हेल्लो दोस्तों, इस लेख में हम अपकृत्य विधि के अन्तर्गत उपेक्षा किसे कहते है | असावधानी (उपेक्षा) की परिभाषा और इसके आवश्यक तत्वों को विवेचना | उपेक्षा से सम्बंधित महत्वपूर्ण वाद | Definition of Neglect in hindi को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है|
परिचय – उपेक्षा/असावधानी क्या है
उपेक्षा अर्थात् असावधानी को अनवधानता एवं लापरवाही के नाम से भी जाना जाता है। हमारे दैनिक जीवन में ऐसे अनेक कार्य होते है जो उपेक्षा अथवा असावधानी से किये जाते हैं और ऐसे कार्यों से अन्य व्यक्तियों को क्षति कारित होती है। इस कारण अपकृत्य विधि में ऐसे कार्यों को अपकृत्य माना गया है।
उपेक्षा किसे कहते है –
समाज में जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है और जिसके परिणामस्वरूप उस दूसरे व्यक्ति को नुकसान होता है तब उसे उपेक्षा कहा जाता है तथा जो व्यक्ति ऐसी उपेक्षा करता है वह व्यक्ति उपेक्षा के अपकृत्य के अधीन दायी होता है।
आसान शब्दों में – किसी व्यक्ति द्वारा सावधानी बरतने के कर्त्तव्य के उल्लंघन को उपेक्षा कहते है|
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उपेक्षा की परिभाषा क्या है
असावधानी यानि उपेक्षा की स्पष्ट परिभाषा देना आसान नहीं है, यद्यपि विद्वानों ने उपेक्षा (असावधानी) की अपने अपने मतानुसार भिन्न-भिन्न परिभाषाए दी है –
सॉमण्ड के अनुसार – उपेक्षा में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है, वहां सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाता है।
विनफील्ड के अनुसार – उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी वादी को क्षति (नुकसान) कारित होती है।
लार्ड राइट के अनुसार – उपेक्षा किसी कार्य को करने या करने से प्रतिविरत रहने वाला एक लापरवाही युक्त आचरण है जो किसी कर्त्तव्य को भंग करता है और जिससे अन्य व्यक्ति को क्षति पहुँचती है।
लार्ड बी. एल्डरसन के अनुसार – उपेक्षा से तात्पर्य है, ऐसे कार्य से प्रतिविरत रहना या उसका लोप करना जिसे युक्तियुक्त व्यक्ति मानवीय कृत्यों को जो विचार सामान्यतया नियंत्रित करते है से मार्ग दर्शित होकर करता है अथवा ऐसा कोई कार्य करना है जिसे कोई प्रज्ञावान या युक्तियुक्त व्यक्ति नहीं करता है।
इसके अलावा समाज में ऐसे अनेक कार्य भी किये जाते है जिन्हें असावधानी (उपेक्षा) नहीं माना जाता है, जैसे – व्यावसायिक मामलों में आर्थिक स्थिति, पर्यावरण, स्टॉक मार्केट में परिवर्तन आदि कारणों से सामान्यत भिन्नता आ जानी स्वाभाविक है, लेकिन इसे उपेक्षा नहीं कहा जा सकता है,
इसी तरह चिकित्सा के सम्बन्ध में यदि चिकित्सा अधिकारी एक पद्धति को अपनाता है तो उसे इस आधार पर लापरवाह नहीं माना जा सकता कि उसे कोई अन्य पद्धति भी उपयोग में लेनी चाहिये थी।
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उपेक्षा के आवश्यक तत्व (essential elements of neglect)
जेकब मेथ्यू बनाम पंजाब राज्य (ए.आई. आर. 2005 एस.सी. 3180) के मामले में न्यायालय द्वारा असावधानी (Negligence) के तीन आवश्यक तत्व बताये गये है –
(क) विधिक कर्तव्य, (ख) कर्तव्य का भंग किया जाना, तथा (ग) ऐसे कर्तव्य- भंग से क्षति कारित होना।
विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार उपेक्षा के निम्नांकित तत्व परिलक्षित होते है –
(i) प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य होना,
(ii) प्रतिवादी ने अपने कर्तव्य का उल्लंघन किया हो,
