नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा क्या है? | Historical School तथा इस विचारधारा को आगे बढ़ाने में किन-किन विधिशास्त्रियों का योगदान रहा है? के बारें में बताया गया है
विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा
विधिशास्त्र को विधि एंव न्याय प्रशासन मै महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है| विधिशास्त्र ही है जो हमे विधि का ज्ञान कराता है| विधिशास्त्र शब्द लैटिन के दो शब्दों ‘ज्यूरिस’ (Juris) एवं ‘प्रूडेंशिया’ (Prudensia) से मिलकर बना है जिनका शाब्दिक अर्थ ‘विधि’ एंव ‘ज्ञान’ है। इस प्रकार विधिशास्त्र का अर्थ – विधि का ज्ञान है। सामंड के अनुसार “विधिशास्त्र नागरिक विधि के प्रथम सिद्वान्तो का विज्ञान है”|
विधिशास्त्र को समझने के लिए इसकी विचारधारा को समझाने की आवश्यकता है, जिसे मुख्यतः पांच भागों मै विभाजित किया गया है, जिनमे से इस आलेख में विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा का उल्लेख किया गया है|
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ऐतिहासिक विचारधारा की पृष्ठभूमि
ऐतिहासिक विचारधारा को समझने से पहले हमारे लिए इसकी प्रष्ठ भूमि को समझना जरुरी है| विधिशास्त्र के अध्ययन की शुरुआत रोम से ही मानी जाती है, जीतनी भी विचारधाराए आई है उन सब की उत्पत्ति का श्रेय रोमन विधि को ही दिया जाता है| यूरोप में रोमन विधि के प्रभाव के कारण विधि की अनेक विचारधाराओं को समझने में सुविधा हुई जिससे समस्याओं को हल करना सरल हो गया।
रोमन विधि को जर्मनी में पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी में लागु किया गया था जिस कारण इसे सर्वाधिक महत्व प्राप्त हुआ और विधियों के ऐतिहासिक विकास की ओर विधिशास्त्रियों का ध्यान आकृष्ट हुआ।
अठारहवीं शताब्दी के अंत तथा उनस्वी शताब्दी के प्राम्भ विधि मै अनेक परिवर्तन हुए जिनमे व्यक्तिवाद और प्रत्यक्षवाद को शामिल किया गया लेकिन कुछ समय के बाद समस्याए उत्पन्न हुई जिनके समाधान हेतु विधिवेत्ताओं ने एक नई संहिता बनाने का सोचा जो प्रकृति मै सार्वभौमिक हो इस सोच को रास्ट्रीय एकीकरण आंदोलन का नाम दिया गया|
ऐतिहासिक विचारधारा को आगे बढ़ाने में फ्रांस के मांटेस्क्यू (Montesquieu), इंग्लैण्ड के एडमंड बर्क (Burke) तथा जर्मनी के ह्यगो (Hugo) के अलावा सैविनो, हैनरी मेन, हीगल, स्पेन्सर, गिर्के, फ्रेडरिक पोलक आदि के नाम प्रमुख है और जिनका योगदान निम्नलिखित है –
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मांटेस्क्यू (Montesquieu : 1689-1755)
मान्टेस्क्यू ऐसे प्रथम विधिशास्त्री थे जिन्होंने विभिन्न समुदायों की संस्थाओं और विधियों पर शोधकार्य करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि विधियों का स्वरूप विभिन्न प्राकृतिक एवं सामाजिक तथ्यों पर निर्भर करता है तथा अन्य घटकों (factors) का विधि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अत: विधि को देश तथा काल-विशेष की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मानते हुए इसका अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए।
मॉन्टेस्क्यू का मत था कि विधि का स्वरूप राष्ट्रीय लोक चेतना (esprit de lanation) पर भी निर्भर करता है। सभी विधियों का निर्माण कार्य-कारण (cause and effect) के प्रभाव से होता है।
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एडमण्ड बर्क (Burke)
एडमण्ड बर्क के विचार से विधि एक क्रमिक और जैविक प्रक्रिया (organic process) की देन है इसलिए इसका अध्ययन हमेशा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए। सन 1970 मै एडमण्ड बर्क की एक कृति “रिफ़्लेक्शन्स ऑन रिवोल्युशन इन फ्रांस” प्रकाशित हुई थी जिसमे उन्होंने विधि के ऐतिहासिक दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए कई महत्वपूर्ण राजनितिक एंव दार्शनिक सिद्वान्तो का प्रतिपादन किया था|
