नमस्कार दोस्तों, आज की पोस्ट में एक्टस नॉन फैसिट रीयम निसि मेन्स सिट रिया उक्ति की भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार विस्तृत व्याख्या दी गई है जो विधि के छात्रों के लिए काफी महत्वपूर्ण है|

एक्टस नॉन फैसिट रीयम निसि मेन्स सिट रिया का अर्थ

ऑग्ल दण्ड विधिशास्त्र का उपरोक्त सिद्धान्त जिस सूत्र पर आधारित है, वह सूत्र – Actus non facit reum nisi mens sit rea  है जिसका अर्थ आशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता है।

यह सूत्र दो शब्दों से मिलकर बना है

(i) शारीरिक कृत्य (Actus reum)

(ii) दुराशय (Mens rea)

शारीरिक कृत्य से तात्पर्य ऐसे कृत्य से है जो विधि द्वारा निषिद्ध है तथा दुराशय से तात्पर्य दोषपूर्ण बना देते हैं। दोनों शब्द मिलकर किसी कार्य को अपराध बना देते हैं।

यहाँ यह कहना होगा है कि केवल दुराशय मात्र से ही अपराध का गठन नहीं होता है उसके लिए दुराशय (Mens rea) से किसी कार्य का किया जाना आवश्यक है। इस बात की पुष्टि समय-समय पर न्यायिक निर्णयों द्वारा की गई है।

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एक्टस नॉन फैसिट रीयम निसि मेन्स सिट रिया का सिद्वांत

भारत में एक्टस नॉन फैसिट रीयम निसि मेन्स सिट रिया का सिद्वांत भारतीय दण्ड संहिता और अन्य आपराधिक कानूनों में लागू होता है| भारतीय दण्ड संहिता में यह सिद्धान्त तीन प्रकार से लागू होता है

(i) सकारात्मक रूप से

(ii) नकारात्मक रूप से

(iii) कठोर दायित्व के आधार पर|

सकारात्मक रूप, विशिष्ट अपराध की परिभाषा में ही विशिष्ट आपराधिक मनःस्थिति को जोड़कर दर्शाया गया है। दूसरे शब्दों में, भारतीय दण्ड संहिता में विभिन्न अपराधों की परिभाषा में ही उन अपराधों के लिए आवश्यक विशिष्ट आपराधिक मनःस्थिति का भी उल्लेख कर दिया गया है, जो परिभाषा का ही एक अंग है और इस प्रकार किस विशिष्ट अपराध के लिए कौन सी विशिष्ट आपराधिक मनःस्थिति होगी इसका ज्ञान परिभाषा पढ़ने पर हो जाता है।

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इस प्रकार ऐसे ही कुछ शब्द है, जैसे साशय, जानबूझकर, स्वेच्छया, उतावलापन, उपेक्षापूर्ण, बेईमानी से, कपटपूर्वक आदि का प्रयोग संहिता की विभिन्न धाराओं में विशिष्ट अपराधों को परिभाषित करने के लिए किया गया है और ये शब्द ही इन विशिष्ट अपराधों में आवश्यक आपराधिक मनःस्थिति को सकारात्मक रूप से स्पष्ट करते हैं।

अभियुक्त के आपराधिक दायित्व के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा इनका साबित किया जाना आवश्यक होता है अन्यथा अभियुक्त दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा।

उदाहरण  धारा 378 में चोरी के लिए बेईमानीपूर्ण आशय का साबित किया जाना आवश्यक है, धारा 300 में हत्या के लिए मृत्यु कारित करने का आशय, शारीरिक क्षति कारित करने का आशय या कार्य करते समय कार्य के परिणाम की जानकारी, जो भी खंड लागू हो उसके अनुसार साबित किया जाना आवश्यक है।

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दुराशय (Mens rea) –

दुराशय अपराध का एक महत्वपूर्ण तत्त्व है। यह वही तत्त्व है जो किसी कार्य को अपराध बनाता है। सामान्यतः कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं माना जाता जब तक कि वह दुराशय (Mens rea) से प्रेरित होकर नहीं किया गया हो। दुराशय का अर्थ – द्वेषपूर्ण अर्थात् आपराधिक आशय है|

आंग्ल विधि के अन्तर्गत इसे अपराध का एक आवश्यक तत्त्व माना गया है। वहाँ कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं होता जब तक वह दुराशय अर्थात् आपराधिक आशय से न किया जाये। आंग्ल दण्ड विधिशास्त्र की यह मान्यता है कि दोषी मन के अभाव में किसी प्रकार का अपराध कारित नहीं किया जा सकता।

उदाहरण  ‘क’ झाड़ी के पीछे छिपे एक मनुष्य को जानवर समझ कर गोली चलाता है और उसे मार देता है। यहाँ यद्यपि मनुष्य की मृत्यु कारित हुई है लेकिन ‘क’ को मानव हत्या का दोषी नहीं माना जायेगा क्योंकि ऐसी मृत्यु कारित करने में ‘क’ का दुराशय यानि कोई आपराधिक आशय नहीं था।

केस फावलर बनाम पेयर (1798) 7 टी.आर. 501 

इस मामले में लार्ड केनियम द्वारा यह कहा गया था कि “कृत्य स्वयं किसी मनुष्य को अपराधी नहीं बनाता जब तक कि उसका मन भी अपराधी न हो।”

