हेल्लो दोस्तों, इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत ऋजु विचारण (फेयर ट्रायल/fair trial) क्या है एंव ऋजु विचारण (फेयर ट्रायल) को आपराधिक विधिशास्त्र की आत्मा क्यों कहा जाता है को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा
ऋजु विचारण (फेयर ट्रायल/Fair Trial)
न्याय प्रशासन में ऋजु विचारण (फेयर ट्रायल) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विचारण से तात्पर्य उचित अथवा ऋजु न्यायोचित विचारण से है। सही एव वास्तविक न्याय के लिए विचारण का ऋजु होना आवश्यक है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 14, 20 एवं 21 में भी विचारण के ऋजु (Fair) होने का संकेत मिलता है। न्याय प्रशासन में फेयर ट्रायल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इस कारण यह न्याय प्रशासन की एक अहम् आवश्यकता भी है।
ऋजु विचारण (Fair Trial) से आशय मामलों का उचित एवं त्वरित विचारण करना है, एंव ऐसा विचारण स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं न्यायसम्मत होना चाहिए।
ऋजु विचारण में पक्षकार यह अपेक्षा करते है की न्यायालय उनके मामले का जल्दी एंव स्वतंत्र रूप से निपटारा करें, न्यायालय को किसी एक पक्ष के प्रति अपना झुकाव नहीं रखना चाहिए और ना ही किसी ख़ास पक्षकार के प्रति उदारवादी बने|
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कमिश्नर ऑफ पुलिस दिल्ली बनाम रजिस्ट्रार दिल्ली के मामले में कहा गया है कि – मामलों का उचित एवं त्वरित विचारण (Fair and Speedy Trial) न्याय प्रशासन की एक अहम् आवश्यकता है। (ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 95)
नाहर सिंह यादव बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में यह मत अभिव्यक्त किया गया है कि – आपराधिक विचारण से व्यक्ति न केवल वैयक्तिक स्वतन्त्रता से वंचित हो जाता है, अपितु जीवन से भी वंचित हो जाता है। अतः विचारण स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं न्यायसम्मत होना चाहिए। (ए.आई. आर. 2011 एस.सी. 1549)
ऋजु विचारण (फेयर ट्रायल) की अपेक्षायें –
अनेक बार हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि ऋजु विचारण (Fair trial) क्या है या ऋजु विचारण किसे कहा जायेगा| इस कारण विधि एवं संवैधानिक दृष्टि से ऋजु विचारण की निम्नांकित अपेक्षायें प्रतीत होती है –
(i) त्वरित विचारण –
विचारण में अत्यधिक एवं अनावश्यक विलम्ब से न्याय अर्थहीन हो जाता है यानि विचारण त्वरित (Spcody) होना चाहिए। त्वरित विचारण को न्यायालय द्वारा अपने अनेक निर्णयों में व्यक्ति का मूल अधिकार भी बताया गया है।
वकील प्रसाद सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार के मामले में त्वरित विचारण को संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत व्यक्ति का मूल अधिकार माना गया है। (ए.आई. आर. 2009 एस.सी. 1822)
इसी तरह संतोष डे बनाम अर्चना गुहा के प्रकरण में यह कहा गया है कि – विचारण में अत्यधिक एवं अनावश्यक विचारण संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। (ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1229)
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(ii) सुनवाई का अवसर दिया जाना –
दोनों पक्षों को सुनवाई का समुचित अवसर प्रदान किया जाना है ऋतु विचारण (फेयर ट्रायल) का दूसरा मुख्य तत्व है। यह नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त (Principle of Natural Justice) है जो संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत संरक्षित है। ऋतु विचारण के लिए यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों को सुनवाई का समुचित अवसर प्रदान किया जाये। इसे दूसरे पक्ष को भी सुनो (Audi alterum partem) का सिद्धान्त कहा जाता है।
हाजी अब्दुल शकूर एण्ड कम्पनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के वाद में कहा गया है कि – किसी पक्षकार को सुनवाई का समुचित अवसर प्रदान किये बिना पारित किया गया आदेश अपास्त किये जाने योग्य होता है। (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2423)
डिवाईन रिट्रीट सेन्टर बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले में भी कहा गया है कि – किसी भी व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिये बिना उसको प्रभावित करने वाला आदेश पारित नहीं किया जाना चाहिए। (ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1614 )
(iii) विचारण का निष्पक्ष होना –
ऋजु विचारण के लिए यह आवश्यक है कि वह – 1. स्वतंत्र, 2. निष्पक्ष, एवं 3. पक्षपातरहित हो, यह न्याय की पारदर्शिता के लिए यह आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने निर्णय यह प्रतिपादित किया गया है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं बन सकता है।
एक न्यायाधीश से यह अपेक्षा की जाती है कि वह –
(क) किसी एक पक्षकार के प्रति झुकाव नहीं रखेगा,
(ख) ऐसे किसी मामले की सुनवाई नहीं करेगा जिसमें वह स्वयं एक पक्षकार हो या जिसमें उसका हित शामिल हो।
इसे निष्पक्षता अर्थात् ऋजुता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह सिद्धान्त प्रशासनिक एवं अर्द्ध न्यायिक कार्यवाहियों पर समान रूप से लागू होता है। प्राकृतिक न्याय के उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों का मुख्य उद्देश्य अन्याय को रोकना अर्थात् अन्याय का निवारण करना है।
इस सम्बन्ध में मनोहर मानिकराव अन्चूले बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र का मामला उल्लेखनीय है इसमें विनिर्धारित किया गया है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त प्रशासनिक मामलों पर भी लागू होते है। (ए.आई.आर. 2013 एस.सी. 681)
इस प्रकार ऋजु विचारण को आपराधिक विधिशास्त्र की आत्मा भी कहा जाता है। इस सम्बन्ध में रतिराम बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश का मामला प्रमुख है, इसमें कहा गया है कि – ऋजु विचारण आपराधिक विधिशास्त्र की आत्मा है।” (Fair trial is heart of criminal jurisprudence.) (ए.आई. आर. 2012 एस.सी. 1485)
ऋजु विचारण और संविधान का अनुच्छेद –
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 में विचारण एवं दोषसिद्धि के सम्बन्ध में निम्नांकित महत्वपूर्ण उपबन्ध किये गये है –
(i) किसी भी व्यक्ति को ऐसे किसी कार्य के लिए अभियोजित एवं दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा जो उसे किये जाने के समय किसी विधि के अधीन दण्डनीय अपराध नहीं था। इसे कार्योत्तर विधियों से संरक्षण कहा जाता है।
(ii) किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित एवं दण्डित नहीं किया जा सकेगा। इसे दोहरे खतरे से संरक्षण (Double jeopardy) का सिद्धान्त कहा जाता है।
स्टेट ऑफ झारखण्ड बनाम लालू प्रसाद यादव के मामले में कहा गया है कि इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य उत्तरवर्ती कार्यवाहियों से होने वाली परेशानियों से व्यक्ति का संरक्षण करना है। (ए.आई.आर. 2017 एस.सी. 3389)
(iii) किसी भी व्यक्ति को अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा। इसे स्व अभिशंसन से संरक्षण का सिद्धान्त कहते हैं।
श्रीमती नन्दिनी सत्पथी बनाम पी.एल. दानी [(1978)2 एस.सी.सी. 424] के मामले में इसकी पुष्टि की गई है। इस प्रकार ऋजु विचारण के यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है और यह सिद्धान्त – सिविल, आपराधिक, व प्रशासनिक सभी प्रकार की कार्यवाहियों पर लागू होता है।
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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)