गुस्टेव ह्यगो (Gustav Hugo)
गुस्टेव ह्यगो का कार्यकाल 1768 से 1844 तक माना जाता है| ह्यगो के मत मै विधि समुदाय विशेष की भाषा तथा आचार की भाँति अपना स्वरूप स्वयं बनाती है और उसके अनुसार विकसित होती रहती है। वास्तविकता यह है की विधि जनता द्वारा स्वीकृत और विनियमित की जाती है और जनता द्वारा उसका अनुपालन किया जाता है।
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फ्रेड्रिच कार्ल वोन सैविनी
जर्मन विधिशास्त्री फ्रेड्रिच कार्ल वोन सैविनी का सफ़र 1779 से 1861 तक माना जाता है| सैविनी ने विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाये जाने पर विशेष बल दिया था। सैविनी की विचारधारा को जर्मनी की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण प्रचण्ड समर्थन मिला।
नेपोलियन के युद्ध के पश्चात जर्मनी में प्रचलित विधियों को संहिताबद्ध करने का प्रश्न उठा क्योंकि उस समय वहाँ विभिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न विधियाँ प्रचलित थीं। परन्तु इस कार्य में अनेक बाधाएँ थी। इसका मुख्य कारण वहां की विधियाँ स्थानीय जनता के आचार तथा व्यवहार में अतीत काल से बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के प्रचलित चली आ रही थीं, अतः इनके नवीनीकरण का कार्य अत्यंत कठिन था यह तर्क और परम्परा के बीच संघर्ष था।
साथ ही यह इतिहास का राज्य की स्वेच्छा के विरुद्ध तथा मानव द्वारा बनाई गयी विधियों का विधि के स्वाभाविक विकास के प्रति संघर्ष था। ऐसी स्थिति मै सैविनी ने परम्परा पर आधारित विधि के ऐतिहासिक विकास का समर्थन करते हुए विधि के संहिताकरण का कड़ा विरोध किया और यहीं से विधि की ऐतिहासिक विचारधारा का सूत्रपात हुआ।
इस दृष्टि से सैविनी को ऐतिहासिक विचारधारा का जनक कहा जा सकता है| सेविनी के लोक चेतना के सिद्धान्त का वर्णन, अध्ययन की दृष्टि से अलग पोस्ट मै किया जाएगा|
हीगल (Hegel)
हीगल (1772-1831) ने सैविनी के लोक चेतना के सिद्धान्त (Volkgeist) को अपने विचारों का केन्द्र-बिन्दु बनाया था तथा उनका विचार था कि सांसारिक वस्तुयें विकासशील प्रक्रिया से होकर गुजरती हैं। उनके अनुसार मनुष्य की भौतिक इच्छा (ego) और चेतना (super-ego) में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। इन दोनों में समन्वय के आधार पर ही मनुष्य विकास की ओर बढ़ता है। हीगल का मत था कि “जो भी उचित है वह वास्तविक है और जो वास्तविक है वही उचित है।”
हीगल ने सम्पत्ति के अधिकार को व्यक्ति की स्वतन्त्रता की प्रथम अभिव्यक्ति माना तथा उनके अनुसार राज्य का सदस्य होना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ ध्येय है तथा राज्य और विधि दोनों ही मानव के तर्कबुद्धि की उपज हैं। हीगल जर्मन-दार्शनिक विचारधारा के प्रबल समर्थक थे, उन्होंने कॉण्ट (Kant) के विधि सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए कथन किया कि मानव में तर्क बुद्धि होने के कारण वह स्वच्छन्द प्राणी है परन्तु फिर भी यह भौतिक नियमों के अधीन होता है।
कोहलर (Kohler)
कोहलर का सफ़र 1849 से 1919 तक का है| कोहलर ने अपनी विचारधारा के माध्यम से हीगल तथा हेनरी मेन की विधि-सम्बन्धी धारणाओं को नई दिशा प्रदान की। उनका मत था कि विधि सदैव सापेक्ष (relative) होती है और उस पर सभ्यता का गहरा प्रभाव पड़ता है जिसमें कि उसका विकास हुआ।