आर. बनाम आलडे (1837) 8 सी एण्ड पी 136 के मामले में भी यह कहा गया है कि “कोई व्यक्ति तब तक दोषी नहीं होता है जब तक कि उसका मन भी दोषी न हो।”

आर. बनाम लिवरेट (1629 सी.सी. 529) के मामले में यह कहा गया कि “दुराशय के बिना किसी कृत्य को अपराध नहीं माना जा सकता।” इस प्रकरण में घर की एक नौकरानी को चोर समझकर मार डाला गया था। न्यायालय ने इसे मानव हत्या का मामला नहीं माना क्योंकि इसमें दुराशय (मन का दोषी) का अभाव था।

इस प्रकार यह आंग्ल विधि का सिद्धान्त बन गया कि दुराशय (Mens rea) के बिना केवल कार्य से किसी अपराध का गठन नहीं होता अर्थात् दुराशय (Mens rea) एवं कार्य मिलकर ही अपराध का गठन करते है।

भारतीय दण्ड संहिता 1860 में दुराशय (Mens rea) –

भारतीय दण्ड संहिता में दुराशय की स्थिति आंग्ल विधि से कुछ अलग है। IPC में दुराशय के सिद्धान्त का कठोरता से समावेश नहीं किया गया है। यहाँ प्रत्येक अपराध के लिए दुराशय का होना आवश्यक नहीं है।

इस प्रकार कई ऐसे कृत्य है जो दुराशय के बिना भी अपराध माने जाते है तथा भारत में भी ऐसे कृत्यों को अपराध माना गया है जो विधि द्वारा निषिद्ध (Prohibited by law) होते है चाहे उसमें दुराशय रहा हो या नहीं हो। ऐसा निरपेक्ष अर्थात् कंठोर दायित्व (Strict liability) के सिद्धान्त के कारण है।

इस सिद्धान्त के अनुसार ऐसे कार्य को अपराध मान लिया जाता है जो विधि विरुद्ध है चाहे दुराशय का अभाव ही क्यों ना हो। लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है कि भारतीय दण्ड संहिता में दुराशय का स्थान नहीं है।

IPC में शब्द दुराशय (Mens rea) को अभिव्यक्त रूप से अंगीकृत नहीं कर परोक्ष रूप से समाहित किया गया है। प्रत्येक अपराध के साथ कुछ ऐसे शब्द जोड़ दिये गये हैं जो दुराशय के ही द्योतक होते है| जैसे

(i) स्वेच्छापूर्वक (Voluntarily)

(ii) आशयपूर्वक (Intentionally)

(iii) कपटपूर्वक (Fraudulently)

(iv) बेईमानीपूर्वक (Dishonestly)

(v) भ्रष्टरूप से (Corruptly)

(vi) द्वेष भाव से (Malignantly)

(vii) लम्पटता से (Wantonly)

(viii) उतावलेपन से (Rashly)

(ix) उपेक्षा से (Negligently) आदि।

हुडा (Huda) के अनुसार  शब्द ‘द्वैषभाव’ का वही अर्थ है जो विद्वेष (Malicious) का है और ‘लम्पटा’ का वही अर्थ है जो शब्द असावधानी (Reckless) का है। शब्द उतावलापन एवं उपेक्षा भी दोषी मन की ओर अंगीकृत करते है।

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इस प्रकार भारतीय दण्ड संहिता में शब्द ‘दुराशय’ (Mens rea) को परोक्ष रूप से सम्मिलित कर दिया गया है। विख्यात विधिवेत्ता एम.सी. सीतलवाड़ ने अपनी कृति कॉमन लॉ इन इण्डिया’ (Common law in India) में कहा है कि भारत में दोषी मन का सिद्धान्त अपराधों की परिभाषाओं में सम्मिलित कर दिया गया है| जिस कारण इसका अलग से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा आर. हरिप्रसाद बनाम स्टेट (.आई.आर. 1951 एस.सी. 204) के मामले में दुराशय को अपराध का एक आवश्यक तत्त्व माना गया है।

स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम शेरा राम (.आई.आर. 2012 एस.सी. 1) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – “दुराशय एवं कृत्य अपराध के आवश्यक तत्त्व है। (Mens sea and act both are essential elements of crime.)

इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम मेयर हंस जार्ज (.आई.आर. 1965 एस.सी. 722) के मामले में कहा गया – कि जब तक किसी विधि, संविधि या अधिनियमिति में दुराशय को अपराध का एक आवश्यक तत्व मानने से इन्कार नहीं कर दिया जाता है तब तक किसी अभियुक्त को किसी अपराध के लिए दोषी माना जा सकता है, यदि उसका मन भी दोषी न रहा हो|

भारतीय दण्ड सहिता, 1860 की धारा 76 से 95 तक में ‘साधारण अपवादों’ (General exceptions) तथा धारा 96 से 106 में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार ‘( Rights of private defence) का उल्लेख इसके अच्छे उदाहरण है। इनमें विभिन्न कृत्यों को अपराध नहीं माना गया है क्योंकि उनमें दुराशय नहीं होता है।

भारत में छल, आपराधिक न्यास भंग आदि मामलों में कपटपूर्वक या बेईमानीपूर्वक आशय का होना आवश्यक माना गया है। (राम नारायण पोपली बनाम सी.बी.आई., .आई.आर. 2003 एस.सी. 2748)

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारतीय दण्ड संहिता एवं अन्य दाण्डिक विधियों में अपराध का निर्धारण करने में ‘दुराशय’ की अहम भूमिका होती है।

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