हेल्लो दोस्तों, इस लेख में कौटिल्य का अर्थशास्त्र क्या है | भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था में इसका क्या योगदान रहा है तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भारतीय न्याय व्यवस्था एंव दण्ड विधि का स्वरूप कैसा था का उल्लेख एक निबंध के रूप में किया गया है। उम्मीद है कि यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –
कौटिल्य का अर्थशास्त्र –
भारत की न्याय व्यवस्था मे कौटिल्य का अर्थशास्त्र का योगदान अभूतपूर्व है| अर्थव्यवस्था मानव जीवन की समृद्धि से सम्बद्ध होने के कारण उसका राज्य प्रशासन तथा विधि-व्यवस्था से हमेशा निकट सम्बन्ध रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से अर्थशास्त्र की रचना प्राचीन भारत के धर्मशास्त्र काल में ही हुई थी।
परन्तु इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री कौटिल्य (चाणक्य) का रहा है।कौटिल्य का अर्थशास्त्र में उत्तम राज्य व्यवस्था, राजनैतिक दाँव-पेंच तथा अनुशासन व्यवस्था के लिए विधि सम्बन्धी विस्तृत नियम दिये गये हैं।
कौटिल्य ने धर्मशास्त्र को आधार स्तंभ मानते हुये शासक (king) को न्याय का स्रोत (fountain of Justice) माना है तथा शासक से यह अपेक्षा की, कि वह अपनी प्रजा का संरक्षण मातृतुल्य भावना से करे। प्राचीन धर्म कर्तव्य पर आधारित होने के कारण इसके अन्तर्गत जाति धर्म, संप्रदाय आदि के भेदभाव को कोई स्थान नहीं था।
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वर्ण व्यवस्था – प्राचीन भारत की ‘वर्ण व्यवस्था’ सामाजिक सहयोग एवं समेकता पर आधारित थी न कि वर्तमान समय की तरह निज स्वार्थ हेतु समाज को विभाजित करने वाली जाति पर। तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था श्रम-विभाजन के आर्थिक सिद्धान्त (Economic principle of division of labour) पर आधारित थी।
प्राचीन भारत में एक निश्चित विधि तथा न्याय प्रणाली प्रचलित थी जिसमें विभिन्न अपराधों की परिभाषा तथा व्याख्या स्पष्ट रूप से थी एंव दण्ड अधिकारियों की योग्यताओं और कर्त्तव्यों का उल्लेख विस्तारपूर्वक किया गया था। अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार दण्डित किया जाता था। साक्ष्य, उत्तराधिकार, दायाधिकार आदि सम्बन्धी नियम निश्चित एवं सुस्पष्ट थे। अभियोगी का परीक्षण उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर किया जाता था। विचारण काल (Trial period) में वह किसी ब्राह्मण या पण्डित का परामर्श ले सकता था।
भारतीय ‘धर्मशास्त्र’ में गहन रुचि रखने वाले पाश्चात्य विधि-विचारक सर विलियम जोन्स, जर्मन विधिशास्त्री फेड्रिक चेलेगेल (Fredrick Schlegel), फ्रांसीसी दार्शनिक विक्टर कजिन (Victor Cousin) तथा प्रोफेसर मेक्समूलर (Prof. Max Muller) ने वेदांत-दर्शन (Vedic Philosophy) को धर्म, विधि तथा नीति का एक ऐसा अद्भुत समन्वय निरूपित किया है जिसके फलस्वरूप सामाजिक समेकता (Social Solidarity) तथा विधि की शुचिता को संबल प्राप्त होता है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र में दण्ड विधि
प्राचीन विधि-दर्शन सांसारिक तथा भौतिक सुख का विरोधक नहीं अपितु इसके अधीन प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह समान आधार पर सम्पत्ति का उपयोग और उपभोग करे। पक्षकारों को अपना पक्ष ‘वकील’ के माध्यम से प्रस्तुत करने की सुविधा थी परन्तु हत्या, डकैती, जारता, शीलभंग, मिथ्या-साक्ष्य तथा न्यायाधीश की सम्पत्ति का विध्वंस करने आदि जैसे गम्भीर अपराधों के लिए अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक था।
