि “निरोधात्मक एवं प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का महत्त्व अब कम होता जा रहा है और वर्तमान न्याय प्रशासन का मुख्य लक्ष्य अपराधियों में सुधार एवं पुनर्वास की ओर इंगित हो रहा है। अपराधी को एक बार सुधार एवं पुनः सामान्य नागरिक की भाँति रहने का अवसर दिया जाना चाहिए।”

एडिगा अन्नम्मा बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्रप्रदेश (ए. आई. आर. 1974 एस.सी. 729) –

यह मामला प्रेम प्रंसग को लेकर हत्या का था, जिसमे माननीय न्यायालय द्वारा अभियुक्त की सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक परिस्थितियों पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदला गया।

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने कहा- भारत के ग्रामीण परिदृश्य में प्रेम प्रसंग की घटनायें अक्सर होती रहती हैं। लैंगिक भावावेश में प्रेमिका द्वारा प्रेमी की पत्नी की हत्या के लिए मृत्युदण्ड दिया जाना न्यायोचित नहीं होगा। ऐसे मामलों में आजीवन कारावास का दण्ड ही पर्याप्त है।

ऐसे और भी अनेक मामले हैं जिनमें मृत्यु-दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तन करते हुए कहा गया कि, –

(i) मृत्यु-दण्ड अत्यन्त विलक्षण प्रकृति (rarest of rare) के मामलों में दिया जाना चाहिए;

(ii) बर्बर एवं अमानवीय अपराधों में मृत्यु-दण्ड दिया जाना न्याय सम्मत है; तथा

(iii) मृत्यु दण्डादेश पारित करते समय मामले की प्रकृति, अभियुक्त की स्थिति एवं परवर्ती परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

विलक्षण प्रकृति के मामले के सम्बन्ध में पुरुषोत्तम दशरथ बोराटे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र का मामला प्रमुख है, इसमें एक बालिका को घर से उठाकर ले जाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसका गला घोंटकर हत्या कर देने के कृत्य को विलक्षण प्रकृति का मामला माना गया।

मृत्यु दण्ड के प्रवर्तन में विलम्ब का प्रभाव –

मृत्यु-दण्ड एक विशेष प्रकार का दण्ड है जिसका मुख्य उद्देश्य अपराधी को हमेशा-हमेश के लिए समाज से समाप्त कर देना तथा अन्य लोगों में भय व्याप्त करना है ताकि वे अपराध की ओर ना बढे। इस दण्ड का प्रवर्तन तत्काल अथवा यथाशीघ्र किया जाना अपेक्षित है।

इसके प्रवर्तन में विलम्ब से इसका महत्त्व समाप्त हो जाता है। इतना ही नहीं, इसे संविधान के अनुच्छद 21 के प्रतिकूल भी माना गया है, क्योंकि प्रवर्तन में विलम्ब से अभियुक्त सदैव मृत्यु के भय में जीता है और उसकी गर्दन पर मृत्यु अटकी रहती है।

त्रिवेणी बेन बनाम स्टेट ऑफ गुजरात (ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 142) के मामले में माननीय न्यायालय ने कहा कि, मृत्यु-दण्ड के प्रवर्तन में दो वर्ष का विलम्ब अत्यधिक है| इसी तरह टी.वी. वाथेसरन बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु (ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 361) के मामले में मृत्यु दण्ड की सजा के प्रवर्तन को दो वर्ष तक लम्बित रखे जाने को संविधान के अनुच्छेद 21 की भावना के प्रतिकूल माना गया है।

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