विधि सदैव सामाजिक सभ्यता का अनुसरण करती है जिसका मूल उद्देश्य समाज की प्रगति होता है। कोहलर ने कथन किया कि मानव मस्तिष्क में प्रकृति के भौतिक पदार्थों के प्रति चल रहे अन्तर्द्वन्द्व के कारण ही समाज प्रगति की ओर अग्रसर होता रहता है
समाज के विकास के संदर्भ में विधि का प्रमुख कार्य प्रचलित मान्यताओं (values) को यथावत् बनाये रखना तथा समयानुसार नई धारणाओं का सृजन करना है। विधायकों, विधिवेत्ताओं तथा न्यायाधीशों आदि का यह परम कर्तव्य है कि वे विधि को समय के अनुकूल बनाये रखें।
कोहलर की इस विचारधारा ने आगे चलकर रास्को पाउन्ड (Roscoe Pound) के सामाजिक यान्त्रिकी (Social Engineering) का रूप ग्रहण किया जिसमें सामाजिक हितों (social interests) में संतुलन बनाये रखने पर जोर दिया गया था।
हरबर्ट स्पेंसर (Herbert Spencer)
स्पेंसर का कार्यकाल सन 1820 से 1923 तक रहा है| स्पेंसर उस विचारधारा के समर्थक थे जिसमे विधि के विकास को जैविक विकासवादी (evolutionary) सिद्धान्त पर आधारित माना गया है। डारविन के सिद्धान्त को मान्य करते हुए इन विचारकों का मत था कि मनुष्य समय समय पर परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढाल लेता है। हरबर्ट स्पेंसर इस पद्धति के प्रमुख प्रवर्तक माने गये हैं।
व्यक्तिवादी विचारधारा के समर्थक होने के कारण हरबर्ट स्पेंसर ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अधिक जोर दिया तथा व्यक्ति के कार्यों में राज्य के हस्तक्षेप को यथासम्भव सीमित रखे जाने का समर्थन किया। उन्होंने विधायन (legislation) द्वारा विधियों के सुधार का विरोध किया क्योंकि उनके विचार से विधायिनी द्वारा बनाये गये कानून तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि उनका स्वाभाविक रूप से विकास न हुआ हो।
स्पेन्सर के विकासवादी सिद्धान्त का विधिक महत्व इतना ही है कि इससे यह संकेत मिलता है कि विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण की बजाय समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाये जाने पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये।
उन्होंने मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित समाज के तीन मूलभूत नियम बताये –
(i) बल की शाश्वतता (Persistence of force),
(ii) पदार्थ की अनश्यता (Indestructibility of matter) तथा
(iii) गति की निरन्तरता (Continuity of motion)
सर हेनरी मेन (Henry Maine : 1822-1888)
सर हेनरी मेन इंग्लैण्ड के जाने माने विधिशास्त्री के साथ साथ इंग्लिश, रोमन तथा हिन्दू विधि के अच्छे ज्ञाता थे। इंग्लिश विधि के ऐतिहासिक विकास में सर हेनरी मेन का नाम उल्लेखनीय है। हेनरी मेन ने विभिन्न विधियों के गहन अध्ययन के पश्चात् विधि के ऐतिहासिक अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण किये जाने पर बल दिया|
हिन्दू विधि तथा रोमन लॉ के तुलनात्मक अध्ययन के बाद उनका मत था कि समाज या तो स्थिर (static) होता है अथवा विकासशील (Progressive) तथा इन दोनों प्रकार के समाजों के विधिक विकास में भिन्नता होती है।
पुच्टा (Puchta : 1798-1856)
सैविनी के समर्थक और अनुयायी पुच्टा विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा के एक प्रबल समर्थक थे। पुच्टा के विचार आध्यातिम्क व वैचारिक एकता पर आधारित थे| पुच्टा के अनुसार मानव केवल भौतिक एकता में ही विश्वास नहीं रखता अपितु उसके जीवन में आध्यात्मिक एवं वैचारिक एकता का भी पर्याप्त महत्व है।
मानव समुदाय की वैचारिक एकता उसकी सामान्य इच्छा (General will) में परिलक्षित होती है। जब मनुष्य के हित के कारण वैयक्तिक-इच्छा और सर्वसाधारण की इच्छा में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है तब उसे दूर करने में विधि की अहम भूमिका होती है तथा ऐसी विधि को राज्य द्वारा प्रवर्तित किया जाता है। इसलिए इन दोनों के विकास का अध्ययन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए।