(iii) कर्तव्य के उल्लंघन से वादी को क्षति कारित होना।
माइनरवीरन बनाम टी.बी. कृष्णमूर्ति (ए.आई.आर. 1966 केरल 172) के निर्णय में इन तीनो तत्वों को उपेक्षा के आवश्यक तत्व माना गया है|
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सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य –
वादी के प्रति, प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य होना उपेक्षा का पहला आवश्यक तत्व है| पोलक के अनुसार यदि सावधानी बरतने का कोई विधिक कर्तव्य नहीं है तो उपेक्षा के लिए कार्यवाही नहीं की जा सकती है। जब तक सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य नहीं हो उपेक्षा तब तक अनुयोज्य नहीं होती।
कर्त्तव्य का अर्थ होता है कि, प्रतिवादी के व्यवहार की स्वंत्रता पर नियंत्रण करना ताकि वह एक प्रज्ञावान एंव बुद्वि वाले व्यक्ति की तरह समाज में व्यवहार कर सके और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह वादी को ऐसे नुकसान से बचाने का प्रयास करें। यदि प्रतिवादी ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे वादी के प्रति उत्तरदायी माना जायेगा।
उपेक्षा के मामले में यह साबित करने का भार वादी पर होता है कि, प्रतिवादी जो कानून द्वारा आवश्यक सावधानी बरतने के लिए कर्त्तव्यबद्व था ने इसका उल्लंघन किया है और जिसके फलस्वरूप वादी को हानि हुई है। यहाँ यह बताना उचित होगा कि, सावधानी बरतने का नैतिक कर्तव्य उपेक्षा के दायित्व का उद्भव नहीं करता, कर्तव्य का विधिक होना आवश्यक है।
मध्यप्रदेश रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम बसन्ती बाई के मामले में यह कहा गया है कि, किसी व्यक्ति को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी ठहराने हेतु सावधानी बरतने के किसी विधिक कर्त्तव्य का अस्तित्व में होना आवश्यक है। (1971 एम.पी.एल.जे. 706)
सावधानी बरतने के कर्त्तव्य का उल्लंघन –
प्रतिवादी द्वारा अपने विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाना है, यह उपेक्षा का दूसरा आवश्यक तत्व है| कर्त्तव्य का उल्लंघन अथवा कर्त्तव्य भंग से तात्पर्य है – सम्यक् सावधानी का अनुपालन न करना जो किसी परिस्थिति विशेष में बरतनी आवश्यक है।
कर्तव्य भंग की कसौटी क्या है, इसका विनिश्चय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सामान्यतयाः इसकी कसौटी किसी विवेकशील अथवा प्रज्ञावान व्यक्ति द्वारा बरती जाने वाली सावधानी है अर्थात् सावधानी का स्तर वहीं है जो एक प्रज्ञावान अथवा विवेकशील व्यक्ति परिस्थिति-विशेष में बरतता है।
विश्वनाथ गुप्त बनाम मुन्ना के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि, वाहन चालक का यह कर्त्तव्य है कि वह सड़क पर पैदल चलने वाले व्यक्तियों के प्रति पूर्ण सावधानी एवं सर्तकता बरते। उसका यह कर्तव्य उस समय और अधिक बढ़ जाता है जब सड़क पर चलने वाले व्यक्ति बच्चे हो। ऐसी स्थिति में चालक को वाहन ऐसी गति से चलाना चाहिये कि आवश्यकता पड़ने पर उसे रोका जा सके। (निर्णय पत्रिका 1971 मध्य प्रदेश 365)
वादी को क्षति कारित होना –
यह उपेक्षा का तीसरा आवश्यक तत्व है, प्रतिवादी के कर्तव्य-भंग से वादी को जो नुकसान होता है वह नुकसान प्रतिवादी के कार्य प्रत्यक्ष परिणाम से होनी चाहिये ना की दूरवर्ती से।