मिथ्या साक्ष्य के लिये दोषी व्यक्ति को विशेष रूप से कठोरतम दण्ड दिया जाना था। अपने पक्षकार की ओर से पैरवी करने वाले वकील तथा पूजा, होभ, हवन, यज्ञकार्य, दान, धर्म-युद्ध आदि में व्यस्त व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था।
इसी प्रकार गृह-निर्माण के कार्य में व्यस्त कारीगर, संदेशवाहक तथा चित्रकार आदि वर्ग के प्रति कानून विशेष रूप से उदार था तथा उन्हें बन्धनमुक्त रखा जाना आवश्यक समझा जाता था। गवाह के रूप में न्यायालय में उपस्थित ब्राह्मणों के प्रति उदार नीति थी तथा उन्हें साक्ष्य देते समय सच बोलने की हिदायत देना आवश्यक नहीं समझा जाता था क्योंकि उनके सदाचरण के विषय में किसी प्रकार की शंका नहीं थी।
निपुण पण्डितों अथवा संन्यासियों को तथा कोढ़ी व्यक्ति, दस्यु (slave), अंधा व्यक्ति, अवयस्क (पन्द्रह वर्ष से कम आयु के व्यक्ति) व अस्सी वर्ष से अधिक आयु के वृद्ध को सामान्यतः साक्षी के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा था। गम्भीर अपराध सिद्ध हो जाने पर दोषी व्यक्ति को किसी अन्य प्रकरण में साक्षी के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था।
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प्राचीन हिन्दू-कालीन न्याय-व्यवस्था में अपराधियों के दोषी होने अथवा निर्दोष सिद्ध करने के लिए उनका अग्नि-परीक्षण किया जाता था। अग्निपरीक्षा में अग्नि अथवा पानी का उपयोग विशेष रूप से किया जाता था। अपराधी को आग में तपी हुई गरम लोहे की छड़ हाथ में थामने अथवा उसे जलती आग पर कछ कदम नंगे पैर चलने के लिए बाध्य किया जाता था। यदि अपराधी इस परीक्षा में खरा उतरता था तो वह निर्दोष माना जाता था तथा उसे तुरन्त मुक्त कर दिया जाता था।
परन्तु अग्नि-परीक्षा के परिणामस्वरूप उसे किसी प्रकार की चोट या घाव पड़ने पर उसे सिद्धदोष माना जाता था तथा उसके लिए यही दण्ड पर्याप्त था। इसी प्रकार अभियोगी के दोष या निर्दोषता की परख के लिए उसे उबलते हुये पानी में डुबो देना अथवा तेज जल-प्रवाह में फेंक दिया देना व उसके सकुशल जीवित निकल आने पर उसे निर्दोष मान कर छोड़ देना परन्तु उबलकर मृत हो जाने पर या बहते पानी में डूब कर मर जाने की दशा में यह समझा जाता था कि वह व्यक्ति अपराध के लिए दोषी था।
प्राचीन कालीन दण्ड-विधान में अपराधी का सिर कलम कर दण्ड देना सामान्य रूप से प्रचलित था। इस प्रकार कुछ अपराधों के लिए दोषी व्यक्ति को जाति या समाज से बहिष्कृत कर देना, गम्भीर अपराधों में अपराधी के एक या दोनों हाथ अथवा पैर काट देना आदि दण्ड देनें के स्वरूप भयावह एवं कठोर थे। यही कारण था कि उस काल में अपराधों की संख्या बहुत कम थी।
जारता के सम्बन्ध में दण्ड विधि –
शास्त्रों में जारता सम्बन्धी अपराध के लिए विस्तृत उपबन्ध दिये गये हैं। परस्त्री से सहवास करना, उसके साथ एकान्त में रहना, किसी स्त्री की मूक सहमति मानकर उसे बुरी नियत से एकांत में ले जाना आदि जारता के गम्भीर प्रकार थे जिसके लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को ही समान रूप से अर्थदण्ड दिया जाता था।
शीलभंग (rape) के लिए दोषी व्यक्ति का गुप्त अंग काट दिया जाता था तथा उसकी सम्पत्ति पूर्णत: या अंशत: जब्त कर ली जाती थी। कभी-कभी इस अपराध के लिए दोषी व्यक्ति को जलाकर मार डालने का दण्ड भी दिया जाता था।