गिर्के (Gierke’s)
ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थकों में प्रसिद्ध विधिशास्त्री गिर्के (सन् 1841-1921) का नाम भी उल्लेखनीय है। गिर्के (Gierke) की विचारधारा का केंद्र बिंदु मानव-संगठन था। उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि मनुष्य का व्यक्तित्व राज्य की मान्यता पर निर्भर रहता है। गिर्के ने समाज की प्रगति तथा विधि के विकास को विधिक इतिहास तथा मानव की संगठन-शक्ति के आधार पर निर्धारित करने का सार्थक प्रयास किया था।
गिर्के व्यक्तिवाद के समर्थक नहीं थे बल्कि उनके विचारों में समूहवाद की झलक स्पष्ट दिखायी देती है। विधिशास्त्र में गिर्के के विचारों का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि इनसे विधि की ऐतिहासिक विचारधारा को समाजशास्त्रीय शाखा के रूप में विकसित होने में पर्याप्त सहायता मिली। जिसके कारण अनेक विधिशास्त्री गिर्के की गणना ऐतिहासिक विचारकों में करते हैं जबकि कुछ उन्हें विधि की समाजशास्त्रीय शाखा का प्रतिनिधि मानते हैं।
विनोग्रेडॉफ (Vinogradoff)
विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा में विनोग्रेडाफ का भी नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने विधि की उत्पत्ति मै राज्य की शास्ति को अधिक महत्व ना देकर जनमत या नागरिकों की इच्छा को ही महत्व दिये जाने पर बल दिया। विनोग्रेडॉफ ने वर्तमान समाजवादी व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की स्थापना को आवश्यक बताते हए विधि के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति को उचित बताया।
सर फ्रेड्रिक पोलक (Sir Fedrick Pollock : 1845-1936)
सर फ्रेड्रिक पोलक के नाम का उल्लेख किये बिना विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा का विवेचन अधूरा रह जायेगा। पोलक अन्तर्राष्ट्रीय विधि को केवल नैतिकता नहीं मानकर उसे वास्तविक विधि के रूप में मानते हैं। उनके अनुसार यह विधि राष्ट्रों के पारस्परिक विधि संबंधों पर आधारित है।
उपसंहार – ऐतिहासिक विचारधारा
विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिशास्त्रियों ने विधि की उत्पत्ति और विकास का विवेचन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार उन परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए जिनमें विधि-विशेष को निर्मित किया गया था। इस कारण फ्रेडरिक पोलक ने कहा है कि वास्तव में ऐतिहासिक पद्धति मानव-समाज और उसकी विधिक संस्थाओं के सिद्धान्त के अलावा और कुछ नहीं है।
विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थकों ने विधि के विकास के लिए उसके ऐतिहासिक क्रमिक विकास के अध्ययन को आवश्यक माना है।
ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थकों का तर्क है कि विधि बनायी जाने के बजाय उसे अतीत से खोजा जाना चाहिए क्योंकि उसका स्वअस्तित्व होता है। वे प्रथा को विधि का औपचारिक स्रोत मानते हुए उसके बन्धनकारी प्रभाव को स्वीकार करते हैं। विधि सभी देशों में एक-सी नहीं होती क्योंकि विभिन्न देशों के रीति-रिवाजों, सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों तथा परिस्थितियों के अनुसार उनमें भिन्नता होना स्वाभाविक है।
ऐतिहासिक विचारधारा के समर्थकों ने विधि के निर्माण में अधिवक्ताओं की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है क्योंकि अपने विधिक अनुभव के कारण विधायन कार्य में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
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