प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण कारित क्षति को साबित करने का भार वादी पर होता है। वादी को मात्र यह साबित करना होता है कि क्षति में प्रतिवादी के कार्य की सारवान् भागीदारी रही है। इसका तात्पर्य यह हुआ है कि, वादी के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक नहीं है कि क्षति का सम्पूर्ण कारण प्रतिवादी का कार्य रहा है।
हेतलबेन जितेन्द्र कुमार व्यास बनाम पुलिस इन्सपेक्टर साबरमती पुलिस स्टेशन के मामले में एक वैवाहिक जुलूस निकल रहा था। उसमें की जा रही आतिशबाजी से एक ढाई वर्षीय बच्चे की आँख क्षतिग्रस्त हो गई। न्यायालय ने वर-वधू के अभिभावकों को असावधानी का दोषी ठहराते हुए उन्हें प्रतिकर का संदाय करने का आदेश दिया। (ए.आई.आर. 2006 गुजरात 97)
उपेक्षा / असावधानी से सम्बंधित महत्वपूर्ण वाद –
डोनोग बनाम स्टीवेन्सन (1932 ए.सी.562) –
इस मामले में 26 अगस्त 1928 को वादी ने प्रतिवादी द्वारा निर्मित – झिझर बीयर की एक बोतल का सेवन किया था । वादी को यह बोतल उसके एक मित्र द्वारा दी गई थी। उस मित्र ने यह बोतल एक खुदरा व्यापारी से खरीदी थी। बोतल पारदर्शी नहीं थी तथा धातु के ढक्कन से बंद थी। वादी उस बोतल में भरी बीयर में से कुछ बीयर पी चुकी थी। जब शेष बीयर उसके मित्र द्वारा गिलास में डाली गई तो उसमें एक विकृत घोंघा तैरने लगा वादी उस बीयर को पीने के बाद बीमार पड़ गई। उसने बीयर निर्माता के विरुद्ध उपेक्षा के लिए नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी मानते हुए उसे नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया।
लार्ड एटकिन ने निर्णय सुनाते हुए कहा कि – प्रतिवादी का यह विधिक कर्तव्य था कि वह यह देखे कि बोतल में विषैले पदार्थ न जाने पाये। यदि वह अपने इस विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है तो वह उसके लिए उत्तरदायी होगा। खाद्य एवं पेय पदार्थों, औषधियों तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं को ऐसी खराबीयों से मुक्त रखे जिनसे ग्राहकों के स्वास्थ्य को हानि कारित होने की संभावना हो। यह कर्तव्य उस समय और अधिक प्रबल हो जाता है जब वस्तुयें ऐसी अवस्था में बेची जाती है जिनमें क्रेताओं को परीक्षण द्वारा उनमें निहित खराबियों का पता लगाने का अवसर नहीं मिलता है।
जौनपुर नगर निगम बनाम ब्रह्मकिशोर –
इस प्रकरण में वादी सांय काल के समय साइकिल से अपने घर जा रहा था। रास्ते में सड़क पर गढ्ढा होने से वह उसमें गिर कर क्षतिग्रस्त हो गया। वह गढ्ढा सड़क की मरम्मत कर रहे नगर निगम के कर्मचारियों द्वारा खोदा गया था। गढ्ढे के पास न तो कोई चेतावनी संकेत था और न ही जनसाधारण को इसकी सूचना दी गई थी। न्यायालय ने नगर निगम को नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया क्योंकि उसके द्वारा वादी के प्रति अपने विधिक कर्त्तव्यों का उल्लंघन किया गया था। (ए.आई. आर. 1978 इलाहाबाद 168)
आर. पी. शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान –
इस मामले में रोगी को गलत ग्रुप का रक्त चढ़ा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। इसे चिकित्सकों की लापरवाही माना गया क्योंकि उनके द्वारा रोगी के प्रति अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गई थी। (ए.आई. आर. 2002 राजस्थान 104)
श्रीमति भोली देवी बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर –
इस प्रकरण में चिकित्सक द्वारा मांसपेशियों में लगाये जाने वाले इंजेक्शन को नाड़ी में लगा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। न्यायालय ने इसे सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के उल्लंघन का मामला माना और चिकित्सकों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। (ए.आई.आर. 2002 जम्मू एण्ड कश्मीर 65)
महावीर हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर बनाम अल्लादि सुवर्नाम्माँ –
इस मामले में एक शल्य चिकित्सा में चिकित्सक की लापरवाही नहीं मानकर हॉस्पीटल की लापरवाही मानी गई जिसके द्वारा घटिया उपकरणों का उपयोग किया गया जिससे वादी को क्षति कारित हुई। हॉस्पीटल द्वारा समुचित सावधानी नहीं बरती गई। (ए.आई. आर. 2005 एन.ओ.सी. 556 आंध्रप्रदेश)
सौभागमल जैन बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान –
इस मामले में बालक के जन्म के बाद महिला को पीड़ा हुई और उसकी मृत्यु हो गई। यह पाया गया कि प्रसव के बाद महिला पर ध्यान नहीं दिया गया तथा चिकित्सकों की लापरवाही से महिला का काफी खून बहा न्यायालय ने असावधानी के लिए चिकित्सकों एवं राज्य दोनों को उत्तरदायी माना । (ए.आई.आर. 2006 राजस्थान 66)
स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ बनाम गजेन्द्र सिंह –
इस मामले में मृतक का ट्यूबेक्टोमी ऑपरेशन किया गया था। दवाईयों की प्रतिक्रिया से उसकी मृत्यु हो गई। यह ऑपरेशन राज्य द्वारा आयोजित शिविर में किया गया था। जाँच में चिकित्सकों की लापरवाही पाई गई। राज्य को भी उत्तरदायी ठहराया गया। (ए.आई.आर. 2015 छत्तीसगढ़ 132)
लेकिन ऐसे अनेक प्रकरण है जिनमे प्रतिवादी को असावधानी के लिए दोषी नहीं ठहराया गया है, जिनमे बोल्टन बनाम स्टोन का मामला है, जिसमें क्षति की सम्भाव्यता अत्यन्त कम होने से प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी नहीं माना गया। इसमें वादी एक क्रिकेट स्थल के निकट राजमार्ग पर खड़ा था।
एक बल्लेबाज ने गेंद में ऐसी ठोकर मारी की वह क्रिकेट स्थल की बाड़ से 7 फीट और पिच से 17 फीट ऊंची उठकर 110 गज दूर खड़े वादी को जा लगी जिससे वह क्षतिग्रस्त हो गया। यह स्थल लगभग 90 वर्षों से क्रिकेट के लिए प्रयुक्त हो रहा था लेकिन किसी व्यक्ति को कभी कोई क्षति कारित नहीं हुई। लार्ड सभा द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि सड़क पर व्यक्तियों की क्षति की सम्भाव्यता इतनी कम थी कि इसके लिए क्रिकेट क्लब को उपेक्षा का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। (1951 ए सी 850)
मकधी बनाम नेशनल कोल बोर्ड –
इस प्रकरण में अपीलार्थी प्रत्यर्थी के यहाँ ईंटों के निर्माण का कार्य करता था। वह एक साधारण श्रमिक था। 30 मार्च 1967 को उसे ईटों के बक्सों को खाली करने का कार्य सौंपा गया। जहाँ वह काम करता था वहाँ भयंकर गर्मी व धूल थी। कुछ दिनों बाद उसे अपनी त्वचा में जलन का आभास हुआ। वह चिकित्सक के पास गया।
चिकित्सक ने त्वचा की जलन के दो कारण बताये – (i) वादी का कार्य ही रोग का कारण हो सकता है या (ii) कार्य के बाद बिना स्नान किये साईकिल पर जाना इसका कारण हो सकता है। जब यह मामला न्यायालय में गया तो यह अभिनिर्धारित किया गया कि हो सकता है कि वादी के रोग का कारण पहला नहीं रहकर दूसरा रहा हो लेकिन यह पता लगाने का कार्य प्रतिवादी का था। प्रतिवादी ने अपने कर्तव्य का उल्लंघन किया है। [(1972)3 ऑल ई.रि.1008]
इस प्रकार असावधानी (उपेक्षा) के मामले में वादी को उपरोक्त तीनों बातों को साबित करना होता है और वस्तुतः यही उपेक्षा के आवश्यक तत्व है।
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