उपरोक्त विवेचन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था (दण्ड-व्यवस्था) पश्चात्वर्ती मुस्लिम या इंगलिश दण्ड-पद्धति की तुलना में कम कठोर थी। हिन्दूकालीन दण्ड-व्यवस्था के विरुद्ध प्राय: यह दोषारोपण किया जाता है कि इसके अन्तर्गत समाज के विशिष्ट वर्ग, ब्राह्मणों के प्रति विशेष उदारता बरती जाती थी जो न्यायिक दृष्टि से उचित नहीं थी। परन्तु उस समय ब्राह्मणों के आचरण का स्तर आदर्शमय था उनकी पवित्रता या सदाचारी होने के विषय में किसी प्रकार की शंका नहीं थी।
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समाज उन्हें आदर की दृष्टि से देखता था तथा तत्कालीन समाज में उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। उल्लेखनीय है कि धर्म-संरक्षकों के प्रति विशेष उदारता केवल भारतीय विधि-व्यवस्था में ही नहीं थी वरन् अन्य प्राचीन देशों में भी धर्मगुरुओं को इस प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे। उदाहरणार्थ, पुरातन आंग्ल विधि में ‘बेनिफिट ऑफ क्लर्जी’ (Privilegium Clericales) की व्यवस्था अनेक वर्षों तक प्रचलित थी। इसी प्रकार मुस्लिम दण्ड-विधि में मौलवियों के लिए उदार दण्ड की व्यवस्था थी।
मनुस्मति में यह उल्लेख मिलता है कि हिन्दूकाल में व्यावहारिक (civil) तथा आपराधिक (criminal) वादों को निपटाने के लिए पृथक न्यायालय थे जिनके निर्णय पर राजधानी स्थित शासक की न्याय सभा मै अपील प्रस्तुत की जा सकती थी। अनेक मामलें पंचों की मध्यस्थता (Arbitration) से निपटाए जाते थे जिनमे बहुधा पंचों की न्यूनतम संख्या पाँच हुआ करती थी।
प्राचीन भारत की वैदिक न्याय व्यवस्था की सराहना करते हुये हिन्दू विधि के सुविख्यात टीकाकार सर मैयॉन (Sir Mayne) ने कहा है कि यद्यपि वर्तमान भारतीय विधि एवं न्यायालयीन पद्धति का स्रोत ब्रिटिश शासन द्वारा इस देश में प्रारंभ की गई न्याय-व्यवस्था को माना जाता है फिर भी प्राचीन हिन्दू विधिशास्त्र के अंतर्गत सुव्यवस्थित एवं सुस्थापित न्याय पद्धति अस्तित्व में थी जिसका आंशिक प्रभाव वर्तमान भारतीय न्याय व्यवस्था में भी दर्शित होता है।
प्राचीन भारतीय विधि-दर्शन के संदर्भ में फ्रांसिस मेक्नॉटन (Francis Mac Naughten) ने लिखा है कि, प्राचीन भारत का विधि शास्त्र उतना ही पुराना है जितना कि मानवीयता, इसका जनक जग-निर्माता ईश्वर के सिवाय अन्य कोई नहीं है। यह पुरातन सनातन धर्म पर आधारित है जिसका भारत में सदियों से अनुपालन किया जा रहा है।
सनातन धर्म में सभी धर्मों की आत्मा तथा सार संग्रह का समावेश होने के कारण यह कभी समाप्त नहीं होगा। वैदिक काल में विधि को धर्म का ही एक स्वरूप माना जाने के कारण इन दोनों में कोई भेद नहीं था और वे एक ही व्यवस्था के अभिन्न अंग थे। शब्द ‘सनातन’ से आशय ऐसे सदाचरण से है जो अतिप्राचीन तथा अविलोपनीय है इसीलिये इसे कभी समाप्त न होने वाला माना गया है।
समाज के विभिन्न घटकों के लिये अपने धर्म का अनुपालन करना आवश्यक था-जैसे शासक के लिए राजधर्म, संसारी व्यक्ति के लिये गृहस्थ धर्म, महिलाओं के लिये ‘नारीधर्म’, गुरुधर्म, पतिधर्म, मानवधर्म आदि। डॉ. काणे के अनुसार समय के साथ पुरातन सनातन धर्म में परिवर्तन होते गये और वर्तमान समय में इसे मानव के समाज के प्रति कर्तव्य तथा दायित्व के रूप में देखा जाता है।
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